वृक्षा रोपण-दिलीप वर्मा
पेंड़ लगाव पेंड़ लगाव, रात दिन चिल्लावत रहिथे।
अरे कतेक पेंड़ लगाबे ,करोड़ो रुपिया खर्चा करके अतका पेंड़ लगे हे अतका पेंड़ लगे हे कि अब तो धरती म जगा घलो नइ बाँचे हे।
जेती देख तेती पेंडेच पेंड़ दिखथे। सुरुज देवता तको ह धरती म आये बर अब तरस जथे।
भाँठा टिकरा खेत खार नदिया नरवा पहाड़ पर्वत कोनो जगा खाली नइ हे।अरे भई अतेक पेंड़ लगाए के का जरूरत रहिस हे।अब तो लइका मन के खेले बर घलो भाँठा नइ बाँचे हे।
खेत मा अतका पेंड़ लगे हे की खंती खनइया ल बेरा के पता तको नइ चलय अउ दिनभर काम करत रहिथे। धान के फसल तको छइहाँ के पुरवाही म खुसी के मारे ढ़लंग जथे।
लकड़ी कटइया परेसान हे काला काटन काला बचावन। अब तो ये हाल होगे हे की लकड़ी खुदे चूल्हा म जले बर आ जथे।
पेंड़ के चारो कोती अतका जाल बिछे हे कि अब मनखे ल वाहन के जरूरत नइ हे।घर ले निकलते ही बेंदरा कस एक पेंड़ ले दूसर पेंड़ कूदत जा सकत हे, अउ कतको तो टार्जन कस झूलत घलो जा सकत हे।
ये दे शेर घलो ह दुवारी म आके नरियावत हावय।अउ काहत हे अतेक पेंड़ लगाये के का जरूरत रहिस हे।अब देख ले शिकार तको करत नइ बनत हे।हिरन मन मोला देख के बिजरावत रहिथे। अब तो कुछ रहम करव ,कुछ जगा हमरो बर छोड़ दव।
शेर के गर्जना ल सुन के झकनका के उठेंव त देखेंव खटिया म सुते राहँव।
बाहिर ल झाँक के देखेंव त परिया परे हे पेंड़ के नामो निशान नइ हे।खेत खार नदी पहाड़ कोनो कोती पेंड़ नइ दिखत हे।
भगवान जाने अतेक खर्चा करके कती पेंड़ लगाथे।
कोन जनी ओ पइसा काखर भोभस म भराथे।
दिलीप कुमार वर्मा
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