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*अब अउ चुप नि रहंव*
*(नानकुन कहिनी)*
चंदा बर सगा -पहुना के सोरी -डोरी लाम गय । कोन आवत हे, त कोन जावत हे । थोरकुन कमसलहा घर के बाढ़त नोनी लइका -फेर रंग -रूप , चेहरा-मुंदरा, नेत-नमूना बने रहे,तेकर सेथी ये उबड़ीक-उबड़ा होवत हें । चहा के जगहा म अब खाली पानीच पी के जावत हें सगा -पहुना मन ।
"मोर बेटी पर्री हे, येला बने बड़खा घर म दिहां ।" ददा सुखसागर कहत हे ।
"मोर बेटी के चेहरा बड़ सुघ्घर हे, येला तो कनहुँ साहेब हर विहाही ।" दई कलामति कहत रहिस , वोतकी बेरा ।
बनेच पहुना मन के आना -जाना होइस ,फेर दई-ददा टस से मस नि होइन । ये सब बीच म चंदा हर सिरतोन म पुन्नी के चंदा रहिस-परछर...निर्दोष अउ निष्पाप । अतेक कोरी -खइरखा मनखे आईंन-गिन; फेर वोहर बने जात के कोई ल भी नि देखे रहिस ।
सब के सब एक किसिम ले सरापत निकलें घर ल- उचके के हर बुचके म बोजाबे जा रे...! जब सगा -पहुना मन के अवइ हर पतरिया गय ;तब आय रहिस वो पोठ पहुना हर ...बारह ठन नांगर के किसानी,दु- मंजिला ठंनकत हवेली असन घर ;फेर दुजहा रहिस । पहिली सुआरी ल सिरवा डारे रहिस । बाल-बच्चा नई होय रहिस । पूछे ल तो जर -जुड़ के नांव धरथे, सिरतोन म काये, तउन ल तो देव जाने ।
ददा के मन आ गे तब दई के घलव मन आ गय । दुजहा ये, त का होइस -सातों सपूरन हर तो भरे -बोजाय हे । चंदा जाके महारानी बनही महारानी ...! वोइच दिन पुरोनी असन एकठन अउ सगा आ गय । सधारण घर दुआर नून -पसिया वाला । फेर चंदा हर येला देखिस कि देखे बर लागिस , फेर देख डारिस । न कछु मान न कछु सम्मान ...तभो ले वो वपुरा मन अपन कोती ल पसंद कर के घर -वर देखे बर बलाइच दिन । वइसन पहिली वाला पोठ फेर दुजहा पहुना हर घलव बला देय रहिस ।
अब तो रात के घरू -गुड़ी म चंदा के जीवन के फैसला होवत रहिस ।काल वो पोठ सगा दुआरी जाना हे अउ बेटी हार के आना हे ।
वो घरू बैठक जगहा म चंदा आ गिस , तब सबके कान खड़ा हो गय । इया ! ये येकरा कइसन ...?
"ददा , मैं अब अउ चुपे रईहां तब नि बनत ये ।" चंदा मजबूत स्वर म कहिस ।
"कइसे का हो गय बेटी !" ददा सुखसागर कहिस ।
"मोला ये पाछू जउन सगा आय रहिस ,उहें दे दे ।"
"टुरी बाड़ी...!ये काय कहत हस...!!"दई तो चमक के उठ ठाढ़ हो गय ।
"कइसे बेटी का हो गय , का देख डारे तँय...?"
" भूख अउ प्यास...!"
"ये का बकत हस ?"
" ददा , तोर पोठ सगा के आँखी म भूख हे मोर बर अउ ये पाछू वाला सगा के आँखी म मोर बर पियास दिखिस ।"
"वाह...! चार क्लास पढ़ डारे हस ,तव तोर गोठ हर घलव पोठ होवत हे ।" दई
हर तो अबले घलव झरझरात रहिस ।
"हाँ, ददा मंय कनहुँ भुखाय जानवर असन के मुख म जाके वोकर शिकार नि बनना चाहत हंव । मंय तो शीतल जल बनके भले ही काकरो पियास ल बुझा डारिहां ।" चंदा के मुँह हर तो अब खुल गय रहिस ।
"बेटी ..."ददा हर तो अब बस अतकिच कहे सके रहिस ।
"दई, तँय नराज झन हो । मोला जादा उम्मर के धनी-मानी ल झन दे । गरीबहा फेर जहुँरिया ल दे । जहुँरिया के संग मैं कनहुँ करा जी -खा लहाँ...कोइलारी-बंडी चल देबो, महल-दुमहला के जगहा म रेहुँटी-तंबू म काट लेबो ।" चंदा जइसन अपन मन के बात खोल के बता दिस ।
"बस...बस बेटी बस ...! हमन तोर दुश्मन नोहन ! तँय जइसन चाहत हस, ठीक वईसनहेच होही ।" येहर ददा के फैसला रहिस ।
*रामनाथ साहू*
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