छत्तीसगढ़ी व्यंग्य -
गुरुजी के गुरुरनामा
बरसो बाद कालि फेर उदुपहा ‘‘नमो भूखमर्रा गुरूजी’’ के आगू म हपटके अभर गेवँ।
पढ़त रहेन तेन समे सब्बो लइका वो गुरूजी संग कोनो मेरन झन संघरन कहिके बिनती बिनोवय। वो कहूँ बजार-हाट, रद्दा-बाट म दिख जावय त दुरिहे ले सब कन्नी काटके छू-लम्मा हो जावय।
‘बाँचेवँ रे भाई !!’
कोनो जगा अचानक-भयानक संघर जावय त वो गुरूजी अपन सब काम -बूता ल भूला-छोड़ देवय। एकदम टकटकी लगाय हमरे कोति ल देखत राहय। उत्ता-धुर्रा सरपट रेंगत रहय तेनो हँ मरहा-खुरहा-पंगुरहा मन बरोबर एकदम धीरे-धीरे रेंगे-घिसले लगय। हमन ओला देख परन त मुड़ी ल नवाए कनेखी देखत ओकर नजर ले बाँचे के प्रयास म बिलई कस सपटे-लुकाए-तीरियाए असन रहन।
कहूँ हमन गुरूजी ल नइ देखे राहन त वोहँ हमन ल देखय-जानय अउ नमस्ते करय कहिके अपने अपन खाँसय-खखारय। अचानक नजर मिल जावय, देख परन, त वोहँ बिलकुल विकेटकीपर बरोबर तियार देखत राहय कि कब हम नमस्ते के बॉल फेंकन अउ वो ‘गपाक-के’ लपक-छपकके चपक लेवय। जब ओकर खखाय-भूखाय चेहरा, लार बोहावत लपलपावत बाहिर निकले जीभ अउ उसवाय आँखी ल नमस्ते बर अलकरहा अकबकाए-कलबलाए देखन त हमीमन ल नकमर्जी लगे लगय। नइ चाहते हुए घलो जबरन ’नमस्ते गुरूजी’ कहे बर लग जावय। हम पूरा-पूरा नमस्ते नइ कहे पाए राहन, वोहँ बिना कुछु देरी करे ‘तपाक-ले’ ताते-तात जुवाब दे देवय-
नमस्ते ! नमस्ते !!
गुरू आखिर गुरू होथे। वोहँ हमर चेहरा ल देखके पढ़-जान-समझ लेवय कि अब येहँ नमस्ते करइया हे। तेकर पाए के हमर आधे अधूरा नमस्ते निकले राहय अउ वोहँ मुड़ी ल हलाके जोरदरहा काँखत किकिया-चिचियाके नमस्ते कहि डारय। एके घँव तको नहीं, दू-तीन घँव कहि डारय- नमस्ते ! नमस्ते !! नमस्ते !!!
ओकर ले लगे हाथ फोकटइहा ये विज्ञापन हो जावय कि तीर-तखार के मनखे देख-सुनके जान-समझ जावय कि येहँ गुरूजी हरे। अउ इहाँ गुरू-चेला के राम-भरत-मिलाप होवत हे।
हरू खर्चा म गरू विग्यापन हो जावय। येला कहिथे असल अक्कल, चुस्त-दुरूस्त व्यवस्था अउ पोठ प्रबंध।
हमर ले नमस्ते झोंक-लपकके अपन झोला ल भर लेवय, तेकर पीछू उही नमस्ते ल चाँटत-चिचोरत-चबुलावत वोहँ अपन काम-बूता कोति ध्यान देवय।
बिहान भर ओ घटना हँ जम्मो छात्र मित्र मण्डली म दिनभरहा मनोरंजन के साधन बने कुण्डली मारे बइठे राहय।
उही ल खाके खखाय गुरूजी हँ दिनभर अपन गम भुलाए गुमसुम गमगमाए राहय।
गुरूजी ल देखते ही दुरिहा ले मैं दूनो हाथ ल जोर लेवँ-‘नमस्ते गुरूजी !’
वो मनढेरहा किहिस- नमस्ते ! (जानो मानो काहत हे कि राहन दे, अब मोला तुँहर झोला-छाप, झिटी-झाँझर, रिंगी-चिंगी नमस्ते के जरूरत नइहे) बड़ अचम्भा लगिस। अचम्भा के खम्भा ल खखौरी म चपके-दाबे मैं होंठ म मुस्कान ल हुदेनत लान के कहेंव -‘अबड़ दिन बाद आपके दर्शन होइस गुरूजी, बड़ खुशी होवत हे।’
गुरूजी मुसकियावत असमान ल देखे लगिस। ( मानो काहत हे -तोर ले जादा तो मोला खुशी होवत हे।)
‘मोर अहो भाग्य !’ (मन के बजबजावत नाली ले बुलबुला फूटिस, सोचेंव -‘अब तो सोचते होबे गुरूजी कि मोला नमस्ते कहइया मिलगे रे कहिके ?’)
होथे .....होथे। (गुरूजी सोचिस - ‘उहूँ ..... मोला ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ मिले हे तेला तोला बताना हे कहिके।)
गुरूजी के गुरूता, उदारता अउ महानता देखव कि वोहँ अपन चुचरू चेला के चेहरा देखके मन के बात ल टमर डारिस। ओइसने योग्य चेला तको मिले हे। दूनो के बीच तन अउ मन दूनो ले दुमुँहा गोठ-बात होय लगिस।
मैं कहइयच रहेंव- ‘आपमन ल ‘‘सच्चा गुरू.......’’ मोर मुँह के भाखा ल फटाकले झपट लिस अउ आँखी ल लिबलिबावत गुरूजी शुरूजी हो गइस -‘इही साल मैं ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ से सम्मानित होए हौं।’
‘गाड़ा गाड़ा बधाई हो गुरूजी।’
वो बिलई कस आँखी मूँदे टेटका कस मुड़ी ल हला-डोलाके स्वीकार करिस। ( स्वीकार का करिस जानो मानो कोनो कपड़ा के धुर्रा झटकारथे, तइसे झर्रा दिस-हूँ .........का झोलाछाप तैं अउ का तोर झोल्टू बधाई।)
‘आपमन ये पुरूस्कार ल पाके कइसे अनुभव करत हौ ? ........ ’ गुरूजी दूनो हाथ ल उठा भर दिस, भीतरे -भीतर गदगदई के मारे गदफद कुछू नइ बोल सकिस। मैं जानत रेहेंव कि एकर ले तिरछन, बंचक-पंचक, नवटप्पा अउ तीन-पाँच करइया कोनो हे, न तीन काल म कोनो होवय। तभो कहेंव - ‘सब आपके मेहनत, ईमानदारी अउ लगन के फल ये गुरूजी।’
‘बहुत चिला लहुटाए बर परथे बेटा !’ अतके काहत गुरूजी मोर हाथ ल धरके तीरत अपन घर कोति लेगे।
‘चल न .. एमेर खड़े-खड़े का बताहूँ, घर म बने बइठ के फुरसुतहा गोठियाबो।’
मैं अपन चरणकमल ले चरणदास ल नइ निकाले पाएँव वोहँ लकर-धकर जाके भीतर ले अपन पोथी -पुरान ल ले लानिस। मोला एकक करके देखाए लगिस -‘देख, तुँहर समाजिक बइठका के प्रमाणपत्र। अउ ये ओकर फोटू।’
‘अरे ! ये बइठका कब, कहाँ होइस गुरूजी, हमला काँही पतच् नइ चलिस।’
‘उहीच तो .....खोजे बर परथे गा, मोती बइठे-बइठे अइसने भूइयाँ म परे नइ मिलय -‘जिन खोजा तिन पाइयाँ गहरे पानी पैठ’। गुरूजी मंद-मंद मुसकाए लगिस -‘कोनो जात के समाजिक बैठक होवय, मैं जरूर उपस्थित राहँव। ओ जात के विशेषता के बखान करौं। दू चार झिन ओ जात के मनखे मन ल महापुरूष बता देववँ। प्रमाणपत्र मिलनच् हे।’
‘अच्छा ! आपमन तो अक्सर इहाँ-उहाँ ये कार्यक्रम कभू ओ कार्यक्रम म घूमते राहव।’
‘त .... मैं कोनो दिन बारा बजे के पहिली स्कूल नइ गेवँ, न दू बजे के बाद कभू स्कूल म रहेवँ। तभो ये शत-प्रतिशत मोर हाजरी के प्रमाण देख ! अब सोच, ये कमाल होइस कइसे ?’ गुरूजी अँखिया-अँखियाके बताए लगिस -‘बीमार खटिया म परे रहँव तभो मोर गैरहाजरी नइ चढ़ै। दूसर गुरूजी अनुपस्थित हे अउ छुट्टी के आवेदन घलो नइ हे। अउ कहूँ कोनो साहेब-सुधा जाँच बर पहुँच गे त वो जाँच के आँच ले उन्कर म लाल स्याही के टीका लग जही। हमार न नइ लगय।’
गुरूजी ये। चुप रहिबे त एकर समझ म नइ आवत हे कहिके उल्टा गोला दाग देथे। ओकर ले अच्छा मैं कुछ पूछना ही उचित समझेवँ। मैं हल्लु-कन ओकर दिमाक के तरिया म अपन दिमाक के भैंस ल ढील देवँ - ‘अइसे काबर गुरूजी ?’
गुरूजी जोशियागे - ‘काबर कि हम पहिलीच ले टीकावन टीक डारे रहिथन। अइसन म कतको बड़े साहेब-सुधा होवय हमर सेर-सीधा के सुविधा के आगू म बोक्को-बोकरा होइ जथे। ये सब प्रबंध-व्यवस्था देखे-बनाए बर परथे, जाने।’
ओतके म एक झिन लबरा नेता ‘मीठलबरा सिंग छेरीचरे’ के गोड़ म घोण्डइया मारत गुरूजी के फोटू ल देख परेवँ। जेला जनम भर गुरूजी पानी पी-पीके गारी देवय।
‘एहँ तो आपमन ले कतकोन के छोटे हरे का गुरूजी ?’
‘का होही त ! पाँव परे म माथा नइ खियावय। जेमा फर लगथे उही पेड़ नवथे। एहू जानत होबे माथ नवाए ले कोनो छोटे नइ हो जाय बेटा । मोला प्रमाणपत्र से मतलब। उही चढ़ौतरी के पलौंदी ले तो ड्यूटी के दौरान प्रमाणपत्र के फर म बढ़ौतरी करना रिहिस हे बस।’
गुरूजी ओतके म कुर्सी ले झुकके मोर कान तीर अपन बस्सावत मुँह ल टेकाके धीरे से कहिस -‘तैं तो अतके ल देखे हस। मैं तो एकर कस कतको जीछुट्टा, चोरहा, लबरा अउ लंपट नेता मन के मंच म चढ़के उन्कर चरण पखारे हौं। चारण घलो गाए हौं। एहँ अइसनेहे सब करम के परिणाम हरे बेटा ! जउन आज मैं सम्मानित होए हौं। स्वाभाविक हे, मान देबे त सम्मान पाबे। लगाए बर बम्हरी, फरे बर आमा कहिबे त कइसे होही बता ? पाँव परत म पद मिलय, त कोन फोकट के करम छीलय।’
गुरूजी आगू बोमियाते रिहिस -‘जनगणना ड्यूटी मैं कभू नइ करेवँ। बेरोजगार टूरा मन ले ठेका म करवाके ’सर्वश्रेष्ठ जनगणना करमचारी’ के प्रमाणपत्र पा लेवँ। सरकार ल जनगणना से मतलब, बेरोजगार ल पइसा से अउ हमला प्रमाणपत्र से जी ! पोलियो ड्राप मैं नइ पिलाएँव तभो सर्वश्रेष्ठ पोलियो करमचारी हौं। हाथ कंगन को आरसी क्या ? प्रमाण तोर आगू म हे।’
मैं मनेमन सोंचे लगेंव - ‘अरे ! भयंकर !! गुरूजी तो वाकई म गुरूजी हे भई। विचार भले पोलियो-ग्रस्त हे फेर दिमाक एक नंबर के मौकापरस्त हे।’
गुरूजी सरलग अपन बखान के गरू-गरू, बड़े-बड़े बात ढीलते गइस -
‘कोनो बड़का करमचारी-अधिकारी आवय, सबले पहिली मैं पाँव परवँ। चिन्ह-पहिचान होनच् हे।’
मैं कहेवँ -‘गुरूजी ! एक बात मोर दिमाक म नइ पचत हे।’
गुरूजी तुरत हाजमोला फेंकिस - ‘पूछ ! पूछ !! आज तोला सब ज्ञान से परिपूर्ण कर देथौं बेटा।’
‘सरकारी योजना, जइसे कि पोलियो ड्यूटी, जनगणना या चुनाव हँ सरकार के जिम्मा होथे त हाजरी चढ़गे। फेर कोनो समाजिक सम्मेलन के बेरा म आप उहों उपस्थित हौ अउ रजिस्टर के हिसाब से स्कूल म घलो उपस्थित हौ, ये कइसे होइस ?’
‘उही ....सब व्यवस्था। जइसे पैसा हाथ के मैल, तइसे सब व्यवस्था के खेल।’
गुरूजी हिन्दी साहित्य के बने जानकार रिहिस। अपन झोली ले निकालके एक ठन जोरदरहा लाइन फेंकिस - ‘सेवा ले मेवा बढ़य, त कोन बलि कस बोकरा चढ़य।’
मैं वाह ! वाह !! काहत गुरूजी के चाहत ल गोड़ ले तरूवा म चढ़ाए लगेवँ -‘ओकर फायदा गुरूजी ?’
गुरूजी के थोथना म गुरूता-गरूर के प्रमाण पत्र ‘लकलक-ले’ चमके लगिस।
‘उही सब प्रमाणपत्र ल नत्थी करे बर परथे ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ के फारम संग।’
‘जब आप अपन करम म बने हौ, त ये सब प्रमाणपत्र अउ दुनियादारी के का मतलब गुरूजी ?’
मोर सवाल के लबेदा परे ले गुरूजी के मंघार झन्नागे। दिमाक चार भाँवर घूमगे। वो अपन सात भँवरी संगिनी ल तुरत चिचियाइस - ‘पानी लान तो वो एक गिलास।’
गुरूजी सोचे लगिस -‘पूरा गोबर गणेश हे टूरा हँ। रात भर रामायण पढ़े, बिहिनिया पूछे, राम-सीता कोन ? त बताथे, भाई -बहिनी। पानी के लानत ले गुरूजी आँखी ल मूँदके माथा म अँगरी फेरत मने मन मोला गारी देये लगिस - ‘अतका चिचिया-चिचियाके सिखाएवँ-पढ़़ाएवँ फेर तैं बोदा के बोदा रहे रे। अरे अक्कल के दुश्मन ! सौ बक्का एक लिक्खा। कोन-कोन ल बतावत फिरतेवँ कि मैं टाइम म स्कूल आथौं-जाथां। हरेक सरकारी योजना ल बिना नागा करे जी परान देके सबले पहिली मैं पूरा करथौं। मैं सदा समे के पाबंद रथौं। ये सब प्रमाणपत्र के बिना मोला ‘‘सच्चा गुरूजी पुरूस्कार’’ कइसे मिलतिस।
मोर प्रश्न के बाद मोर प्रति गुरूजी के मन म तिरस्कार भाव आगे। संगे-संग ओकर कुचराए-कोचराए दिमाक म चारी चरित्र के घलो सूत्रपात होगे। घेरघेरहा टोटा ले धीरे से कहिस - ‘वो करमचंद सतरंगा हे न ?’
मैं पूछ परेवँ -‘बीईओ साहब गुरूजी ?’
‘हाँ ...हाँ उही। वो नालायक ल साहब झन कहे करौ मोर आगू म, मोर मइन्ता भोगा जथे ओकर नाम सुनके। जनम के जाँगर चोट्टा आय वोहँ। जस नाम तस काम। इही करम करके वो सकलकर्मी, पहिली संकुल अधिकारी बनिस। छुट्टी के आवेदन पत्र लिखे बर नइ आवत रिहिसे। छुट्टी ल छट्ठी लिखय। हप्ता म चार दिन स्कूल आजय त अब्बड़ होजय। कोनो दिन मुड़ पिरावथे, कोनो दिन बाई के कनिहा धर लेहे, त कोनो दिन लइका ल दस्त होवथे कहि-कहिके नागा करय अउ घर म मस्त राहय। .......आज वो....... हमला सिखोथे ......अयँ।’
अचानक पता नहीं गुरूजी ल का सूझिस। पोंगा बंद होगे। चारी के बाना ल उतारके गंभीरता के चद्दर ओढ़ लिस। फेर धीरे से कहिथे-‘अइसे......मैं अब संकुल समन्वयक होगे हौं। जिला ले आर्डर निकल गेहे। बस एक दू दिन म मोर हाथ म अइच् जथे। अब मोर बर गुरूजी गरू होय लगे रिहिस अउ मैं गुरूजी बर हरू। मैं लकर-धकर संकुल समन्वयक के बधाई थमावत उठते रहेवँ, ओइसने म गुरूजी कहिथे - ‘चल, ठीक हे। अच्छा लगिस। मिलत रहिबे।........चाय तो नइ पीयत होबे ?’
‘नहीं.......नहीं गुरूजी।’
गुरूजी दाँत ल खिसोरिस - ‘ओकरे सेति तोर बर नइ बनवाएवँ हें हें हें .........!
महूँ दाँत ल निपोरत हें हें हें करत रेंगते बनेवँ।
धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346
No comments:
Post a Comment