Sunday, 23 February 2025

तइहा के निस्तारी...गहिरावत जल स्तर*

 *तइहा के निस्तारी...गहिरावत जल स्तर*





तइहा के बेरा मा ,गांव के अधिकतर मनखे मन अपन निस्तारी.... अपन तीर-तखार के प्राकृतिक जल स्रोत-नंदिया,झरिया अउ मनखे मन द्वारा बनाए आने जल स्रोत तरिया,कुंआ अउ बावली के पानी ला बउर के ही अपन रोजमर्रा के क्रियाकलाप ला करयं अउ अपन गुजर बसर करयं।

कोनों-कोनों गांव मा तो एक ले जादा,कई ठन तरिया घलो रहय ...जेमे एक ठन तरिया‌ ला... तो खास तौर ले गांवे के मनखेच मन के निस्तारी बर रखयं अउ कोनो-कोनो तरिया मा मनखे अउ पशु धन दूनों के निस्तारी घलो होवय..अइसनो राहय....।

गांव के गइंज लोगन मन पहिली...तरियच मा नहंई अउ कपड़ा-लत्ता धोवई-कंचई ले लेके के....देवी-देंवता के मूर्ति विसर्जन,जोत जंवारा विसर्जन अउ मरनी- हरनी के नेंग जोब ला घलो तरियच मा करयं अउ अइसे बात नइहे...आज नइ होवत हे?आज घलो होवत हें फेर... ओ पहिंत जइसे नइ होवय ?....आज सिर्फ फार्मेल्टी भर होवत हे......हां एकर अलावा पहिली गांव मा या काकरो घर मा कोनो बड़का सामाजिक अउ सरजनिक आयोजन होवय ता चउंर दार ला तरिया मा घलो धो देवयं कहिथें.... मतलब ए बात ले अंदाजा लगाए जा सकत हे के ओ बेरा मा तरिया नंदिया कतना साफ-सुथरा रहय...। .....अउ आज तो इंकर ए स्थिति हो गे हे के कोनो-कोनो गांव के तरिया के पानी ला मुहुं मा डारे बर सोंचे ला परथे....।

      ओ पहिंत.....तरिया के पानी ले कभु-कभु एन वक्त मा तीर-तखार के खेत-खार ला घलो पलो डरयं... ।

हां... एक बात यहु हे के.. पहिली सब आर्थिक रूप ले थोरिक कमजोरहा घलो रहय ते पाय के सब सुख सुविधा के अभाव घलो रहय... फेर ये विषय मा अइसन बात नइहे? कमजोर रहय चाहे सजोर गांव के सबे मनखे मन तरियच मा नहावयं धोवयं....भई ...बिरले लोगन ला छोंड़ के...भले कोनो बिहनिया,मंझनिया चाहे संझा नहावयं...फेर.......तरियच मा नहावयं ...।

.... नंदिया कछार के तीर मा बसे गांव के मनखे मन ओ पहिंत नंदिया के तीर मा झरिया बनाके ओकर पानी ला रांधे गढ़े,पिये खाय अउ रोजमर्रा के क्रियाकलाप बर बउरयं‌ कहिथें....तइहा के बेरा मा जल के स्तर अतका उप्पर राहय कहिथे.... के कुआं अउ झरिया खने ता पानी बड़ जल्दी अउ उप्परे मा ओगर जावय अउ नंदिया तीर के बसाहट वाले मन तो ...नंदिया के रेती ला दू चार हांथ टारे असन करे अउ पानी ओगर जावय तहां ले पहिली के ओगरे मतलहा पानी ला हांथ मा डुम-डुम के फेंक दे...बस ..पानी निरवा फरिहर अउ पिये अउ बउरे के लइक हो जावय...तहां ले ... छोटे बर्तन मा डुम-डुम के बड़े बर्तन मा कपड़ा के छन्ना लगाके भर लेवयं.....अउ एक के उप्पर एक पानी भराय बर्तन ला मुड़ मा बोही के पनिहारिन मन कतको दुरिहा ले रोजमर्रा के बउरे बर भरयं अउ डोहारयं....पुरूष वर्ग मन कांवर मा घलो डोहारयं...कोनो बड़का आयोजन के बेरा मा गाड़ा बइला मा बड़े बड़े डराम अउ गंज ला रख के घलो डोहारंय...।

..धीरे-धीरे इही...झरिया ला...बसाहट के लोगन मन आर्थिक रूप ले थोरिक सजोर होवयं तहां ले कुंआ अउ बावली के रूप घलो दे देवयं .... जेन ला धसके झन अउ जान माल के नुकसान झन होवय कहिके.... ईंटा अउ पखरा ले अपन सुविधा अनुसार बांध घलो डरयं.....अउ कुंआ के चारो कोति पार,चबुतरा घलो बनावयं....सहुलियत बर गड़गड़ी घलो लगा लेवयं।

....अउ बावली मा तो स्रोत तक पहुंचे बर सिढ़िया घलो बनावयं....फेर बावली मा कुंआ ले जादा लागत लगय....ते पाय के इन कुंआ बनाय मा जादा जोर देवयं ।

बावली के निर्माण जादातर ,जादा बसाहट वाले गांव अउ आवागमन के हिसाब से चारोमुड़ा के चउंक वाले जघा मन मा जादा करयं...नइते...ओ समय के शासन द्वारा आर्थिक सहयोग मिले तिहां....संभव राहय..।

आज घलो आप मन देखे होहू अउ देखेल मिलथे अधिकतर बावली...राजा रजवाड़ा मन के महल अटारी परिसर अउ कोनो चउंक चौराहा वाले जघा मा ही जादा देखे ला मिलथे।

....पहिली कोनों भी गांव ले बिहने नइते संझा बेरा मा गुजर तेन ता कुंआ के चारो मुड़ा पनिहारिन मन पानी भरत दिखिच जावयं ...अउ उही कुंआ पार... पनघट मा पनिहारिन मन अपन सुख दुख ला... गांव के सोर खभर ला... घलो गोठिया डरयं...अउ कभु-कभु उही पनघट मा कोनो गोठ बात मा लड़ई-झगरा घलो मात जावय ...एक ठन बड़ सुग्घर बात... कोनो... पनघट मा काकरो हांथ ले रस्सी बाल्टी मा ढरकाके... दूनों हांथ मा, मुंहुं ला दंताके पानी पिए के तो कोनो बखानेच नइहे...अइसनहा पानी पिये के तो अलगे मजा अउ मिठास रहय....ओ पहिंत पानी के जादा खइत्ता घलो नइ होवय....काबर परम्परागत जिनिस मन ही  जादा बउरायं... बारी- बखरी मा‌ टेंड़ा के उपयोग जादा होवय अउ  *ओ समे के लोगन मन जतका जरूरत रहय वतकच पानी कुआं ले निकालय....अउ बउरयं ...अउ वहु पानी हा व्यर्थ नइ जावय...अइसे ब्यवस्था बने रहय के बारी-बखरी मा बोंवाय साग भाजी मा पल जावय...अब तो मशीनी जुग... कलयुग आगे हावय ता पानी के बड़ दुरूपयोग...खइता घलो होवत हे....एती मोटर पंप ला चालू कर देहे अउ नहावत हे बपरा बपरी मन अउ पानी हा व्यर्थ बोहावत हे ते बोहातेच हे...कोनो ब्यवस्था च नइहे अउ पहिली के एक बाल्टी पानी मा नहवइया मनखे हा आज कई बाल्टी पानी ला भलभल ले रूतो के नहावत हावय... खइत्ता करत हावयं....ता कहां ले पानी हा ...जल स्रोत हा उप्पर मा रही? वो तो गहिरी मा जाबेच करही ना? आज के समे मा जेन बड़ चिंतन के विषय घलो हो गे हे...अउ जल संकट गहिराय के पाछू इही दू चार कारण नइहे अउ कतरो कारण घलो हे भई...अहादे.... अंधाधुंध रूख-राई कटात हे....कतरो जंगल उजड़त हे.....तेकर सेती दिन-ब-दिन पानी घलो कम गिरत हे...कतरो पानी बड़े-बड़े करखाना मा खपत हे यहु सब बड़का कारण हे...।*

गइंज अकन लोगन मन आज अपन खेत-खार मा बोर कराके कई ठन डबल तिबल फसल घलो बोंवत हे....आर्थिक रूप ले सजोर होय बर...यहु जरूरी हे....तभे तो देश भी आर्थिक रूप ले सजोर होही ... भई।

अउ एती सरकार हा भविष्य के  चिंता करत...जल संवर्धन बर कई ठन योजना घलो बनावत अउ चलावत जावत हें...जइसे पक्का मकान के छत मा वाटर हार्वेस्टिंग कराना ,गांव ले सँटे नंदिया नरवा मा रपटा कम स्टाप डेम बनवाना, छोटे-छोटे बंधिया घलो बनावत हें,गर्मी फसल मा धान बोंय के बजाय आने फसल ला प्राथमिकता देना ,आने आने...अउ कइ ठन योजना... सरकार हा चलावत हे।

... कुछ पहिंत पहिली तो सरकार हा चउंक-चउंक अउ आरा पारा मा बोरिंग घलो खनवाय रिहिस फेर गांव-गांव मा नल-जल योजना के आए ले...धीरे-धीरे वहु हा नंदावत जावत हे....काबर अब तो घरो घर नल घलो लग गे हावय....अउ कतकोन मन अपन समर्थ अनुरूप पराभिट बोर घलो करा लेत हें...अउ बने बात ए भई ...ता...अभी के पीढ़ी के लइका मन बर..का तरिया?का नंदिया?का झरिया?का कुंआ?अउ का बावली वाले हिसाब घलो हो गेहे..तइसे लगथे..काबर....कुंआ,तरिया अउ नंदिया ला तो थोरिक जानबेच करहीं ... झरिया अउ बावली के तो बातेच छोंड़ देव... भइगे..वाले हिसाब किताब हो गेहे...।

 ..अब तो अइसे लगथे ... .. कोनों-कोनों‌ गांव मा तरिया के कोनो भेलुच नइहे,तइसे घलो लागथे.... सिरिफ फार्मेल्टी भर बर ही रहिगे हे...नंदिया ले तो कम से कम सिंचाई होथे....पहिली के लइका मन नंदिया, तरिया मा कूद-कूद के नहावयं,पानी भीतरी घलो रेसटीप अउ छु-छुववला खेलयं एप्पार ले ओप्पार नाहकयं...लइका मन कइसे तउंरे ला सिख जावय? पतच नइ चलय...?पहिली अइसने कतरो एक्सरसाइज हो जावय ...अउ अब के लइका मन तो झार घर भीतरी बाथरूम मा नहावत हे....अउ कोनो-कोनो हा कभु स्वीमिंगपूल...?ता आज के लइका मन कहां ले तउंरे ला सिख पाहीं...?तेकरे सेती कभु कहुंचो घुमे- घामेला जाय रही ता ,तउंरे-वउंरे ला तो आवय नहीं अउ सउंखे-सउंख मा एक दूसर ला देखके...बिना सोंचे समझे नंदिया-नरवा मा घलो कुद देथें अउ इही चक्कर मा आजकाल कई ठन अलहन घलो हो जावत हें...अउ अब तो कुंआ बावली के बातेच छोंड़ देव....काबर कतकोन कुंआ ला तो पाट दिन अउ कतकोन पटावत घलो हें...कतकोन कुंआ हा बेंवारस घलो परे हे...बिन जतन रतन के....?

हां...ए सब के पाछू बदलत जमाना अउ कलयुग के परभाव हे...तभे तो आज सब, पारम्परिक जिनिस अउ सभ्यता मन ले दुरिहावत जावत हें...अउ मशीनी अउ आयता माल के पाछू भागत दिखत हें.... सरी सुख-सुविधा बाढ़ गेहे....कपड़ा लत्ता धोय बर वाशिंग मशीन आगे हवय,पानी खींचे बर किसम-किसम के मोटर पंप आगे हवय...अउ आने-आने ...ए सब तो आज सामान्य बात हो गे हे.... सबले अचरज अउ विडम्बना के बात ये हे के आज पानी... बोतल अउ पाउच मा बिके ला धर लेहे.... अउ कोनों-कोनों मनखे मन अब बिसलरी अउ फिल्टर पानी पियई ला अपन शान समझे‌ ला धर लेहें....कोन जनी आज के लोगन मन उपर का भूत सवार हो गेहे ते... तुरते के निकाले पानी ला पिये ला छोंड़ के... कब के बोतल मा भराय रहिथे तेला पिये के आदी होवत जावत हें... अउ अइसने कुछ लोगन मन कुआं बोरिंग के पानी ला तो भले पियास मरत रही जही फेर नइ पिययं...अपन शान के खिलाफ समझथें.....ता कतकोन के कहना हे...कोन आज के जमाना मा तरिया,नंदिया अउ कुंआ, झरिया के चक्कर काटही....साफ-सफई ला भी तो देखे ला परथे परम्परा अउ  पुराना सभ्यता ला बनायच रखना हे कहिके....कहुंचो थोरी नहा लेही ... कहुंचो के पानी ला थोरे पी लेहीं...कोनो नइ चाहे के अपन परिवार के कोनो सदस्य ला कोनों तकलीफ होवय.... अउ आजकाल सब चाहथें के अपन घरे मा ही सरी सुख सुविधा रहय....यहु सिरतोन बात हरे...कोनो काबर फिकर करही भविष्य के?....अवइया भविष्य बर कांही बांचे चाहे झन बांचे...?मोला काहे...?में एके झन चिंता करके का कर लेहूं?अउ सब जानतेच हे भविष्य बर कांही बांचे चाहे झन बांचे?रूपया पइसा तो बांचबेच करही...काहीं ला बंचाय चाहे झन बंचाय पइसा ला तो सब बंचाबेच करही अउ रूपया पइसा रही तहां ले का नइ हो सकय?...अपना काम बनता..... अउ दुनिया जाए भाड़ मा...... वाले हिसाब किताब चलत हे......... हां !ये बात सच हे के ....आज वैज्ञानिक मन द्वारा धीरे-धीरे कई ठन एक ले बढ़के एक मशीन मन के आविष्कार घलो होवत जावत हे...... कलयुग आगे हे...विज्ञान के जुग आ गेहे भई...यहु ला तो माने ला परही... स्वीकारे ला परही...आज बिना कल पुर्जा के काहीं संभव नइहे...आज वर्तमान पीढ़ी शत् प्रतिशत एकरे उप्पर निर्भर हे.... आदी हो गे हवय, एकर बिना जी नइ सकय? यहु ला नकारे नइ जा सकय?अउ येकर ले लोगन के सुख सुविधा हा तो घलो बाढ़ गे हावय....हां!एक ठन चिंतन के विषय यहु हे के परंपरागत...के चक्कर मा रहिबो ता.....अंतरराष्ट्रीय स्तर मा देश के साख ला भी तो बचाके राखे ला परही....अउ ये सब ला नइ अपनाबो ता देश के आर्थिक विकास भी तो संभव नइहे....ता का करन अउ का करे जाय...जेकर ले हमर जुन्ना पररम्परा अउ सभ्यता भी बने रहय अउ अवइया पीढ़ी मन बर जल संकट घलो झन होवय....काबर हम सब बर एक ठन चुनौती यहु हे के आने देश मन...ए सब के बावजूद अपन जम्मो जुन्ना परम्परा अउ सभ्यता ला घलो संजोके राखत हावय.....ता हमन काबर नइ कर सकन?

अमृत दास साहू 

ग्राम -कलकसा, डोंगरगढ़ 

जिला-राजनांदगांव (छ.ग.)

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