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*मनखे के दो मुँहा चरित्र...अपन भ्र्ष्टाचार रिश्वतखोरी करही तब ले भी अपन ओनहा ल उज्जर समझथे, अउ आगु वाला हर नानकुन खीला ल धर लिस ,तब वोहर गारी खाय लायक अखंड चोर...*
*उज्जर ओनहा/नान्हे कहिनी*
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धरम जी के अपन ये सरकारी ऑफिस म बड़ नाम हे । वो बड़े -बड़े 'कारज' ल वोइच दे तुरत- ताही सलटिया डारथें । बड़े- बड़े लेन देन डील करे म अब्बड़ हुशियार हावें वो! येकरे बर कोनहु साहब आँय अलदी -बदली म उँकर पद अउ कद उपर म फरक नई परे । उँकर वोइच मान- सम्मान...पूछ- पुछारी सदाकाल बने रहिथे ।
वो तो आजेच बने पोठ 'बुता' करिन हें । वइसन इंकर बुता हर तब शुरू होथे, जब आने मन के हर छेवर होत रहिथे । ये बनेच बेर म अपन घर कोती लहुटथें, फेर आज बनेच 'बुता' हर जल्दी हो गय, तेकर सेथी घर कोती वो भी जल्दी लहुटत हावें ।
वो तीर के शॉपिंग सेंटर ले जरूरत -बिन जरूरत के समान ल लाद भरे हावें । वो जे दिन बड़े 'बुता' करे रथें, वो दिन ठीक अइसनहेच लेनदेन करथें । तभो ले जेब हर गरू रथे । उंकर रहन -बसन , ओनहा-कपड़ा सब एक नम्बर के रथे । पहिने के कपड़ा म नानकुन दाग ल वो सहन नई कर पांय, वो पूरा उज्जर अउ जतन करे रहिथें । घर के सेवा जतन म फर्नीचर वाला, पेंटर जइसन मन भिड़ें च रहिथें । वो परछर गोठ करना पसंद करथें । अउ उंकर परछर गोठ के छेवर म रहिथे - तनखा के पईसा के लेनदेन करे, घर चलाय त काय सरकारी नौकरी करे ...! वो एईच मूलमन्त्र के साधक अउ उपासक दुनों आँय ।
आज घर आइन , तब आज ये नावा आय फर्नीचर वाला टुरा के खाली टिफिन डब्बा उपर इंकर नजर पर गय । वो छोकरा हर दस -बारह ठन स्क्रू मन ल धर लेय रहिस एमा, अपन घर ले जाहूँ कहके...
धरम सब सह लिही, फेर चोरी नहीं -वो बिगड़ गिन ।"तँय काल ल बुता झन आबे !" वो फिर वो टुरा ल धमकात कहिन ।
साला ! नीच ! चोर जात ! ये सब साले मन अइसनहेच रहिथें । वो फिर बुदबुदाइन ।
वो लड़का तरी मुड़ करके वो स्क्रू मन ल छोड़ के अपन टिफिन- डब्बा ल संकेलत रहिस ।
*रामनाथ साहू*
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