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*कुंभ मेला के अवसर म लिखे गय कहानी।ये कथा के पाठ साहित्य अकादमी छत्तीसगढ़ी गुजराती सम्मेलन म करे गय रहिस*
*गति-मुक्ति*
*(छत्तीसगढ़ी कहिनी)*
मानसाय अठ बोधराम दूनो बइठे- बदे मितान तो नई फेर वोकर से काँही जादा मितानी ला मनइया जीव रहिन। फेर समय के संग म सब्बो जिनिस मा लोहा कस जंग लग जाथे। वोमन के संबंध हर अब पहिली कस खर नई ये ।अब अपन कमावत है, अपना खावत हे।हफ्ता-पंद्रह दिन मा कोंहो जगहा ठेसा- टकरा गइन त दू पद गोठ बात निकल गय नहीं त अब कोई मतलब नइये काकरो से कोनो ल...।
" अरे जावन दे न वोमन ला कुम्भ मेला देखे बर परयाग राज... । अरे भई, जेकर रहही तेहर नई जाही का। हमरो रथिस त
हमू मन जाथेन...।" मानसाय अपन परानी धरमिन ला किहिस जऊन हर अभीच्चे खोल कोती ला आके ये गोठ ला अपन गोसान
मानसाय ला बताय रहिस के उन्कर मितान मन कुँभ मेला चल दिन।
धरमिन कुछु नई कही। बहिरी ला घर के अभी-अभी बहराय घर ला फेर बाहरे लागिस जाने- माने वोहर वो गोठ ला बाहर के
निकाले के कोसिस करत रहीस फेर वोला अब ले घलो भाँय-भाँय लागत रहिस, काबर के जाये को तो वोहू मन के मन रहिस। अउ
अइसन नइये के मानसाय हर कोहो लेढुवा- थेथवा ये जेहर अपन कुटुम परिवार ल बोधराम कस प्रयाग के दरसन करा के नइ लाने सकिही। असल गोठ रहे... पूछ... पूछारी के। अतकी चलत रहेन अऊ चलत घलो हावन तव मितान अउ मितानिन कोंहो एको पद
कम से कम बात जीते बर घलो नइ कहिन के चला संग मा... कहि के। वोमन ये गोठ ला बरोबर जानत हे के संग मा जाय ले मानसाय
अऊ वोकर परिवार हर कभु काकरो बर बोझा नइ होवय । वोहर खुद आने के बोझा ला उठाये हे... तन, मन अऊ धन ले घलो ।
पहिली मानसाय घलो पूरा परिवार सहित कुंभ मेला देखे जाये के मन बना डारे रहीस...। बारा-बच्छर मा एक पईत तो होथे। अभी नइ जाय पाबे त अवइया आगु बारा बच्छर ले कोन जीयत हे के कोन
मरत है, का पता? फेर मितान बोधराम के परिवार के पहिली जवई ल सुनके वोकर मन हर थोरकुन खिन हो गये काबर के दुनो परिवार के का....पूरा गाँव भर के पंडा तो वोईच्च महराज आय अऊ बोधराम हर ही काबर गाँव के कोंहो भी प्रयाग राज जाही तेहर
वोकरेच्च डेरा मा जाके रहही।
" देखे... धरमिन.... देखे ! मैं हर गुनत रहें के काली वोमन के घर जाके कुंभ असनान करे जाय के सझ मढ़ाबो...। अऊ एती वोमन कहिन न बोलिन... अऊ उदुप ले निकल गईन।" मानसाय धरमिन ला साखी देवत कहिस। धरमिन घलो बाहिरी ला छोड़ के
वोकर तीर मा आगिस, अऊ कहिस... "संग मा जाये बर कहथिन तब फिर पा के ले जाय बर लागथिस नीही हमन ला। वोकरे सेथी
नइ कहिन होंही।"
मानसाय धरमिन के गोठ ला सुनिस तव हाँस भरिस वोहर कहिस कछु नहीं अऊ उठके वो जगहा ला कोठा मा आ गय। कोठा म बंधाय गाय-बइला मन मा एकठन आनंद आ के समा गय काबर के मानसाय हर गाय- गरू मन ल अब्बड़ मया करय। आजो भी कोठा मा जाके बारी-बारी ले वोहर गरूवा मन के घेंच ला समारे के सुरू कर देय रहिस। मानसाय हर ये गाय- गरू मन के मंझ म आके अपन रिस-पित्त ल भुला जावय। आज घलो इहाँ आके वोला बने लागत रहिस। ये
पोटरु बछवा हर तो हाथ ल चाँटत चाँटत चाबे असन कर दे रहिस।
बोधराम परिवार ला कुंभ मेला गय आज पाँचवा दिन ये। कोन जानी वोती का होवत हे तउन ल फेर आज इहाँ तो पोट्ठ अकरासी पानी गिरे है। अकरासी पानी माने बिन मउसम बरसात.. करा.. पानी.....
धुल - धक्कड़... आँधी तूफान...। पानी अतेक गिरे हे के लागत है हफ्ता भर... नंगराही चलही अवार मा। दून वर तो पंद्रहा दिन ठीक
रहही चल हमर बर येही कासी परयाग ये... धरमिन... कहत मानसाय अपन नाँगर बइला ला लेके खेत कोती निकल गय। मितान के
वेवहार अउ येती अकरासि पानी मा खेत ला जोते के लोभ दूनो के दूनो वोमन के कुंभ मेला जाये के जोम ला बिगाड़ दिन। धरमिन तो
पहिलीच ले ये मेला -ठेला के झेल-झमेला ला एको नइ भावे फेर कुंभ मेला हर नाचा-गाना वाले मेला तो होइस नीही येहर तो गति -मुक्ति के परब ये कहिके वह वोहर जाय बर तियार हो गय रहिस। चला बने हरू लागिस हे... धरमिन मने मन मा कहत हाँस परिस।
हफ्ता भर नाँगर के चले ले ये दे सबो खेत हर जोता गय अवार। दून तो कभू भी गड़ही अभी तो धरती अतेक कुँवर हे के दू-चार दिन अवार जोत अउ हो सकत है।
"ये ! अब अउ नाँगर- बइला ले के कहाँ जावत हव!"धरमिन अबक्क होके अपन गोसान कोती ला देखे लागिस जउन हर आन दिन कस नाँगर अठ बईला ला निकालत रहिस।
"'मितान के कोसमाही डोली... उहें आबे कलेवा पानी पसिया लेके...।" मानसाय आँखी ला मिचकावत कहिस वोला ।
"कहे हावें वोहर तुँहला?"
"नइ कहें ये तब ला का होइस। काहीं मैं वोमन ले पाछू झन हो जाँव। गंगा असनान वर आज खास दिन आय। आज साही-असनान ये। वोमन बुड़की लेवत तोर-हमर बर जरूर नाँव धरके बुड़की लीही।मितान कहही... हे गंगा मइया... ये बुड़की हर मोर मितान बर ये मितानिन कहहीं.. ये बुड़की मोर मितानिन वर ये... ।अउ.. अउ... येती मैं... ?"
धरमिन उदित नरायन सुरूज भगवान के अंजोर ले दप-दप करत अपने गुंसान के चेहरा ल देखिस फेर मुचकावत कहिस- "
चला अगुवावा मैं कलेवा घर के आतेच्च हों।"
*रामनाथ साहू*
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