Monday, 9 December 2024

कहानी: बड़ोरा


कहानी: बड़ोरा

पोखन लाल जायसवाल

        मनखे रोवत आथे त दुनिया हाँसथे। जब जाथे, त दुनिया ल रोवा के जाथे। दुनिया के ए  आवाजाही म मुठा बाँधे आथे अउ हाथ पसारे जाथे। बँधाए मुठा अइसे लगथे कि कोनो बड़का संकलप ले के मनखे आय हावे। पसारे हाथ बताथे कि भगवान मोर ले चूक होगे। जम्मो संकलप ल भुलागेंव। मोला क्षमा दिहा भगवान!। मैं तोर सरण मं आवत हँव। मोला तार दिहा... भग...वान।

        मनखे भवसागर मं आ घमंड करे लगथे। नाना परकार के घमंड मं ओहर पाँव ले मुड़ी जात सना जथे। सब कुछ इहें के आय अउ इहें च रहि जाना हे। तब ले घमंड मं बुड़े मनखे खुद ल भगवान ले बड़े समझे धर लेथे। रुपवान अउ धनवान होगे त तो अउ ....भुला जथे कि रूप चार दिन के चाँदनी फेर अँधियारी रात सहीं होथे। पइसा तो हाथ के मइल आय। अभी हे, त हे...नइ.. ते...भइगे। एक बड़ोरा आथे अउ सबो... उड़ा जथे। कुछु नइ बाँचय। मनखे के जिनगी घलव दुख-पीरा के बड़ोरा ल ठेलके आगू बढ़थे। 

        जिनगी ल चलाय बर धन दौलत जरूरी हे। फेर जतिक भी नगदी रहिथे, वो कब खिरथे, कुछुच पता नइ चलय। इही बात आय कि लोगन 'चल' ले जादा 'अचल' सम्पत्ति ल मान देथें। नगदी थोरको जादा होइस कि गहना-गुँठा अउ जमीन म लगा देथें। जउन ह अड़चन घरी काम आथे। दू पइसा आगर देथे, वो अलगे...निमगा ठगे तो नइ। एकर रेहे मनखे संबल पाथे। दूसर मेर हाथ फैलाए के नौबत नइ आवय। फेर... गरब घलव करथे। बिरथा के गरब। तहान घमंड।

        लोगन समधी सजन के नता जोरत खानी घर-कुरिया अउ खेती के हिसाब लगाथें। एक किसम ले जुरत नता बर सुरक्षा निधि होथे। सुरक्षा निधि। जमीन सबो झन बिसा तो नइ सकँय, त गहना-गुँठा कोति चेत करथें। सुनहर अउ रमसीला सोनार दूकान गे रहिन। बहू बर गहना बिसाए। बिहाव के अकताहा बिसा-बिसा के राखत हावँय। कोनो भी बड़का कारज के जोरन अइसने तो धीरे-धीरे जोरे ल परथे। दू दिन के काज रही, फेर ओकर जोगासन  बर कतको दिन पूर जथे।

       हाँ ! सुनहर तो नाँव हावे, सियान कका के। रेगहा-कुता मिला के पाँच छे एकड़ के किसानी कर लेवय ओहर। ओकर संग म वोकर गोसाइन रमसीला काकी घलो बने मरे-जिए ले कमावय। खेती अपन सेती, नइ ते नदिया के रेती। इही गोठ ल जिनगी म गठरी बाॅंधे दूनो परानी रात-दिन खेते च म गड़े राहय। अपन दूनो लइका ल बने चेत करके पढ़ाइन। अब तो हाई स्कूल खुल गे हावय, गाॅंव म। वोकर पढ़े के दिन म प्राइमरी स्कूल के रहे ले पांचवी भर पढ़ पाय रहिस हे,वोहर। तहान ले बइला-भैंसा चराय म भुलागे। ...तब वोकर बबा मन पाँच भाई रहिन। बँटावत-बँटावत सब बँटागे। माया अउ मया दूनो खिरे लग गे। बाँटे भाई परोसी बनगिन।....सुनहर तिर आज चार एकड़ हावय। दू एकड़ ल बिसाये हे अउ दू एकड़ पुरखौती के आय। ओकर ददा मन दू भाई रहिन। वहू मन पाय बाँटा ल मिहनत के परसाद एक ले दू एकड़ करे रहिन। सुनहर कका अपन बाप के इकलौता हरे।

       सुनहर कका कमती पढ़े हावे त का होगे? पढ़ई के मरम ल जानथे। तभे तो दूनो बेटा कोति बने धियान दिस। उॅंकर मन भर उन ल पढ़ाइस। सबे च ल नौकरी मिल जाय, अइसे कहाँ संभव हे।

       सबो पढ़ाथें। जतका झन पढ़थें, सरकारी नौकरी बर परीक्षा घलाव देथें। फेर... नौकरी पाये बर मेरिट लिस्ट म ऊपर आय ल पड़थे। तब कहूँ नौकरी पक्का होथे। नौकरी पक्का होय ऊप्पर ले खेल घलव होथे। पोस्टिंग के खेल। उत्ती के ल बुड़ती मुड़ा। रक्सेल के ल भंडार छोर। माने ...जिला बदर। जइसे सौदा नइ करइया ह ...कोनो ...अपराधी आय।... मुख्य लिस्ट...फेर ... वेटिंग...जम के खेल। वेटिंग लिस्ट म घालमेल के गुंजाइश बनावत अफसर मन बड़ चतुरई करथें।...जेकर ले कुछ के जिनगी म घुप्प ॲंधियारी हो जथे। 

       अब के दाई-ददा मन पढ़ई-लिखई के नाॅंव म लइका ले कोनो बुता नि करावॅंय। सबो खेती किसानी ले दुरिहा रहय कहिके सोचथें। अइसन म आखिर खेती कोन करही? यहू सोचे ल परही। अब के लइका मन तो आड़ी-काड़ी नि करॅंय। कटाय अँगरी म नइ मूतँय। जिहाँ खेले कूदे रही, पछीना बोहाय रही, तिहाँ बर मनखे के हिरदे म जुड़ाव रही। मोर आय कहिके लगाव रही। नइ ते खेती भुइयाँ माटी के कुटका बस जनाही। जब चाही तब...बेच... खाही।

       एक समय रहिस, जब लइका मन रोपा लगाय जावॅंय। रोपा लगई के पइसा ले कापी-किताब बिसावॅंय। गणपति पूजा करॅंय। धान लुवई घरी बोझा डोहारॅंय। सिला बिनॅंय। वहू ल स्कूल जाय के पहिली अउ स्कूल ले आय के पाछू। सिला बिने धान के मुर्रा अउ मुर्रा लड्डू दूनो बिसावँय। जादा बिने ले कोनो चिन्हारी बिसावँय। बढ़ोना मिला के उखरा पाँव बर बने सरिख जूता-चप्पल लेवँय। गाँव-गँवतरी जाए बर कपड़ा लत्ता। अब के लइका मन टीवी अउ मोबाइल म मुड़ी गड़ियाय रहिथें। जड़ ले कटत हावँय। अइसन म खेती-बुता जानॅंय, न अउ आने बुता ल जानँय। तव जिनगी तो ॲंधियार होबेच करही। तइहा के बात ल बइहा लेगे। 'जनम दे हे ल जाने हन, करम ल थोरे देबोन', कहिके पिंड छुड़ाय नइ जा सकय। करम करे बर सिखाय ल परही...वहू ल नेक करम। नइ ते अपने लइका बिन मारे मरही। हमीं ल पदोही...हमरे मुड़ म मुतही। पक्का हे। एक दिन हमर जाँगर थकही त उन ल कमाय बर परही। यहू बात आजे बताय के हे।

०००

          कमा-कमा के जाँगर एक दिन थकबे करथे। अउ उमर जइसे-जइसे खिरकत जाथे, अपन परभाव दिखाबे करथे। जाॅंगर जुवाब देहे ल धर लेथे। घंटा दू घंटा के बुता करिस, तहान थके लगथे। मउसम बदलिस नहीं के, फट ले जुड़-खांसी घलव अपन डेरा बना लेथे। अइसने सुनहर के थके जाॅंगर उमर के संग जवाब दे ल धर ले राहय। रमसीला काकी के बुता अउ बाढ़े लगिस। कभू-कभू दूनो झन मं खटपिट होवय। 

        "महूँ ल थकासी लागथे। तहीं भर नइ कमावस। महूँ ह कमाथँव। मोरो जाँगर थकथे। मैं तो बाहिर ले आके, घर म घलव खटथँव।" रमसीला काकी के कहना सोला आना आय। ओकर तन ह लोहा-पखरा के तो नइ बने हावय, के नइ थकही। थकबे करही।

        मशीन गरम झन होवय, कहिके चलत मशीन ल थोकिन बंद करथे। जुड़ावन दे कहिथें। जब मनखे ल मशीन के अतिक संसो रहिथे। त रमसीला काकी के अपन बर संसो करई कोनो गलत नइ हे। सबो ल सुरताय बर लागथे। रमसीला काकी सुरताना चाहथे त एमा ओकर का दोष? 

       रेगहा-कुता के तीन एकड़ खेती जेकर भरोसा कभू कखरो आगू हाथ फैलाय के नौबत नइ आइस। ढलती उमर मं जाॅंगर थके ले उही खेती अब अजीरन लागत हावय। 

        बने होइस कि दू बछर पहिली खेत मालिक किसुन ह शहर ले लहुटे पाछू कुता के दू एकड़ खेती के सौदा वापिस ले ले रहिस। जेन ह अपन परोसी के दू एकड़ सँघार के बने मन लगा के किसानी करत हावय। शहर मं मोटर-गाड़ी, राइसमिल अउ बड़े-बड़े कारखाना मन के धुँगिया, मच्छर अउ नाली के बस्सउना हवा नइ सहाइस। गाँव के शुद्ध हवा मं रहइया किसुन घेरी-बेरी बीमार परे लगिस। जतका कमाय, ततका दवा-दारू मं लग जावय। हाथ कुछ नइ बाँचत राहय। दूनो परानी म मनमुटाव बाढ़े लगिस। जिहाँ पइसा-कौड़ी के खॅंगती होथे, उहें उटका-पैरी अउ झगरा होथे। घर के सुमता(एका) छरियाय लागिस। किसुन सुजानिक रहिस। ओला समझ मं आगे रहिस कि शहर आके ओहर बड़ जंजाल म फॅंसगे हावय। बड़ बिचारिस। एकर ले मोर गाॅंव बने हे। इही बिचार संग एक दिन शहर ले अपन गाँव, अपन छाॅंव लहुट के आगिन। जब ले शहर ले लहुटे हावँय, उँकर जिनगी सुलिनहा लागत हे। उँकर जिनगी के हाँसी-खुशी लहुट गे हे। दिन बने-बने बीते लगिस। झगरा के नाँव बुता गे हावय। जउन ह शहर म उँकर जिनगी म जहर-महुरा घोरत रहिस।

०००

       .... सुनहर अउ रमसीला अपन दूनो बेटा के बिहाव के सोचे लगिन। दू-चार जघा बात जनाय रहिन। कहूँ मेर बने सरिख नोनी होही त आरो देहू। तीन-चार महीना बीत गे कहूँ कोति ले कोनो सोर नइ आइस।... परोसी दरी साँप नि मरय, कहि सुनहर दू-चार झिन सगा घर गिस। पूछिस। फेर कहींच कोनो आरो नइ मिलिस। ...चार महीना बर बिहाव के नेत नइ जम पाइस।.....आसो ले दे के दूनो बेटा बर नोनी मिल पाइस। सिरतोन बिहाव ह कोनो ठठ्ठा दिल्लगी नोहय। संजोग वाले होहीं, तिंकरे चप्पल बिहाव के नाँव मं नइ घिसावत होही। दूनो डाहर ले तार जुरई बड़ मुश्किल आय। कोनो खेल-तमाशा अउ घरघुंदिया नोहय, बर बिहाव ह। जे ल मन नइ आय म दू चार दिन बाद बिझार दे। 

         सुनहर बहू खोजत ले थक गे रहिस। बड़ परेशान हो गे रहिस। संसो मं दुबराय ल धर ले रहिस। ...कहूँ मेर सुनहर के मन आवय, त बेटा मन के मन नइ आवय। कहूँ मेर दूनो के मन आतिस, त लड़की वाले मन ल मन नइ आय। कभू दूनो कोति जमे बानिक लगय त बात रास-बरग मं आ के अटक जय। कुछ न कुछ बाधा परय। अइसे-तइसे माघ ले चइत बीत गे। 

        गाँव के मनखे मन, जे मन म आवय ते गोठ करँय। जे मुँह, ते गोठ। लोगन मन गोठियाय लागिन कि सुनहर ह बने दाइज डोर के लालच म बने बने नता ल हीनत हावय। हड़िया के मुँह ल परई म तोप लेबे, फेर मनखे के मुँह ल कामा तोपबे? .....लगती बइसाख म सिध परिस।

       .... बिहाव के दिन आइस। बड़ धूम-धड़ाका ले बिहाव होइस। इंजीनियरिंग करे बेटा के आघू सुनहर के एक नइ चलिस। पइसा ल पानी बरोबर बोहावत गिस। गाँव-गोढ़ा म जइसन कभू नइ होय राहय, तइसन करिस। बफर सिसटम म खवाना। गाँव म नेंग-जोंग के बेरा गड़वा बाजा...बरात बर डीजे। बरात बर दर्जन भर गाड़ी। बरतिया मन के पूरा खियाल। जेन ल जे चाही, उही ब्रांड के...। साज-सज्जा के तो पूछ झन। महाराजा सेट।... कुछू बर टोंकय त बेटा काहय- "शादी एक बार होनी है, बार-बार नहीं। लोग क्या कहेंगे? एक इंजीनियर की शादी और...." मोबाइल के घंटी बाजे ले बात ल आधा ए छोड़ मोबाइल म भुलागे।  

       सुनहर ह बेटा के गोठ सुन.. बुदबुदाइस भर। "पइसा कमाबे तब पता चलही बाबू.... कतिक मिहनत ले पइसा आथे।....बाप के कमई उड़ाय म का जियानही।" आज सुनहर के मन टूट गे राहय। बिहाव के नाँव ले उपरछवा हाँसत भर हावे। भीतर ले बड़ रोवत हे। रोही काबर नहीं, जब लहू-पछीना के कमई पानी सहीं बोहावत रही अउ चाह के सकला नइ कर पाही।

०००

       ....सुख के छइहाँ म समय कब बीतथे, पता नइ चलय। दुख के घाम रहे ले एक छिन ह बड़ जियानथे। काटे नइ कटय, चाबे ल कुदाथे। घाम रहय ते छाँव, जिनगी तो जिए ल परथे। रो के जी, चाहे हाँस के। जिए के नाँव तो जिनगी आय। समय निकलत गिस। मुठा म हमाय रेती बरोबर।

         बहू हाथ के पानी पिए के साध, साध रहिगे, सुनहर अउ रमसीला के। दू महीना बीते नइ पाइस। अवई-जवई नइ जमत हे, कहिके बड़े बेटा-बहू शहर के रस्ता धर लिन। 

         छोटे बेटा बड़े बेटा ले जादा खर निकलिस। जेन ह नज़र मिला के गोठ नइ कर सकत रहिस। ओकर मुँह उले लगिस। उछरत हावे। आगी ले अँगरा ताव दिखावत हावे। 

       "मोर नाँव के खेती ल मैं सौदा कर डारे हँव। रायपुर म फ्लेट बिसाहूँ कहिके। उहें कमाहूँ-खाहूँ, खेती म का धरे हावय? कागज पत्तर ल कति लुकाय हस, तेन ल दे देबे मोला। नइ ते मेंह थाना-कछेरी के रस्ता रेंगाहूँ। घी निकाले ल आथे मोला।"

          रजधानी म राहत दू साल होय हे बाबू ल, उहाँ के हवा लग गे। गाँव के धुर्रा-माटी ल भुलागे। अउ खेती सोन के अंडा होगे। जेन ल बेच फ्लैट के सपना म सवार हे। वाह रे कलजुग... दू नया पइसा नइ लगाये ए अउ खेती के मालिक बनगे...।

         सुनहर के भरम टूटगे। बड़ गरब रहिस दू झिन बेटा हावे कहिके। ...ओकर संग का होवत हे? समझ नइ पावत हे। का सोचे रहिस अउ का होवत हावे? काँहीं च समझ नइ आवत हे ओला। बिहाव पाछू मुड़ ऊपर चार लाख रूपया के चढ़े करजा ....

         मोहलो-मोहलो म बहू मन बर गहना-गूँठा बिसाय रहिन। सबो अइसन करथें। का जानय अइसन होही? भल ल भल समझत सपना सँजोय रहिन हें दूनो परानी। थोर बहुत राखे पइसा घलव खिरक गे राहय। संसो बाढ़े लगिस। कभू करजा ल जाने नहीं, तउन आज करजा म लदा गे हे। खपलाए करजा ए। बेटा मन तो हाथ खींच ले हावय। खेती भरोसा करजा उतारे परही। 

         संसो म बुड़े गुनान करत हावे कि बिसाय जमीन ल हाथ ले बिहाथ कर डारेंव। मोर आँखी मूँदे पाछू बेटा मन के होबे करतिस। अभी मोर नाँव म रहितिस त मोर बियाय लइका मोला आँखी नइ दिखातिस। बस इही गोठ रहिगे-अब पछताए का होत हे, जब चिरई चुग गे खेत।

        सुनहर अपन लहू-पछीना के कमई ले बिसाये दूनो एकड़ ल दूनो बेटा के नाँव म चढ़ाए रहिस। तब रमसीला के बरजई ल एको नइ धरिस। सरवन कुमार समझत रहिस हे ...दूनो बेटा ल। अउ निकलिन का...भुलागे रहिस कि कलजुग आय।

        वोकर जिनगी म बड़ोरा अवई ह अभी अउ बाकी रहिस। पुरखौती तीनों खेत के रस्ता चारों मुड़ा ले रुँधागे। सड़क के खाल्हे दू खेत पार के खेत मन मं धन्ना सेठ अउ दलाल मन के नजर गड़े हावे। तभे तो धन्ना सेठ मन मुहाँटी ल बिसा के घेरा बंदी कर डारिन। विकास के बड़ोरा म अइसने कतको खेत परिया परत हावँय। धान के कटोरा उरकत जावत हे। गरीबी म जीयत मनखे जमीन के भाव देख चउँधिया गे हे। पुरखौती पूँजी ल बेच महल टेकावत हे। किसानी भुइयाँ नाँव ले उतरे पाछू चढ़ै नहीं, एकर कोनो ल चेत नइ हे। सब ल पइसा के धुन सवार हे। ...सड़क म आवत हावे। सड़क हे कि सुरसा बने लीले बर दाँव लगाय हे। ...फोर लेन सिक्स लेन....आज नइ ते काली... लीले बिना राहय नहीं। पक्का ए।

        आय किसानी के दिन म....। करय ते करय का? कुछु च सूझत नइ हावय। अब का होही भगवान ?...संसो सँचर गिस। इही संसो म बुड़े कब नींद परिस ते सुरता नइ हे।... बिहनिया उठथे त देखथे कि वोकर एक ठन हाथ उठत नइ हे। मुँह ले आरो नइ निकलिस। उठे के कोशिश म खटिया ले उतरत खानी भकरस ले गिर परिस। कुछु गिरे के आरो सुन रमसीला आइस त बोमफार रो भरिस। ....परोसी मन आइन। लउहा-लउहा बिगन देरी करे अस्पताल लेगिन। अटैक के संग लोकवा हे। इही तो बताइस हे। लकठा के सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ह। अउ कहिस," हायर सेंटर ले जाइए।" अउ तुरते रिफर कर दिस। 

       रायपुर के प्राइवेट अस्पताल लेगिन। डॉक्टर मन सुनहर कका के हालत ल देख झटकुन आई सी यू म भर्ती करिन। ऑपरेशन करे परही काहत रमसीला काकी ले कागजात म दसखत करवाइन। आयुष्मान कार्ड के भरोसा भर्ती होगे रहिस। दू लाख रुपया अउ खर्चा आही। हाथ जुच्छा रहिस। कति ले पइसा आतिस। रमसीला खेत ल बेच पइसा दे हे के भरोसा देवाइस। अउ ऑपरेशन करे के विनती करिस, तीन दिन मं दू लाख रुपया अउ जमा करे के मोहलत मिलिस।

        बड़े बेटा अपन नाँव म चढ़े खेत बेचे बर तियार नइ होइस, त रमसीला काकी अपन माँग के लाली बचाए बर उही दलाल ल फोन करत हावे, जेन ल चारे च दिन पहिली सुनहर कका ह मोर पुरखौती भुइँया ल जीयत भर नि बेचँव कहे रहिस। दलाल ह मौका के फायदा उठाय के मूड म दिखत हावे। अनाप-शनाप रेट बोलत हावे। 

       सुनहर कका के जिनगी म आए बड़ोरा विकास के बड़ोरा आय‌। कोन जनी थमही कि नइ थमही ते? सब ल बहारत-बटोरत उड़ा के, तो नइ ले जही, ए बड़ोरा बैरी ह? बड़ोरा के मन म काहे ? कोन जानत हावे? 

       कुछु होवय रमसीला काकी ल ए बड़ोरा थमे के अगोरा हावे। वोकर अंतस् ले एके आवाज आवत हे- ए बड़ोरा उँकर जिनगी ले जुच्छा हाथ लहुटही।

            ---०---

पोखन लाल जायसवाल

पलारी (पठारीडीह)

जिला- बलौदाबाजार भाटापारा छग.हाँसथे। जब जाथे, त दुनिया ल रोवा के जाथे। दुनिया के ए  आवाजाही म मुठा बाँधे आथे अउ हाथ पसारे जाथे। बँधाए मुठा अइसे लगथे कि कोनो बड़का संकलप ले के मनखे आय हावे। पसारे हाथ बताथे कि भगवान मोर ले चूक होगे। जम्मो संकलप ल भुलागेंव। मोला क्षमा दिहा भगवान!। मैं तोर सरण मं आवत हँव। मोला तार दिहा... भग...वान।

        मनखे भवसागर मं आ घमंड करे लगथे। नाना परकार के घमंड मं ओहर पाँव ले मुड़ी जात सना जथे। सब कुछ इहें के आय अउ इहें च रहि जाना हे। तब ले घमंड मं बुड़े मनखे खुद ल भगवान ले बड़े समझे धर लेथे। रुपवान अउ धनवान होगे त तो अउ ....भुला जथे कि रूप चार दिन के चाँदनी फेर अँधियारी रात सहीं होथे। पइसा तो हाथ के मइल आय। अभी हे, त हे...नइ.. ते...भइगे। एक बड़ोरा आथे अउ सबो... उड़ा जथे। कुछु नइ बाँचय। मनखे के जिनगी घलव दुख-पीरा के बड़ोरा ल ठेलके आगू बढ़थे। 

        जिनगी ल चलाय बर धन दौलत जरूरी हे। फेर जतिक भी नगदी रहिथे, वो कब खिरथे, कुछुच पता नइ चलय। इही बात आय कि लोगन 'चल' ले जादा 'अचल' सम्पत्ति ल मान देथें। नगदी थोरको जादा होइस कि गहना-गुँठा अउ जमीन म लगा देथें। जउन ह अड़चन घरी काम आथे। दू पइसा आगर देथे, वो अलगे...निमगा ठगे तो नइ। एकर रेहे मनखे संबल पाथे। दूसर मेर हाथ फैलाए के नौबत नइ आवय। फेर... गरब घलव करथे। बिरथा के गरब। तहान घमंड।

        लोगन समधी सजन के नता जोरत खानी घर-कुरिया अउ खेती के हिसाब लगाथें। एक किसम ले जुरत नता बर सुरक्षा निधि होथे। सुरक्षा निधि। जमीन सबो झन बिसा तो नइ सकँय, त गहना-गुँठा कोति चेत करथें। सुनहर अउ रमसीला सोनार दूकान गे रहिन। बहू बर गहना बिसाए। बिहाव के अकताहा बिसा-बिसा के राखत हावँय। कोनो भी बड़का कारज के जोरन अइसने तो धीरे-धीरे जोरे ल परथे। दू दिन के काज रही, फेर ओकर जोगासन  बर कतको दिन पूर जथे।

       हाँ ! सुनहर तो नाँव हावे, सियान कका के। रेगहा-कुता मिला के पाँच छे एकड़ के किसानी कर लेवय ओहर। ओकर संग म वोकर गोसाइन रमसीला काकी घलो बने मरे-जिए ले कमावय। खेती अपन सेती, नइ ते नदिया के रेती। इही गोठ ल जिनगी म गठरी बाॅंधे दूनो परानी रात-दिन खेते च म गड़े राहय। अपन दूनो लइका ल बने चेत करके पढ़ाइन। अब तो हाई स्कूल खुल गे हावय, गाॅंव म। वोकर पढ़े के दिन म प्राइमरी स्कूल के रहे ले पांचवी भर पढ़ पाय रहिस हे,वोहर। तहान ले बइला-भैंसा चराय म भुलागे। ...तब वोकर बबा मन पाँच भाई रहिन। बँटावत-बँटावत सब बँटागे। माया अउ मया दूनो खिरे लग गे। बाँटे भाई परोसी बनगिन।....सुनहर तिर आज चार एकड़ हावय। दू एकड़ ल बिसाये हे अउ दू एकड़ पुरखौती के आय। ओकर ददा मन दू भाई रहिन। वहू मन पाय बाँटा ल मिहनत के परसाद एक ले दू एकड़ करे रहिन। सुनहर कका अपन बाप के इकलौता हरे।

       सुनहर कका कमती पढ़े हावे त का होगे? पढ़ई के मरम ल जानथे। तभे तो दूनो बेटा कोति बने धियान दिस। उॅंकर मन भर उन ल पढ़ाइस। सबे च ल नौकरी मिल जाय, अइसे कहाँ संभव हे।

       सबो पढ़ाथें। जतका झन पढ़थें, सरकारी नौकरी बर परीक्षा घलाव देथें। फेर... नौकरी पाये बर मेरिट लिस्ट म ऊपर आय ल पड़थे। तब कहूँ नौकरी पक्का होथे। नौकरी पक्का होय ऊप्पर ले खेल घलव होथे। पोस्टिंग के खेल। उत्ती के ल बुड़ती मुड़ा। रक्सेल के ल भंडार छोर। माने ...जिला बदर। जइसे सौदा नइ करइया ह ...कोनो ...अपराधी आय।... मुख्य लिस्ट...फेर ... वेटिंग...जम के खेल। वेटिंग लिस्ट म घालमेल के गुंजाइश बनावत अफसर मन बड़ चतुरई करथें।...जेकर ले कुछ के जिनगी म घुप्प ॲंधियारी हो जथे। 

       अब के दाई-ददा मन पढ़ई-लिखई के नाॅंव म लइका ले कोनो बुता नि करावॅंय। सबो खेती किसानी ले दुरिहा रहय कहिके सोचथें। अइसन म आखिर खेती कोन करही? यहू सोचे ल परही। अब के लइका मन तो आड़ी-काड़ी नि करॅंय। कटाय अँगरी म नइ मूतँय। जिहाँ खेले कूदे रही, पछीना बोहाय रही, तिहाँ बर मनखे के हिरदे म जुड़ाव रही। मोर आय कहिके लगाव रही। नइ ते खेती भुइयाँ माटी के कुटका बस जनाही। जब चाही तब...बेच... खाही।

       एक समय रहिस, जब लइका मन रोपा लगाय जावॅंय। रोपा लगई के पइसा ले कापी-किताब बिसावॅंय। गणपति पूजा करॅंय। धान लुवई घरी बोझा डोहारॅंय। सिला बिनॅंय। वहू ल स्कूल जाय के पहिली अउ स्कूल ले आय के पाछू। सिला बिने धान के मुर्रा अउ मुर्रा लड्डू दूनो बिसावँय। जादा बिने ले कोनो चिन्हारी बिसावँय। बढ़ोना मिला के उखरा पाँव बर बने सरिख जूता-चप्पल लेवँय। गाँव-गँवतरी जाए बर कपड़ा लत्ता। अब के लइका मन टीवी अउ मोबाइल म मुड़ी गड़ियाय रहिथें। जड़ ले कटत हावँय। अइसन म खेती-बुता जानॅंय, न अउ आने बुता ल जानँय। तव जिनगी तो ॲंधियार होबेच करही। तइहा के बात ल बइहा लेगे। 'जनम दे हे ल जाने हन, करम ल थोरे देबोन', कहिके पिंड छुड़ाय नइ जा सकय। करम करे बर सिखाय ल परही...वहू ल नेक करम। नइ ते अपने लइका बिन मारे मरही। हमीं ल पदोही...हमरे मुड़ म मुतही। पक्का हे। एक दिन हमर जाँगर थकही त उन ल कमाय बर परही। यहू बात आजे बताय के हे।

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          कमा-कमा के जाँगर एक दिन थकबे करथे। अउ उमर जइसे-जइसे खिरकत जाथे, अपन परभाव दिखाबे करथे। जाॅंगर जुवाब देहे ल धर लेथे। घंटा दू घंटा के बुता करिस, तहान थके लगथे। मउसम बदलिस नहीं के, फट ले जुड़-खांसी घलव अपन डेरा बना लेथे। अइसने सुनहर के थके जाॅंगर उमर के संग जवाब दे ल धर ले राहय। रमसीला काकी के बुता अउ बाढ़े लगिस। कभू-कभू दूनो झन मं खटपिट होवय। 

        "महूँ ल थकासी लागथे। तहीं भर नइ कमावस। महूँ ह कमाथँव। मोरो जाँगर थकथे। मैं तो बाहिर ले आके, घर म घलव खटथँव।" रमसीला काकी के कहना सोला आना आय। ओकर तन ह लोहा-पखरा के तो नइ बने हावय, के नइ थकही। थकबे करही।

        मशीन गरम झन होवय, कहिके चलत मशीन ल थोकिन बंद करथे। जुड़ावन दे कहिथें। जब मनखे ल मशीन के अतिक संसो रहिथे। त रमसीला काकी के अपन बर संसो करई कोनो गलत नइ हे। सबो ल सुरताय बर लागथे। रमसीला काकी सुरताना चाहथे त एमा ओकर का दोष? 

       रेगहा-कुता के तीन एकड़ खेती जेकर भरोसा कभू कखरो आगू हाथ फैलाय के नौबत नइ आइस। ढलती उमर मं जाॅंगर थके ले उही खेती अब अजीरन लागत हावय। 

        बने होइस कि दू बछर पहिली खेत मालिक किसुन ह शहर ले लहुटे पाछू कुता के दू एकड़ खेती के सौदा वापिस ले ले रहिस। जेन ह अपन परोसी के दू एकड़ सँघार के बने मन लगा के किसानी करत हावय। शहर मं मोटर-गाड़ी, राइसमिल अउ बड़े-बड़े कारखाना मन के धुँगिया, मच्छर अउ नाली के बस्सउना हवा नइ सहाइस। गाँव के शुद्ध हवा मं रहइया किसुन घेरी-बेरी बीमार परे लगिस। जतका कमाय, ततका दवा-दारू मं लग जावय। हाथ कुछ नइ बाँचत राहय। दूनो परानी म मनमुटाव बाढ़े लगिस। जिहाँ पइसा-कौड़ी के खॅंगती होथे, उहें उटका-पैरी अउ झगरा होथे। घर के सुमता(एका) छरियाय लागिस। किसुन सुजानिक रहिस। ओला समझ मं आगे रहिस कि शहर आके ओहर बड़ जंजाल म फॅंसगे हावय। बड़ बिचारिस। एकर ले मोर गाॅंव बने हे। इही बिचार संग एक दिन शहर ले अपन गाँव, अपन छाॅंव लहुट के आगिन। जब ले शहर ले लहुटे हावँय, उँकर जिनगी सुलिनहा लागत हे। उँकर जिनगी के हाँसी-खुशी लहुट गे हे। दिन बने-बने बीते लगिस। झगरा के नाँव बुता गे हावय। जउन ह शहर म उँकर जिनगी म जहर-महुरा घोरत रहिस।

०००

       .... सुनहर अउ रमसीला अपन दूनो बेटा के बिहाव के सोचे लगिन। दू-चार जघा बात जनाय रहिन। कहूँ मेर बने सरिख नोनी होही त आरो देहू। तीन-चार महीना बीत गे कहूँ कोति ले कोनो सोर नइ आइस।... परोसी दरी साँप नि मरय, कहि सुनहर दू-चार झिन सगा घर गिस। पूछिस। फेर कहींच कोनो आरो नइ मिलिस। ...चार महीना बर बिहाव के नेत नइ जम पाइस।.....आसो ले दे के दूनो बेटा बर नोनी मिल पाइस। सिरतोन बिहाव ह कोनो ठठ्ठा दिल्लगी नोहय। संजोग वाले होहीं, तिंकरे चप्पल बिहाव के नाँव मं नइ घिसावत होही। दूनो डाहर ले तार जुरई बड़ मुश्किल आय। कोनो खेल-तमाशा अउ घरघुंदिया नोहय, बर बिहाव ह। जे ल मन नइ आय म दू चार दिन बाद बिझार दे। 

         सुनहर बहू खोजत ले थक गे रहिस। बड़ परेशान हो गे रहिस। संसो मं दुबराय ल धर ले रहिस। ...कहूँ मेर सुनहर के मन आवय, त बेटा मन के मन नइ आवय। कहूँ मेर दूनो के मन आतिस, त लड़की वाले मन ल मन नइ आय। कभू दूनो कोति जमे बानिक लगय त बात रास-बरग मं आ के अटक जय। कुछ न कुछ बाधा परय। अइसे-तइसे माघ ले चइत बीत गे। 

        गाँव के मनखे मन, जे मन म आवय ते गोठ करँय। जे मुँह, ते गोठ। लोगन मन गोठियाय लागिन कि सुनहर ह बने दाइज डोर के लालच म बने बने नता ल हीनत हावय। हड़िया के मुँह ल परई म तोप लेबे, फेर मनखे के मुँह ल कामा तोपबे? .....लगती बइसाख म सिध परिस।

       .... बिहाव के दिन आइस। बड़ धूम-धड़ाका ले बिहाव होइस। इंजीनियरिंग करे बेटा के आघू सुनहर के एक नइ चलिस। पइसा ल पानी बरोबर बोहावत गिस। गाँव-गोढ़ा म जइसन कभू नइ होय राहय, तइसन करिस। बफर सिसटम म खवाना। गाँव म नेंग-जोंग के बेरा गड़वा बाजा...बरात बर डीजे। बरात बर दर्जन भर गाड़ी। बरतिया मन के पूरा खियाल। जेन ल जे चाही, उही ब्रांड के...। साज-सज्जा के तो पूछ झन। महाराजा सेट।... कुछू बर टोंकय त बेटा काहय- "शादी एक बार होनी है, बार-बार नहीं। लोग क्या कहेंगे? एक इंजीनियर की शादी और...." मोबाइल के घंटी बाजे ले बात ल आधा ए छोड़ मोबाइल म भुलागे।  

       सुनहर ह बेटा के गोठ सुन.. बुदबुदाइस भर। "पइसा कमाबे तब पता चलही बाबू.... कतिक मिहनत ले पइसा आथे।....बाप के कमई उड़ाय म का जियानही।" आज सुनहर के मन टूट गे राहय। बिहाव के नाँव ले उपरछवा हाँसत भर हावे। भीतर ले बड़ रोवत हे। रोही काबर नहीं, जब लहू-पछीना के कमई पानी सहीं बोहावत रही अउ चाह के सकला नइ कर पाही।

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       ....सुख के छइहाँ म समय कब बीतथे, पता नइ चलय। दुख के घाम रहे ले एक छिन ह बड़ जियानथे। काटे नइ कटय, चाबे ल कुदाथे। घाम रहय ते छाँव, जिनगी तो जिए ल परथे। रो के जी, चाहे हाँस के। जिए के नाँव तो जिनगी आय। समय निकलत गिस। मुठा म हमाय रेती बरोबर।

         बहू हाथ के पानी पिए के साध, साध रहिगे, सुनहर अउ रमसीला के। दू महीना बीते नइ पाइस। अवई-जवई नइ जमत हे, कहिके बड़े बेटा-बहू शहर के रस्ता धर लिन। 

         छोटे बेटा बड़े बेटा ले जादा खर निकलिस। जेन ह नज़र मिला के गोठ नइ कर सकत रहिस। ओकर मुँह उले लगिस। उछरत हावे। आगी ले अँगरा ताव दिखावत हावे। 

       "मोर नाँव के खेती ल मैं सौदा कर डारे हँव। रायपुर म फ्लेट बिसाहूँ कहिके। उहें कमाहूँ-खाहूँ, खेती म का धरे हावय? कागज पत्तर ल कति लुकाय हस, तेन ल दे देबे मोला। नइ ते मेंह थाना-कछेरी के रस्ता रेंगाहूँ। घी निकाले ल आथे मोला।"

          रजधानी म राहत दू साल होय हे बाबू ल, उहाँ के हवा लग गे। गाँव के धुर्रा-माटी ल भुलागे। अउ खेती सोन के अंडा होगे। जेन ल बेच फ्लैट के सपना म सवार हे। वाह रे कलजुग... दू नया पइसा नइ लगाये ए अउ खेती के मालिक बनगे...।

         सुनहर के भरम टूटगे। बड़ गरब रहिस दू झिन बेटा हावे कहिके। ...ओकर संग का होवत हे? समझ नइ पावत हे। का सोचे रहिस अउ का होवत हावे? काँहीं च समझ नइ आवत हे ओला। बिहाव पाछू मुड़ ऊपर चार लाख रूपया के चढ़े करजा ....

         मोहलो-मोहलो म बहू मन बर गहना-गूँठा बिसाय रहिन। सबो अइसन करथें। का जानय अइसन होही? भल ल भल समझत सपना सँजोय रहिन हें दूनो परानी। थोर बहुत राखे पइसा घलव खिरक गे राहय। संसो बाढ़े लगिस। कभू करजा ल जाने नहीं, तउन आज करजा म लदा गे हे। खपलाए करजा ए। बेटा मन तो हाथ खींच ले हावय। खेती भरोसा करजा उतारे परही। 

         संसो म बुड़े गुनान करत हावे कि बिसाय जमीन ल हाथ ले बिहाथ कर डारेंव। मोर आँखी मूँदे पाछू बेटा मन के होबे करतिस। अभी मोर नाँव म रहितिस त मोर बियाय लइका मोला आँखी नइ दिखातिस। बस इही गोठ रहिगे-अब पछताए का होत हे, जब चिरई चुग गे खेत।

        सुनहर अपन लहू-पछीना के कमई ले बिसाये दूनो एकड़ ल दूनो बेटा के नाँव म चढ़ाए रहिस। तब रमसीला के बरजई ल एको नइ धरिस। सरवन कुमार समझत रहिस हे ...दूनो बेटा ल। अउ निकलिन का...भुलागे रहिस कि कलजुग आय।

        वोकर जिनगी म बड़ोरा अवई ह अभी अउ बाकी रहिस। पुरखौती तीनों खेत के रस्ता चारों मुड़ा ले रुँधागे। सड़क के खाल्हे दू खेत पार के खेत मन मं धन्ना सेठ अउ दलाल मन के नजर गड़े हावे। तभे तो धन्ना सेठ मन मुहाँटी ल बिसा के घेरा बंदी कर डारिन। विकास के बड़ोरा म अइसने कतको खेत परिया परत हावँय। धान के कटोरा उरकत जावत हे। गरीबी म जीयत मनखे जमीन के भाव देख चउँधिया गे हे। पुरखौती पूँजी ल बेच महल टेकावत हे। किसानी भुइयाँ नाँव ले उतरे पाछू चढ़ै नहीं, एकर कोनो ल चेत नइ हे। सब ल पइसा के धुन सवार हे। ...सड़क म आवत हावे। सड़क हे कि सुरसा बने लीले बर दाँव लगाय हे। ...फोर लेन सिक्स लेन....आज नइ ते काली... लीले बिना राहय नहीं। पक्का ए।

        आय किसानी के दिन म....। करय ते करय का? कुछु च सूझत नइ हावय। अब का होही भगवान ?...संसो सँचर गिस। इही संसो म बुड़े कब नींद परिस ते सुरता नइ हे।... बिहनिया उठथे त देखथे कि वोकर एक ठन हाथ उठत नइ हे। मुँह ले आरो नइ निकलिस। उठे के कोशिश म खटिया ले उतरत खानी भकरस ले गिर परिस। कुछु गिरे के आरो सुन रमसीला आइस त बोमफार रो भरिस। ....परोसी मन आइन। लउहा-लउहा बिगन देरी करे अस्पताल लेगिन। अटैक के संग लोकवा हे। इही तो बताइस हे। लकठा के सरकारी अस्पताल के डॉक्टर ह। अउ कहिस," हायर सेंटर ले जाइए।" अउ तुरते रिफर कर दिस। 

       रायपुर के प्राइवेट अस्पताल लेगिन। डॉक्टर मन सुनहर कका के हालत ल देख झटकुन आई सी यू म भर्ती करिन। ऑपरेशन करे परही काहत रमसीला काकी ले कागजात म दसखत करवाइन। आयुष्मान कार्ड के भरोसा भर्ती होगे रहिस। दू लाख रुपया अउ खर्चा आही। हाथ जुच्छा रहिस। कति ले पइसा आतिस। रमसीला खेत ल बेच पइसा दे हे के भरोसा देवाइस। अउ ऑपरेशन करे के विनती करिस, 

जिला- बलौदाबाजार भाटापारा छग.


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