*साग भाजी ला समेटे छत्तीसगढ़ी गीत-महँगाई के बेरा मा*
आजकल बड़े लगत हे न छोटे सबे आफत मा अवसर ताकत दिखथे, ईमान धरम तो दूसर लोक के शब्द होगे हे, ये लोक मा अब नही कस हे। कभू कभू अइसन बेरा आथे कि कुछ चीज के उपज/उत्पादन स्थिति परिस्थिति अनुकूल नइ होय के कारण कमती हो जथे, अउ वोकर माँग बढ़े ले, वो चीज महँगा हो जथे। फेर अइसनो नइ होय, जेमा बंगाला 250 रुपिया किलो तक पहुँच जाय, ये तो अंधेर होगे। ये सब काला बाजारी अउ जमाखोरी के नतीजा आय, एक विशेष हाथ मा सरी चीज जाये ले अइसने स्थिति बनथे, तेखरे सेती तो पहली घरों घर कोठी रहय, जेमा धान पान साल भर बर भराय रहय, फेर आज मनखे पइसा के लालच मा कोठी ला फोड़ फाड़ व्यापारी ला सबें धान पान ला बेंच देवत हे। अइसन मा व्यापारी मन मनमानी तो करबे करही, अउ ये सब दिखत तो हे, चाँउर, दार, साग संग कतको भाजी पाला----जइसन मूल जरूरत के चीज सबे महँगात हें। मैं तो एक कविता मा तको लिखे हँव-- *जे दिन तक कोठी मा धान रही, ते दिन तक दुनिया मा ईमान रही।* खैर छोड़व, आज छत्तीसगढ़ी लोक गीत जेमा साग भाजी के वर्णन हें, वोला महँगाये बेरा मा सुरता करथन अउ गुनथन-------
*चौरा मा गोंदा रसिया, मोर बारी मा पताल*-
जनकवि लक्ष्मण मस्तूरिहा के कलम ले सँवरे अउ स्वर कोकिल कविता वासनिक के गाये,ये मनभावन गीत, हर छत्तीसगढ़िया के अन्तस् मा समाय हे। फेर जब पताल के भाव 200 रुपिया किलो ले घलो पार चलत रिहिस, ता कोनो मयारू अपन बारी मा पताल हे कहिके बतातिस, ता कोनो भी मनखे सात जनम बर सिरिफ पताले खातिर मया मा बँधा जातिस, रंग रूप मया मोहनी ला छोड़िच दे। छोटे मनखे ला तो तिरियई दे, बड़का बड़का मनखे मन तक, बाजार ले पताल के भाव पूछ दुच्छा घर आ जावत रिहिस। अइसन मा कखरो भी बारी मा पताल रहितिस ता वो धरती लोक मा पइसा छाप पताल लोक मा घलो राज करतिस। फेर आज राज करत हे जमाखोर मन, जे मन मनमर्जी दाम वसूलत हे। हाय रे पताल, बड़का बड़का ला देयेस हँकाल।
*एक पइसा के भाजी ला दू पइसा मा बेचँव गोई,गोंदली ला रखँव जी मंडार के*
शेख हुसैन जी के लिखे अउ गाये ये मनभावन जुन्ना नाचा गीत जेमा बड़ अकन साग भाजी के वर्णन हे। ये गीत मा सब्जी बेचइया मरारिन पेट परिवार पाले बर एक पइसा के भाजी ला दू पइसा मा बेचे के बात करत हे। फेर आज सबें कोती पैठ जमाये व्यापारी मन पेट परिवार नही, बल्कि सात पीढ़ी ला पाले बर ईमान तक ला बेचत दिखथें। एक के ला दू नही,बल्कि कुछ दिन जमा करके,बाजार मा तंगई लावत, सौ गुना अधिक दाम मा बेचथें। इंखर कृपा ले कभू पताल, ता कभू गोंदली, ता कभू अउ कुछु आने साग भाजी महँगायेच रथे।
*करुहा रे करेला------बखरी के लाल मिर्चा लइका ला रोवाय*
शिवकुमार तिवारी जी के गाये ये गीत कोन नइ सुने होही? फेर जब आज साग भाजी महँगाये हे, ता करुहा करेला होय, चाहे मीठ कुंदरू, तरे के बाद तो मिठाबेच करथे, फेर बाजार ले झोला मा नपावत बेरा ही बड़ खुशी दे देथे। काबर कि महँगाई मा कढ़ाई ले पहली झोरा मा तो आना चाही।महँगाये मिर्चा हा सिरिफ लइका मन भर ला नइ रोवावत हे, सियानो मन ला रोवावत हे। रुपिया दू रुपिया मा कुढ़ी कुढ़ी मिलइया मिर्चा आज कोरी भर मा तको गिन के आवत हे।
*दमांद बाबू दुलुरु काबर रिसागेस, आलू अउ गोभी के सुवाद थोरकिन देख ले*
फिरन लाल वर्मा जी अउ संगवारी मन के गाये ये जोक्कड़ गीत जे बेर सुनबे ते बेर मजा आथे। हो सकथे ये गीत मा दमांद बाबू कूकरी बोकरी खाय बर रिसाय रिहिस होही,, फेर आज आज जब पियाज, टमाटर आलू गोभी----दाम मा कूकरी ले घलो अघवा गे हे, अइसन मा दमांद बाबू दुलरू हाँस हाँस के आलू गोभी के साग खाही, वो भी बिगन मुंह फुलाये।
*भाँटा मिर्चा अउ धनिया पताल लेले गा, का लेबे कुंदरू करेला हे*
कुल्वनतींन बाई अउ पंचराम मिर्झा के सधे स्वर मा ये गीत बड़ मन भावन लगथे। ये गीत मा मरारिन गली गली घूमत साग भाजी बेंचत हे, अउ वाजिब भाव तको बतावत हे। सुनहू ता पता लगही कि वो बेरा आठ आना, एक रुपिया किलो मा तको साग भाजी आय। फेर आज तो आना के जमानच नइहे। कई सैकड़ा खर्चे मा तको झोला भर नइ पाये। महँगाई के दौर मा भाजी पाला बेचइया पसरा लगाये अँटियावत बइठे हे,अइसन मा घर घर जाके लेले लेले थोरे कही। जेला लेना हे ते हाट बाजार जायें।
*झुमकी तरोई गा भैया, राजा झुमकी तरोई गा भाई*
मेहत्तर राम साहू जी के लिखे अउ साधराम मरावी जी के गाये ये गीत जब रेडियो मा बजे ता सच मा मन झूमर जाय। घरों घर बारी मा तरोई,बरबट्टी,रमकेरिया, खीरा------- मन ला मोह लेय। पितर पाख मा तरोई बरबट्टी बारी ले सहज निकले, कोनो बाजार हाट के मुँह नइ ताके। फेर आज पितर पाख मा तरोई तो महँगाबेच करथे, आन समय तको हाथ नइ आय। एखर बर जरूरी हे, सबके बारी फेर झुमरे, तभे मन ये गीत संग झुमरही।
*बखरी के तुमा नार बरोबर मन झुमरे*
मस्तूरिहा जी के लिखे अउ कविता वासनिक जी संग गाये ये गीत गजब गुरतुर हे। तुमा नार, जइसे छानी मा चढ़के झुमरथे वइसने वोला देख मन सहज मगन हो जथे। फेर आज बारी बखरी ले नाता टोरत मनखे, महँगाई के बेरा मा काय झुमरही, बल्कि तुमा, रखिया, कोमढ़ा के भाव सुनत बक्क खा जावत हे।
*जिमी जिमी जिमी,कांदा कांदा कांदा*
पॉप स्टाइल मा ये गाना बड़ चलिस। पहली कांदा कुशा भाजी पाला ला गरीबहा साग काहय फेर आज उल्टा होगे हे, इही सब मन महँगाये हे। जिंमी कांदा हमर छत्तीसगढ़ मा भारी फेमस हे। एखर कढ़ी, भुजिन्या बड़ मिठाथे। के गीत ला सुनत मुंह मा पानी आ जथे।
वइसे तो अउ बड़ अकन गीत मा भाजी पाला आथे, सब ला सँजो पाना मुश्किल हे। मोर मनसा गीत के बहाना आज अउ काली के बेरा ला परिभाषित करना रिहिस। जे बेर मा ये सब गीत मन ला लिखे अउ गाये गे रिहिस वो बेर मा वो आनंद सहज झलकत रिहिस, फेर आज जब मनखे बाजार भरोसा होगे हे, तब ये सब गीत ताना मारे बरोबर लगथे। महँगाई मा एक वर्ग पोखाथे ता एक वर्ग सोखाथे, या काहन ता एक बर महँगाई डायन आय, ता एक बर भौजाई।खैर महँगाई के कारण अउ निवारण ला सबो जानथन, तभो एक दूसर ला कोसत रहिथन, फेर गीत गीत होथे, तन मन सबो ला गदगद कर देथे, ता सुनव अइसन जुन्ना गीत मन ला अउ गुनव तको।
जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)
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