Saturday, 5 October 2024

छत्तीसगढ़ी कहानी

 कहानी संग्रह सात लर के करधन ले ---                                            ---शकुंतला तरार                                                                                                                                                                          -+++सुख के अंजोर बगरगे  +++

                       घर के मुहाटी मा रिक्सा हर आके थेभिस।----- गंगा के अवाज आईस भ--अ—इ--गे भईगे भईगे । एक घांव राग ल लमा के तहाँ जल्दी-जल्दीदू घांव बोलिस –एती घर के भीतरी ले चम्पा हर सुन डारिस। अवाज ला सुन के चम्पा के मुंहु हर ओथरगे,  अरे! ए तो मोर सास के अवाज सहीं लागत हे, एहर फेर आगे काय रे .... देखवं तो ? बइठे जघा ले चम्पा हर कोरा के लइका का कनिहा मा धर के धरारपटा बाहिर निकलिस। देखत हे गंगा जेन ओखर सास ए रिक्सा ले उतरे नइये समान मन के बीच मा फंसे बइठे हे ऊहंचे बइठे-बइठे रिक्सा वाला ले चुमड़ी मन ला उतरवावत हे। एक चुमड़ी, दू चुमड़ी, दू चुमड़ी, एक झोरा दू झोरा, केटली अउ ओखर कपड़ा के बेग। जब जम्मो समान ला उतराके रिक्सा वाला ठाड़ होईस तब गंगा हर उतरिस अउ बिलाउज मा बने खीसा ले पईसा ला निकला के रिक्सा वाला ला दिस त रिक्सा वाला कहत हे दस रूपया उपराहा अउ दे दे ना कतना अकन समान हे एक तो घरो हर अतना दुरिहा हे ,चंपा कहत हे समान हे त काय होगे मैं जब भाव करेंव तब तो देखे रहे ना तयं हर फेर अब काबर ----राग ला लमा के चंपा किहिस त रिक्सा वाला चुपेचाप चल दिस । समान ला देख के चम्पा मने मन खुस  होवत हे। फेर सास के मुंहुं ला देख के ओखर थोथना हर फेर ओथरगे। थोकन खिसियाय सहीं हांसी  हांसे सही करिस अउ लईका ला भूईयां मा बइठार के  मुड़ मा अंचरा धर के पांव पर लिस। पांव परके समान ला दूनों झिन भीतराय लगगें। ओतका मा तो भूईयाँ के लईका हर किर्री पार के रोये लगगे। गंगा लईका ला धरे के उदीम करसि त लईका अउ चिचिया के रो दिस। गंगा हर चम्पा ला लईकाला पाये बंर कहिके जम्मो समान ला खुदे भितरा डारिस। चम्पा एक हाथ में कनिहा मा लईका धरे दूसर हाथ मा बेग ला धर के भितराईस तब तक ले गंगा अपने ले होके जाके नल के पानी मा हाथ-गोड़ ला धो डरिस। गांव होतीस त सबले पहिली एक लोटा पानी दिये जातीस। अरे इही तो हमर छत्तीसगढ़ के पहुना संस्कृति ए। 

                             कोनो बिंसवास करय के झन करय आन राज के मनखे के नई कहे जा सके फेर हमन तो जानत हन एक लोटा पानी के महात्तम  ला। उही एक लोटा पानी गांव-देहात मा आदर, मान, सम्मान के रूप म हमर चिन्हारी आय। आज सहर मा घर भीतरी जघा-जघा नल, पक्की अंगना दुवारी मा कांहा गोड़ धोही सगासहोदर । तेखर ले नल कोती, नहानी कोती जाके खुदे गोड़ हाथ धो लव। पानी देये के संसो तको नइये। संसो हर हावे त अतका कि सहर के जिनगी मा हम दू अउ हमर दू करत-करत सियनहा मन के जघा कहंचो छूटत चल दिस हे। सब के रहत आज वो मन जादा अकेल्ला होगे हवयं।

गोड़-हाथ ला धोके गंगा हर परछी मा आके खटिया मा बइठिस तब तक ले चम्पा के देरानी छोटकी बहुरियां अपन सास के अवाज अउ लईका के रोवई ला सुन के झकनका के उठ के आईस अउ सास के पांव परके रंधनी मा जाके हड़बड़ावत गेस चूलहा मा चाहा ला मड़ाईस। एती चम्पा सास ला पूछत हे कतका बजे घर ले निकलेव —गंगा सांस भरत कहिथे का बताववं! ए रोगहा मोटर ला घलो आजेच बिगडऩा रिहिस। दस बज्जी के डईरेट रायपुर के गाड़ी मा चघा देय रिहिस वो-- तोर बाबूजी हर— आवत आवत रद्दा म ठाड़ होगे अइसना जघा बिगड़गे जिहाँ पानी तको नईं, --ना एको ठिन रूख-राई। धाम अउ पियास के मारे तो जम्मो पछिन्जर के जीव हलाकान होगे रिहिस, दू घंटा लगगे बनावत ले। फेर लेद्दे-लेद्दे बेलासपुर लानिस उहां ए डईरेट गाड़ी ला बदलवाईस। जम्मो एती रईपुर के सवारी ला आने मोटर मा चघा दिस।

चम्पा मने मन सास के परसानी ला सुन के खुस होवत बात ला आधू बढ़ाय बर फेर पूछथे—त अतका अकन समान ला धरके अकेल्ला काबर आयेव तु मन।— गंगा कहिथे— का बतावतं ओ चम्पा, आज तो मोर अइसे बेजती होय हे ए समान के मारे कि झन कि पूछ। इहां ले उहां करत-करत, चघात- उतरावत गाड़ी वाला मन मोर अत्तेक इनसट करे हें कि का कहवं। सिरतोन घलाव त आय। गाड़ी हर नईं बिगड़तीस त सोज्झ रइपुर अमरा देतीस अब का जानतेवं महुं हर अइसना होही कहिके।

गंगा जानत हे बहुरिया मन के मन म मोर बर रत्ती भर दया-नइये। दून्नो बहुरिया वइसनेच आंयथूके थूक म बरा चुरो देथें कब के खा पी के निकले हवे कुछु बना के देय बर धियान नईं देवयं । कुछ खाये पीये बर पूछबे नई करयं । जब तक ले खाये के बेरा नईं हो जावय।

                           गंगा हर अपन लाने समान ले छोटकी ला झोरा ला मांगिस। छोटकी जेन चहा धर के ठाड़े रिहिस। झोरा ल लान के अपन सास ला धराईस , ओखर बाद तो एक ले सेक समान झोरा के भीतरी ले। चम्पा के बेटा अउ छोटकी के बेटी के हाथ मा एकक ठिन अइरसा ला धरा के गंगा हर अपन बर हाथ मा दू ठिन निकालिस अउ झोरा ला धरा दिस चम्पा के हाथ मा अउ किहिस- तहूँ मन हेर के खा लेव वो। मयं खावत हौं,-- भूख के मारे सहउल नईं होवत हे--- बिहनिया लकर-धकर बासी खा के निकले रिहेवं। कहिके गंगा एक हाथ मा चहा के कप पिलेट ला झोंकिस अउ दूसर हाथ के अइरसा ला खा के चाहा पी के उही खटिया मा ढलंगगे-हाथ गोड़ ला लमा के। आज अड़बड़ थकगे रिहिस रइपुर के आवत ले। छै-सात घंटा होगे रिहिस। सियाना देहें। ढलंगते सात ओखर नींद परगे।

                   को जनी कतका बेरा होगे रिहिस ओला सोवत कि धीरे-धीरे खुसुर-पुसुर के अवाज ओखर कान मा सुनई आगे। चम्पा अउ छोटकी बहुरिया गोठियावत रिहिन। चम्पा कहत रिहिस-ए दारी डोकरी हर कतका दिन बर आय हे ते। गांव मा एला काय कीरा चाबत रहिथे त अपन डोकरा लाछोंड़-छोंड़ के मुंहुं उठा के इहां सहर मा आ जाथे।

अब सुरु हो जाही काली ले एखर पूजा पाठ, एखर छुआछूत। सूत उठ के नहा लेवव, एला झन करव ओला झन करव। जनो-मनो एखरे घर ए। बेटा मन ला काय ए-महतारी ला देख के कोरा के लईका मन कस दाई-दाई करत बिल्होरत रहिथें। उही पाय के मया मा घेरी-बेरी आवत रहिथे। दिन भर मरना त हमला हे एखर संग मा।

दीदी-अब छोटकी के अवाज गंगा सुनत हे-छोटकी कहत हे मोला तो बिहनिया के उठई करलई हो जाथे वो नानकन के संग मा। अपन पूजा पाठ करथे अउ घंटी ला बजावत रहिथे। समान धर के आये हवं कहिके टेस भारत रहिथै। महेना भर के पूस ह फुस ले भगा जाथे दीदी फेर एखर महेना साल संही लागथे। टेस तो अइसन कि मड़ई के देवता के रिसाये ले नरियल लिमऊ दे के मना ले फेर एहर रिसाईस त घेरी-बेरी पइयांला पड़ाथे।

                                ऊँखर गोठ-बात ला सुन के गंगा के छाती धक-धक करे लगगे। अंतस मा पीरा भरगे अउ आँखी डहर ले आंसू बनके बोहाय लगिस। हे ईसवर काय के कमी हे मोला। गाड़ा-गाड़ा धान, चना, राहेर, तिवरा भरपूर ओन्हारी होथे। गन्ना अलग होथे सालभर के गुर हो जाथे। नून, तेल, कपड़ा बर धान बेंचा जाथे पइसा के तो कमी नइये मोला। गांव मा देवर, देरानी दू-दू झिन। ननपन ले बिहाव होके आगे रिहेवं त ननद-देवर मनला लईका संही पोसे हवं। इसकूल पठोए हवं। कभू नई जानेवं कएरी बइरी, लड़ई-झगरा।

                                     मनखे अपन सोंच अउ सुग्घर बानी केबल मा दुनिया भर मा जाने जाथे। पहली घर, त पारा, मोहल्ला, गांव, राज, देस अउ दुनिया। ए अलग बात ए कि सबके बिचार अलग-अलग होथे। दू झिन कहूं जान चिन्हार मिलगे त राम-राम, पैलगी, जै जोहार के संग मा सुख-दुख, मया-पीरा, गोठिया ले । भलूक वो माई लोगन होवयं की आदमी जात। जान चिनहार हे त ठाड़ेच ठाड़ रद्दाच मा घंटा भर ले गोठिया डारथें। घड़ी भर मा रो लिहिं छिन भर मा हांस लिहीं। इही त हमर मया पीरीत के नता आय। उहें कतको झिन अपन-अपन थोकन बोली बात मा अपन ला बिरान कर देथें। कखरो सुभाव होथे अपन बड़ाई मा जग जीता। अपनेच्च अपन बड़ाई करत रीहीं। मयं अइसन, मयं वइसन मोर दाई मोर ददा। मोर लईका ले बढ़के सुंदर अउ सरीफ कोनो नईये। वइसने मन के लईका मन पाछू ठेंगा देखाके अलग हो जाथें।

गंगा सोंचतेच्च हे—हे भगवान मयं तो कभू वइसना नई करेवं लईका मन ला सत आचरन धरम-करम, बडे के आदर नान्हे के सनमान सिखोएवं तभे आज सहर मा आके उही आचरन ले बने कमावत खात हें ।

फेर मयं का करवं ईसवर! मोला मया हर मार डारथे। बेटा तो बेटा मयं बहु मन ला तको ओतके मया करथवं। फेर ऊँखर मन मा कइसे ए बात आगे कहि नी सकवं।

गंगा फेर सोंचत हे मने मन कहत हे मयं काहां गलती कर डारे हवं जेन मा बहूरिया मनला खटक गय हाववं। मोला अपन मन के भीतर म झांके बर परही। मयं खुसी बाटहूं तब खुसी पाहूं। सब हांसी खुसी रहीं त घर मा सुख सम्पत्ति नाना परकार ले आही। आज जमाना काहां ले काहां अमरगे। का होईस वोमन मोला कुछु कहत हें त। एमा कोनो तो कारन जरूरेच्च होही। अउ कारन ला जान के मोला अपन ला बदलना परही।

                                श्री कृष्णा हर गीता मा कहे हवय “कर्मन्ये वाधिकारस्ते मा फलेषु कदाचन”आज मोला उही करम के धरमला निभाना हे। कहिथें कि बिरिख मा जतका फल लगही ओतका नवत जाथे। वइसने मोला फल देय खातिर नवे परही। अपन परवार के नेव ला मयं नई भसकन दवं। चार-छै दिन रही के मयं हर चल देहूँ अपन गांव अपन घर। कखरो बर भार बनके रहना नई चाही जब तक जांगर चलत हे कमा के खा लेव जांगर नई चलही तब देखे जाही | अउ देखना घलो काला हे कुछु अईसन करके जावव कि तुहंर जाए पाछू ए दुनिया म नाव लेवैय्या तो होना चाही |

                              चुपेचाप खटिया मा परे बिचारत-बिचारत संझा होगे।सुरुज देंवता कब के चल दे रिहिस अंधियारी होगे  रिहिस बाहिर फेर गंगा के अंतस मा अंजोर बगरत रिहिस, वो अंजोर रिहिस “गियान के अंजोर”''सुख के अंजोरी”| 

                                    आज महेनाभर होय नइये गंगा ला गांव गए। बहुरिया मन बियाकुल होगे हें गंगा बर। दाई हर कब आही दाई हर कब आही। अब गंगा के घर मा सुख के अंजोरबगरगे हवय जेखर जोती मा सबके मुंहरन दमकत हावय दप-दप करत।

                                                                    शकुंतला तरार

                                       एकता नगर, सेक्टर २ 

                                                   प्लॉट नं. ३२ 

                                                  रायपुर (छत्तीसगढ़)

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समीक्षा पोखनलाल जायसवाल:

 साहित्य अपन समय के समाज अउ लोकजीवन के चित्र प्रस्तुत करथे। कहानी उही साहित्य के एक विधा आय। जउन म कहानीकार अपन आँखी देखी घटना ल अपन कल्पना ले चतुराई के संग कहानी गढ़के प्रस्तुत करथें। जउन पढ़त खानी पाठक ओमा रम जथे। शब्द चित्र के संग कहानी म प्रवाह रहे ले पाठक कहानी ल एक साँस म पढ़ डारथे। शकुन्तला दीदी के कहानी *सुख के अंजोर बगरगे* दू पीढ़ी के नारी के मनोविज्ञान ल समझे म मददगार हे। एकर पात्र मन हमर तिर-तखार म हें। 

      आज परिवार म बिखराव(टूटन) रोजगार के चलत जल्दी हो जवत हे। गँवई-गाँव म रोजगार पहिली जइसे नइ रहिगे हे। बड़का कारण ए कि सबे खेती ले मुँह फेरत हें। शहर के रस्ता नापे लग गे हें। 

      शहर म रहवइया बेटा बहू घर पहुँचे गंगा के अंतर्द्वंद्व अउ समझदारी दूनो ए कहानी म दिखथे। गंगा के दूनो बहू के माध्यम ले तथाकथित सभ्य अउ आधुनिक समाज के नारी के चरित्र ल बड़ सुघरई ले गढ़े गे हावय। एमा कोनो शक नइ हे कि अइसन नइ होवत हे। आज परिवार हम दू अउ हमर दू तक ही समेटावत हे या कहन समेटागे हावय।

      गंगा सियान आय। उँकर भीतर सियानी हियाव हे। तभे तो बहू मन के उपेक्षा अउ तिरस्कार ल नवा ढंग ले लेथे अउ बहू मन के लइक अपन आप ल बनाय के कोशिश करथे। अपन घर परिवार म सुख के अंजोर बगराय के जतन करथें। सफल घलो होथे।

     गंगा महतारी आय, महतारी के अंतस् म सिरतोन गंगा मैया के निर्मल धार सहीं बेटा अउ बहू दूनो बर मया पलपलात रहिथे। जेला चम्पा देर म भाँप पाइस। मया अपन असर दिखाबे करथे।

         एक लोटा पानी दे के लोक संस्कृति के झलक दिखावत सुग्घर कहानी के संवाद जीवंत अउ प्रासंगिक हे। भाषा शैली अउ प्रवाह सुग्घर हे। 

     कहानी अपन उद्देश्य म सफल होही, परिवार म एक दूसर के बीच मया के पुल ल सजोर करही, इही आशा करत शकुन्तला दीदी ल कहानी बर अंतस् ले बधाई💐🌹 


पोखन लाल जायसवाल

पलारी बलौदाबाजार

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