खैरझिटिया: छेरछेरा पुन्नी के मूलमंत्र
कृषि हमर राज के जीविका के साधन मात्र नोहे, बल्कि संस्कृति आय, काबर कि खेती किसानी के हिसाब ले हमर परब संस्कृति अउ जिनगी दूनो चलथे। उही कड़ी के एक परब आय, छेराछेरा। जे पूस पुन्नी के दिन मनाय जाथे। ये तिहार ला दान धरम के तिहार केहे जाथे। वइसे तो ये तिहार मानये के पाछू कतको अकन किवदंती जुड़े हे, फेर ठोसहा बात तो इही आय कि, ये बेरा मा खेत के धान(खरीफ फसल) लुवा मिंजा के किसान के कोठी मा धरा जावत रिहिस, उही खुशी मा एक दिन अन्न दान होय लगिस, जेला छेरछेरा के रूप मा पूरा छत्तीसगढ़ मनाथें। हमर छत्तीसगढ़ आदिवासी बहुल राज हरे, येती छेराछेरा परब ला, घोटुल मा रहिके सबे विधा मा पारंगत होय, युवक युवती मनके स्वागत सत्कार के रूप मा मनाये जाथें, अउ दान धरम करे जाथें। पौराणिक काल मा इही दिन,भगवान शिव के पार्वती के अँगना मा भिक्षा माँगे के वर्णन मिलथे। सुनब मा आथे कि भगवान शिव अपन विवाह के पहली माता पार्वती तिर नट के रूप धरके उंखर परीक्षा लेय बर गे रिहिस, अउ तब ले लोगन मा उही तिथि विशेष मा दान धरम करत आवँत हें।
ये दिन ले जुड़े एक पौराणिक कथा अउ सुनब मा मिलथे, कथे कि एक समय धरती लोक मा भयंकर अंकाल ले मनखे मन दाना दाना बर तरसत रिहिन, तब आदि भवानी माँ, शाकाम्भरी देवी के रूप मा अन्न धन के बरसा करिन। वो तिथि पूस पुन्नी के पबरित बेरा पड़े रिहिस। उही पावन सुरता मा, माता शाकाम्भरी देवी ला माथ नवावत, आज तक ये दिन दान देय के पुण्य कारज चलत हे। भगवान वामन अउ राजा बली के प्रसंग घलो कहूँ मेर सुनब मा आथे।
रतनपुर राज के कवि बाबूरेवाराम के पांडुलिपि मा घलो ये दिन के एक कथा मिलथे, जेखर अनुसार राजा कल्याणसाय हा, युद्धनीति अउ राजनीति मा पारंगत होय खातिर मुगल सम्राट जहाँगीर के राज दरबार मा आठ साल रेहे रिहिस, अउ इती ओखर रानी फुलकैना हा अकेल्ला रद्दा जोहत रिहिस। अउ जब राजा लहुट के आइस ता ओखर खुशी के ठिकाना नइ रिहिस, रानी फुलकैना मारे खुशी मा अपन राज भंडार ला सब बर खोल दिस, अउ अन्न धन के खूब दान करें लगिस, अउ सौभाग्य ले वो तिथि रिहिस, पूस पुन्नी के। कथे तब ले ये दिन दान धरम के परम्परा चलत हे।
कोनो भी तिथि विशेष मा कइयों ठन घटना सँघरा जुड़ सकथे, जइसे दू अक्टूबर गाँधी जी के जनम दिन आय ता शास्त्री जी घलो इही दिन अवतरे रिहिन, दूनो के आलावा अउ कतको झन के जनम दिन घलो होही। वइसने पूस पुन्नी के अलग अलग कथा, किस्सा, घटना ला खन्डित नइ करे जा सके। फेर सबले बड़का बात ये तिथि ला, दान पूण्य के दिन के रूप मा स्वीकारे गेहे। अउ दान धरम कोनो भी माध्यम ले होय, वन्दनीय हे। छेराछेरा तिहार मा घलो वइसने दान धरम करत,अपन अँगना मा आय कोनो भी मनखे ला खाली हाथ नइ लहुटाय जाय, जउन भी बन जाये देय के पावन रिवाज चलत हे, अउ आघु चलते रहय। ये परब मा देय लेय के सुघ्घर परम्परा हे, छोटे बड़े सबे चाहे धन मा होय चाहे उम्मर मा आपस मा एक होके ये परब मा सरीख दिखथें। लइका सियान के टोली गाजा बाजा के संग सज सँवर के हाँसत गावत पूरा गांव मा घूम घूम अन्न धन माँगथे, अउ सब ओतके विनम्र भाव ले देथें घलो। छेरछेरा तिहार के मूल मा उँच नीच, जाति धरम, रंग रूप, छोटे बड़े, छुवा छूत,अपन पराया अउ अहम वहम जइसे घातक बीमारी ला दुरिहाके दया मया अउ सत सुम्मत बगराना हे। फेर आज आधुनिकता के दौर मा अइसन पबरित परब के दायरा सिमित होवत जावत हे। बड़का मन कोनो अपन दम्भ ला नइ छोड़ पावत हे, मंगइया या फेर गरीब तपका ही माँगत हे, अउ देवइया मा घलो रंगा ढंगा नइहे। *एक मुठा धान चाँउर या फेर रुपिया दू रुपिया कोनो के पेट ला नइ भर सके, फेर देवई लेवई के बीच जेन मया पनपथे, वो अन्तस् ला खुशी मा सराबोर कर देथे। एक दूसर के डेरउठी मा जाना, मिलना मिलाना अउ मया दया पाना इही तो बड़का धन आय। छेरछेरा मा मिले एक मुठा चाँउर दार के दिन पुरही, फेर मिले दया मया, मान गउन सदा पुरते रइथे।* इही सब तो आय छरछेरा के मूलमंत्र। कखरो भी अँगना मा कोनो भी जा सकथे, कोनो दुवा भेद नइ होय। फेर आज अइसन पावन परम्परा देखावा अउ स्वार्थ के भेंट चढ़त दिखत हे, शहर ते शहर गांव मा घलो अइसन हाल दिखत हे। ये तिहार मा ज्यादातर लइका मन झोरा बोरा धरे, गाँव भर घूम अन्न धन माँगथे, सबे घर के एक मुठा अन्न धन अउ मया पाके, उंखर अन्तस् मा मानवता के भाव उपजथे, उन ला लगथे, कि सब हम ला मान गउन देथे, छोटे बड़े,धरम जाति, ऊँच नीच, गरीब रईस सब कस कुछु नइ होय, अइसनो सन्देशा घलो तो हे, ये परब मा। छोट लइका मनके मन कोमल होथे, दुत्कार अउ भेदभाव देखही सुनही ता निराश हताश तो होबे करही।
छेरछेरा अइसन पबरित परब आय जे गांव के गांव ला जोड़थे, वो भी सब ला अपन अपन अँगना दुवार ले, दया मया देवत लेवत अन्तस् ले, दान धरम ले या एक शब्द मा कहन ता मनखे मनखे ले। ये खास दिन मा जइसे माता पार्वती अँगना मा नट बन आये शिव जी ला सर्वस्व न्योछावर कर दिन, राजा बली भगवान वामन ला सब कुछ दे दिस,माँ शाकाम्भरी भूख प्यास मा तड़पत धरतीवासी ला अन्न धन ले परिपूर्ण कर दिस, रानी फुलकैना अपन परजा मन ला अन्न धन दिस, अउ किसान मन अपन उपज के खुशी ला थोर थोर सब ला बाँटथे, वइसने सबे ला विनयी भाव ले अपन शक्तिनुसार दान धरम करना चाही। लाँघन, दीन हीन के पीरा हरना चाही, अहंकार दम्भ द्वेष, ऊँच नीच ला दुरिहागे सबे ला अपने कस मानत मान देना चाही, मया देना चाही।
*दान धरम अउ मया पिरीत के तिहार ए छेरछेरा।*
*मनखे के मानवता देखाय के आधार ए छेरछेरा।*
जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
[1/13, 12:28 PM] jeetendra verma खैरझिटिया: छेरछेरा अउ डंडा नाच
डंडा नाच हमर छत्तीसगढ़ के प्रमुख नाच मा शामिल हे। जेला अधिकतर पूस पुन्नी याने छेरछेरा के समय मा नाचे जाथे। ये नाच मा मुख्यतः धँवई या तेंदू के छोट छोट डंडा के प्रयोग होथे, काबर कि एखर लकड़ी मजबूत अउ बढ़िया आवाज करथे। डंडा के आवाज के ताल मा ही नचइया मन गोल घेरा मा घूम घूम एक दूसर के डंडा ला एक निश्चित लय ताल मा बजाथें, अउ कमर मुड़ी ला हला हला के झुमथें। कुहकी पारना घलो डण्डा नाच के विशेषता आय। आजकल डंडा के संग ढोलक,झांझ अउ मन्जीरा तको ये नाच मा देखे बर मिलथे। ये नाच के एक विशेष लय ताल युक्त गीत होथे। डंडा नाच ला मुख्य रूप ले लड़का मन द्वारा किये जाथे। ये नाच मा लगातार घूम घूम के नाचे अउ डंडा टकरावत गीत ला दोहराए बर घलो लगथे। जब किसान मन के खेत के धान घर के कोठी मा धरा जथे ता दान पुण्य के ओखी मा मनाए जाथे छेरछेरा के तिहार, अउ इही बेरा घर घर जाके डंडा नाचत लइका सियान मन अन्न के दान पाथें। हमर छत्तीसगढ़ मा होरी के समय घलो डंडा नाचे जाथे, जेला डंडारी नाच कहिथे, फेर दुनो नाच अलग अलग बेरा व अलग अलग हावभाव के नाच आय। डंडारी विशेषकर पहाड़ी क्षेत्र मा होली के बेरा नाचे जाथे। मैदानी भाग मा डंडा नाच अउ पहाड़ी भाग मा इही सैला नृत्य कहे जाथे। जनश्रुति के अनुसार आदिवासी मन आदि देवाधिदेव महादेव ला मनाए बर येला नाचथे ता मैदानी भाग मा भगवान श्रीकृष्ण के रास नृत्य के रूप मा नाचे गाये जाथे। आदिवासी मन येला अपन पारम्परिक नृत्य मानथे। सुनब मा यहु आथे कि एखर शुरूवार राम रावण युद्ध के बाद राम विजय के समय आदिवासी मन राम जी के स्वागत मा नाचिन, ता कहूँ कहिथे के एखर शुरुवात कृष्ण के रास लीला के समय होइस। ये नाच मा राम कॄष्ण के गीत के संग संग शुरुवात मा भगवान गणेश, मां सरस्वती अउ गुरु वन्दना करे जाथे। पंडित मुकुटधर पांडेय जी हा ये नृत्य ला छत्तीसगढ़ के "रास नृत्य" घलो कहे हे। कतको झन मन एला छत्तीसगढ़ के डांडिया घलो कहिथे।
डंडा नाच मा समयानुसार साज सज्जा मा बदलाव होवत दिखथें। पहली धोती कुर्ता, कलगी, पागा,मोरपंख, कौड़ी, घुंघरू नचइया मनके सँवागा रहय, जे पारम्परिक रूप ले अभो दिखथे, फेर आजकल सुविधानुसार नचइया मन अपन अपन सँवागा के व्यवस्था करथें। ढोलक,झांझ मंजीरा संग मांदर, हारमोनियम,बासुरी व अन्य कतको वाद्य यंत्र आज डंडा नाच के शोभा बढ़ावत दिखथे। नाचा पार्टी या फेर हमर संस्कृति संस्कार ला देखाय के बारी आथे ता ये नाच ला कभू भी कलाकार मन मंच के माध्यम ले लोगन बीच परोसथे। नाच के बीच परइया कुहकी ला कइसे लिख के बतावँव? उह उह एक लय मा अउ एक विशेष बेरा मा नचइया मन एक साथ चिल्लाथें। देखत सुनत ये नाच बड़ मनभावन लगथे। आजकल डंडा नाच मा कतको प्रकार के करतब तको कलाकार मन करत दिखथें। आजकल बांस के डंडा घलो चलन मा आगे हे। डंडा नाचे बर सम संख्या मा नर्तक होथे, जिंखर दुनो हाथ मा एक एक डंडा होथे। गोल घेरा मा डंडा ला दाएं बाए नाचत साथी मनके डंडा ला ठोंकत ये नृत्य ला करे जाथे।
वइसे तो डंडा नाच मा बड़ अकन गीत गाये जाथे, सबके वर्णन करना सम्भव नइहे, तभो कुछ पारम्परिक गीत ला लमाये के प्रयास करत हँव। सुमरनी ले ये नृत्य चालू होथे। गणेश वंदना, सरस्वती वंदना, रामकृष्ण अउ माता पिता गुरु के वन्दना घलो ये नृत्य मा सुने बर मिलथे।। सुमरनी गीत के एक बानगी,---
'पहिली डंडा ठोकबो रे भाई, काकर लेबो नाम रे ज़ोर,
गावे गउंटिया ठाकुर देवता, जेकर लेबो नाम रे ज़ोर।
आगे सुमिरो गुरु आपन ला, दूजे सुमिरों राम रे ज़ोर,
माता-पिता अब आपन सुमिरों गुरु के सुमिरों नाम रे ज़ोर।'
कुछ अउ गीत, ज्यादातर गीत के शुरुवात "तरीहरी नाना रे नाना रे भाई" काहत चालू होथे, जेखर बीच मा कहानी, कथा अउ बारी बखरी, खेती-खार संग परब तिहार के वर्णन रहिथे।
1, "एकझन राजा के सौ झन पुत्र,
उनला मँगाइस हे मुठा मुठा माटी।"
2, ओरिन ओरिन मुनगा लगाएंव।
वो मुनगा फरे रहे लोर रे केंवरा,
तैं डँगनी मा मुनगा टोर।
3, मन रंगी सुआ नैना लगाके उड़ भागे।
उड़ि उड़ि सुवना, घुटवा पे बइठे।
घुटवा के रस ला ले भागे, मन रंगी
4, मैं बन जा रे लमडोर,
नेकी मैं बन जा।
5, हाय डारा लोर गे हे न।
6, तहूँ जाबे महूँ जाहुँ, राजिम मेला
ये सब पारम्परिक गीत के आलावा आजकल नवा नवा गीत भी देखे सुने बर मिलथे।
डंडा नचइया मन दुनो हाथ मा डंडा लेके, गोल किंजरत अलग अलग प्रकार के डंडा नाचथे। डंडा नाच के कतको प्रकार हे, एखर बारे मा हमर पुरखा कवि डॉ प्यारेलाल गुप्त जी मन अपन पुस्तक "प्राचीन छत्तीसगढ़"मा घलो विस्तार ले लिखें हें। गुप्त जी अनुसार दुधइया नृत्य, तीन डंडिया, पनिहारिन सेर, कोटरी झलक, भाग दौड़, चरखा भांज आदि कतको रूप प्रचलित हे। एखर आलावा सियान मन आधा झूल, टेटका झूल,पीठ जुड़ी, समधी भेंट, घुचरेखी आदि प्रकार के डंडा नाच के बारे मा घलो बताथे। ये सब नाच ल नाचे के अलग अलग तरीका हे, कहे के मतलब सबके अलग अलग परिभाषा हे,नाच शैली हे। जेखर विस्तार मा चर्चा फेर कभू करहूँ।
जीतेंद्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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