“रांड़ी के चूरी,टिकली”
कहिनीकार
डॉ. पदमा साहू *पर्वणी*
खैरागढ़ छत्तीसगढ़ राज्य
जाड़ के दिन आय बड़े फजर ले घर के अंँगना मा बइठे श्यामसुंदर चिल्लावत हे,,,,,
“भावना नोनी भावना कहाँ हस वो । आतो बेटी मोर तीर बइठ न वो ।”
“चूल्हा कर बइठे हों ददा दाईसन आगी-बुगी देखत हँव।” रंधनी खोली ले भावना चिल्लात हे ।
“थोरिक मोर तीर आतो तोर संग बड़ जरूरी गोठ गोठियाहूँ” –श्यामसुंदर कहिथे
भावना अपन ददा श्याम सुंदर के तीर मा जाके– “हाँ ददा का होगे बताना ?”
श्यामसुंदर कहिथे – “बेटी अभी तो तोर पूरा उमर बाँचे हे । अभी तें सत्ताइस बछर के हावस, तोर भरे जवानी के ये जिनगी कलजुग के ये बखत म कइसे पहाही? दुख-सुख तो लगे रहिथे, संजय तोरसन जैसन भी करथे वोला भूला के एक घाँव तें अपन ससुरार जाके देखना बेटी तें तो पढ़े लिखे हावस समझ न। तोर सास घलो तोला समझथे ओतो बने हावय । देखत हस नहीं गाँव के लोगनमन आनी-बानी के गोठ गोठियाथें । कोन ल का उत्तर देबे? दुनिया बेटी वाले ल ही दोष देथें ”
अपन ददा के गोठ ल सुनके बिना कुछु कहे उदास होके भावना ह चुप बइठे हे ।
ले सोच बिचार के बताबे बेटी कहिके श्याम सुंदर खोर कोती निकल जथे ।
शांता कहिथे– “भावना तोर ददा बने काहत हे बेटी । दाई-ददा ल अपन लइकामन के अब्बड़ संसो रहिथे अउ घर में तोर दू झन छोटे बहिनीमन हें । फेर तें अम्मल में हस, त अवैया लइका के आगू-पीछू ल घलो सोचे ल परही बेटी ।”
भावना बिना कुछु कहे अपन लुगरा कपड़ा ल धरके तरिया चल देथे। नहा के आवत रहिथे शीतला मंदिर कर पहुँचे रहिथे ओतके बेर पूनिया गोठियावत राहै – “अपन दूनों में तो सबके घर झगड़ा लड़ई होवत रहिथे त ये टूरी भावना ह चारो महिना ले अपन ददा घर आके बइठे हे।”
ओतके में सुखिया कहिथे – “सुने में आहे के टूरी अम्मल में हे त अपन ससुरार चल देतीस नहीं ।”
सुखिया अउ पूनिया गोठियावत-गोठियावत भावना ल देख डरथें और चुप हो जथें । सिधवी भावना घलो कुछु जवाब दे बिनामुड़ ल निहराय अपन घर चल देथे ।
आज भावना अन पानी ल तियाग के दिनभर गुनत हे – “ में का करौं भगवान ? दाई-ददा के घर में हों त समाज के मन ताना देत हें । ससुरार म शरबइहा अउ कामचोर आदमी के रात दिन मारपीट जेन ह समझाय ले नइ समझे । करौं त का करौं?”
शांता कहिथे – “बेटी आज दिन भर उदास हावस कुछु खाय पीए घलो नइ हस । काबर अतेक संसो करत हावस? तोर ददा घलो आज दिन भर चुप-चुप हावय ।
अइसने करत-करत हफ्ता दिन बीत गे संँझा बेरा फोन के घंटी बाजथे । दँउड़त-दँउड़त प्रिया (भावना के छोटे बहिनी ) जाके फोन ल उठाथे– “हलो,,,, हलो,, कोन ?”
“में तोर जीजा, प्रिया अपन दीदी ल फोन दे ।” – वो कोती ले संजय कहिथे
प्रिया– “ये ले दीदी जीजा के फोन।”
भावना कहिथे – “हलो ।”
संजय कहिथे – “चार महीना होगे भावना तोला मोर सुरता नहीं आवत हे का? तें घर आजा में अब दारू पीए ल छोड़ दे हों बरोबर काम मा घलो जावत हों दाई ल पूछ ले। दाई तोर अब्बड़ सुरता करथे। दाई कसम अब में तोला नइ मारँव-पीटँव तें आजा न। भावना सुनत हावस न ।”
भावना धीर ले कहिथे – “हव सुनत हंँव सुरता तो रोज आवय फेर,,,,,,,। पहिली फरी-फरी सबो बात ल ददा तीर गोठिया ले कि अब तें अइसन कभू नइ करस । तें घेरी-भेरी अइसने करबे त में नइ आवंँव । में कइसे विश्वास करौंं कि तें सुधर गे हावस?”
संजय कहिथे – “ एक बेर विश्वास कर ले भावना ।”
भावना थोरिक ठिठक के सोचे लगथे – रोज के पारा मोहल्ला के मन ताना मारथें। मोर ददा के समस्या अउ झन बाढ़य सोच के कहिथे – “ कब आबे ।”
संजय कहिथे – “काली आवत हों । तें तियार रहिबे ।”
संजय भावना ल लेगे बर आथे । अपन सास ससुर ले फरी-फरी बात करके भावना ल ले जथे । भावना नवा दुल्हिन कस बांहा भर चूरी, बड़े जन टिकली, कारी पोत पहिने तियार होके संजय अपन ससुरार धनेली आ जथे । वोकर घर आय ले वाेकर सास रमला अब्बड़ खुश होथे । संजय अपन राज मिस्त्री के काम ल मन लगा के करथे । संजय अउ भावना के जिनगी खुशी-खुशी बीतत पाँच महीना होगे । आज उंँकर घर में एकठन बड़े खुशी के रूप में उंँकर बेटा के जनम होय हे ।
रमला अब्बड़ खुश होके कहिथे – “ फागुन के नगाड़ा ह पंद्रह दिन बाद बजही फेर आज के नगाड़ा मोर नाती के सेती बजही सब पारा मोहल्ला के मन नाचो बाजा बजावव । आज मोर पोता के छट्ठी हे।”
संजय कहिथे – “ हव दाई आज सगा सोदर आहीं । मोर सास ससुर मन घलो आतेच होही अभी फोन करे रहिस।”
उतकीच बेर श्यामसुंदर, शांता अउ उंँकर दूनों बेटी पहुँचथें ।
संजय कहिथे – “दाई पानी ला वो लोटा मा सगा आवत हें ।”
रमला कहिथे – “ ये लो समधीन पानी चलव हाथ गोड़ धोवव ।”
सब झन हाथ गोड़ धोके भीतरी डाहर जाथें । दिन भर सगामन के अवई-जवई, खाना-पीना चलथे ।
साँझ बेरा संजय कहिथे – “दाई अपन संगवारी मनसन एकन बहिरी कोती ले घूम के आवत हंँव।”
येला भावना सुन डरथे अउ संजय ले कहिथे – “जल्दी आबे, कुछ उल्टा सीधा काम मत करबे ।”
संजय – “ ठीक हे कहीके चल देथे ।”
दू घंटाबाद घर में एकदम सन्नाटा छा जथे। बाजा गाजा बंद ओती ले चार झन मनखेंमन खून ले सनाय संजय के लास ल धर के आथें । येला देख के भावना धड़ाम ले मूर्छा होके गिर जथे । खुशी ह दुख में बदल जथे ।
ये डहर पुलिस मन घलोग घर में आ जाथें।
आदमीमन बतावत रहिन कि – “ये दारू पीके गाड़ी चलावत रहिस आगू कोती ले बड़े असन ट्रक आवत रहिस तेमा झपागे एकर संगवारी मन एला छोड़के भागगीन ।”
भावना छाती में पथरा रख के कहिथे – “जीही बात के मोला डर रहिस उही बात होगे । संजय ते दारू पिए बर काबर गे होबे ?” तें तो छोड़ दे हों काहत रहेस ।
“आज दुल्हिन जईसे सजे-धजे भावना विधवा बनगे, रांड़ी होगे । भरे जवानी मा हाथ खाली होय के दुःख ल मोर ले जादा कोनों नइ जान सकें ।
तें काबर अइसने करे बेटा, मोर एक झन बेटा रहे ।
आज तोर घर में अतेक बड़े खुशी मनावत रहेंन । तें नइ पीते त का होतीस ?” छाती पीट-पीट के रमला रोवत हे ।
पाँच दिन में मौत माटी के कार्यक्रम होथे । भावना के दाई ददा रोवत कहिथें – “तोर सास अउ ये नानचन बाबू ल संभालबे बेटी अब तोरे जिम्मेदारी हे”। कहिके अपन घर चल देथें ।
भावना – “में कइसे करहूँ ददा घर में कोनो नइ हे, सास अउ लइका ल कइसे सम्हालहूँ ? घर मा खेती खार नइ हे जिनगी के गुजारा कइसे करहूँ ? कहिके बिलख-बिलख के रोवत हे ।”
सास बहू एक दूसर के ढाढस बंँधावत रोवत हें
अब अइसे-तइसे महीना दिन बीतगे गाँव गली के छोटे विचार अउ खोटहा नियत वालेमन ताना मारे के शुरू कर देहें ।
पड़ोसीन खेदिया काहत हे– “खा डारिस अपन आदमी ल । पहिली मइके में जाके बइठे रिहिस अब तो भरे जवानी में रांड़ी होगे अब तो गुलछर्रा उड़ाही ।”
चौरा मा बईठे पोखन काहत हे – “ ये का रही ससुरार मा? जाही कोनों ल धर के।”
साँझ बेरा आज गाँव के बजार में गोरी नारी चिकनार भावना के सुग्घर रंग रूप ल देख के गाँव के मनचलहा बिगड़ेल टूरा तारन चँउक ताना मारत कहिथे – “अबे! ये तो विधवा रांड़ी असन नइ दिखे रे । ये तो अतेक सुंदर हे एला देखके मन पगला होगे ।”
बिश्राम कहिथे – “ हव बे ये तो घातेच सुग्घर हे फेर देख तो ओ तो चूरी पहिने हे अउ टिकली घलो लगाय हे ।”
भावना टूरामन ल घूर के देखत चुपचाप अपन घर आजथे ।
अतका में पंच सोनऊ बबा कहिथे – “कखरो बहू बेटी ल अइसन बोलथो त तुमन ल लाज नहीं आवे रे । तुंहर घर में तुंहरमन के दाई बहिनी नइ हे का रे ।”
भावना घर आके अपन सास ल ये सब बात ल बतावत कहिथे– “दाई खेती खार तो नइ हे । घर में कोनों कमईया मरद घलो नइ हे, तहूँ सियान होगे हावस अउ जिनगी ल जिए ल पड़ही । में जादा पढ़े तो नइ हों फेर बारवी पास हों । मोला अपन पढ़ई के मुताबिक छोट-मोट काम खोजे बर रोजी-रोटी बर बहिरी जाना पड़ही ।”
रमला कहिथे – “ अब तहीं बेटा बनके पालबे दाई । दुनिया के ताना ल सुनत सुनत तो मोर जिनगी निकलत हे भावना फेर तें सही हावस त कोनों ले डरे के काम नइ हे ।”
दूसर दिन भावना अपन संगवारी तेजन ल फोन लगाके कहिथे – “ तेजन बहिनी तें जौन नगर पंचायत में सफाई कर्रमचारी के काम करथस उहाँ मोरों बर काम खोज देना ।”
तेजा – “ ऑफिस के बड़का बाबू ले आके बात कर लेबे उही जानही ।”
भावना अपन मइके के सरपंच ले बड़का बाबू ले मिलके बात करे ल कहिथे । सरपंच ह बाबू ले गोठ बात करथे अउ भावना ल काम म रख लेथे ।
बईसाख के महीना तपत घाम मा, महीना के पहिली दिन बड़े फजर ले खाना डब्बा धर के नानचुन लइका ल अपन सास के अंचरा में देके गर में कारी पोत, हाथ मा चूरी पहिने काम मा निकलथे ।
रमला भावना के ये रूप ल देख के कहिथे –
“भावना में जानथों तें गलत नइहस फेर गाँव वालेमन दुनिया भर के ताना मारथें । पारा मोहल्ला के मन तोर ये रूप ल देख के पहिली ले तोर ऊपर अंगरी उठावतके रहिन अब अउ गलत समझही अउ मोला कही तोर बहू काखर नाम के चूरी पहिने हे कहिके ।”
भावना कहिथे – “ घर ले बहिरी निकलहूँ त समाज मा कतकों राक्षस मन के चील कस नजर परही, इहाँ किसम–किसम के लोगन हें । त अपन सुरक्छा बर में ये हाथ के चूरी, गर के कारी पोत, माथ के टिकली ल पहिने रहूँ दाई। गाँव वालेमन जौन सोचत हें सोचन दे काहत अपन काम में चल दीस ।”
भावना ल काम में जावत पंद्रह बीस दिन होय रहिस। ईरखा के मारे पारा मोहल्ला के दू झन आदमी श्यामलाल अउ पोखन जेकर मोटियारी बेटीमन खुदे बिगड़े हें तेमन रमला के घर में बड़े बिहनिया ले जाके कहिथें– “तोर बहू के सेती पारा के बहू बेटीमन बिगड़त हवें । अपन बहू ल समझा के रख वो काखर नाम के चूरी, टिकली, कारी पोत पहिनथे ? आज साँझ बेरा सात बजे गाँव मा सामुदायिक भवन मा बइठका होही सास बहू आहू । में पंच, सरपंच ल बता डारें हँव।”
भावना सबो बात ल चुप सुनके अपन काम में चल देथे । काम ले मझनिया बेरा आथे अपन लइका ल धर के दूध पियावत सो जथे । संँझा के काम बूता ल करके रांध के बइठका में सास बहू पहुँचथें ।
श्यामलाल अउ पोखन – “चलो गा बइठका ल शुरू करौ सास बहू आगे ।”
सरपंच – “ का बाते पोखन बता ।”
पोखन – “ तुमन सबो ल जानथो बताय के कोनो जरूरत नहीं हे । ये भावना के सेती गाँव के बेटी माईमन बिगड़त हें, अउ बेटी बहू मन झन बिगड़े । एला समझा दौ अउ पूछौ ये काखर नाम के चूरी पहिने घूमत फिरथे ।”
सरपंच अउ पटईल– “ ये गोठ ल तो हमूं मन सुने हाँवन फेर संजय के तो इंतकाल होगे हे फेर कस ओ बहू तें काबर ये चूरी, टिकली पहिने हावस?”
भावना सबों के बीच में खड़ा होके कहिथे – “साँच ल आँच का, सबों जानथो में चरित्रहीन, बिगड़ेल नइ हों न काखरो बहू बेटी ल बिगाड़त हों । का होइस में रांड़ी हँव त रांड़ीमन ल समाज मा सनमान के साथ जीए के हक नइ हे का? कब तक हमन चील, कंउआँ के आँखी धरे लोगन मन ले डरबों अउ ताना सनबों? समाज के पोखन, बिश्राम, तारन जईसन के राहत ले सब दुखिया रांड़ी के हाल कभू नइ सुधर सकय। आज तो अकेझन भावना हे । काली के बखत मा मोर असन कतकों रांड़ी भावना ल चूरी, टिकली, कारी पोत पहिन के निकले ल परही । में ए चूरी ल अपन आत्मसम्मान अउ जिनगी के भरे जवानी के रक्छा बर पहिने हों ताकि में समाज मा पलत गिद्धमन के बुरा नजर ले जब तक हो सके बच सकँव । में अपन चरित्र के कोनो ल कोई प्रमान नइ देवंँव । में एला नइ उतारंँव ।”
भावना के बात ल सुन के बइठका के सबोंमन एकदम चुप । कोनों मा कुछु बोले के हिम्मत नइ हे । काबर के भावना सही हे । अतका में रमला कहिथे – “ चल बेटी ये दुनिया ल सफई देय के कोनों काम नइ हे ।”
कहिनीकार
डॉ. पदमा साहू *पर्वणी*
खैरागढ़ छत्तीसगढ़ राज्य
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समीक्षा
पोखनलाल जायसवाल:
एक समय रहिस, जब आधा उमर म विधवा होय ले बहू ल घर-परिवार म बड़ सम्मान ले चूरी पहिरा के विधवा के कालिख ले बचाय के उदिम चलय। बहू ल ताना तो सुने ल मिलय।
फेर गरीबी ह सदा दिन जिनगी बर अभिशाप आय। गरीब परिवार म विधवा होना तो जइसे महापाप हो जथे। जेमा पीड़ित नारी के कोनो हाथ नी राहय। समाज के तथाकथित ठेकेदार जेकर ले खुद के घर नइ सॅंभाले जा सकय, उन मन दूसर के सुख ल देख नी सकय। दुख के बोझा म बोझा लादे के प्रपंच रच थें।
शराब समाज ल रात-दिन घुना बरोबर खावत जावत हे। फेर सुधरे के नाॅंव कोनो नइ लेवत हे। कोन जनी का मोहनी हे ? ते शराब म। कतको घर उजरगे फेर न परिवार जागत हे अउ न समाज।
इही शराब के नशा म बिधुन नवा पीढ़ी घलव मर्यादा ल ताक म रखे धर ले हे। जे सबो समाज बर संसो के बात आय। चिंताजनक ए।
शिक्षा ले ही लोगन अपन पाॅंव म खड़ा हो पाथे। विचारवान बनथे। मुश्किल घड़ी ले पार पाय के उदिम करथे। नवा रस्ता चतवारथे। भावना एकर उदाहरण हे। रूढ़ीगत परम्परा ल जिनगी के सुघरई बर बदले के साहस मिल पाथे। जे परम्परा जिनगी बर पीड़ादायी होवय ओला बदले अउ हथियार बनाय के आजादी होना च चाही।
नारी ल संबल प्रदान करत नारी विमर्श के सुग्घर कहानी बर डॉ पद्मा जी ल बधाई
पोखन लाल जायसवाल
पठारीडीह (पलारी)
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ओम प्रकाश अंकुर:
नारी विमर्श के सुघ्घर कहानी हे आदरणीया डा.पदमा साहू के कहानी -" रांड़ी के चूरी,टिकली"।
दारू हमर समाज के एक बड़का बुराई हरे। सौ म दो चार झन ल छोड़ के सबो एमा रंग गे हावय। दारू दुकान के भीड़ ल देखबे त पता चलथे अतकी भीड़ मंदिर म नइ राहय। का अनपढ़,का पढ़े लिखे , चपरासी, बाबू - अफसर सब ए पानी के जादू म मोहाय हे। शराबी मन ल बस बहाना चाही। बिहाव, षट्ठी म उछाह म छकत ले पीथे त मरनी - हरनी, दशगात्र जइसन दुःख के बेरा ल घलो नइ छोड़े। शराबी के दशा ह वो पतंग बरोबर होथे जेकर धागा ह कट गेहे। कटे पतंग ह कदे कर जाके गिरही तेला कोनो नइ बता सकय वइसने शराबी व्यक्ति ह कहां जाके कब झपा जाही वोकर मानी कोनो नइ पी सकय। एक शराब ह कतको बुराई के जड़ हरे।कहावत हे न "पहिली शराब,दूसरा कबाब फेर तीसरइया शबाब"। जादातर शराबी मनखे मन के दशा अइसने होथे। शराब पीये के बाद शेर बन जाथे। नंगत बकही। घर म बाई लोग- लईका ल ठठाही। काम म कोढ़ियई करही अउ रोजी मजूरी कमइया अपन गोसइन के पइसा बर नियत लगाय रही। जुआ - छट्टा खेलही। घर वाले मन के जिनगी नरक बनही। ये कहानी म दारू के दुष्परिणाम के जीवंत चित्रण सामने आय हे कि कइसे शराबी मन झूठ बोल के बाई ल बुलाथे पर दारू के नशा ल नइ छोड़ पाये अउ आखिर एक्सीडेंट होके मर जाथे।
ये कहानी म एक शराबी घर के दसा अउ दिसा के मार्मिक चित्रण हावय।कहानी के मुख्य पात्र भावना कस न जाने कतको भावना मन के जिनगी शराबी पति के कारन नरक हो जाथे।भरे जवानी म उंकर मन के सपना ह छर्री -दर्री हो जाथे। कम उमर म विधवा हो जाथे अउ समाज ले नाना प्रकार के हीनमान सहिथे। कतको कुकर -कौंवा, गिधान मन नोचे बर तैयार रहिथे।
कम उमर म विधवा होय के बाद का का परेसानी ले गुजरे ल पड़थे अउ वोकर ले बचे बर कहानी के मुख्य पात्र भावना ह विधवा होय के बावजूद चूरी,टिकली अउ कारी पोत पहिनथे। कहानी के ये चित्रण ह नारी विमर्श के सुघ्घर उदाहरण हे। कहानीकार अपन मुख्य पात्र भावना के माध्यम ले समाज ल संदेश देथे कि एक विधवा के दसा अउ दिसा सुधारे बर अपन योगदान देवय न कि पांव खींच के गिराय के काम करय। कहानी के भाषा पात्रानुसार हावय। बिगड़ैल टुरा मन के भाषा कइसे रहिथे वोकर खरा - खरा चित्रण हावय। पास - पडोस के लोगन अउ गांव के मनखे मन के बेवहार के बने बरनन हे। ये एक सार्थक कहानी हे। येकर खातिर कहानीकार आदरणीय डॉ. पदमा साहू ल गाड़ा- गाड़ा बधाई अउ शुभ कामना हे।
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