*उपन्यास अंश अउ वोकर सौंदर्य शास्त्र*
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*सोनकमल*
(1)
उपन्यास सोनकमल के पहले पृष्ठ म ही एक ठन बिम्ब हे।बिरिज(ब्रज) गौटिन के बहू जलकुंवर (नायिका सोनकमल के मां) गाढ़ निंद्रा म सुते हे। अइसन नींद 'रति क्लांति (नैसर्गिक क्रीड़ा के बाद उपजे थकान,अल्लर होवई)' के बाद आथे। जलकुंवर एई अवस्था म हे। वोला इहाँ बिहा हो के आय तीन बच्छर हो गे हे फेर आज तक कुछु(सन्तान) दिखे नई ये। येकर ले खुद,जलकुंवर के छोड़ सब ,थोरकुन फिकिर म हें। उपन्यास के दृश्य हर, वोकर शरीर भीतर म निषेचन अउ सन्तान सोनकमल के कोख म आय के दृश्य ये। जलकुंवर देखत हे वोकर देह हर, अनन्त ब्रम्हांड ये, उहां सादा गोरस के धार लाख लाख तारा मन येती ल वोती कूदत हें(तेज गति ले भागत पुरुष पिंड शुक्र) अउ आगु रस्ता म,एकठन पींयर जोगिनी (मादा पिंड ओवम ) बइठे हे।एकठन बलखरहा ताकतवर तारा हर आके वो जोगनी के हाथ धरत वोकर भीतर म समा गिस हे(निषेचन पूर्ण)...
"जल कुँवर देखत हे, आज अगास हर बड़ जगर -मगर करत हे । आज एके पइत कइसन अतेक तारा मन उपला गय हें अगास म ! ये कइसन गोरस के धार बोहात हे अगास म ...! ये गोरस के धार म वोहर तउरत हे बने मजा के । ये गोरस के धार कहाँ ले आवत अउ कहाँ जावत ,पता नइये । अब तो वोहर ये तारा- जोगनी मन ल कुदा- कुदा के अपन ओली म धरत जाथे ; फेर येमन तुरंतेच वोकर ओली ल बाहिर निकल जावत हें । फेर वोहर तो कुदातेच हे, अब तो ये तारा -जोगनी मन घलव वोकर संग म खेले बर लग गईंन हें , वोमन खुद येला छकात हें । देखते- देखत वोहर कतेक न कतेक बड़े हो गिस हे अउ ये गोरस कस सेत वरन धार हर अभी तो वोकर भीतर म बोहाय लागिस हे । सब ल देखत हे वोहर पांच-परगट ! ये सेत वरन धार भीतर म लाख लाख -करोड़ ठीक वईसनहेच चमकत सितारा मन चमकत हें । वोमन के गति के आगु म सब फीका हे । अतेक तेज फेर कतेक सुहावन हे येमन के ये गति हर । कतेक न कतेक गझिन लागत हे, ये जगहा हर । ये तारा मन के डहर म एकझन जोगनी हर बइठे हे । तभे एकझन सबले बड़े बलवान अउ तेज अउ तेज तारा हर अइस हे अउ टप्प ले वो जोगनी के हाथ ल धर के वोकर भीतरी म समा गिस हे"
जलकुंवर के सपना खंडित नई होय ये। अब वोहर देखत हे कि वोहर एकठन फुलवारी म आ गय हे, जिहां कतेक न कतेक फूल अउ तितली मन हें। वो तितली मन म ले, एकझन तितली हर उड़त उड़त आके, वोकर अंचरा म समा गिस हे, अउ अंचरा म समात, वोकर अंतस म समा गिस हे। वोकर गरभ म तितली (सोनकमल ) आ गिस हे...
"ये अब कइसन वोहर घन वन -डोंगरी भीतर पहुँच गय ! चारो कोती कट कट... हरियर । अतेक कटकटात हरियर के, हरियर के छोड़ अउ आन कुछु नई दिखत हे , फेर वो तो ये गहिल अउ गहिल जाते -जात हे । जावत हे वोहर फेर अब गहिल -अंधियार ले ये नावा अंजोर कोती आ गय हे । फूल अउ फूल...तितली अउ... तितली ! जतेक वरन के फूल हाँवे, वोतकी वरन के तितली -फिलफिली ! अउ वोकर तो बस वोइच बुता - अब कुदा -कुदा के ये तितली मन ल धरई । फेर वोमन हाथ नि आवत यें । तभो ले वोहर ये एकठन बड़ सुंदर तितली ल धर डारिस हे । अउ वो तितली वोकर अंचरा तीर म आइस हे । अउ अब तो वोहर ,वोकर अंचरा म आ गिस हे...! अरे येहर तो अंचरा के भीतर जावत- जावत वोकर अंतस म समा गिस हे अउ बड़ मजा लेवत उहाँ जा बइठ लागिस हे।"
(ये बरनन हर, कनहुँ ल अभद्र, भदेस अउ अप्रिय लागही; वोकर ले, लेखक हर,अगाहु माफी मांग लेत हे।
*रामनाथ साहू*
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