Thursday, 27 March 2025

जोड़ा नरिहर* (छत्तीसगढ़ी कहिनी)

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*आधुनिकता अउ परम्परा के मेल मिलाप ले ही हमर जीवन सुघ्घर बनथे।*




                   *जोड़ा नरिहर* 

               (छत्तीसगढ़ी कहिनी)




                               कल्पना हाँसत -हाँसत  कठल गय.... सविता भौजी- तँय अपन कुरा ससुर  अपन जेठ ल छू डारे। तोला  जोड़ा नरिहर देये बर लागिही डांड़ म।

"मोला काबर  जोड़ा नरिहर देय बर लागही ।" "तँय  अपन कुरा ससुर भुवन भैया ल छू डारे तेकर सेथी..."

 "मंय नई देवं कोई ल नरिहर उवा ।" "नही ,तोला लागही च...!"

"काबर लागही..?" 

"तँय भैया ल छू डारे, तेकर बर।" 

"तहुँच तो छुवत हस भैया ल त ,तँय काबर नई देवत अस नरिहर..."

"वो मोर भैया आय।" 

"त वोमन मोर भैया नई होइन का।" 

"होइस फेर वइसन नहीं न जइसन वोहर मोर ये।"ननद कल्पना छलकत कहत रहिस।               

        जेठानी गायत्री ये खींचा- ताना ल सुनत भीतरे- भीतर हाँसत रहे...ले मनभरहा पाय छोकरी ननदिया । मोला बड़  परेशान करे हावस...!ले अब पाय, घोड़ा ल जोड़ा मिलिच जाथे राम ...!                


          येती कल्पना अड़ गय हे- वो  नरिहर लेके ही मानही।अउ वोती छोटकी सविता के कहना हे ,वो नरिहर नई देय । 


                गायत्री अपन हाँसी ल लुकावत  बाहिर निकलिस तब दुनो पक्षकार-ननद  कल्पना अउ देवरानी सविता , वोला घेर डारिन अपन... अपन पक्ष म करे बर।

"भौजी, येहर भुवन भैया ल छू डारिस तब..." "दीदी ,मंय भुवन -भैया ल छू ..." 

"ये बबा गा ! अब येला चार ठन नरिहर लागही । दु  पहिली के अउ दु अब ये नावा के...! "कल्पना तो हाँसत -हाँसत कठ्ठल गय रहिस।

 "कइसे... का नावा हो गय?" - सविता अचकचाइस थोरकुन। 

"तँय अपन कुरा- ससुर के नाव धर देय ।तेकर सेथी दु अउ। फेर चल जी भौजी अइसन कर दु माफ् हे...दु ठन म ही काम चल जाही।" कल्पना झरझरात कहिस । 

"मंय नरिहर नई दों ओ मोर भौजी...।मोरो तोर अतका  बड़ भाई हे घर म।" छोटकी सविता कल्पना के बेनी ल धर के तीर दिस। 

"तँय बड़ पॉवर वाली अस छोटकी भौजी।" कल्पना अब थोरकुन रोनहु बनत कहिस। "वोमे का के पॉवर मोर बहिनी..." 

"हाँ...अब बने लागिस हे बहिनी कहे हस त।भौजी कहे तब बनेच पीरात रहिस।फेर कुछु कह ले भौजी,तँय पॉवर वाली जरूर जरूर अस नोनी...!"               

येमन के बझई ल देख के बड़े भईया भुवन घलव बाहिर आ गय । 

"भौजी ,मुड़ ल ढांक...!"कल्पना कलपिस।                सविता नई सुनिस। 

"मुड़ नई ढांकत अस त , का तँय भैया ल चाय बना के धराय सकबे?" कल्पना कलपिस।


        सविता चुपे -चाप  रसोई म गिस अउ सब बर  चाय  बनाके  ले आइस ।अउ वोहर  खुद अपन हाथ ले भुवन ल चाय धरा दिस ।


        भुवन घलव हाँसत चाय ल धर लिस । जेठानी गायत्री तीर तो गंगा के धार हर पेले रहय...ले कल्पना अब अउ नरिहर लेबे। 

"चाय धराय त धराय सविता ,का तँय इंकर मुंहू  के पसीना ल पोंछे सकबे?" ये पईत ननद कल्पना के जगहा म जेठानी गायत्री ,छोटकी ल कहिस।             


           सविता कुछु नई कहिस फेर जेठ भुवन तीर म जाके अपन अँचरा ले वोकर मुहूं ल पोछ दिस। 

"दीदी,तँय काल गंवतरी जाय के बेर म तोर देवर के मुहूं ल बने दिखही कहत पोंछे रहय न अपन अँचरा म...। त अभी मंय मोर भइया के पसीना ल पोंछे बरोबर  सकहां ।"

        ननद कल्पना येला देखके एकघरी तो सकपका गे।फेर सँभलत कहिस- अब तोला जोड़ा नहीं एक बईला गाड़ी नरिहर लागही ...!"


       कल्पना तो एक पईत फेर हाँसत हाँसत  अकबका गय रहिस। 



*रामनाथ साहू*



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