*हमर लोकगीत म प्रेम*
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भाव हम ला जिनगी के अनुभव कराथे , अउ इही भाव हमर जिनगी के प्रमाण हरे। काबर पूरा जीव जगत म भाव जरूर होथे।
कखरो म कम त कखरो म जादा, अउ इही भाव ल हम रस कहिथन
तभे मनखे मन मा नौ रस होथे जइसे श्रंगार, हास्य करूण,शांत रौद्र,वात्सल्य,अद्भुत,वीभत्स भयानक अउ इही रस हमर शरीर के आत्मा होथे, बिना रस के मनखे निरस बेजान जइसे होथे।
रस हृदय ले निकले एक भाव हरे अउ इही भाव म एक सबसे सुग्घर भाव होथे प्रेम के,,,,,,
प्रेम शाश्वत हे ,सत्य हे,, ये एक सुग्घर एहसास आय, जेन सब जीव म होथे। प्रेम के न कोनो आकार हे, न कोनो रंग ना कोनो भेद ,
ये तो बस हृदय के एक भाव होथे
जेन कोनो भी जीव निर्जीव कखरो बर भी उत्पन्न होथे। अउ इही वो आधार आय जेखर ले ये सृष्टि चलत हे।
पशु जेन ल हम बिना ज्ञान के मानथन इहू जब अपने बच्चा ल जनम देथे तो वोखर रक्षा बर सबो जतन करथे उही तो ओकर मया हरे।
जब ले ये सृष्टि के रचना होय हे, तब ले जीवन के संगे सँग प्रेम तको सिरजे हे, हमर भारतीय संस्कृति मा प्रेम के कई ठन उदाहरण मिलथे अउ प्रेम बर कोनो बौद्धिक ज्ञानी होना तको जरूरी नइये। तभे उद्धव जी अउ कृष्ण जी के जब बात चलत रहिस तब उद्धव जी ज्ञान ल जादा ताकतवर समझय,तब प्रभु श्री कृष्ण कहे रिहिस प्रेम के बिना सब व्यर्थ है उद्धव, तभो मानत नइ रिहिस त वोला गोकुल म भेजिस।
अउ गोकुल म उद्धव जब गोप गोपी मन के कृष्ण प्रेम ल देखिस त ओखर अहंकार दूर होइस।अउ वोला माने ले पड़िस कि ज्ञान के कोनो अर्थ नइये जब तक प्रेम नइये।
अउ प्रेम के स्वरूप कोनो एक जगा तक सीमित नइ राहय, आम साधारण भाषा मा तो प्रेम के रूप ल प्रेमी अउ प्रेमिका के रूप म ही देखथे,फेर प्रेम तो निरंतरता ये।ये इँहे तक नइ राहय। प्रेम वात्सल्य हरे ,प्रेम करुणा हरे। प्रेम हर जीवित अउ निर्जीव सबो से अगाध रहिथे, तभे तो हम गंगा
मइया ले प्रेम करथन, पर्वत,वन पेड़ पौधा पशु -पक्षी अउ एक पथरा के रूप में भगवान ले अगाध प्रेम करथन ,प्रेम आस्था हरे,,,,,।
कृष्ण जी ल हम प्रेम के प्रतीक मानथन प्रेम के साकार रूप अटूट आस्था विश्वास कोनो मेर विलासिता नइ कहूंँ खोट नइ हर उमर के संग प्रेम करे हे। कोनो ल माँ के रुप म तो कोनो ल सखा,,,
*जाकी रहे भावना जैसी, हरि मूरत देखी तिन तैसी।।*
*मया पिरित बगराव जी, होही तभे विकास।*
*नवा-नवा सिरजन होही,दिखही तभे उजास।।*
जब साहित्य के विकास होइस त एक साहित्यकार अपन तीर तखार प्रकृति अउ मनखे के हाव-भाव ल अपन लेखन म पिरो के लानिस, प्रेम ले साहित्य के खजाना भरे हे।
हर युग म कवि साहित्यकार मन के साहित्य म प्रेम रचे- बसे हे।
वैदिक साहित्य के श्लोक, ऋचा, सूक्त मन म।ओइसने कालिदास के मेघदूत म प्रेम गीत के स्वर गूँजथे । जयशंकर प्रसाद जी ल प्रेम अउ आनंद के कवि कहे जाथे महादेवी वर्मा के कविता म प्रेम एक मूल भाव के रूप में प्रकट होथे। उंँखर कविता म दांपत्य प्रेम के तको झलक मिलथे।
*"जो तुम आ जाते एक बार,,,,*
*कितनी करुणा, कितने संदेश पथ में बिछ जाते।*
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*सुआ ददरिया भोजली, नाचा करमा गीत।*
*रास जँवारा मा दिखय, मया पिरित के रीत।।*
जब लोकभाषा के सिरजन होइस, तब मनखे अपन मन के भाव ल कविता या गीत के माध्यम ले गुनगुनाय बर धरिस।अउ उही मेर ले शुरू होइस लोकगीत के रचना,,,,
लोकगीत हमर संस्कृति के संवाहक होथे,काहन त हमर रीति- रिवाज, तीज तिहार परब उत्सव के आईना देखाथे,अउ मया तो हमर स्वभाव हरे त वो भाव तो हमर लोकगीत म झलकबे करही।अउ छत्तीसगढ़ म
36 किसिम के गीत के विधा हे
सबो गीत के जब आकलन करथन त प्रेम के स्वरूप सबो गीत म दिखथे, चाहे वो लोरी होवय या ददरिया।
जैइसे हम लोरी गीत के बात करथन त एमा दाई के मया, वात्सल्य प्रेम दिखथे,,।
अउ ददरिया युगल प्रेमी प्रेमिका के भाव, श्रृंगार ल ले के आथे
तब जनक राम राम नेताम के गीत बोल पढ़थे,,
*रुम झुम चंदैनी गोंदा फुले छत नार,,,*
*लाली हो गुलाबी फुले छाये हे बहार ।*
अइसने ढोला मारू प्रेम गीत म ढोला मारू के प्रेम कथा ल जीवंत बना देथे।
अउ एमा हमर छत्तीसगढ़ी संस्कृति के रूप तको देखे बर मिलथे।
सुआ गीत म प्रेम विरह के पीरा दिखथे,तो सोहर गीत म जनम के शुभ बेरा म छलकत वात्सल्य दिखथे।याने हमर संस्कृति म कोनो भी उछाह,,बिन गीत के अधूरा कस लागथे।
अउ जब प्रेम के गोठ करत हन त हमर साहित्य जगत प्रेम बिन कहांँ पूरा होथे।कोनो भी गीत ल देखलव मुलरुप म युगल के मया के रूप में गीत के रचना होय हे,,
एक लेखक प्रेमी प्रेमिका के मन के भाव ल श्रृंगार रुप म बताए के गाए के उदिम करथे ।
जइसे किस्मत बाई देवार के गायकी मा
*चौरा म गोंदा रसिया,मोर बारी म पताल रे,,,,,,,*
*लाली गुलाली रंग छींचत अइबे राजा मोर,,,,*
प्रकृति संग अपन मया के रंग बगरावत अपन प्रियतम ल मया के रंग छींचत---
लक्ष्मण मस्तुरिया के गीत म
*वाह रे मोर पड़की मैना ,तोर कजरेली नैना,,,,,*
श्रंगार के कतेक सुग्घर भाव हे
हमर छत्तीसगढ़ी गीत म मया के अलग अलग रूप ल बड़ सुग्घर ढंग ले बताय के बहुते सुग्घर प्रयास करे हे।कई प्रकार के उपमा -उपमान अउ किसिम-किसिम के उदाहरण के माध्यम ले आम जन ल जोड़े के प्रयास करें हे। कोनो गीत म मया के बारीकी ल बतावत हे त कोनो म ओकर पूर्णता ल। कोनो रद्दा मा आँखी निहारत हे त कोनो विरह के गीत मा अंतस भिंजोवत हे।
कतको झन मनखे मन रात दिन अपन अंतस मा ओकर गीत गुनगुनावत रहिथे।
तब गीतकार गायक धुरवा राम मरकाम ह गाय रिहिन।
*"लागे रहिथे दीवाना तोरो बर मोर मया लागे रहिथे"*
एक कवि लेखक नायक नायिका के अंतस मा उतर के रचना करथे तब कवियित्री स्व.कुसुमलता ठाकुर के लेखनी के भाव ल सुनके गुने बर पड़थे।
*तोर मया के आगी म बैरी,तन मन मोर भुँजा गे रे ----*
*तोर बिना मोर बैरी,केंवची सपना अइलागे रे -----*
ए गीत मा कतका सुग्घर भाव पिरोय हे कि मेंहा तोर मया म जेन सपना देखे रेहेंव बहुत पवित्र अउ कोमल रिहिस,बहुत उरजा रिहिस।फेर मोर मया तोर मया के आँच मा अइलागे।मँय तो सोंचव मही अंतस ले तोला मया करथँव,फेर तोर मया मोर मया ले जादा,तोर मया के आगी म मोर मया मुरझागे।
कवि के कल्पना के बानगी अन्तर्मन ल छू लेथे।
अउ जब हम प्रकृति कोती ल देखथन तो प्रकृति तको हम ला मया बाँटथे।हर ऋतु मा हम ला अपन मया के अँचरा देथे।
फेर बसंत ऋतु ल तो प्रेम अउ श्रृंगार के ऋतु तको कहिथे। प्रकृति के यौवन अउ नवसृजन के ऋतु हरे।तभे तो ये ऋतु के आय ले पुरवाही ह मन के उदासी मा नवा जोश भरके कोनों मधुर तान छेंड़त हे अइसे लगथे। चारों कोती रंग बिरंगी फूल,नवा-नवा पात
जइसे मांँ सरस्वती के अगुवाई मा स्वागत करे बर खड़े हे।खेत मा सरसों के पीँयर पीँयर फूल ओन्हारी पाती मा चना गहूँ अउ मसूर ल खेत मा झूमत देख मन तरंगित हो उठथे।आम के मउँर ले महकत बाग बगीचा फूल पलाश के अँगरा जइसन बरत आगी दुलहिन बनके मानों धरती दाई ल रिझावत हे।अतका सुग्घर श्रृंगार प्रकृति के देख मन ह हिलोर मारत रहिथे।ये बसंत प्रेम के सृजन के ऋतु होथे।त कवि हिरदय कहाँ पाछू रइही,तभे तो बसंत के प्रेम ले साहित्य जगत के अँचरा तको बासंती हो जथे।
तभे निराला जी लिखे हे
*सखि बसंत आया,भरा हर्ष*
*वन के मन नवोत्कर्ष छाया*
मया पिरित ह हर नता गोता के अधार हरे,अउ मया पिरित ले ही हम सबो जुड़े रहिथन।घर परिवार नता रिश्ता संगी साथी सब ले जुड़ाव के कारण इही मया अउ पिरित हरे।
*मया जीवन आधार हे,बनके रहिबो मीत।*
*सुग्घर संस्कृति हे हमर,बाँटन सब मा प्रीत।।*
त प्रेम ल कोनो दिवस अउ दिन मा नइ बाँध सकन,आज के समे मा वेलेंटाइन डे मनाथे।येला तारीख मा कैद करई प्रेम के अपमान कस लागथे। प्रेम तो अजन्मा हे, प्रेम तो हर जीव ल ईश्वर ले अनुपम उपहार स्वरूप मिले एक सौगात ये।हम सब ला सब के प्रति प्रेम करुणा अउ दया भाव रखना चाही।बिन प्रेम के जीवन नइ चलय अउ बिन प्रेम के भगवान ल तको नइ मना सकन।
*बिना प्रेम रीझै नहीं देवकी नंद किशोर ------+*
अउ इही तो हमर वास्तविक स्वरूप हरे प्रेम हर मनखे ल माता पिता, भाई बहिनी,हर नता गोता, प्रकृति अउ जीव जगत बर होना चाही।इही तो सृष्टि के मूल आधार आय।
*प्रेम सत्य हे, प्रेम शास्वत हे -*
*प्रेम अजन्मा हे*
संगीता वर्मा
आशीष नगर(प.)
अवधपुरी भिलाई
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