*सुरता : लक्ष्मण मस्तुरिया*
हरि ठाकुर जी कहे रहिन - लक्ष्मण मस्तुरिया माटी के कवि हैं, छत्तीसगढ़ को लेकर जितना आक्रोश मस्तुरिया में है उतना बहुत कम लोगों में है। देश में छत्तीसगढ़ की अपनी पहचान बने, उसका स्वाभिमान और पौरुष जागे, उसके गौरव की रक्षा हो, यह चिंता लक्ष्मण मस्तुरिया की कविताओं को ओजस्वी और तेजस्वी बना देती है।
"माटी" -
मोर रग रग म हे मया दया, मँय महभारत के गीता अँव
मोर भुजा म लाखन लोग पलैं, मँय घर हारे जग जीता अँव
मोर गाँव गाँव देवता धामी अउ सहर सहर बिसकर्मा हे
कोरा कोरा म अभिमन्यु अउ भीम अर्जुन घर घर म हे
मोर हाड़ा बजुर बरोबर हे मँय बीर दधीचि दानी अँव
छत्तीसगढ़ के माटी अँव, मँय छत्तीसगढ़ के माटी अँव।
नँगत गाए हौं मया गीत अब राग जुझारू गाहूँ मँय
चेतव झटकुन संभलौ नइतो मारू बाज बजाहूँ मँय
घात दिना ले नइ जानेंव, अब देखत म अचरित लागै
उन सरग छुवैं मोर छाँव नहीं, गुनत म अड़बड़ रिस आवै
मोर उमड़े म दुख पाहू रे, मँय जर अर्रावत आँधी अँव
छत्तीसगढ़ के माटी अँव, मँय छत्तीसगढ़ के माटी अँव।
बीस बछर के उमर मा लक्ष्मण मस्तुरिया के हिरदे मा छत्तीसगढ़ के पीरा साजा अँगरा आगी दहकत रहिस तब ये गीत लावा असन बाहिर आइस। छत्तीसगढ़िया मन के सुते साभिमान ला जगाए बर जिनगी भर गावत रहिगें अउ हम सन्देस ला छोड़ के उँकर गीत के लय मा मगन रहिगेन।
मस्तुरिया जी चौबीस बछर के उमर मा दिल्ली के लालकिला ले छत्तीसगढ़ी भाखा ला बुलंद करके आह्वान करे रहिन -
मोर संग चलव रे, ओ गिरे थके हपटे मन,
ओ परे डरे मनखे मन
बिपत संग जूझे बर भाई मँय बाना बाँधे अँव
सरग ल पिरथी म ला देहूँ प्रन अइसन ठाने अँव
मोर सुमत के सरग निसेनी, जुरमिल सबो चढ़व रे
कोनो संग नइ चलिन, कोनो नइ जागिन। ये आह्वान ला घलो गुरतुर गीत समझ के आनंद मा बूड़े रहिगिन।
"जागव रे जागव"
जागव रे जागव बागी बलिदानी मन
धधकौ रे धधकौ रे सुलगत आगी मन
महाकाल भैरव लखनी महामाया सीतला काली मन
भीख माँगे म जिनगी के अधिकार कोनो ल मिलै नहीं
कुंडली मारे साँप सिंहासन आगी आँच बिन हिलै नहीं
कायर बिन दहसत दबाव के न्याय नीत म चलै नहीं
मारे काटे बिन दुश्मन पापी जीव पीछू हटै नहीं
मुरदा जागव मरद बनव रे छाती माथ म गरब भरव रे
धरती माँ रोवत कलपत हे, जनम भूईं के भार हरव रे
अइसन सोझ सोझ बोल के जगाए के काम अउ कोन करिस?
ये सब गीत तउन समे के आँय जब छत्तीसगढ़ राज नइ बने रहिस। 01 नवम्बर 2000 म छत्तीसगढ़ राज बनिस फेर छत्तीसगढ़ के दुलरवा बेटा लछमन मस्तुरिया ह करीब तीस बछर पहिली ले रइपुर ल राजधानी कहि दे रहिस -
मोर रायगढ़ बिलासपुर बस्तर दुरुग जस दोहरी छाती हे
राजनाँदगाँव सरगुजा मोर रइपुर जस रजधानी हे।
इही पायके कवि ल युगदृष्टा, भविषदृष्टा घलो कहे जाथे।
लक्ष्मण मस्तुरिया अइसने तेवर के क्रांतिकारी कवि रहिन। बहुत बाद म श्रृंगार के गीत लिखिन फेर हमन मस्तुरिया के क्रांति ला नइ देख समझ पाएन अउ श्रृंगार के रस लेवत रहिगेन।
असली कवि उही होथें जेन धरती अउ मनखे के पीरा ला स्वर देथें। अइसन कवि कभू राग दरबारी नइ गावँय। राग दरबारी गाने वाला कवि मन ईनाम, सम्मान के चक्कर मा सच कहे ले परहेज करथें।आज मस्तुरिया जी के तेवर के कुछ गीत के चर्चा करहूँ. बहुत मन ए गीत मन ला नइ पढ़े सुने होहीं -
देस के हाल -
अफसर पाकिट मारे, सिपाही अब का करही?
बिक जाथे कप्तान, दरोगा तब का करही?
भ्रष्टाचार के गढ़ होवत हे भारत भुइयाँ
मरही भूख ईमान,जनता अब का करही ?
कुरसी चढ़े दलाली, फ़ाइल म भरे कमीसन
न्याय बेचे हाकिम, अदालत अब का करही?
"घपला म राम अरझगे"
राजनीति के गदहा, घोड़ा के चाल म चलगे
गाँव बस्ती परिवार,, पार्टी पार्टी म बदलगे
सुने रहेन परमेसर, पंच सरपंच म बसथे
लोभ मोह के ऊपर उठके, न्याय नीत ल रचथे
फेर ये कइसन परजातंत, घपला म राम अरझगे?
अब तो भारत भुइयाँ भ्रष्टाचारी के गढ़ हे
लबरा चोरहा लंदफंदिया बर, खुल्ला छत्तीसगढ़ हे
अवसरबाज के आँखी मुँह, देखते देखते पलटगे
फेर ये कइसन परजातंत, घपला म राम अरझगे?
"राजनीति के गोल्लर"
राजनीति के गोल्लर मतवार हो….
चर डारिन देस अउ समाज ल
रउंद डारिन भुइयाँ के लाज ल
गउंद डारिन देस के सुराज ल
घपला घोटाला म घुंडत हे मनमाने
खुरचत हे रुपिया देख झुमरत हे सींग ताने
गाँव गाँव मचावत हे रार हो…..
चोर डाकू जुरमिल के डोंगा चलावत हे
मछरी बाँचे कइसे, पानी मतलावत हे
कइसे होवय जिनगी निस्तार हो…..
"उठ जाग तभे पाबे"
नइ तो परे अलाल गतर, सुते सुते सपनाबे
उठ जाग तभे पाबे….
हक पाए बर लड़ना परथे, जीए खातिर मरना परथे
त्याग तपसिया म खपना परथे, तब पीढ़ी के पीरा हरथे
छत्तीसगढ़ तोर राज होगे अब, कब मेंछा अटियाबे…
देख तो नियम कोन बनाथे, तोर हिस्सा दुख पीरा आथे
दस पीढ़ी बर जोरत हें उन, तोर लइका के पेट कटाथे
मार के धक्का बढ़ ना आगू, नइ तो पीछू पछुवाबे….
उठ वोमन ल चेत करादे,लंदफंद ल सब बंद करादे
भ्रष्टाचारी अधिकारी के,आँखी फोर परेड करादे
तोर अधिकार लुटइया मन ल, लाठी ले कब धमकाबे…
गली गली तुम नाचत हावौ, देवता उन ला मानत हावौ
हवा म रोज उड़ावत हावै, मूड़ी म वोला चढ़ावत हावौ
अपन आह के आगी म उन ला, जीयत कब दहकाबे…
मुरदा बने घर छोड़ के भागे, सरबस लुटाए अउ लहुट आगे
हक लूटे बर जे नइ जानै, वोकर भाग कभू नइ जागे
राज सुराजी के राजा होके, अउ कब तक घबराबे…
"भुइयाँ के भार हरो"
धीर बीर बनो दुनिया के भार हरो रे
अँधमधाये जिनगी नैया, बेड़ा पार करो रे…
आज मरना, काल मरना, मरना हे एक दिन
जिनगी असली बीर के देखा दो एक छिन
नवा पीढ़ी बर रद्दा बनाके पार तरो रे….
"मत बइठव रे हार के"
राज बने हे छत्तीसगढ़ तब, राज करंय छत्तीसगढ़ी
छली कपटी परपंची मन के, मूड़ ऊपर माटी चढ़ही
जिनगी के हक सबके बरोबर, गावव गीत गोहर के…
हम तो लूट गएन सरकार, तुँहर भरे बीच दरबार
खुल्लम खुल्ला राज म तुँहर, अहा अनाचार
रइहो, रइहो खबरदार…….
मुक्तक -
(1)
ले दे के काम चलाना जग बेवहार होगे हे
दफ्तर के भ्रष्टाचार, शिष्टाचार होगे हे
ईमान धरम त्याग सब निस्सार होगे हे
बड़े मनखे के पहिचान बंगला कार होगे हे।
(2)
बड़का सहर म मनखे रे तोर काम कहाँ हे
गजट बजट म देख तो तोर नाम कहाँ हे
दू कौड़ी के जिनगी हे तोरे दाम कहाँ हे
रावन भोगत हे राज तोरे राम कहाँ हे?]`
(3)
घाटे घाटा के सौदा ल, वयपार का कहिबे
मँझधार म डुबोय डोंगा, पतवार का कहिबे
सरेआम जे लूटे वोला रखवार का कहिबे
ले दे के चलत हे वोला सरकार का कहिबे ?
"सोनाखान के आगी"
अरे नाग तँय काट नहीं त, जी भरके फुफकार तो रे
अरे बाघ तँय मार नहीं त, गरज गरज धुत्तकर तो रे
कवि के विश्वास देखव -
एक न एक दिन ए माटी के पीरा रार मचाही रे
नरी कटाही बइरी मन के,नवा सुरुज फेर आही रे…
*आलेख - अरुण कुमार निगम*
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