Thursday, 27 March 2025

कहानी - संस्कार

 कहानी - संस्कार 


बिपति हरो हरि मोर ...

बंधना छोरो बंदी छोर ...

तुँहर छोड़के हरि जी कोन हे मोर 

गाना ल गा लिस अउ ’दुंह तक तिड़तक तिड़तक ....‘ मुँह ले तबला के ताल मारत खुदे 

पें ....पें .... पें ...... ’करत मोहरी म राग तको धर डारिस तेकर पीछु अब बेंजो के धुन निकालत हे - ’टुणुन.. टुणुन ....टुणुन .... टुन ... टुणुन .. टुन।‘ 

फटफटी चलाते हे, गाना गाते हे। अउ खुदे धुन तको निकालत हे। मगन हे मनचलहा अजय। हौ, इही तो असली नाम हे एकर। फेर पारा-परोस, तीर-तखार, जान-पहिचान के मनखे मन कभू -कभू मनचलहा तको कहिथे अजय ल। मनचलहा, जेकर मन म कुछु न कुछु चलते रहिथे सरलग। कभू अपने अपन हाँसे लगथे, त कभू एकदमे चुप रहिथे - बिलकुल गम खाए बरोबर मौन मुक्का। कभू अइसे गोठियाही के रोवत मनखे हाँस भरही, त कभू कभू अइसे बैन बान मारथे कि मनखे आह तको नइ कर सकय। जहर महुरा ले बिखहर करू। मन म जोन आथे तेन बोल देथे। मनखे छोटे होवय कि बड़े। सुनइया ल बने लगय के गिनहा, फेर फोर-फरिहा के सच ल बोलथे कहिथे। सच तो सबो ल करू लगथे, तेकरे सेति कतकोन मनखे येला गलत समझथे। कोनो ल बात बुरा लगय के बने लगय वोकर संसो चिटको नइ करय। इही आदत के सेति कतको खैटाहा मन ल फूटे आँखी नइ सुहावय अजय हँं। ये तो खुदे कहिथे - बुरा मानबे ते मान लेबे...फेर येहँ गलत बात हरे। बुरा मानबे त अपन घर म रहिबे अउ दू कौंरा उपराहा खाबे।

एक दिन बड़े बिहिनिया अपन घर के नहानी के नाली कोति ल गैंती म कोड़त राहय भकरस-भकरस। 

‘का लगाबे भैया, बड़े बिहनिया ले मार हँफर-हँफर के कोड़त हावस‘ - परोसी पूछ परिस।

अजय कहिथे - ’अरे ! परिहार साल इही मेरन हण्डा लगाए रेहेवँ भाई, जागबे नइ करत हे, उही ल खोजत हाववँ।‘ परोसी अउ परोसीन दूनों के दूनों खलखलाके हाँस भरीन।

अइसे हावय अजय। गावत गुनगुनावत मुचमुचावत रहिथे, अकेल्ला अपनेच अपन। ओला रस्ता चलत गावत सुनय तेनो मन लहुट के देखय, कोनो अपन सुर म राहय तेमन नइ देखय। उन्कर ले अजय ल कोनो मतलब तको नइ रिहिसे। वो तो अपन धुन म बिधुन हे -न उधो के लेना न माधो के देना। 

गुनगुनावत गाड़ी चलाते चलावत आगू कोति देख ल परथे अचानक। एक झिन सियान असन मनखे सड़क के पाई म खड़े अवइया गाड़ीवाले मन ल रोके बर हाथ हलावत रहय। ओकर हाथ हलई ले कोनो नइ रूकय। इहाँ तक कि कोनो वोला मुड़के तको नइ देखय। 

वोला देखते ही दुरिहा ले अजय अपन फटफटी के रेस ल कमती करे लगिस। धीरे धीरे आके फटफटी सियनहा तीरन रूकगे। अजय जब वो सियान तीरन पहुँचिस त देखिस वोहँ एकदमे डरडरावन असन दिखत रहय। वोकर चेहरा घाव-गोदर असन दगहा-दगहा दीखत रिहिस। निच्चट दुब्बर पातर देह के लड़भड़ावत लाठी के भरोसा खड़े रिहिस। मार लंबा-लंबा अधपका चुँदी अउ ओइसनेहे पँड़री-करिया मिंझरा लाम-लाम दाढ़ी। अजय वोला देखके डर्रागे। 

‘का भरोसा, बहुरूपिया, चोर, लुटेरा ये कि ठग-जग। आजकाल काकरो भरोसा नइ करे जा सकय।’

एक पइत सोचिस कि फटफटी ल आगू बढ़ा देववँ का ? 

फेर मन म आइस - ‘नहीं .. नहीं। येला जरूरत हे तभेच तो रोकत हे बिचारा हँ। जवान होतिस त लूटके भागतिस, सियान सामरथ आदमी काला लूट डारही, ..... अउ कतेक ले भाग सकही भला।’

’कहाँ तक जाबे बाबू ?’ - सियनहा पूछिस। 

अजय सोच म परगे -’का जवाब देना चाही‘। वोला आए बर तो इहेंच तक रिहिसे। काबर कि इहीच मोड़ ले मुड़े रहितिस वोहँ । सुपेला थाना के बगल ले फरीदनगर होवत कोहका अउ कोहका ले कुरूद जाना रिहिसे वोला। का मन होइस, फट्टे कहि दिस - ’ये दे घड़ी चौक तक जाहूँ।‘ 

‘ले कोइ्र्र बात नहीं, उहेंच तक ले चल‘ - सियान धीर धरत कहिस अउ डगम-डगम डगमगावत अजय के पीछु म बइठगे। 

सियनहा जऊन जगा ले बइठिस उहाँ ले घड़ी चौक मुष्किल से तीन सौ मीटर दुरिहा हावय। अजय सियनहा ले पूछिस - ’कहाँ जाना हे कका ?‘ 

‘अहा ह ह .....हे ऊपरवाले !’ सियान के मुँह ले उदुपहा छूटिस। वोहँ काँखत-कराहत नइ रिहिसे। लगिस ‘कका’ संबोधन ल सुनके वोकर अंतस म अमृत के धार फूटके बोहागे। ये बात ल अजय फरीफरा आकब करिस। 

’मोला तो पावर हाऊस जाना हे बेटा ! मैंहँ घड़ी चौंक ले अउ काकरो संग धर लेहूँ।‘ 

अजय बड़ा जीपरहा तो रहिबे करिस, जिज्ञासु तको रिहिसे। वोला सियान के बारे म जाने के बड़ जिज्ञासा होइस। फटफटी ल घड़ी चौक म नइ रोकिस। सोज्झे सोझ पॉवर हाऊस तान दिस। सियान ल अचंभो होइस। पूछिस - ’तोला तो घड़ी चौक तक जाना रिहिसे न ?’ 

’मोला जाना तो कुरूद हे। पावर हाऊस होवत नंदिनी रोड ले चले जाहूँ।‘ अजय कहिस। 

सियनहा बारा घाट के पानी भले नइ पिए रिहिस होही फेर चुँदी ल घलो घाम म नइ पकोए रिहिसे। वोला समझत चिटको देर नइ लगिस -’अच्छा ! कुरूद जाए के एकर बर तीन ठिन रस्ता रिहिस हावय। पहिली रस्ता ले तो मैं संग धरलेवँ, दुसरइया रस्ता ल मोर संग खातिर येहँ खुदे छोड़ डारिस। अब बाँचिस आखरी रस्ता..... नंदिनी रोड।’

’हे ऊपरवाले !’ सियान अभार जताइस। ऊपरवाले के कि अजय के येला उही जानय, वोकर आत्मा जानय। फटफटी दऊँड़ते रिहिस।

अतेक बेर म अजय के फोन थोरिक थोरिक देरी म दू पइत ले बाजगे रिहिस। दूनों पइत अजय फोन ल देखय अउ कलेचुप थैली म डार लेवय।

’तोर रहना कहाँ होथे बाबू ?‘

’अइसे तो मैं बरेठ खपरी जिला बेमेतरा के रहवइया हरवँ कका ? फेर अभीन इही कुरूद म किराया के मकान म रहिथौं। एक ठिन प्राइवेट कॉलेज हे उहेंचे नौकरी करथौं। पेट बिगारी म का करबे, गाँव म दाई ददा ल छोड़के शहर म खटत हौं।‘ 

’बने हे बेटा ! कुछ तो करत हस। आजकाल तो लइकामन थोरके पढ़ लिख लीन ताहेन करबोन त सरकारीच नौकरी, नही ते कुच्छुच नइ करन कहिथे। सरकारे हँ कतेक झिन बर पूरही। धंधा पानी बर कहिबे त नाक कटाए असन लगथे। घर म एक गिलास पानी ल तको हेर के नइ पीयन सकय।’

अजय के मोबाइल फेर बाजिस। देखिस, फेर कॉलेजेच ले फोन रिहिसे। सोचिस - ’उहूँ .... ये पइत जवाब नइ देहूँ, त गलत हो जही।’ फटफटी ल किनारे म उतारके थाम्हिस अउ मोबाइल ल कान म टेंकावत कहिस - ’जी सर ! गाड़ी चलावत रेहेवँ तेकर सेति फोन नइ उठा सकेवँ।‘

’और कितना टाइम लगेगा यार आने में ?‘ वो कोति ले प्रष्न उछलिस।

’बस सर आतेंच रहे हौं, गाड़ी पंचर होगे, बनवाके झटकुन आइच जथौं।’ फोन कटगे।

सियनहा सबो ल देखत, सुनत, गुनत रिहिस। थोरके दुरिहा गे रिहिसे। आगू कोति ले एक झिन बैसुरहा हँ मोटर साइकिल म आवत रहय लड़भिड़-लड़भिड़। साइड ले बिसाइड। बकबकहा बरोबर अकर-जकर ल देखत। उदुप ले आगू कोति ल देख परिस -’चर्र-के’ ब्रेक ल मारिस। अजय अपन फटफटी ल पहिलीच ले थाम्ह डारे रिहिसे। बड़े जनिक अलहन होवत-होवत बाँचगे।

’कइसे अन्ते-तन्ते चलाते हो जी ?‘ बैसुरहा कहिस। 

‘अन्ते-तन्ते तो तैं हस भाई, मोला का कहिथस।’- अजय जवाब दिस।

‘बने देखके नइ चला सकस।’ उल्टा चोर कोतवाल ल धमकाइस। 

अब अजय के रिस पाँव ले कपार म चढ़गे। चोरी के चोरी, ऊपर ले मुँहजोरी। फट्टे कहिस- ‘अच्छा ..... महीं तो आँव, बाप-पुरखा बिलि्ंडग नइ देखे हौं तइसे अकर -जकर ल देखत आवत रेहेवँ।’

बैसुरहा ल काटो तो खून नहीं। गाड़ी ल स्टार्ट करिस अउ चलते बनिस।

‘देखत हस कका तुँहर भिलाई शहर के चाल ल।’

’भोगत हन बेटा। कोन से मार शहर ये, येहू गाँवे तो आय। शेर के खाल, भेंड़िया के चाल। विकास के नाम शहर के ढोंग, अब तो सऊर नाम के जिनिसो नइ रहिगे इहाँ।’

’तैं कहाँ पॉवरे हाऊस रहिथस कि कुछु काम से जावत हस ?‘ 

ये सवाल कका बर ओतका सामान्य नइ रिहिसे, जतका अजय बर। तभो कका असामान्य होगे। अजय जवाब के अगोरा करत सोचे लगिस- नइ सुनिस तइसे लगथे। उहँ .... नइ सुनिस ते रहन दे। वोतेक जरूरी तको तो नइहे।’ 

थोरके बिलम के कका कहिथे -’रहे बर तो मैं उहेंचे रहिथे, जिहाँ तोर संग धरे हौं प्रियदर्षिनी परिसर। पॉवर हाऊस दवाई खरीदे बर जावत हौं।‘

’त दवई ल सुपेला म नइ बिसा लेते, फोकटे-फोकट अतेक दुरिहा काबर जावत हस ?‘

’वो दवाई उहेंचे भर मिलथे, अउ कहूँ नइ मिलय।‘ 

ये उत्तर ले अजय निरूत्तर होके रहिगे। अब वोकर मन म कोनो किसम के सवाल मुड़ी उठाके खड़ा नइ हो सकिस। कलेचुप गुनत गाड़ी चलाए लगिस - ’जतका जल्दी हो सके, मोला कॉलेज पहुँचना हे। बेरा रहिथे गैप सर्टिफिकेट जमा नइ होही त वो लइका कॉलेज म प्रवेष नइ ले पाही। लइका के एक बछर बरबाद होही तेन तो होबे करही .......... मोर नौकरी ....’ अजय के जी छटाक भर होगे।

आज कॉलेज म प्रवेष के आखरी दिन हे। वो लइका जेन प्रवेष ले बर आए हे, वोला गैप सर्टिफिकेट के आवष्यकता हे, जेला बनाके अजय हँ नोटरी कराए बर दुर्ग कोर्ट गए रिहिसे।

दूनों के बीच पसरे मौन-मुक्का बेरा ल हुद्दा लगाके तीरियावत सियनहा कहिस -’मोर बेटा खुद इही पॉवर हाऊस म एक ठिन कंपनी म काम करे बर आथे।’

’अच्छा !‘ अतके भर कहि पाइस अजय। काबर कि वोकर चेत कॉलेज कोति चल दे रिहिस। कुछ बोल पातिस या नहीं वो खुदे नइ सोचे पाए रिहिस, फेर सियनहा वोकर जवाब के अगोरा नइ करिस। आगू कहे लगिस - ‘चाहतिस तो ले जा सकत रिहिसे, फेर का करबे ?‘

’काहस काबर नहीं त ?‘

’कहिथौं, ....... बिहनिया कहिथौं, त संझा ला देहूँ कहिथे....... संझा कहिथौं .....कालि ला देहू कहिथौं ... फेर बिहान भर सुरता कराए ताहेन .....बस्स...... वो कालि कभू नइ आवय।’ 

सियनहा एके साँस म सब्बो भरभस ल झर्राके रख दिस अउ एकदमे चुप होगे, जनमना वोकर मुड़ के जम्मो बोझा उतरगे। एक पइत फेर दूनों के बीच सन्नाटा, असमंजस अउ अबोलापन पाँव पसारके हमागे। एके गाड़ी म बइठे उन दूनों अजनबी बरोबर होगे।

अइसे-तइसे उन पॉवर हाऊस पहुँचगे। अबक तबक चौंक अमरने वाला हे । आखिर म अजय वो अबोलापन ल चेचकार के हटाइस अउ पूछिस -’वो दवाई दूकान कोन मेरन हे कका ?‘

’इही चौंक ले मुड़ना हे अउ नंदिनी रोड म ...बस  .... येदे आ घलो गे। रोक ले ... रोक ले।‘

सियनहा गाड़ी ले उतर के मेडिकल म गिस। अपन कुरता के थैली ले कंदरामुँहा परची निकालके दूकानदार ल थमाइस। दुकानदार एक पत्ता दवाई दिस। वोकर एवज म सियनहा दूसर थैली ले झिल्ली म बँधाए नानकुन गठरी ल निकालके छोरिस अउ उलद दिस खनखन-ले चिल्हरे चिल्हर ल । अजय फटफटी म बइठे-बइठे सब ल देखत रिहिस। दवई लेके सियनहा लहुटिस अउ अचंभो होके पूछिस -’अरे ! तैं अभीन तक नइ गए ?‘

’नहीं, अचानक मोला सुरता आइस, सुपेला म मोर एक ठिन अउ काम हावय।‘

’देख, मैं सब समझत हौं। तैं मोर कारण अपन नौकरी ल दाँव म झन लगा, बेटा।‘

’नहीं कका, सिरतोन काहत हौं‘ -अजय मुस्कुरा दिस।

सियनहा ल हार मानके फटफटी म बइठे बर परगे। 

उन घर पहुँचिन त सियनहीन मुँहाटी म बइठे रहय अगोरा करत। इन ल देखके हाथ ल माड़ी म टेकावत उठिस अउ भीतरी कोति गै। फटफटी ले उतरथे साथ सियान अजय ल आ बइठ काहत सियनहीन ल चाहा बनाए बर ताकीद करीस। 

अजय कहिथे - ’नहीं कका ! नइ लगय अउ अइसे भी मैं चाहा पीबेच् नइ करवँ।’

’तोरे बने आदत हे बेटा।‘- सियनहीन पानी देवत कहिस।

‘त... जेवन करले।’ सियान सकुचाए असन जवाब दिस।

‘अ..... हँ ....हँ देरी होवत हे कका।’

’हाँ, बेरा गजब होगे हे‘ -सियनहीन दुलारिस -’थोरिक नाष्तच ल कर लेते बेटा !‘ 

’नहीं...नहीं, मोला कुच्छुच नइ लगय। तुमन मोर चिटको चिन्ता झन करव।‘

’वाह ्! अइसे कइसे हो सकथे, तैं हमर बर अतेक कुछ करबे अउ हमर घर ले बिगर खाए पीए चलते बनबे।’ सियान षिकायत के छौंक मारत मनौती करे लगिस।

’तुमन कहिदेव मैं खा डरेवँ अउ कभू आहूँ माँ जी, तोर हाथ के खाए बर .........‘ - काहत अजय उठिस अउ बाहिर निकलके फटफटी म फलास के बइठगे। ओकर संगे संग सियान तको बाहिर आ गे। 

‘जब के आमा तब के लबेदा।’ काहत सियनहीन तको उन्कर पाछु-पाछु बाहिर निकलगे। अजय फटफटी चालू करिस अउ चलते बनिस, इही सोंचत -‘कुछु देएच बर हे त मोला बस अतके आसीस दौ माँ जी, तुँहरे असन सियान दाई-ददा ल छोड़के मैं इहाँ लंका म परे हौं, जब उन ल उहाँ जरूरत परय, त मोरे असन कोनो अइसे भाई मिल जावय, जेन उन्कर मदद कर सकय।’ 

सियान-सियानहीन जनामना अजय के अंतस ल झाँक डारिन, हिरदय ल टटोल डारिन, मन ल टमड़ डारिन। उन एक दूसर के मुँह ल देखिस अउ फट्टे एक्के संघरा उन्कर अंतस ले ये बोल निकल परिस - ‘तोर हर मनोरथ पूर्ण होवय। धन्य हे बेटा ! वो दाई-ददा, जेन तोला जनम दिन, तोर पाँव म कभू काँटा झन गड़य रे .........’ अउ उन्कर आँखी के सुक्खा झिरिया म दूदी बूँद पानी ओगर गिस। 


उन अजय ल बोकबाय एकटक देखते रिहिस। जब तक वो अछप नइ हो गिस।


धर्मेन्द्र निर्मल 

9406096346

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