*मोर( बरनन करइया नरेटर) अउ बाबू फुलझर के एकठन अउ किस्सा...*
*रयबारी#*
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(#- रयबारी/रैबारी- बर-बिहाव बर लोग- लइका खोजे के, भटकन भरे अनिश्चित यात्रा गांव जवई ।)
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फुलझर बर लइका देखे जाय बर हे।वोहर खुद उतियाइल नरवा बने हे।मोर बर लइका देखे मंय खुदेच जाहाँ -कहत हे।
"हरे टुरा - बाणा! तोर घर म तोर ददा- कका सिरा गंय हे का जी,कनहुँच सियान नइये का , कहहीं तव कइसे करबे।" महतारी वोला छेंकत कहिस।वो चाहत रहिस, पहिली लइका ल येकर ददा हर देख लेतिन,तव फेर मउका देख के येहू लुकलुकिहा छोकरा घलव देख लेतीस ।
फेर येती तो पाँव हर अलगेच हे ,तव का करबे...?
वोकर ददा मोला संग कर दिस।फुलझर ल तो साक्षात वरदान मिल गय। मंय वोकर जिगरी दोस्त । मोर संग जाय, के नाव म ही वोला सब मंगल- सुमंगल लगिस।
ओनहा - कपड़ा काँचेन नरवा म बइठ के। पथरा के मोंगरी म बइठ के गोठियात,जो कपड़ा काचेंन ..जो कपड़ा काचेंन कि कपड़ा मन खुद आधाजियाँ हो गिन ।
बिहान दिन सँकेरहा ,एक- एक बटकी बासी खाके निकलेंन ।आज के ये बासी ल फुलझर घर , खाय के सेथी, मंय दिन भर बर, वोमन के मेलहा भूतिहार बन गय रहंय।अब मोर कारज (डयूटी) रहिस,वोकर हेल्परी करे के।एक परकार ले,विहाय के बेरा म ढेड़हा,जइसन बुता।
दुनों झन के झक्क सादा मसरइज धोती,कुर्ता अउ पागा ।फुलझर चुपे चाप अपन बाप के नजर बचात ,फुलतोड़ा सेंट के फोही मोर कोती बढ़ा दिस। महुँ वोला गमकत.. सूंघत डेरी कान म खोंस लेंय ।अउ हाथ ल कपड़ा म पोंछ लेंय। फुलझर अपन रेडियो म कपड़ा के स्पेशल खोल बनवाय हे ।वोहर रेडियो ल अपन डेरी खांद म ओरमा लिस।अउ वोकर कान ल ऐंठ दिस- मोर झूल तरी नैना ,इंजन गाड़ी चालू हो गय।
"चल भइ, एक -एक खिली बिरा- पान खा ली।" फुलझर कहिस।
"चल...!"मंय भला काबर मना करतेंव।
पान खाएँन। चुना चुचरेंन ।फेर खुद फुलझर के कत्था हर ,वोकरेच ओनहा म चु गय ।फेर येला वो खुद देख नइ पइस। चल बन गय ,देख नइ पाइस त ...! नही त जंउहर हो जाय रथिस ।घर फिरे बर लग जाय रथिस।
डहर भर मंय, वो हुँकारु देत देत थक गय रहंय।कस के दु घण्टा सायकल आटेंन, तव पसीना अउ फुलतोड़ा के मिंझरा गंध लेके सारसकेला पहुंच गयेंन । चतरू गबेल के नाम पूछत.. पूछत वो सगा घर ल खोजेन।चार-पांच झन ल पूछे बर लग गय। फेर मोर पूछई ल लेके फुलझर एक पइत नराज असन हो गय.. भई ,तँय तो अइसन पूछत हावस,जाने माने वोहर तोर संग -जहूँरिया ये।अरे ,वोहर मोर होवइया ससुर ये।
ले ले भई! अब आदर के साथ पूछिहाँ।मंय कहें ..बिहना के एक बटकी बासी के तकाजा जो रहिस ।
"कोन ...कोन हावा घर म जी," मंय दुआरी म झाँकत पूछें।
हं ..काये बबा - कहत एक झन सोंगर- मोंगर नोनी पिला हर निकल आइस।
"तुँहर घर बर -बिहाव करे के लइक नोनी पिला हे का, नोनी..?"मंय पूछेंय ।
"मइच हर तो हंव..!"वो नोनी कहिस,तब फुलझर हर झकनका के गिरे कस हो जात रहिस ।
"घर म अउ कोंन कोंन हें...?"
" ददा अउ दई , दुनों झन हें।ददा हर बासी खावत हे।" वो नोनी कहिस।
"हमन सगा अन । लइका देखे बर आवत हन,देखन दिहा तब घर -भीतर जाबो।"मंय कहें।
"देखन काबर नइ दिहीं ,बबा। घरो के मन कहत रहिन, सगा- पहुंना आबेच नइ करत यें कह के।"
"तब समझ ले हमन आ गयेन!"मंय वीर बहादुर असन कहें। तब वो नोनी का समझिस...गुनिस अउ घर कोती भाग पराइस।
लम्बा ढकार लेवत...फुलझर के(होवइया)ससुर हर निकलिस।
जय- जोहार...भेंट- पैलगी के बाद मंय वोला कहेंय- सगा महराज, हमन एक लोटा पानी मांगत हन जी।
वो तुरतेच घर कोती आवाज दिस- बेटी, एक लोटा पानी ले आन तो ...!
अब घर कोती ल थोरकुन जंगाय असन अवाज अइस- कब चढ़ही येकर बुद्धि हर..।
वो नोनी फिर निकल आइस- ददा ,तोला थोरकुन दई हर बलात हे ..कहत।
फुलझर के होवइया ससुर घर कोती चल दिस।फेर तुरतेच निकल आइस-चला ...चला..आवा ...आवा घर कोती कहत।
"सगा महराज, हमन नन्दौर कला के अन।तुँहर घर एक लोटा पानी मांगत हन जी।"
"बेटी,एक लोटा पानी ले आन तो ओ।"वो फिर घर भीतर कोती ल अवाज दिस।फेर अब ये पइत, वो नोनी हर बड़े -बड़े पीतल के गिलास मन म घोराय गुड़ पानी लान के धरा दिस। फुलझर के तो हाथ हर कांपत रहिस।लीमऊ सुवाद वाला गुड़ -पानी..!अहा..हा...!!पांचो प्राण हर हरिया गय।
अब थोरकुन येला चीख लव-छोटे छोटे गिलास मन म दही -शक्कर..!
"सगा महराज मन, कोन कोंन अव तुमन दुलरु के। कका उवा होइहा कस लागत हे।"
"खुद येहर दुलरु ये।" मंय कहें।
"अउ येहर मोर कका..!"फुलझर कहिस।
चलव.. चलव..ठीक हे।फेर तुमन अब बताव,तीपत दार -भात खईहा कि ... हमन ये प्रस्ताव ल बड़ गम्भीरता ले लेन।फुसुर फिया..!बन जाही।कुछु नइ होय।
"बन जाही, कुछु भी चलही।"मंय थोरकुन शहरी अंदाज म बोलेंय।
अब तो दुनो झन पीढ़ा म बइठ गयेन।आगु म कांस के बटकी म ताजा बासी।तीर म गोंदली नून अउ मिरचा।
नुनचर्रा अलग। पटउहा घर म गोठ बात करत बितायेंन।
फुलझर तो जुन्ना असन लागत रहय।वोकर नींद पर गय।फेर वो नोनी ,हर ओढ़हर करके, एक- दु पइत येती आके झलक मार डारिस।फुलझर के भकर- भोला रूप के जादू चढ़ गय हे अइसन लागत रहय।
बेरा जुड़ाय के बाद,हमर पसन्द के एक पइत फेर दही -शक्कर खा के विदा मांगेन। वोतकी बेरा मंय फुलझर के होवइया सास ल देखे पांय। नोनी च असन सुंदर- बांदर।
"भई, पूरा के पूरा प्लान हर चौपट हो गय।"फुलझर झरझरात कहिस।
"का हो गय...?"
",न तँय तरुवा ल देखे न मंय तर पांव ल।दई हर कहे रहिस...न...ऊँच तरुवा अउ खड़उ गोड़ी झन रहय।"
"चल सोझ चल। सब ल मंय देख डारें हंव।सब हर सरोत्तर हे।"मंय कहेंव।
फिर हमन चुप हो गयेन।
एक घरी के गय ल फुलझर फेर कहिस- नोनी ल तो ओझिया नई पायेंन। कनहुँ कोंदी भैंरी होही तव..!
अब मंय वोला का कहिथें। मंय ए पइत चुपेच रँहय।फेर मोर आँखी मन ल देख के फूलझर सुकुरदुम हो गय रहिस...
*रामनाथ साहू*
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