Saturday, 20 May 2023

बासी जब सम्मानित होही - छत्तीसगढ़ सम्मानित होही

 "बासी जब सम्मानित होही - छत्तीसगढ़ सम्मानित होही" 


"बासी" खानपान के आइकॉन मात्र नोहय, एहर हर उपेक्षित छत्तीसगढ़िया के प्रतीक आय शायद तभे लक्ष्मण मस्तुरिया जी कहे रहिन -


"ओ गिरे थके हपटे मन अउ परे डरे मनखे मन

मोर संग चलव रे….


अलग-अलग दशक मा छत्तीसगढ़ के कवि मन घलो बासी ला सम्मानित करके छत्तीसगढ़ ला सम्मानित करे के उदिम करे रहिन। आवव, देखव…कोन दशक मा कोन-कोन कवि मन बासी ला कइसे सम्मानित करे हवँय………..


"छत्तीसगढ़ी काव्य मा -  छत्तीसगढ़ के बासी"


अमरीकन न्यूट्रीशन एसोसियेशन के कहना हे कि ‘बासी भात’ मा आयरन, पोटेशियम, कैल्शियम तथा विटामिन घलो मिल जाथे। एमा विटामिन बी-12 घलो रहिथे।.बासी के वैज्ञानिक अउ अंग्रेजी नाम हे - होल नाइट वाटर सोकिंग राइस। अमरीका के शोध कहिथे कि बासी खाए ले गर्मी और लू नइ लगय। हाइपरटेंशन अउ बीपी घलो नियंत्रण मा रहिथे। नींद बर घलो ए बढ़िया होथे। अमेरिका का कहिथे, हम ला का लेना देना हे ? हमर छत्तीसगढ़ मा बासी एक परम्परा बन गेहे। कुछ शहर वाला मन टेस बताए बर भले नइ खाँय फेर बहुत झन शहर मा अउ जम्मो झन गाँव मा नेत नियम ले बासी खाथें।


छत्तीसगढ़ के कवि मन घलो अपन कविता मा बासी के महिमा ला गावत रहिथें। आवव कुछु कवि मन के कविता के झलक देखे जाय - 


सब ले पहिली लोकगीत ददरिया सुनव - 


बटकी मा बासी अउ चुटकी मा नून

मँय गावsथौं ददरिया, तँय कान दे के सुन।


जनकवि कोदूराम "दलित" के कुण्डलिया छन्द मा बासी के सुग्घर महिमा बताए गेहे - 


बासी मा गुन हे गजब, एला सब झन खाव।

ठठिया भर पसिया पियौ, तन ला पुष्ट बनाव।।

तन ला पुष्ट बनाव, जियो सौ बछर आप मन

जियत हवयँ जइसे कतको के बबा-बाप मन।

दही-मही सँग खाव शान्ति आ जाही जी - मा

भरे गजब गुन हें छत्तिसगढ़ के बासी मा।।  


जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया जी के सुप्रसिद्ध गीत चल चल गा किसान बोए चली धान असाढ़ आगे गा, मा बासी के वर्णन हे -

धंवरा रे बइला कोठा ले होंक दै।

खा ले न बासी बेरा हो तो गै।।


भिलाई के कवि रविशंकर शुक्ल के सुप्रसिद्ध लीम अउ आमा के छाँव, नरवा के तीर मोर गाँव के एक पद बासी ला समर्पित हे - 


खाथंव मँय बासी अउ नून, 

गाथंव मँय माटी के गुन। 

मँय तो छत्तीसगढ़िया आँव।।


खुर्सीपार भिलाई के कवि विमल कुमार पाठक के कविता मा बोरे बासी के सुग्घर प्रयोग देखव - 


छानी चूहय टप टप टप टप

परछी मं सरि कुरिया मा।

बोरे बासी रखे कुंडेरा मा, 

बटुवा मं, हड़िया मा।।


गंडई के लोकप्रिय कवि पीसी लाल यादव के गीत मा गँवई के ठेठ दृश्य देखव - 


चँवरा में बइठे बबा, तापत हवै रऊनिया।

चटनी बासी झड़क़त हे, खेत जाय बर नोनी पुनिया।।


शिक्षक नगर, दुर्ग के कवि रघुवीर अग्रवाल "पथिक" के कविता मा बासी के प्रयोग देखव - 


जनम धरे हन ये धरती मा, इहें हवा पाए हन।

गुरमटिया चाँउर के बासी, अउ अँगाकर खाए हन।।


छन्द के छ परिवार के कवि मन घलो अपन रचना मा बासी के वर्णन करिन हें - 


कचलोन सिमगा के छन्द साधक मनीराम साहू "मितान" के रचना मा पहुनाई ला देखव -


हाँस के  करथे पहुनाई ,

एक लोटा पानी  मा।

बटकी भर बासी खवाथे,

नानुक अथान के  चानी।

कभू तसमई कभू महेरी,

भाटा खोइला मही मा कढ़ी जी ।


चंदैनी बेमेतरा के छन्द साधक ज्ञानुदास मानिकपुरी के घनाक्षरी के अंश मा बासी के महिमा देखव - 


नाँगर बइला साथ, चूहय पसीना माथ

सुआ ददरिया गात, उठत बिहान हे।

खाके चटनी बासी ला,मिटाके औ थकासी ला

भजके अविनासी ला,बुता मा परान हे।


सारंगढ़ के छ्न्द साधक दुर्गाशंकर इजारदार कहिथें कि चैत के महीना मा सबो झन बासी खाथें - (रोला के अंश)


अड़बड़ लगथे घाम, चैत जब महिना आथे

रोटी ला जी छोड़, सबो झन बासी खाथें।


बलौदाबाजार के छन्द साधक दिलीप कुमार वर्मा के कुण्डलिया छन्द के अंश मा बासी के प्रयोग -


खा के चटनी बासी रोटी अब्बड़ खेलन।

गजब सुहाथे रोटी बेले चौकी बेलन।।


डोंड़की,बिल्हा के छन्द साधक असकरन दास जोगी के उल्लाला छन्द मा बासी के स्वाद लेवव - 


बोरे बासी खास हे, खाना पीना नीक जी।

गर्मी लेथे थाम गा, होथे बोरे ठीक जी।।


हठबंद के छन्द साधक चोवाराम "बादल" के रोला छन्द मा बासी के महिमा - 


बासी खाय सुजान, ज्ञान ओखर बढ़ जावय

बासी खाय किसान, पोठ खंती खन आवय।

बासी पसिया पेज, हमर सुग्घर परिपाटी

बासी ला झन हाँस,दवा जी एहा खाटी।।


बाल्को मा सेवा देवत ग्राम खैरझिटी के छन्द साधक जितेन्द्र वर्मा "खैरझिटिया" बासी गीतिका छन्द मा देखव - 


चान चानी गोंदली के, नून संग अथान।

जुड़ हवै बासी झड़क ले, भाग जाय थकान।।

बड़ मिठाथे मन हिताथे, खाय तौन बताय।

झाँझ झोला नइ धरे गा, जर बुखार भगाय।।


खैरझिटिया जी के आल्हा छन्द के एक अंश - 


तन ला मोर करे लोहाटी, पसिया चटनी बासी नून।

बइरी मन ला देख देख के, बड़ उफान मारे गा खून।।


धमधा मा कार्यरत ग्राम गिधवा के युवा छन्द साधक हेमलाल साहू के गीतिका छन्द के अंश देखव - 


लान बासी संग चटनी, सुन मया के गोठ गा।

खा बिहिनिया रोज बासी, होय तन हा पोठ गा।।


एन टी पी सी कोरबा के छन्द साधिका आशा देशमुख के चौपाई के एक अर्द्धाली मा बासी अउ अथान के संबंध के सुग्घर बखान - 


आमा लिमउ अथान बना ले।

बासी भात सबो मा खा ले।।


बिलासपुर के छन्द साधिका वसंती वर्मा के चौपाई छन्द के एक अर्द्धाली मा बासी के प्रयोग -  


लाली भाजी गजब मिठाथे।

बासी संग बबा हर खाथे।।


नवागढ़ के छन्द साधक रमेश कुमार सिंह चौहान के एक गीत के हिस्सा मा बासी के प्रयोग देखव - 

 

जुन्ना नाँगर बुढ़वा बइला, पटपर भुइँया जोतय कोन।

बटकी के बासी पानी के घइला, संगी के ददरिया होगे मोन।।


दुरुग के छन्द साधक अरुण कुमार निगम के छन्द मा बासी के महिमा देखव - 


मँय  बासी हौं भात के, तँय मैदा के पाव।

मँय  गुनकारी हौं तभो, तोला मिलथे भाव।। 

(दोहा)


बरी बिजौरी के महिमा ला।पूछौ जी छत्तिसगढ़िया ला।।

जउन गोंदली-बासी खावैं। सरी जगत बढ़िया कहिलावैं।।

(चौपाई) 


छत्तिसगढ़िया सबले बढ़िया , कहिथैं जी दुनियाँ वाले।

झारा-झार नेवता भइया , आ चटनी-बासी खा ले।।

(ताटंक)


माखनचोर रिसाय हवे कहिथे नहिं जावँ करे ल बियासी

माखन, नाम करे बदनाम अरे अब देख लगे खिसियासी 

दाइ जसोमति हाँस कहे बिलवा बिटवा तँय छोड़ उदासी  

श्री बलराम कहे भइया  चटनी सँग खाय करौ अब बासी

(सवैया)


छत्तीसगढ़ी भाषा के हर कवि के एक न एक रचना मा बासी के वर्णन जरूर मिलही। आज मोर करा उपलब्ध रचना मन के उन डाँड़ के संकलन करे हँव जेमा "बासी" शब्द के प्रयोग होए हे।


आलेख - अरुण कुमार निगम

             आदित्य नगर, दुर्ग, छत्तीसगढ़

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"बोर बासी-भात" विषय पर छंदबद्ध रचनाएँ -


कुण्डलिया छन्द -


खावव संगी रोजदिन, बोरे बासी आप |

सेहत देवय देंह ला, मेटय तन के ताप ||

मेटय तन के ताप, संग मा साग जरी के |

भाथे अड़बड़ स्वाद, गोंदली चना तरी के ||

खीरा चटनी संग, मजा ला खूब उडा़वव |

पीजा दोसा छोड़, आज ले बासी खावव ||


सुनिल शर्मा "नील"

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बरवै छन्द - 


पॉलिश वाला चाँउर, बड़ इतराय।

ढेंकी-युग कस बासी, नही मिठाय।।


हवै गोंदली महँगी, कोन बिसाय।

नान-नान टुकड़ा कर, मनखे खाय।।


साग चना हर अपने, महिमा गाय।

देख जरी वोला मुच-मुच मुस्काय।।


आमा-चटनी मुँह मा, पानी लाय। 

खीरा धनिया अड़बड़, स्वाद बढ़ाय।।


शहर-डहर के मनखे, मन अनजान।

नइ जानँय बासी के, गुन नादान।।


फूलकाँस के बटकी, माल्ही हाय!

ये युग मा इन बरतन, गइन नँदाय।।


अरुण कुमार निगम, दुर्ग

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कुण्डलिया छन्द


बासी ला खा के चलै,जिनगी भर मजदूर।

थरहा रोपाई करै,ठेका ले भरपूर।।

ठेका ले भरपूर,कमावय जाँगर टोरत।

डाहर देखय द्वार,सुवारी रोज अगोरत।।

घर आवत ले साँझ,देख लागै रोवासी।

जोड़ी भरथे पेट,नून चटनी खा बासी।।


राजकिशोर धिरही, तिलई, जांजगीर-चाँपा

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दोहा छंद


बोरे बासी गोंदली,अउ खेड़ा के साग।

कतको झन के भाग ले,काबर जाथे भाग।।


मनखे मन समझैं नहीं,मनखे के जज्बात।

एकर से जादा नहीं,जग मा दुख के बात।।


कभू कभू देदे करव,लाँघन मन ला भात।

अइसन पुन के काज ला,जानौ मनखे जात।।


जीतेन्द्र निषाद 'चितेश', सांगली, बालोद

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छप्पय छंद


बासी पसिया पेज, पेट बर पाचुक खाना।

फोकट अब झन फेंक, हरे महिनत के दाना।


खाव विटामिन जान, स्वस्थ रइही जी काया।

चना जरी के साग, रोग के करे सफ़ाया।


जागौ चतुर सुजान मन, जिनगी बर उपहार ये।

कतका गुन हे जान लौ,बात इही हर सार ये।।


संगीता वर्मा, भिलाई, छत्तीसगढ़

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चौपाई छंद  


जिहाँ मारबल टाट हे, ओ का बासी खाय। 

जब खावत हे गोंदली, तहाँ भरोसा आय।1।(दोहा)


जेमन छितका कुरिया रहिथें। 

दुख पीरा ला निशदिन सहिथें।।

दार भात ला जे नइ पावयँ।  

बासी खा दिन रैन बितावयँ।।


कभू गोंदली नइ ले पावयँ।

नून मिरच मा काम चलावयँ।।

ओ का खीरा ककड़ी खाहीं। 

बस आमा के चटनी पाहीं।।


पर ये बासी अलगे लागे।

लगे सौंकिया के मन जागे।।

बासी मा तो मही डराये। 

अउर गोंदली दिये सजाये।।


दुसर प्लेट खीरा ले साजे। 

अउर चना कड़दंग ले बाजे।।

जरी बने हे चट अमटाहा। 

तीर सपासप काहय आहा।।


बासी के सँग जरी खिंचावय। 

अउर गोंदली कर्रस भावय।।

मजा उड़ावय खाने वाला। 

बासी के हे स्वाद निराला।। 


बासी बावयँ छत्तीसगढ़िया।  

कहिथें जिन ला सबले बढ़िया।।

फिर काबर बेकार कहावँव। 

बासी मँय तो मन भर खावँव।।


हबरस हइया कभू न खावव। 

नहिते आफत जान फँसावव।।

बासी नरी बीच जा अटके। 

बिन पानी बासी नइ गटके।।


समे रहे तब माँग के, स्वाद गजब के पाव। 

बइठ पालथी मार के, मन भर बासी खाव।2। (दोहा)


दिलीप कुमार वर्मा, बलौदाबाजार

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त्रिभंगी छंद


नइ लगे उदासी,खा ले बासी ,साग हवै जी ,चना जरी।

चटनी मन भावय,खीरा हावय,मीठ गोंदली,थाल तरी ।।

सब रोग भगावय,प्यास बुझावय,बासी पाचन,खूब करे।

खा ले जी हॅसके,निसदिन डटके,भर के बटकी, ध्यान धरे।।


लिलेश्वर देवांगन, बेमेतरा

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सरसी छन्द - 


छत्तीसगढ़ के बासी पसिया, संग खेड़हा साग।

बइठे आये देख पड़ोसी, खाँवे येला मांग।।


चना साग अउ आमा चटनी, बासी खाँय बुलाय।

खेड़हा झोरहा खीरा मा, बासी गजब मिठाय।।


छत्तीसगढ़िया सबले बढ़िया, बासी हे पहिचान।

बोरे बासी चटनी खा के,जावे खेत किसान।।


वसन्ती वर्मा, बिलासपुर

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कुण्डलिया छंद -

(1)

खालौ अम्मट मा जरी, संग चना के साग।

बोरे बासी गोंदली, मिले हवै बड़ भाग।

मिले हवै बड़ भाग, पेट ला ठंडा करही।

खीरा फाँकी चाब, मूँड़ के ताव उतरही।

हमर इही जुड़वास, झाँझ बर दवा बनालौ।

बड़े बिहनिया रोज, नहाँ धोके सब खालौ।।1।।

(2)

चिक्कट चिक्कट खेंड़हा, चुहक मही के झोर।

बासी ला भरपेट खा,जीव जुड़ाथे मोर।

जीव जुड़ाथे मोर, जरी सस्ता मिल जाथे।

मनपसंद हे स्वाद, गुदा हा अबड़ मिठाथे।

सेहत बर वरदान, विटामिन मिलथे बिक्कट।

बखरी के उपजाय, खेंड़हा चिक्कट चिक्कट।।2।।


चोवाराम 'बादल', हथबंद, छत्तीसगढ़

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कुण्डलिया छन्द - 


बोरे बासी गोंदली,देखत मन ललचाय।

आमा चटनी संग मा,देख लार चुचवाय।।

देख लार चुचवाय, खेड़हा तरी मिठावय

चना साग हे संग,खाय तालू चटकावय।।

कँकड़ी खीरा खाय,घाम कब्भू नइ झोरे।

धनिया ले ममहाय,हाय रे बासी बोरे।।


दुर्गाशंकर ईजारदार, सारंगढ़ (मौहापाली)

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आल्हा छंद


बोरे बासी खालव भैया,झन फेंकव तुम बाॅंचे भात।

अन्न हमर हे जीवन दाता,प्राण बचाथे ओ दिन रात।।


सुग्घर मिरचा चटनी देखव,साग खेड़हा भाजी आय।

स्वाद ग़ज़ब के रइथे ओकर,लार घलो चुचवावत जाय।।


काट गोंदली गरमी जाही,खाबो जी हम मन भर आज।

देशी खाना खालव कइथॅंव,एमा का के हावय लाज।।


ओम प्रकाश पात्रे "ओम", बेमेतरा

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कुंडलिया छंद -


बासी चटनी संग मा, खावँय घर परिवार|

अब तो नइहे गाँव मा, चिटको मया दुलार||

चिटिको मया दुलार, कहाँ अब बँटथे पीरा|

चुचरन चुहकन पोठ, जरी अउ खावन खीरा ||

साग चना के जोर, भेज दँय बतर बियासी

चिटिक मही ला डार, ससन भर झड़कन बासी||


अनुज छत्तीसगढ़िया, पाली जिला कोरबा

 

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सार छंंद -


साग अमटहा खेड़ा के अउ, चना संग मा हावय।

बासी के संग गोंदली ला,  मजा खाय मा आवय।। 


करय गोंदली रक्षा लू ले, बासी प्यास बुझाथे।

भरे बिटामिन खेड़ा मा अउ, शक्ति चना ले आथे।।


अनुज छत्तीसगढ़िया, पाली जिला कोरबा

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सार छंद आधारित गीत - 


बासी मा हे सबो बिटामिन, चवनप्रास नइ लागे।

खा ले भइया कॅवरा आगर, मन उदास नइ लागे।।

(1)

रतिहा कुन के बोरे बासी, गुरतुर पसिया पीबे।

मही मिलाके झड़कत रहिबे, सौ बच्छर ले जीबे।।

नाॅगर बक्खर सूर भराही, करबे तिहीं सवाॅगे……

(2)

बटकी के बारा उप्पर मा, थोरिक नून मड़ाले ।

थरकुलिया के आमा चटनी, गोही चुचर चबाले ।

ठाढ मॅझनिया पी ले पसिया, प्यास ह दुरिहा भागे…

(3)

कातिक अग्घन सिलपट चटनी, धनिया सोंध उड़ाथे ।

पूस माॅघ मा तिंवरा भाजी, बासी संग मिठाथे ।

बासी महिमा ला सपनाबे, रतिहा सूते जागे…..


राजकुमार चौधरी, टेड़ेसरा

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घनाक्षरी छन्द - 

(1)

माड़े  हवै  बटकी मा मही डारे बोरे बासी,

तँउरत ए प्याज देख मन छुछुआत हे।

गाँवे म रहइ अउ बोरे बासी के खवइ के बने,

रहि रहि के तो आज सुरता देवात हे।।

एकर असन कहाँ पाहीं कोनो टॉनिक जी,

शहरी मानुष एला खाए बर भुलात हे।।

फास्ट फुड पिज्जा बर्गर के दीवानगी गा,

नवा पीढ़ी के तो कथौं हेल्थ ला गिरात हे।।

(2)

झोर वाले चना संग माड़े आमा चटनी अउ

परुसाए थरकुलिया मा बने जरी साग।

तिरियाये खीरा चानी कहत शहरिया ल,

अइसन टॉनिक छोड़ फोकटे जाथौ जी भाग।।

बटकी म बासी चुटकी म नून गीत के तो,

अमर ददरिया के सुनव सुनाव राग।

सेहत गिराऔ झन खाके मेगी फास्ट फुड,

अभी भी समे हे संगी चलौ सब जावौ जाग।।


सूर्यकान्त गुप्ता, सिंधिया नगर दुर्ग 

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कुण्डलिया छन्द -

(1)

बासी खाये ले कथे,ठंड़ा रहे शरीर।

बी पी हा बाढ़े नहीं,हरथे तन के पीर।

हरथे तन के पीर,पियो पहिया ला हनके।

दिन भर करलो काम,चलो तुमन हा तनके। 

पिज्जा बर्गर छोड़,खाय ले  लगे थकासी।

मानो सब झिन बात,पेट भर खाने बासी।।

(2)

मँगलू बासी खाइ के, करथे दिन भर काम।

गरमी जबले आय हे, नइतो लागे घाम।

नइतो लागे घाम, गोंदली संग म खाथे।

जरी चना के दार,खाव जी गजब मिठाथे।

खीरा ठंडा होय,नहीं लागय ऊँघासी 

कतको करले काम,गोंदली झड़को बासी।।


केवरा यदु"मीरा", राजिम

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कुण्डलिया छन्द - 

(1)

बासी आय गरीब के, आज सोचथें लोग।

पर ये आवैं काम बड़, जाय खाय मा रोग।

जाय खाय मा रोग, ताकती होथे तन बर।

जरी गोंदली नून, संग सब खाय ससन भर।

राजा हो या रंक, सबे के हरय उदासी।

बचे रात के भात, कहाये बोरे बासी।।

(2)

बासी के गुण हे जबर, हरथे तन के ताप।

भाजी चटनी नून मा, खा मँझनी चुपचाप।

खा मँझनी चुपचाप, खेड़हा राँध मही मा।

होय नही अनुमान, खाय बिन स्वाद सही मा।

बासी खा बन बीर, रेंग दे मथुरा कासी।

छत्तीसगढ़ के शान, कहाये चटनी बासी।।

(3)

थारी मा ले काँस के, नून चिटिक दे घोर।

चटनी पीस पताल के,भाजी भाँटा झोर।

भाजी भाँटा झोर, खेड़हा बरी बिजौरी।

आम अथान पियाज, खाय हँस बासी गौरी।

खा पी के तैयार, सिधोवै घर बन बारी।

अउ बड़ स्वाद बढ़ाय, काँस के लोटा थारी।।

(4)

लगही पार्टी मा घलो, बासी के इंस्टॉल।

खाही छोटे अउ बड़े, सबे उठाके भाल।

सबे उठाके भाल, झड़कही चटनी बासी।

आही अइसन बेर, देख लेहू जग वासी।

पिज़्ज़ा बर्गर चाँट, मसाला तन ला ठगही।

पार्टी परब बिहाव, सबे मा बासी लगही।।


जीतेंन्द्र वर्मा"खैरझिटिया", बाल्को,कोरबा

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छन्नपकैया छंद -


छन्न पकैया छन्न पकैया,खालव बोरे बासी।

जाँगर पेरव बने कमावव,होवय नहीं  उदासी।   


छन्न पकैया छन्न पकैया,बासी  के  गुन  भारी।

जरी खेड़हा घुघरी खीरा,खावव सब सँगवारी।।


छन्न पकैया  छन्न  पकैया, छत्तीसगढ़ी  जेवन।

सुत-उठ के जी बड़े बिहनिया,बोरे बासी लेवन।।


छन्न पकैया छन्न पकैया, खावव  बहिनी भाई।

एमा सबके मन भर जाही,नइ होवय करलाई।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,बासी के गुन भारी।

रात बोर के बिहना खावव,संग गोंदली चारी।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,सदा  निरोगी  रहना।

खावव बासी फेर देख लव,मोर बबा के कहना।।


छन्न पकैया छन्न पकैया,करौ किसानी जा के।

छत्तीसगढ़ी बोरे बासी,जम्मों देखव खा के।।


बोधनराम निषादराज "विनायक", सहसपुरलोहारा

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कुण्डलिया छंद -

(1)

बोरे-बासी खाय ले, भगथे तन ले रोग।

सुबह मझनिया शाम के, कर लौ संगी भोग।।

कर लौ संगी भोग, छोड़ के कोका कोला।

हरथे तन के ताप, लगे ना गर्मी झोला।।

नींबू आम अथान, मजा के स्वाद चिभोरे।

दही मही के संग, सुहाथे बासी-बोरे।।

(2)

बोरे-बासी खाय ले, पहुँचे रोग न तीर।।

ठंडा रखे दिमाग ला, राखे स्वस्थ शरीर।

राखे स्वस्थ शरीर, चेहरा खिल-खिल जाथे।

धरौ सियानी गोठ, कहे ये उमर बढ़ाथे।।

गाँव शहर पर आज, स्वाद बर दाँत निपोरे।

पिज़्ज़ा बर्गर भाय, भुलागे बासी-बोरे।।

(3)

गुणकारी ये हे बहुत, भरथे तन के घाँव।

बोरे-बासी खाव जी, मेंछा देवत ताव।

मेंछा देवत ताव, मजा मन भर के पा लौ।

जोतत नाँगर खेत, ददरिया करमा गा लौ।।

मिर्चा नून पताल, संग मा पटथे तारी।

बोरे-बासी खाव, हवय ये बड़ गुणकारी।।

(4)

बोरे-बासी संग मा, जरी चना के साग।

जीभ लमा के खा बने, सँवर जही जी भाग।

सँवर जही जी भाग, संग मा रूप निखरही।

वैज्ञानिक हे शोध, फायदा तन ला करही।।

गजानंद के बात, ध्यान दे सुन लौ थोरे।

छत्तीसगढ़ के मान, बढ़ावय बासी-बोरे।।


इंजी. गजानंद पात्रे "सत्यबोध", बिलासपुर

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सार छन्द -


नून गोंदली अउ बासी के, टूटिस कहूँ मितानी।

तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।


मँहगाई के मार जना गे, पेट पीठ करलागे।

भारी अनचित हमर गोंदली, हमरे ले दुरिहागे।


सरू सकाऊ सरसुधिया मन, ठाढ़े ठाढ़ ठगा गें।

बैंक लूट चरबाँक चतुर मन, रातों-रात भगा गें।


हमरे जाँगर नाँगर बैला, हमरे ले बयमानी।

तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।


झोला-झक्कर घाम-तफर्रा, धूँका-गर्रा आथे।

नून गोंदली बोरे बासी, पेट मुड़ी जुड़वाथे।


एनू-मेनू हम का जानी, खाथे तउन बताथे।

जरी खेड़हा मही म राँधे, गउकी गजब सुहाथे।


हँसी उड़ाही कोनो कखरो, कहिके आनी-बानी।

तरुवा तीपत देर न लगही, सुन लेवय रजधानी।


सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर ", गोरखपुर, कबीरधाम

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(21) दोहा छन्द - 


भइया नांगर जोत के, बइठे जउने छाँव।

भउजी बासी ला धरे, पहुँचे तउने ठाँव।।


भइया भउजी ला कहय, लउहा गठरी छोर।

लाल गोंदली हेर के, लेय हथेरी फोर।।


बासी नून अथान ला, देय गहिरही ढार।

उँखरु बइठ के खात हे, मार मार चटकार।।


भइया भउजी के मया, पुरवाही फइलाय।

चटनी बासी नून कस, सबके मन ला भाय।।


सुखदेव सिंह "अहिलेश्वर ", गोरखपुर, कबीरधाम

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छप्पय छन्द - 


एक बीज दू नाम, जगत बर बहुत जरूरी।

दू बित्ता के पेट, करावत हे मजदूरी।।

बइठे चूल्हा संग, साग चाउंर अउ पानी।

समय चले दिन रात, बीच झूलय जिनगानी।

जरी चना अउ गोंदली, बइठे बासी संग मा।

गरमी हर मुरझात हे, तन मन रहय उमंग मा।।


आशा देशमुख, एन टी पी सी कोरबा

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संकलन - अरुण कुमार निगम

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