Friday, 3 July 2020

नाँग साँप (कहानी)-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

नाँग साँप (कहानी)-जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

कथे न, राम राम के बेरा हाँव हाँव अउ खाँव खाँव, अइसने होइस घलो जब पहातिच बेरा शहर के कृष्णा चँउक म, किसन के  घर साँप दिखगे। कोनो दतवन चाबत, त कोनो लोटा धरे, त कोनो मन बिन मुँह - कान धोय घलो वो मेर पहुँच के किलबिल किलबिल करत हे। पड़ोस के लइका  मनोज जेन दाई ददा के बिना लात घुसा खाय घलो नइ जागे तेखरो आँखी भिनसरहा ले उघर गे रहय, फेर अलाली  के मारे  कुछ देर  खटियच म पड़े पड़े गोहार ल सुनिस, अउ आखिर म आँखी रमजत वो मेर हबरगे। जिहाँ देखथे कि बनेच मनखे सकलाय हे, अउ अपन अपन ले सबे चिल्लात हे। कोनो काहत हे- ओदे संगसा म खुसरे हे। कोनो काहत हे- रँधनी खोली कोती गेहे। कोनो काहत हे, दोनो हाथ ल फैलाबे तभो वो साँप ले छोटे पड़ जही। कोनो काहत हे- बड़ मोठ लामी लामा धनमा ये। कोनो कहे- करायेत हरे, त कोनो कहे- बिखहर डोमी आय।
उही भीड़ के सँग चिल्लावत, मनोज घलो कथे- बाकी साँप के तो पता नही फेर जब तक वो साँप फेन नइ काटही,  डोमी नइ हो सके। एक ठन साँप के आरो पाके कतको झन मनखे रूपी साँप मन बड़बड़ावत हे। एती किसन के मुँह घलो नइ उलत हे, लइका लोग सुद्धा, घर के बाहर थोथना ओरमाये खड़े हे। अउ करे त का, जेखर गला मा घाँटी ओरमथे, उही ओखर दुख ल जानथे, बाकी मन तो बस लफर लफर लुथे। सबे चिल्लावत हे ,फेर कोनो भगाये बर उदिम नइ करत हे। ले दे के एकझन सज्जन साँप पकड़इय्या ल धर के लाइस। पकड़इया ह बड़ महिनत करे के बाद साँप ल घर ले बाहिर निकालिस। साँप ह जुरियाय जम्मो मनखे मन ला देख के, फेन काट के तनियाय खड़े हो जथे। लोगन मन देख फेर फुसफुसात हे देखे जुन्नेट डोमी आय। ये भारी बिखहर होथे, एक घाँव चाबिस, मतलब राम नाम सत। येती मनोज तनियाय खड़े हे, देखे में केहे रेहेंव, ते सहीं होइस न,फेन काटही कहिके। एक झन चुप करात चिचियावत कहिथे,ते चुप रे,आज के लइका का जानबे, का का साँप होथे तेला, भगवान शंकर के फोटू ल भर देखे हस, कभू बाप पुरखा नाँग देखे रेहेस।  येती किसन के पोटा साँप ल देख के काँपत रहय। किसन कहिथे, येला कोई मार देवव, आज मोर घर म घुसरिस, काली अउ कखरो घर घूँस जही। आघू म खड़े एक झन मनखे कहिथे- बात तो बने काहत हस किसन,  फेर मोर डहर अँगरी काबर देखात हस, मोर घर काबर घुसही।  वो मेर खड़े अउ मन फुसफुसावत कहिथे, काबर की तोर घर जादा धन दौलत हे। ततकी बेरा मनोज बात ल काटत कहिथे, इती के बात ल छोड़व। कइसे ग कका किसन, तैं जीव हत्या के बात करइया निरदई आदमी कइसे हो सकथस? बात वो किसन के अलग हे जउन नाँग नाथे रिहिस। ते तो निच्चट डरपोक आवस। हाँ नाँग देवता,तोर घर आय हे, बढ़िया पूजा पाठ कर, धन रतन बाढ़ही। ये मजाक के बेरा नइहे, किसन बिलखत कथे- अब तुही मन बतावव ददा, मोर घर  ले ये बला टरे। साँप पकड़इय्या वो साँप ल चुंगड़ी म भरके, मनोज ल कहिथे, चल येला कहूँ मेर छोड़ के आबों। मनोज छाती ठोंकत कहिथे ,अइसन काम बर तो मैं बने हँव। अउ साँप घलो तो जीव आय, मारना पीटना बने बात नोहय। चल ये साँप ल खाली जघा म छोड़ आबों। तीर म ओखर ददा घलो रहय। वो मनोज ल कहिस -हव ",काम के न कौड़ी के, दँउरी के बजरंगा" अउ कामे का कर सकत हे। दुनो झन साँप ल चुंगड़ी म धरके निकल गे। इती किसन ला हाय जी लगिस। लोगन मन घलो छँटियाय लगिस।
                   साँप पकड़य्या के पाछू पाछू मनोज रेंगत कहिथे, अउ कतिक दुरिहा जाबों, ऐदे मेर छोड़ देथन। बेरा उग के चढ़त रहय, मनखे के चहल पहल बढ़ गे रहय। साँप ल छोड़े बर जइसे चुंगड़ी ल खोलेल धरथे, नजदीक के घर वाले करलावत निकलथे, हव छोड़ दव इही मेर, ताहन मोर घर खुसर जाय। चलो भागो ए कर ले।  दुनो फेर सड़क नापथे, सबो जघा मनखे मन देखे के बाद दुनो ल गरिया देवव। दुनो थक हार गे। आखिर में साँप पकड़य्या कहिथे, मोर ले गुनाह होगे जी मनोज, जे सांप ल पकड़ेव। फेर ये मोर बर थोरे हरे, भलाई के जमाना नइहे, मोरे मरना होगे।
दुनो लहुट के किसन घर कर आगे। किसन पुचपुचावत कहथे-बने करे दाऊ, तोर बिना मैं तो संसो म पड़ गे रेहेंव। ले चाय पीके जाबे। किसन के बात ल सुनके, मनोज कहिथे- का बने कका, साँप तो चुंगड़ी म हे। कोनो मन अपन तीर तखार म ढीलन नइ दिन। मुँह उठाके फेर आगेन। अब तोर नाँग ल तिहीं पूज, हमन चली। अरे अरे अइसे कइसे हो सकत हे, ये गलत ए, अउ ये कोनो मोर पोसवा थोरे आय, एखर मैं काय करहूँ, किसन बिलखत हे। मनोज का, सबे झन भाग गे।  किसन के मूड़ म पहाड़ टूट गे, साँप के चुंगड़ी के दुरिहा म बैठे लइका लोग सुद्धा फेर रोय लगिस।
             एकाएक मँझानिया, मनोज के ददा कल्हरत भागत चिल्लाथे, साँप साँप साँप। अरे भागो भागो, किसन घर के  डोमी नाँग हमर घर खुसर गेहे। मनोज गिरत हपटत भागथे, अउ किसन ल खिसियाथे, जेन चुंगड़ी के आघू अपन भाग ऊपर रोवत राहय। मनोज के ददा झाँक के देखथे, चुंगड़ी भोंगरा रहय, ओखर मुहड़ा थोरिक खुल गए रहय। मनोज सोचथे, साँप पकड़इय्या लगथे, ढीले के बेरा बने से नइ बाँधे रिहिस। फेर अब साँप तो मनोज घर खुसर गेहे। किसन जान के खुश तो नइ होइस, तभो अइसे लगिस जइसे ओखर करेजा म लदे पथना, हट गे। लइका लोग सुद्धा खैर मनाइस। अउ मुंह बजावत कइथे, कइसे बाबू मनोज, अब कइसे लगत हे, जा तिहीं पूजा कर नाँग देवता के , सावन घलो चलत हे, नागपंचमी घलो अवइया हे। मनोज के ददा दाँत कटर के रिहिगे, देखते देखत मनखे मन फेर जुरियागे, हो हल्ला मात गे। कोनो काहत हे अइसन म बात नइ बने, पुलिस म खबर देना चाही। कोनो कहय पुलिस का करही, वन विभाग के अधिकारी मन  ल बतावव, उही मन ले जही। फेर वोमन फोकट म बिन पइसा कौड़ी के थोरे आही। अउ वन विभाग वन कोती रइथे, शहर नगर म कहाँ के। मनोज के ददा किसन ल देखत कहिथे, चल दुनो मिलके वन विभाग ल बलाबों।किसन मुँह अँइठत घर म खुसर गे।  अचानक साँप मनोज के घर म एक डाहर ले दूसर डाहर जावत दिखथे, भीड़ फुसफुसाए लग जथे,  किसन के बला, मनोज घर  सपड़ गेहे, लगथे किसन बने आदमी नोहे, नाना जाति के गोठ उभरे बर धर लेथे। फेर जेन संसो कुछ देर पहली किसन के रिहिस, वो अब मनोज अउ ओखर घरवाले ल सतावत हे। अब तो साँप धरइय्या घलो नइ आँव काहत हे, उहू अपन दुख दर्द बतावत हे कि मैं पकड़ के अचार थोड़े डालहू ,ये शहर म दूर दूर तक  न परिया हे न खाली जघा, मैं काल काबर मोल लेवँव। मनोज के पड़ोसी मन ल घलो संसो सताये बर लग गिस, कही ये साँप हमर घर म आ जही तब। अब सबे केहेल धर लिस, साँप ल दूध पियाबे त चाब्बे करही, ओला पाले के बजाय मार देना चाही। मनोज के ददा अउ वो मुहल्ला के दू सियान लउठी धरके, साँप कोती बढ़थे। साँप डर के मारे एती वोती भागेल धर लेथे। लउठी पड़इय्यच रहिथे, मनोज तीर में जाके हाथ ल धर लेथे। अउ कहिथे- मोर बात वन विभाग के अधिकारी मनले होगे हे, झन मारव। ये साँप बिचारा आखिर रहे त कहाँ रहे, जम्मे कोती हमन अपन ठिहा ठौर बना डरे हन, न कोनो मेर रीता भुइयाँ हे, न परिया। यहू मन तो ये धरती के प्राणी आय, अगास या पताल के थोरे, फेर हम मानव मन स्वार्थ अउ आधुनिकता के चकाचौंध म जम्मे कोती क्रंकीट अउ सीमेंट बिछा डरे हन, सांप बिच्छू मन चकचक ले  दिख जावत हे, उँखर बर बिला भरका घलो नइ  बचायेन , रुख राई के तो बातेच ल छोड़ दव। न बारी बखरी हे, न कोठा ,न कोला आखिर साँप बिच्छु कस विवश प्राणी मन रहे त कहाँ रहे? अउ कहूँ दिख जाथे, त साँप ले जादा खतरनाक हम मानव मन वोला मार डरथन। शहर नगर सिर्फ मनखे मन बर होगे हे, गाय,गरवा  मन घलो  सड़क म बैठे रहिथे। हमर करनी के फल हमन असमय गर्मी, बरसा, आंधी तूफान ले तो भुगतते हन, फेर ये निरीह प्राणी मन बिन जबरन काल के मुख म समा जावत हे। हमला उँखरो बारे म सोचना चाही।  वो मेर खड़े जम्मो झन मनखे मन मनोज के बात ल सुनके कलेचुप मुँह लुकावत छँटेल धरलिस। कुछ देर बात वन्य जीव संरक्षण विभाग वाले कर्मचारी मन आगे, अउ साँप ल लेगत बेरा, मनोज ल बूता जोंगत कहिथे- सिरिफ साँप का, कोनो भी जीव  यदि कभू भी अइसने ये मुहल्ला या तोर आसपास भटकत दिखही त आज ले तैं हमन ल सूचना देबे। तोला हमन ट्रेनिंग घलो देबों, ताकि साँप बिच्छू ल तैं पकड़ सकस। गारी गल्ला खावत, ठलहा पड़े, मनोज ल काम मिल जथे अउ  मुहल्ला वाले संग अपन ददा के घलो डाडला बन जथे। 

जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"
बाल्को, कोरबा(छग)


1 comment: