*भाव पल्लवन*
दुल्हा बर पतरी नइये बजनिया बर थारी
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आजकल हमर देश मा गाँव होवय चाहे शहर,चारों कोती इही देखे मा आवत हे के समिलहा परिवार(संयुक्त परिवार) जेमा कम से कम दू-तीन पीढ़ी एक संग रहिथें, जिहाँ सब झन बर एके चुल्हा मा जेवन चुरथे----बहुत तेजी ले छर्री-दर्री होवत हे। अब तो नौबत ये आवत हे के जिहाँ पति पत्नी बस अपन लोग लइका संग रहिथें --उहू मन अलग-बिलग रहे ला धर लेवत हें।समाज मा तलाक के बाढ़ आगे हे।
अइसन बर्बादी के पेंड़ी कारण कई ठो हो सकथे जइसे आपसी मनमुटाव, एक-दूसर बर ईरखा,अहम के भावना,घरेलू कलह, चरित्र मा दोष, स्वार्थ, कामचोरी, कोनो सदस्य के नशेड़ी हो जवई, एक दूसर ले विचार के नइ मिलना, मुखिया के माई-मौसी करई--अइसनहे अउ बहुत कस कारण हो सकथे।
गोस्वामी तुलसीदास जी हा कहे हें--
"मुखिया मुख सो चाहिए, खान पान को एक।
पालै पोसे सकल मिलि, तुलसी सहित विवेक।"
मतलब साफ हे के --परिवार के मुखिया ला मुख जइसे होना चाही। मुख हा भोजन करके वोकर फायदा ला बिना भेदभाव के शरीर के जम्मों अंग ला देथे वोइसने मुखिया ला अपन परिवार बर तको करना चाही।
फेर आजकल अनुभो मा ये आवत हे मुखियेच हा स्वारथ मा बूड़के अपनेच मन बर भेवदाव करे ला धर लेहें।अइसनो होवत हे के परिवार के कुछ झन रात-दिन मिहनत-मजदूरी करत हें,घानी के बइला असन जोंतावत हें अउ कोनो ठलहा गली गिंजर-गिंजर के खावत हे। कोन जनी का स्वारथ मा मुखिया हा वोला कुछु नइ बोलत ये--वोकरे बढ़-चढ़ के सरेखा करत हे, उल्टा जेन हा परिवार ला सजोर करे मा लगे हे --मिहनत करत हे-ककरो बर अइली-सुधा जुबान नइ लहुटावत हे तेकरे बर तुतारी धर के पाछू परे हे। अइसन मा ये अन्याय भला कतका दिन ले चलही? रनाये-खताये लकड़ी सहीं परिवार हा टूटबे करही।
अइसनहेच किस्सा देश-समाज मा तको चलत हे। मिहनत करइया मजदूर-किसान,गरीब मन ला ऊँकर वाजिब हक नइ मिलत। अँधरा बाँटै रेवड़ी,अपने मन ला देय होवत हे। भाई-भतीजावाद फुनगी मा चढ़के नाचत हे। जेन मन ला सही मा महत्व मिलना चाही वो मन ला तिरिया के काम के न धाम के ते मन ला सब कुछ मिलत हे। ये तो अइसे होवत हे के--
"दुल्हा बर पतरी नइये,बजनिया बर थारी।"
भलुक होना तो अइसे चाही के--सब बर पतरी मा जेवन पोरसावय या फेर सब बर थारी मा। भेदभाव नइ होके समानता होना चाही।
चोवा राम वर्मा 'बादल'
हथबंद,छत्तीसगढ़
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