Friday, 26 July 2024

हाना मुहावरा मा साग भाजी अउ महँगाई

 हाना मुहावरा मा साग भाजी अउ महँगाई



               एक समय *"खाय बर भाजी बताये बर आलू"* कहिके परोसी परोसी ला ताना मारे। माने आलू खवई शान, अउ भाजी खवई अपमान समझे। फेर आज भाजीच हा आलू ला ताना मारत हे, अइसन मा कखरो मुख ले न ताना निकलत हे न हाना अउ न गाना। बस आज मनखे बढ़े महँगाई ला मजबूर होके माथ नवावत हें। भाग मा पहिली सूपा सूपा मिलइया भाजी पाला आज पाव अउ किलो मा बिकत हे। पहिली भाजी पाला के गत ला देखत अइसे लगे कि, भाजी भुइयाँ मा अइसनेच भाग बनके जिनगी भर माढ़े रही जही, कभू तराजू बाट के सवारी नइ कर पाही। फेर आज बिना नापे मिलबे नइ करत हे। सुरता आथे *एक रुपिया के एक सूपा भाजी अउ कँसके एक मूठा पुरौनी के* वाह रे दिन, फेर आज ग्राम ग्राम के नाप तोल के जमाना मा पुरौनी शब्द बोले बर लाज लगथे। भाजी पाला के गुण अउ उत्पादन ले जादा मांग, आज भाजी के भाव बढ़ावत हे। परोसी घर के साग भाजी मा पारा भर हाँस के खायँ, भाजी पाला अइसने मया पिरित मा मिल जावत रिहिस। आलू ला बिसाएल लगे अउ भाजी बखरी ब्यारा मा चरिहा चरिहा निकले, ते पाय के सब पहली हाना के बहाना ताना मारे, फेर आज तो देखते हन।

                 *"भाजी कोदई"* कहे ले मनखे के खानपान एकदम लिरीझिरी लगे। फेर आज बढ़े भाजी के भाव तो दिखते हे, अउ कोदई कोनो ला नसीब होय तब तो। माने भाजी कोदई खाना आज सहज नइहे। कोदो कुटकी के उपज आज कमती होगे हे, संगे संगे बड़े बड़े बीमारी मा एखर माँग रथे, ते पाय के सहज मिले नही अउ मिलथे ता दवाई बरोबर। *महाभारत मा एक प्रसंग आथे कि भगवान श्री कृष्ण हा दुर्योधन के अहंकार ल तोड़े बर ओखर मेवा मिठाई ला त्याग के, विदुर घर भाजी कोदई खाय रिहिस*। आज मनखे ला यहू नसीब नइ होवत हे।

                  भुइयाँ के सेवा कभू अकारथ नइ जाय। माटी महतारी सेवा करइया ला धान, गेहूँ, चना कस कतकोन खाद्यान कहकुल्ला देथे। अइसने एक समय सबके घर,खेत, मेड़ अउ भर्री भांठा मा उपजे राहेर अउ घरों घर चुरे रोज रोज दार, जेला खायें हाँस हाँस पार परिवार। इही बहुलता ला देखत एक हाना बनगे रिहिस कि *"घर के मुर्गी दाल बरोबर"* माने घर के जिनिस हा दार बरोबर बिना मोल या महत्व के होथे। ये वो समय के बात रिहिस जब दार घरों घर होय, फेर आज जेखर कर दार हे वोला पहरेदार रखे बर पड़त हे। काबर की दार के भाव हा आसमान छूवत हे। भले मुर्गी मिल जावत हे, फेर दार नसीब नइ होवत हे। डेढ़हा दोहरा शतक मार के दार आज इतिहास रचत हे। रोज रोज के दार भात कहाँ पाबे अब सिर्फ सगा सोदर या फेर लइका लोग के कारण भर बर दार बनत हे। दार मुर्गी ला तो पटक दिस संगे संग बड़े बड़े मनखे अउ कतको महँगा साग भाजी ला तको पछाड़ देहे।

                   एक समय मनखे काहत नइ थके कि- *ररुहा सपनाये दार भात*। माने भूखमर्रा मनखे दार भात खोजे। फेर आज बने बने मनखे ला दार भात नसीब नइ होवत हे, ता भूखमर्रा या जे सुते सुते सपना देखत हे, तेला का मिलही? पहली दार भात खाना सहज रहय,फेर आज दूभर होगे हे। भात संग दार के व्यवस्था रोज रोज बड़े बड़े मनखे मन नइ कर पावत हे, वाह रे महँगाई।।

               *"मथुरा के पेड़ा अउ छत्तीसगढ़ के खेड़ा"* हव हमर जरी,खेड़हा हा मथुरा के पेड़ा ले कोनो भी प्रकार ले कमती नइहे। चाहे खेड़हा भाजी होय या चिक्कट चिक्कट जरी, गजब मिठाथे। एखर सुवाद खवइयच ही जानथे। पानी गिरत साँठ घरों घर बखरी मा खुदे उपजइया जरी, आज क्रांकीट ले लड़त हार गेहे। बिन बखरी बारी के जरी तको सहज नइ मिलत हे। आज पेड़ा मिल जावत हे,फेर खेड़हा ले देके मिलथे।

                  गलत संगति बर बने ये हाना बड़ चलथे कि *"एक तो करेला, दूजे नीम चढ़ेला"* माने करु(गलत) होके करु(गलत) के संगत।  फेर ये हाना मा बउराय दूनो करु आज नोहर होगे हे। नीम के पेड़ तो दिनों दिन कमती होवत जाते हे, सँग मा करेला सब्जी तको अपन करु सुभाव होके भी सब ला ललचावत हे। करेला के भाव  चाहे बरसा होय या घाम सबे समय बढ़ेच रथे। आज करेला नीम नइ चढ़त हे मनखे मन के मूड़ मा चढ़त हे, अउ नाचत हे।

                  कास अभी बाढ़े महंगाई मा गाले हा बंगाला बन जतिस, काबर कि सियान मन रीस मा काहय- *चर्रस ले पड़ही गाल, हो जही बंगाला कस लाल*। आज बंगाला के लाली मनखे ला गुररावत हे, जड़काला मा खेत सड़क मा पड़े रहय ते बंगाला पानी पाके तांडव करत हे। छोट मोट का बड़े बड़े आदमी मन बाजार मा बंगाला के सुबे शाम सिरिफ भाव पूछ पूछ के आवत हे। जे मन उपजाये ते मन दाँत निपोरत हे ,अउ संकेल के धरे व्यापारी मन हाँसत हे। कथे न धरे धन कभू  बिरथा नइ जाय, फेर ये तो जँउहर होगे। धरेच हस एखर मतलब मनमानी करबे। करबे का करत हे, अउ कोनो नकेल तको नइ कसत हे। किसान के सबे चीज बोहाथे, चाहे खेत खार होय, धनधान होय, भाजी भाँटा होय, पार परिवार होय,लहू होय या फेर आँसू। कोई मोल नइहे। व्यापारी  मनके तिनका तिनका के मोल हे। वइसे तो समय के लिए साथ इंकम घलो बढ़त हे, फेर नगण्य, अउ बढ़े चीज के फायदा छोट मंझोलन ला कब मिले हे? सबें जानथन। खातू, कचरा, बीज भात सब महगाये हे, उपज के दाम बढ़बे करही, तभो किसान बीके हाथ मा नइ रहय ता, वैपारी वर्ग जादा अति करथे। बात बंगाला के होवत हे ता कखरो बबा कका कहूँ गाल ला मार के बंगाला बना देहुँ कही ता अभी बाढ़े महँगाई मा कोन नही कही।

                     *गाजर लटकाना* अइसनो काहत सुने होहू, एखर मतलब होथे लालच दिखाना। गाजर तो मनखे ला जमाना से लालच दिखावत आवत हे। एक समय तो लालच मा,लेके खा तको लेवत रहेंन फेर आज , सिरिफ लटके भर देखत हन, महँगाई के मारे लेके खाना मुश्किल हे। आज सिरिफ गाजर भर नही कतको साग भाजी गाजर बरोबर टँगाय हे, अउ मनखे मन ललचावत हे।

                 *किस खेत की मूली* एक दूसर ला कम आँके बर बने ये हाना मा आज मुरई मनखेच मन ला ताना मारत हे। आदमी मुरई के आघू मा लल्लू पंजू साबित होवत हे। मुरई के भाव बढ़ते जावत हे, फेर मनखे के भाव के ग्राफ सरलग गिरत हे। खेत अउ मूली दूनो मिल जाय ता कतको मनखे तराजू के पल्ला मा पोनी बरोबर तउला जाही। कहे के मतलब मूली जइसन साग भाजी तको आज मेछा अँइठत गरजत हे।

                *बेंदरा का जाने आदा के सुवाद*। आदा सुनके 350 रुपिया आँखी आघू झुलगे न। भाग मा बिकईया आदा आज तोला, मासा मा बिकत हे, वाह रे समय। चारो कोती हांहाकार मचे हे। अइसन मा आदमी ला आदा नसीब होय तब तो बेंदरा चखे।  बाढ़े महँगाई के मारे आदमी बेंदरा बरोबर येला वोला खाय बर मजबूर हो जावत हे। एक छोट कन टुकड़ा भर लगथे चाहा मा , उहू दूभर होवत हे। हाना तो अउ बहुत हे, कुछ सुरता मा हे कुछ खोजे मा मिल जही। फेर आलेख बनेच बढ़ जही, एकात पढ़इया तको हिम्मत नइ कर पाही।

              *तेल आगर नून आगर ते बहू के गुण आगर* ये कहावत बोलत सुनेच हन, फेर आज महँगाये तेल,नून,मिर्ची मशाला के कारण, कम डारे के चक्कर मा,बहू हाथ के साग भाजी तको मिठावत नइहे।

               कथे कि *"महतारी के परसे अउ मघा के बरसे*" सही च ताय। जइसे मघा नछत्र मा बरसा के कोनो कमी नइ होय वइसने महतारी के मया अउ ओखर  रांधे पोरसे भात बासी कभू नइ कमती होय। फेर जातरी मनखे के आय हे जे महतारी ले दुरिहावत हे। हव होटल ढाबा मा इज्ज़ा पिज़्ज़ा खवइया एक दिन महतारी के मया अउ आशीष बर तड़पही, लिख के लेले। माटी घलो महतारी आय, एखरो गत वइसने हे, यहू ला मनखे ठोकर मारत हे, सेवा जतन छोड़ समय के फसल बोके, सोन के अंडा देवइया मुर्गी समझत हे। लालच मा चंद पइसा मा कामधेनु बरोबर माटी महतारी ला ठुकरा देवत हे, अउ शहर मा दू अंगुल जघा मा घुटत हे। खेती किसानी जिनगी आय। बारी, बखरी ,खेती किसानी ले नइ जुड़बो, शहरी बरोबर अलाली जिनगी जीबों ता मंहगाई  के असर साग भाजी भर मा नही,हवा, पानी  तको मा दिखही। कथे *"खेत खार छोड़ के जे परदेश जाय, तेखर जातरी आय"*। 


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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