आलेख-मँहगाई चौमास म(जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया")
बरसा के बेरा का आइस, सबे साग भाजी एक्केदरी अब्बड़ मँहगा होगे। अइसन मँहगाई करलाई ताय। सेठ साहूकार मन घलो कल्हरत दिखते, त गरीब मनके का ठिकाना। दुच्छा भाते भात घलो तो टोंटा ले नइ उतरे, तब तो एके उपाय बचथे, जइसने दाम म मिलत हे, तइसने बिसावन अउ खावन। मँहगाई के रोना रोय ले कुछु नइ होय, आखिर ये सबके जिम्मेदार हमिच मन तान। आज हम सब सुखियार होगे हवन, शहर नगर अउ कई किसम के दिखावा कस चोचला म फँस गे हवन, खेत खार कोला बारी ले दुरिहागे हवन, अउ जउन जुड़े हे, तेखर बर का मँहगाई? कथे कि प्रकृति ले जुड़े जीव के परवरिस प्रकृति खुदे करथे। गायेच गरवा मन ल देख लव, बरसात म हरियर चारा पाके मगन हो जथे।फेर आज हमर जुड़ाव सिर्फ दिखावा हे। जइसे ही बरसा के बेरा हबरथे रिकिम रिकिम के साग भाजी प्रकृति बिन माँगे परोस देथे। कतको बीजा भुइयाँ ल फोड़ के बरपेली उग जथे। मनखे बरसात म साग भाजी बर तरसथे अउ जानवर मन बरसा घरी हरसथे। एखर मतलब साफ हे कि हमला प्रकृति के साथ चलना चाही, फेर कथनी अउ करनी म फरक हे। जेन प्रकृति ले सीधा जुड़े हे, तेखर बर चिरचिर ले जामे चरोटा संग रंग रंग के भाजी पाला, करील अउ पुटू कस मुफत के साग भाजी हे। बारी बखरी म घलो खेकसी, कुंदरू कस कई किसिम के साग सब्जी उपजथे। बाजार हाट जाये के जरूरत घलो नइ पड़े। कई मनखे तो प्रकृति के ये वरदान ल भले बाजार ले बिसा लेथे, फेर टोर टार के खाये म घलो शरम मरथे।
पहली के मनखे मन चौमासा के तियारी गरमीच घरी कर लेवय। साग भाजी के खोइला संग बरी बिजौरी बना के रखय। अउ जब चौमासा लगे त, बरी बिजौरी,रंग रंग खोइला, चरोटा, पुटू,अउ करील जइसन साग भाजी ल हाँस हाँस के खाय। बरसा घरी उपजइया पुटू, करील, चरोटा जइसन जम्मो साग भाजी मन मनखे मन ल बरसा घरी होवइया जर अउ रोग राई ले घलो बचावव, तन ल तन्दरुस्त रखय। फेर आज हम सब बाजार भरोसा होगे हवन। त अइसन म बाजार के उतार चढ़ाव ल झेलेच ल पड़ही। खवैया जादा होगे हवन अउ उपजइया लगभग नही के बरोबर, त सबला पूर्ति घलो कइसे होय। तेखरे सेती जेखर कर पइसा हे, उही ह बाजार हाट अउ मँहगाई ले आंख मिला सकथे।
ऊँच ऊँच इमारत, होटल,ढाबा, मॉल,बड़े बड़े टावर, रेल पाट अउ कई लेन के सड़क, आज खेत खार अउ बारी बखरी ल हड़प लेहे। आज मनखे चाँद तारा ले गोठियात हे, अगास पताल सब ला अपन मुठा म धरत हे, कहे के मतलब विकास के रथ म सवार हे, फेर विकास के रथ बइठे बइठे पेट नइ भरे। पेट के अगिन, भात-बासी , रोटी- पीठा ले बुझाथे। प्रकृति पनप नइ पावत हे, विकास के पाँव म हरिया,परिया, तरिया, रुख राई जम्मो खुन्दावत हे। अइसन म प्रकृति खुदे बचे त मनखे ल मुफत म बाँटे। कथे कि ये हमर मानुष तन घलो माटी के आय, माटी, जंगल झाड़ी, रुख राई, जीव जंतु जम्मो के थेभा होथे, फेर आज शहरीकरण के जोर म क्रंकीट अउ सीमेंट ह, माटी के छाती उप्पर बिछत जावत हे, अइसन म माटी जेन कतको युग ल पाले हे, आज का करे। माटी म दबे बीच भात, क्रंकीट अउ सीमेंट ल फोड़ के तो नइ उग सके। माटी ल माटी रहन देय म हमरे भलाई हे। माटी ले सोन उपजथे, क्रंकीट अउ सीमेंट ले का उपजही तेला, ये नवा जमाना जाने। बिन रुख राई के धरती बोंदवा होवत जावत हे, गरमी मरे जिये बाढ़त हे, माटी नइ रही त का खेती बाड़ी,अउ बिन खेती बाड़ी के का साग भाजी, त मँहगाई तो बढ़बेच करही। विकास आज बिल्कुल जरूरी हे, फेर पेट के ठेका का सिरिफ किसाने मन ले हे? उंखरो अन्न अउ साग भाजी ल व्यपारी मन अवने पवने खरीद के, व्यपार करत हे। चाहे मनखे होय या कोनो जीव सबला खाये बर चाही , तभे जिनगी रही, एखर बर महल,मीनार, टावर,सड़क काम नइ आय। खान पान के थेभा सिरिफ खेत खार, बारी बखरी, अउ जंगल-झाड़ी आय। आज ये सब ला सिर्फ बढ़ावा देय के जरूरत नही बल्कि इंखर ले जुड़े के जरूरत हे। मनखे जंगल म घलो कांदा- कुसा, फर-फूल, साग भाजी खाके जी सकथे, फेर शहर नगर म, बिन पइसा के जीना मुश्किल हे। विकास के रद्दा म रेंगत रेंगत भूख घलो लगही, एखरो जोरा करके चलेल लगही। एखर बर जंगल झाड़ी, खेती बाड़ी ले लगाव अउ जुड़ाव, दूनो जरूरी हे। अभी तो एक समय विशेष म मँहगाई झेलेल लगत हे, यदि हम सबके झुकाव प्रकृति कोती नइ होही, त का गरमी, का सर्दी अउ का बरसा, सबे बेरा मँहगाई सुरसा कस मुख उलाये ठाढ़े रही।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
बरसा के बेरा का आइस, सबे साग भाजी एक्केदरी अब्बड़ मँहगा होगे। अइसन मँहगाई करलाई ताय। सेठ साहूकार मन घलो कल्हरत दिखते, त गरीब मनके का ठिकाना। दुच्छा भाते भात घलो तो टोंटा ले नइ उतरे, तब तो एके उपाय बचथे, जइसने दाम म मिलत हे, तइसने बिसावन अउ खावन। मँहगाई के रोना रोय ले कुछु नइ होय, आखिर ये सबके जिम्मेदार हमिच मन तान। आज हम सब सुखियार होगे हवन, शहर नगर अउ कई किसम के दिखावा कस चोचला म फँस गे हवन, खेत खार कोला बारी ले दुरिहागे हवन, अउ जउन जुड़े हे, तेखर बर का मँहगाई? कथे कि प्रकृति ले जुड़े जीव के परवरिस प्रकृति खुदे करथे। गायेच गरवा मन ल देख लव, बरसात म हरियर चारा पाके मगन हो जथे।फेर आज हमर जुड़ाव सिर्फ दिखावा हे। जइसे ही बरसा के बेरा हबरथे रिकिम रिकिम के साग भाजी प्रकृति बिन माँगे परोस देथे। कतको बीजा भुइयाँ ल फोड़ के बरपेली उग जथे। मनखे बरसात म साग भाजी बर तरसथे अउ जानवर मन बरसा घरी हरसथे। एखर मतलब साफ हे कि हमला प्रकृति के साथ चलना चाही, फेर कथनी अउ करनी म फरक हे। जेन प्रकृति ले सीधा जुड़े हे, तेखर बर चिरचिर ले जामे चरोटा संग रंग रंग के भाजी पाला, करील अउ पुटू कस मुफत के साग भाजी हे। बारी बखरी म घलो खेकसी, कुंदरू कस कई किसिम के साग सब्जी उपजथे। बाजार हाट जाये के जरूरत घलो नइ पड़े। कई मनखे तो प्रकृति के ये वरदान ल भले बाजार ले बिसा लेथे, फेर टोर टार के खाये म घलो शरम मरथे।
पहली के मनखे मन चौमासा के तियारी गरमीच घरी कर लेवय। साग भाजी के खोइला संग बरी बिजौरी बना के रखय। अउ जब चौमासा लगे त, बरी बिजौरी,रंग रंग खोइला, चरोटा, पुटू,अउ करील जइसन साग भाजी ल हाँस हाँस के खाय। बरसा घरी उपजइया पुटू, करील, चरोटा जइसन जम्मो साग भाजी मन मनखे मन ल बरसा घरी होवइया जर अउ रोग राई ले घलो बचावव, तन ल तन्दरुस्त रखय। फेर आज हम सब बाजार भरोसा होगे हवन। त अइसन म बाजार के उतार चढ़ाव ल झेलेच ल पड़ही। खवैया जादा होगे हवन अउ उपजइया लगभग नही के बरोबर, त सबला पूर्ति घलो कइसे होय। तेखरे सेती जेखर कर पइसा हे, उही ह बाजार हाट अउ मँहगाई ले आंख मिला सकथे।
ऊँच ऊँच इमारत, होटल,ढाबा, मॉल,बड़े बड़े टावर, रेल पाट अउ कई लेन के सड़क, आज खेत खार अउ बारी बखरी ल हड़प लेहे। आज मनखे चाँद तारा ले गोठियात हे, अगास पताल सब ला अपन मुठा म धरत हे, कहे के मतलब विकास के रथ म सवार हे, फेर विकास के रथ बइठे बइठे पेट नइ भरे। पेट के अगिन, भात-बासी , रोटी- पीठा ले बुझाथे। प्रकृति पनप नइ पावत हे, विकास के पाँव म हरिया,परिया, तरिया, रुख राई जम्मो खुन्दावत हे। अइसन म प्रकृति खुदे बचे त मनखे ल मुफत म बाँटे। कथे कि ये हमर मानुष तन घलो माटी के आय, माटी, जंगल झाड़ी, रुख राई, जीव जंतु जम्मो के थेभा होथे, फेर आज शहरीकरण के जोर म क्रंकीट अउ सीमेंट ह, माटी के छाती उप्पर बिछत जावत हे, अइसन म माटी जेन कतको युग ल पाले हे, आज का करे। माटी म दबे बीच भात, क्रंकीट अउ सीमेंट ल फोड़ के तो नइ उग सके। माटी ल माटी रहन देय म हमरे भलाई हे। माटी ले सोन उपजथे, क्रंकीट अउ सीमेंट ले का उपजही तेला, ये नवा जमाना जाने। बिन रुख राई के धरती बोंदवा होवत जावत हे, गरमी मरे जिये बाढ़त हे, माटी नइ रही त का खेती बाड़ी,अउ बिन खेती बाड़ी के का साग भाजी, त मँहगाई तो बढ़बेच करही। विकास आज बिल्कुल जरूरी हे, फेर पेट के ठेका का सिरिफ किसाने मन ले हे? उंखरो अन्न अउ साग भाजी ल व्यपारी मन अवने पवने खरीद के, व्यपार करत हे। चाहे मनखे होय या कोनो जीव सबला खाये बर चाही , तभे जिनगी रही, एखर बर महल,मीनार, टावर,सड़क काम नइ आय। खान पान के थेभा सिरिफ खेत खार, बारी बखरी, अउ जंगल-झाड़ी आय। आज ये सब ला सिर्फ बढ़ावा देय के जरूरत नही बल्कि इंखर ले जुड़े के जरूरत हे। मनखे जंगल म घलो कांदा- कुसा, फर-फूल, साग भाजी खाके जी सकथे, फेर शहर नगर म, बिन पइसा के जीना मुश्किल हे। विकास के रद्दा म रेंगत रेंगत भूख घलो लगही, एखरो जोरा करके चलेल लगही। एखर बर जंगल झाड़ी, खेती बाड़ी ले लगाव अउ जुड़ाव, दूनो जरूरी हे। अभी तो एक समय विशेष म मँहगाई झेलेल लगत हे, यदि हम सबके झुकाव प्रकृति कोती नइ होही, त का गरमी, का सर्दी अउ का बरसा, सबे बेरा मँहगाई सुरसा कस मुख उलाये ठाढ़े रही।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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