महाशिवरात्रि पर्व विशेष
समरथ कहुँ नहि दोष गोंसाईं
महाराज हिमालय अउ माता मैंना दुनों झनअपन बेटी गिरिजा के बिहाव बर बड़ फिकर करँय । एक दिन नारद जी उँकर दरबार म पहुँचिन । ओमन गिरिजा के हाथ ल देखके बिचारिन अउ बतइन के , जम्मो धरती म , एकर लइक वर मिल पाना असम्भव नइये , फेर थोरकुन मुश्किल जरूर हे – अगुन ,अमान , मातु पितु हीना । उदासीन सब संशय छीना ॥ अउ - जोगी जटिल , काम , मन , नगन अमंगल दोष । अस स्वामी एहि कंह मिलहि , परी हस्त असि देख। अर्थात एकर भाग में गुणहीन, मानहीन, बिगन दई-ददा के , उदासीन , लापरवाह ,जोगी , जटाधारी , निष्काम हिरदे , नंगरा अउ अमंगल पहनइया पति हे । पर एकर पाछू घला – समरथ कहुँ नहि दोष गोंसाईं । ये मनखे समर्थ होही , जेकर इच्छा ले चंदा – सुरूज , आगी अउ गंगा समर्थ बन जही ।
अब सवाल ये आय के , समर्थ कोन ? जेकर करा ताकत हे ... या वो आय जेकर करा धन दौलत माल खजाना हे । कुछ तो समर्थ उनला घला कहिथें , जेकर म कुछु दोष नइ रहय । फेर वाजिम म समर्थ वो आए , जेकर तिर देबर कुछु दिखय निही , पर अतका देथे ... जेकर सीमा नइये । भगवान शिव ही केवल समर्थ आए , काबर उही हा अपन जीव के कुटका कुटका करके हमर देंहे म जीव के रोपण करिस , अउ हमन ला जीवन दिस । जम्मो जग म निवास करइया शिव भगवान ही अइसे देवता हरे ... जेकर अराधना उपासना .... मसानगंज तक म होथे । कुछ मानसकार मन ,चंदा - सुरूज , आगी अउ गंगा ल घला समर्थ मानथे , पर असल गोठ ये आय , एमन शिव के अंग के सिवाय अउ कुछु नोहे । शिव एकर नियंत्रक अउ स्वामी घला आए । इही मन शिव म समाए हे , तेकर सेती शिव ल शंकर घला कहिथें ।
शिव ल समर्थ केहे के अउ कतको कारण हे । जग के जम्मो विधा अउ विद्या के ईशान अर्थात स्वामी घला शिवजी आय। उही हा पंचमहाभूत के नियंता घला आय , जेकर अनुशासन ला दुनिया भर के चेतना लास्वीकारे बर परथे , प्रमाणस्वरूप -
ईशान सर्वविधानामीश्वर: सर्वभूतानाम (वेद)
ईश्वर: सर्व ईशान: शंकर चंद्रशेखर: ( उपनिषद ).
ईश्वर:सर्वभूतानां हृदयेडर्जुन तिष्ठति ( गीता)
शिव पुरान के अनुसार - ईशता सर्वभूतानां ईश्वर:स्वयँ सिद्ध अउ सर्वमान्य सच हे , अउ तुलसी के शिव – भवानी शंकर वंन्दे ,श्रद्धा विश्वास रूपिणौ । याभ्यां बिना न पश्यंति , सिद्धा: स्वांत स्थामेश्व:।
सागर मंथन ले निकले चौदह रत्न मे एक रत्न जहर रिहिस , जेकर ताप ले लोगन के हाल बिहाल होए लागिस । चारो मुड़ा हाहाकर मातगे । कोन एला अंगिया सकत हे , तेकर खोजाखोज मातगे । ब्रम्हाजी अउ विष्णु भगवान हा जानय के ... शिव के अलावा काकरो म येला अंगियाये के शक्ति सामर्थ्य नइये । जम्मो झिन भगवान शिव ल सुरता करिन । शिवजी प्रकट होके गटागट लील दिस बिषम गरल ला । वेद पुरान बड़ जस गइस । तुलसी कहिथें -
जरत सकल सुर वृंद , विषम गरल जिन्ह पान किया ।
तेहि न भजसि मतिमंद , को कृपालु संकर सरिस ।
अउ रहीम कहिथें – मान रहित विष पान करि , सम्भु भये जगदीश।
शिव के डमरू ले स्वर अउ व्यंजन के जन्म घला होइस । डमरू के प्रथम घात ले –अ , इ , उ , ल , लृ , च , अउ दूसर घात ले सामवेद के सात स्वर – सा , रे , ग , म , प , ध , नि , निकलिस ।
राक्षस मन के गुरू शुक्राचार्य , देवता मन के गुरू वृहस्पति अउ मनखे मन के गुरू वेदव्यास आय , लेकिन ये तीनो के महागुरू शिवजी आय ।
राक्षस मन के बैद्य सुखेन, देवता मन के बैद्य अश्वनीकुमार अउ मनखे मन के वैद्य धनवंतरी घला इनला महावैद्य कहिथें , अउ बिपत परे म शिव के सहारा लेथे । तभे इन ला परल्या वैद्यनाथ घला कहिथें ।
शिव के उपासना श्रृष्टि के शुरूआत ले चलत आवत हे । गाँव गँवई म गोबर लिपइया दाई बहिनी मन के मुँहू ले लिपत लिपत शिव शिव के अवाज अभू घला सुन सकथन । कपड़ा काँचत भाई - दीदी मन के मुहू ले शिव शिव के रटंत अभू घला सुने जा सकत हे । नांगर जोतत किसान अउ बरतन मांजत दाई के ओंठ फुसुर फुसुर शिव शिव जपत गाँव – खेत – खलिहान - बखरी ब्यारा म अभू घला मिल जाथें । वाजिम म हमर जीव , शिव के सबले तिर होथे , तेकर सेती स्वाभाविक रूप ले शिव के सुरता जाने अनजाने म अपने अपन होवत रहिथें । हमर सबो के इही मानना हे कि शिव के ही अंशआय हमर जीव हा , अउ येकरे सेती जीव के नाश नई होवय , तभे ईश्वर अंश जीव अविनाशी कहिथें । अउ येकरे सेती लोगन कहिथें – जीव न पैदा होवय , न मरय , एहा प्रकट होथे , आखिर म शिव म मिल जथे ।
शिवजी के ऊप्पर उदुप ले हपट के गिरके मरइया तक लाशिव जी हा मुक्ति प्रदान करथे । खुद शिवजी कहिथें - काशी मरत जंतु अवलोकी , करउ नाम बल जीव बिसोकी ।
संत मन के अनुसार ... काशी हमर देंह आय - मन मथुरा , दिल द्वारिका,काया काशी जान । दसवां द्वार देहुरा , तामें ज्योति पिछान ।
पाप , ताप अउ आवेश ले छुटकारा पाए बर , शिव के नाम के जपन करथे लोगन –
जपहु जाई सत संकर नामा , होइहि हृदय तुरत विश्रामा !
शिव के महिमा के बखान मानस मे – शिव सेवा पर फल सुत सोई , अविरल भगति रामपद होई । अउ – शिव पद कमल जिन्हहि रति नाही , रामहि ते सपनेहु न सुहाही।
वेद के अनुसार - असिति गिरि सम्स्यात कज्जलं सिंधु पात्रे । तरूवरं शाखां , लेखनी पत्र मुर्वीम । लिखित यदि गृहित्वा , शारदा सर्वकालं । तदपि तव गुणाणाम ईशं , पारं न याति।
शि अर्थात पाप नाशक , व माने मुक्तिदाता । जे हमर पाप के नाश करके हमन ला मुक्ति प्रदान करथे उही शिव आय –
शि कहते अद्य नाशक , व कहते ही मुक्ति ।
गजानंद शिव शिव कहु , प्रेम ज्ञानयुक्त भक्ति ।
श्रृष्टि ला श्रष्टा से , इडा ला पिंगला से, मैं ला तू से , अहम ला परम से , त्व ला स्वयँ से , पर ला अपर से , अलख ला लख से , चर ला अचर से , जड़ ला चेतन से मिला के जीव ल शिवत्व के बोध करइया स्वयं सिद्ध समर्थ शिव ही आय , जेमा कहींच दोष नइये । तभे शिवजी खातिर रामचरित मानस मा केहे गिस – समरथ कहुँ नहि दोष गोंसाईं ।
लेखक - हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन
छुरा
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