[1/30, 10:56 PM] धर्मेंद्र निर्मल: चुनई तिहार
चुनई चक्रवात के सक्रिय होए ले पूरा प्रदेस के जन समुंदर म चारो मुड़ा चुनावी लहर फइल गे हे। जेती देखबे तेती खाली चुनई के गोठ-बात चले लगिस। मानसून के आये ले किसान कनिहा म धोती ल कड़िक के बाँध लेथे। कछोरा ल भीड़के तियार हो जथे। बाँध-भीड़के खेती-बारी के जोखा मढ़ाए लगथे। नाँगर-बक्खर ल छोल-चाँच के तियार करथे। उही किसम पगरइत मन अपन झक सफेद पैजामा-कुर्ता ल निकाल डरिन। चुक-चुकले धो-धा डरिन। पानी परे फफोलाए -भरभराए भिथिया कस बिन पानी के अपन देंहे ल लीप-बरंड, पोत-चिकना डरिन। करिया मन के ओग्गर देह म उज्जर-उज्जर सँवागा ओरमाए लगिन।
पीछु चुनाव के जीते-हारे दूनो किसम के पगरइत मन के कनिहा-कुबर हँ अब नवे-झुके ल धर ले हे। पाँच-पाँच साल ले फूल माला के लदई म कतेक दिन ले अँकड़े-ठढ़िहाए रहिही। एक न एक दिन तो झुकेच् ल परही। झुके-झुके के घलो मुहुरत होथे। भगवान घलो मुहुरत-मुहुरत के हिसाब से नवे-झुके के फल देथे।
हारे पगरइत मन सत्ता-सुख के दुख-चिंता म दुबरा-सिकुड़के नवथे ।
जीते पगरइत-मंतरी मन दूध सिराए के बाद बाचे-खुचे करौनी चाँटे के चक्कर म नवथे-झुकथे।
कोन्टा के खूँटी म टँगाए गाँधी टोपी हँ मेचका कस ‘पिच्च ले’ कूदके उन्कर मुड़ म माढ़े लगे हे, थोथना के सोभा बढ़ाए लगे हे। उन्कर कान के मूँदाए छेदा ले कनघऊवा निकल गे हे। जेकर ले अब उन ल जनता के फुसुर-फासर गोठ-बात ‘फरी-फरा’ सुनाए लगे हे। ‘बरी-बरा’ जनाए लगे हे। उन अब उही बरा अउ बरी ल मिंझारके ‘बराबरी’ के गोठ फोर-फारके फरर-फरर, फरी-फरी गोठियाए लगे हे।
मानसून के आए ले सिरिफ किसान भर के मन नइ सरसरावय। प्रकृति के जम्मो प्रानी ऊपर एकर बरोबर प्रभाव परथे।
चुनाव हँ घलो एकठन मानसूने हरे। चुनाव के आए ले पगरइत अउ पाल्टीच् वालेमन भर जोड़-तोड़, गुना-भाग नइ करय। किसान-धनवान, बयपारी-गुनवान, लइका-सियान जम्मो अपन-अपन गनित ल बइठारे लगे हे।
बरखा के आए ले जइसे किसान का करत हे ? नाँगर जोतत हे के परहा लगावथे, के निंदई-गुड़ई करत हे। ये सबले ओला का नफा-नुकसान होवइया हे ? ओकर ले बतर अउ कनकट्टा कीरा मन ल कोनो मतलब नइ रहय। उन ल तो जेती अंजोर दीखिस ओती झपाना हे।
ओइसने लइकामन होथे। लइकामन बतर अउ कनकट्टा ले कम नइ होवय । चुनाव ले कोन ल का फायदा हे, कोन ल का नुकसान ? एकर ले उन ल का मतलब ? उन ल तो रंग-बिरंगी फोटू, झंडा, बेनर अउ पोंगा टँगाए गाड़ी देखिन ताहेन ‘बोट-बोट’ कहत चिल्लावत गाड़ी के पीछू दऊड़ना हे। जेन पाल्टी के गाड़ी देखिन। जेन छाप के परची पाइन। उही छाप के नाँव लेके चिचियाना हे।
उम्मीद्वारे कहूँ लइका मन के बीच परगे त, झन पूछ ! कोनो बैट-बाल माँगथे। कोनो बैंड-बाजा माँगथे। उम्मीद्वारे के बेंड बज जथे। नइ देही माने नाक कटाही । नकटा के नौ नाँगर चुनई के बाद भले फँदाही, फेर अभीन कहाँ जाही ? डार के चुके बेंदरा, असाड़ के चुके किसान कस हाल उम्मीद्वार मन के हो जथे।
चुनई के चुके पगरइत, सत्ता के चुके पार्टी दूनो के कुकुरे गत होथे ।
जइसे बोंबे तइसे लूबे। पाँच साल ले बइठे-बइठे कुटुर-कुटुर कतर-कतर काला खाबे। तुरत दान महा कल्यान बाबू ! अभीन बाँट, ताहेन चाट खाबे चाँट-चाँट।
बिचारामन लइकन ले उबरथे ताहेन सियान मन घेर-धर लेथे। सियान मन के गनित अउ भारी रहिथे । सियानमन फोकटइहा घाम म बइठ के थोरे चुँदी ल पकोए-पँड़रियाए होथे। चुनाव हँ अभीन के बात तो नोहय, जेन ल नइ जानही-समझही । उन तो रोजे देखत-सुनत-गुनत, मुड़ धुनत जिनगी के पहाड़ ल फोरत-पहावत आवत हे।
ये डारा ले वो डारा बेंदरा कस कोन कूदथे ? सत्ता वाले सही करय चाहे गलत, विपक्षी के काम भूँकई रहिथे। चुनाव ये। पाँच साल ले आ मोर कटाए अँगरी म मूत कहिबे त इन नइ मूतय। अभी तोर गोड़ के धूर्रा ल रपोटे- चाँटे बर गिरत-अपटत दऊड़त हे।
जनता के मन घलो चुनई के दिन-बादर ल करियावत-उमड़त-घुमड़त देखके मँजूर कस पाँखी आसरा ल लमाए-छितराए उमर-घुमरके नाचे लगिस। चुनाव आइस त उन्करो कईठन माँग हँ बिला ले निकलके डोमी साँप कस फन फइलाए लगिस।
जे आदमी बाप पुरखा बोतल नइ देखे-सुँघे रिहिस, तेनो ल बोतल वाले टॉनिक के चुलूक लगे लगिस। जेन हँ बाकी बेरा म ले-लेके पीयत रिहिस तिन्कर तो चुनाव हँ तिहारे ये। ओमन रोज उही म आँखी धोवत हे अउ जूठा मुँह अचोवत हे।
जेन घर म पियाग नइ हे उन्कर घर मिठई के डब्बा पहुँचत हे। घर- घर साड़ी पहुँचत हे। कतकोन घर नोट के गड्डी दूर देस के मतलबिया अनचिन्हार सगा कस पता-ठिकाना पूछत-सोरियावत पहुँचे लगे हे। न रासन के चिन्ता, न पानी के फिक्कर ।
जनता के बीच कतको मनखे मलाज मछरी ले आवय न जाय। एक ठन मलाज मछरी होथे। जेकर मुँह डिक्टो साँप अउ पूछी हँ मछरी बरोबर होथे । साँप आथे त मलाज अपन मुड़ी ल बाहिर निकाल देथे। साँप् हँ मलाज ल सगा समझके अनते रेंग देथे। न डरवावय न कुछु करय। मछरी आथे त मलाज हँ पूछी ल हलू-हलू हलाके देखा देथे। मछरी मन मछरी समझ लेथे। न डर्रावय न कुछु करय।
खग जानय खग ही के भाखा।
मलाज मछरी के ये चक्कर, चलाकी अउ चरित्तर ल ढीमरेच मन जानथे ।
अइसन मनखे मन जेन उम्मीद्वार आथे ओला इहीच् कहिथे-
‘हम तो तोरेच् अन।’
ओकर से कुछु ले के बिदा कर देथे। दूसर उम्मीद्वार आथे, त कहिथे-‘हम तो तोरेच्च् अन।’
ओकरो से कुछू लेके उहू ल बिदा कर देथे। अइसने कहि-कहिके एक मनखे कतको उम्मीद्वार ल निपटा डरथे।
उम्मीद्वारो मन ये बात ल समझथे। उहूमन जनता बर चारा फेंके रहिथे। जेमा जनता फँस के बयकूप तो हावैच्चे, बिचारा तको हो जथे।
जेमन मलाज कस दूनो मुड़ा रेंगथे, तेमन चुनई के राहत ले छकल-छकल खूब मजा उड़ाथे। उन्कर बीसो अँगरी दारू अउ बत्तीसो दाँत समोसा-मिच्चर म होथे।
पाल्टी ले जुड़े मनखेमन हँ दुरिहा म खड़े चुचुवावत चुँहू देखत रहि जथे। ओमन झंडा के डंडा ल धरे-पोटारे भर बर पाथे। उही ल हलावत लुहुंग-लुहुंग किंदरत रहिथे। काबर के उन्कर घर अपन पाल्टीवाले ये कहिके नइ जावय कि हमला छोड़के आखिर जाहिच् कहाँ - बयकूप हे ? अउ दूसर पाल्टी के उम्मीद्वार ये सोचके नइ जावय के येहँ तो हमला बोट देबेच् नइ करय- गरकट्टा हे।
धोबी के कुकुर घर के न घाट के। गंगा नहा डरथे पतरी ल चाँट के।
चुनई के असली मजा तो चमचेच् मन उड़ाथे। पाल्टी ले खरचा पानी मिलथे। प्रचार-प्रसार बर गाड़ी मिलथे। प्रचार के गाड़ी म ओमन ठसन से जंगल सफारी घूमथे। सवारी डोहारथे। खरचा-पानी मिलथे ओमा अपन घर के खरचा चलाथे। अपन पेट के आँत-नाली म पेट्रोल-पानी पलोथे अउ पलथे-पालथे।
कतकोन उम्मीद्वार चुनई म फार्म भरे बर तो भर देथे। कोनो बइठे बर कहिथे त ‘सुट्ट-ले’ सौदा पटा लेथे। भरे परचा ल भर-रपोटके के सटर-पटर उठा लेथे। सौदा के रकम अलग अउ पाल्टी के अलग। दूनो ल गठियाके पछीत कोती दबा-चपकके बइठ जथे। उन्कर अइसने कमई हो जथे।
कई झिन एकरे सेती चुनई म नाममांत्र के खड़ा होथे।
टुटपुँजिया उम्मीद्वार देखथे के ये दफे के उम्मीद्वार बने गोल्लर कस रोंठ, पोठ अउ चेम्मर हे । एकर ले टक्कर लेवब म चक्कर आ जही । उन दिन भर अपन पाल्टी के झंडा धरे घूमथे अउ रात कन जाके गोल्लर के डिल्लर म अपट के गिर जथे-
‘कका मोला बचा लेबे । महूँ खड़े भर हौं। फेर तोर बिरोध नइ करत हाववँ । वो तो पाल्टी टिकिट दे दिस, त मैं नाम गिनती लड़त हाववँ। तोर अपोजिट कइसे जा सकथौं, मोर माई-बाप ! मोर ददामन के माई-बाप तहीं रहे। मोर लइकामन के माई-बाप घलो तहींच रहिबे। येमा कोनो दू मत के बात नइहे। यकीन नइ होवत होही त डीएनए टेस्ट करवा सकत हस। तोर असन माई बाप के राहत ले मोला कोई आपत्ति नइ हे, न काँही विपत्ति नइहे।’
ओतका म गोल्लर खुस -‘जा बेटा बछवा कस फुसर-फुसर के खा अउ मेछरा। अपन पाल्टी के थन ल थुथन-थुथनके चुहक-पी।’
नेता के थपियाए अउ छेरी के चरे कभू नई उल्होवय। ए मेर दूनो के काम बनगे।
नाम के देस सेवा काम के लाड़ू मेवा। नेता उही जेन नेत देखके गत मारथे।
चुनई के आए ले पद म बइठे उम्मीद्वारमन नरियर फोरई करथे। दूसर उम्मीद्वारमन गुल्लक टोरई करथे। ये टोरई-फोरई दूनो के गठबंधन हँ चुनाव के बाद जनता ऊप्पर गाज बनके गिरथे। जेन हँ पाँच साल ले उन्कर मुड़ पीरा बनके रेहे रहिथे। न पीरा जावय न ओकर दवई आवय।
चुनाव म नवा उम्मीद्वारमन ल बाँटे बर जादा परथे। काबर के सबो ओकर बर नवा होथे। कार्यकर्ता घलो, जनता घलो। कभू-कभू जगा घलो। अइसन उम्मीद्वार जनता बर बाढ़े पूरा म चौपट होए फसल के मुवायजा बरोबर होथैं। क्षतिपूर्ति के राहत होथे। कार्यकर्तामन बर देवरिहा बोनस बरोबर होथे। ये ठँऊका मऊका ल कोनो अपन हाथ ले गँवाना नइ चाहय। इही समे कार्यकर्तामन के असल अगिन परीक्षा होथे।
चुनई टेम परखिए चारि, धीरज धरम मितान अउ नारि।
भीतरघातिया मन बिला म घुसरे-घुसरे मुड़ी ल निकाले डोमी कस ताकत रहिथे। इही अवसर होथे जब दाँव देखके दुस्मनी ल भाँजे-भँजाए जाथे। भूँज-बघारके सफल करे जाथे। जिनगी ल सार्थक करे जाथे। पाल्टी एके हे ते का भइगे जी ? सबो के अपन-अपन सुवारथ होथे। पाँचो अंगरी बरोबर तो नइ होवय। तइसे जम्मो कार्यकर्ता पाल्टीच् के बढ़वार बर काम नइ करत राहय। आजकाल पाल्टी के कम अपन बढवारके रद््दा जादा खोजे-तलासे-तरासे जाथे। फायदा देखके ही पाल्टी म जुड़े-जोड़े जाथे।
हाथ जोड़, गोड़ धर, पद पाके पुरखा सम्मेत तर।
माने आजकाल राजनीति सुग्घर टनाटन कड़कड़ावत नोट छपइया नवा धँधा होगे हवय।
चुनई बजार के गरम होए ले चारो कोती गहमागहमी मात गेहे। जम्मो पाल्टी अपन-अपन मुरचाए औजार ल टें-टाँ के बख्तरबंद होके मैदान म उतरगे हवय। कन्या रासि वाले मन घला एक ले बढ़के एक सबद के बान चलावत बयानबीर बन गे हे। अपन अपंग, निजोर अउ मुरझाए-मुरचाए पौरूसता के फर्जी प्रमान पत्तर देखावत चिचियाए-चिल्लाए लगे हे-
‘चलव, अब बोट डारे के बेरा होवत हे।’
धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346
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