*जनकवि कोदूराम 'दलित' के काव्य मा बसंत-*
छत्तीसगढ़ के गिरधर कविराय के नाँव ले प्रसिद्ध जनकवि कोदूराम 'दलित' ठेठ अउ पोठ कवि आय। छत्तीसगढ़ी अउ हिंदी दूनो भाषा मा उन काव्य रचना करके साहित्य के भंडार ला बढ़ाइस। गाँव के कवि होय के सेती उँकर काव्य मा खेती-किसानी, किसान-मजदूर, चौमास, बसंत, हमर सुग्घर गाँव, सहकारिता, पशुपालन, धान लुवाई जइसन कतको ग्रामीण परिवेश के चित्र सउँहत दिखथे।
'दलित' जी जन्म 5 मार्च 1910 के अर्जुन्दा के तीर टिकरी गाँव में होइस। ग्रामीण अंचल होय के सेती खेती-खार ले बहुते नजदीक ले जुड़े रिहिस। इंकर प्रभाव कवि के काव्य में दिखाई देथे। उँकर शिक्षा अउ काव्य गुरु पीलालाल चिनौरिया जी रिहिन। 'दलित' जी हिंदी के छन्द मा छत्तीसगढ़ी कविता के रचना करे। उँकर कविता के जनमानस मा गहरा प्रभाव हे। ठेठ छत्तीसगढ़ी बोली मा होय के सेती लोगन मन कविता ला आनंद से सुने।
'दलित' जी के काव्य मा बसंत के चर्चा बहुते बढ़िया ढंग ले होय हे। प्रकृति के कुशल चितेरे कवि के बसंत ऋतु बर लिखे कविता के चर्चा करना प्रासंगिक रहही।
सर्दी के पीछू गर्मी के आगमन होना रहिथे। उँकर ले पहली बसंत ऋतु चारों कोती प्रकृति ला रंग-बिरंग के पान, फूल, फर ले सजाथे। प्रकृति बर बसंत तिहार असन हो जथे। कवि के बसंत के अगवानी करत कविता हे-
*"हेमंत गइस जाड़ा भागिस, आइस सुख के दाता बसंत।*
*जइसे सब-ला सुख देये बर, आ जाथे कोन्हों साधु-संत।"*
बसंत आइस तहन हवा के चलई मा नदिया-नरवा के पानी फरियर हो जथे। अउ पेड़-पौधा के जम्मो डारा हा हरियर रंग मा उल्होय ला लगथे।
*"जम्मो नदिया-नरवा मन के, पानी होगे निच्चट फरियर।*
*अउ होंगे सब रुख-राई के, डारा-पाना हरियर-हरियर।"*
इही समे मा बाग-बगीचा हा अमरइया मा नवा पान-पतौहा धर के लहरावत रथे। मरार मन के बारी मा साग-पान, भाजी-पाला घलो नंगत निकलथे।
*"बन,बाग, बगइचा लहलहायं, झूमय अमराई-फुलवारी।*
*भांटा, भाजी, मुरई, मिरचा-मा, भरे हवय मरार-बारी।"*
बासंती हवा मा डोलत पींयर रंग धरे सरसों मनभावन लगथे।बारी-बखरी मा आमा अउ जंगल-झाड़ी मा चार हा मउँर के पागा बाँधे दिखत रथे। हरियर-हरियर नार-बियार मन रुख मा लपटाय मया करत दिखे ला लगथे। कवि के बानगी देखव-
*"सरसों ओढिस पींयर चुनरी, झुमका-झमकाये हवयं चार।*
*लपटे-पोटारे रुख मन-ला, ये लता-नार करथयं दुलार।"*
*"मउरे-मउरे आमा रुख-मन, दीखयं अइसे दुलहा-डउका।*
*कुलकय, फुदकय,नाचय, गावय, कोयली गीत ठउका-ठउका।"*
बसंत ऋतु मा प्रकृति ला चारों मुड़ा निहारबे त आगी-अंगरा कस परसा हा अपन लाली बरन मा दहकत रथे। उँकर फूल ला देख के मन आनन्दित हो जथे। कवि परसा के चित्रण अघातेच ढंग ले करे हे-
*"बन के परसा मन बाँधे हें, बड़ सुग्घर केसरिया फेंटा।*
*फेंटा-मा कलगी खोंचे हें, दीखत हें राजा के बेटा।"*
बसंत ऋतु आये के संगे-संग महुआ अपन डारा-पाना ला झररा डारथे। अउ कुचियाके गिरना शुरु हो जथे। महुआ के रंग-रूप ला देखके कवि मोती के उपमा देवत हे। इही समे तेंदू के पाके फर खाय के मजा अलगे रथे। कवि कथे घलो-
*"मोती कस टपकयं महुआ मन, बनवासी बिनत-बटोरत हें।*
*बेंदरा साहीं चढ़ के रुख-मा गेदराये तेंदू टोरत हे।"*
बसंत ऋतु के आये के बाद प्रकृति मा नवा रंग देखे का मिलथे। येकर सुघराई मन का मोह डारथे। कवि बसंत के वर्णन अतीक करीब ले करे हे कि कविता ला पढ़त-पढ़त चित्र बने ला लगथे। उँकर काव्य मा बसंत ऋतु के चित्रण सजीव लगथे।ग्रामीण परिवेश के जानकार कवि के लेखनी मा प्रकृति बर बड़ मया भरे हे।
हेमलाल सहारे
मोहगाँव(छुरिया) राजनांदगाँव
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