*आधुनिक काल के छत्तीसगढ़ी कविता : दशा अउ दिशा*
आलेख-रामनाथ साहू
- भाग -1
आधुनिक काल के छत्तीसगढ़ी कविता के दशा और दिशा के ऊपर बातचीत करे ले वोकर लिखित साहित्य के पड़ताल हर ही आधार बनथे । काबर की वाचिक- परंपरा म तो बात हर हवा- हवाई हो जाए रथे । एकर सेती, कछु भी जिनिस के लिखित साहित्य हर ही अध्ययन- गवेषणा बर प्रमाण माने जाथे ।
सिंघनपुर कबरा जइसन जगहा के शैलाश्रय मन ये बताथें ,कि जबले मनखे ये धरती म रहत रहिन तबले छत्तीसगढ़ के ये धरती हर जन शून्य नई रहिस अउ जब जनशून्य नई रहिस तब मनुष्य मन आपस म बोलत रहिन भाखत रहिन, तब वोमन के भाखा रहिस अउ जब वोमन के भाषा रहिस , तब वोमन के साहित्य रहिस ही । भले ही ये साहित्य हर लिखित नई हो सकिस ; वैज्ञानिक रीति ले वोला सहेजे नई जा सकिस ।
विशुद्धतावादी भाषा वैज्ञानिक मन छत्तीसगढ़ी साहित्य अउ वांग्मय के विस्तार ला बीसवीं शताब्दी ले पहेली के स्वीकार नई करें। एकर उल्टा बहुत जन विद्वान मन सदगुरु कबीर के योग्यतम शिष्य धनी धर्मदास ला, छत्तीसगढ़ी के पहली कवि करार देवत उन ल छत्तीसगढ़ी के प्रथम कवि मानथें अउ ये आग्रह हर 'सत्य' घलव आय । धनी धर्मदास जी अपन जीवन के अवसान बेला मा छत्तीसगढ़ अइन । अउ जतेक दिन ल इहाँ रहके जइसन तइसन अपन बघेली अवधी मिंझरे भाखा बोली म गाईन -बजाईंन । वोला छत्तीसगढ़ी ले अलग काबर करबे । वोहर निश्चित रूप से छत्तीसगढ़ी आय ;छत्तीसगढ़ी साहित्य के मजबूत पूर्व पीठिका पीढ़ा आय ।
अरजी भंवर बीच नइया हो,
साहेब पार लगा दे।
तन के नहुलिया सुरती केबलिया,
खेवनहार मतवलिया हो।
हमर मन पार उतरगे,
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हमू हवन संग के जवईया हो।
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माता पिता सुत तिरिया बंधु,
कोई नईये संग के जवईया हो।
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धरमदास के अरज गोसांई,
आवागमन के मिटईया हो।
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साहेब पार लगा दे।।
बिना किसी विवाद के धनी धर्मदास जी, छत्तीसगढ़ी के पहली कवि आंय । वोकर ले लेके भक्ति- मार्गी शाखा म गुरु घासीदास अउ वोकर पाठ चेला मन के द्वारा 'सतनाम प्रवर्तन' के जउन भी पद हें , वो सब मन विशुद्ध साहित्यिक महत्व के हें अउ छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्राचीनता ल स्थापित करत हें । छत्तीसगढ़ी साहित्य म निरंतरता के अभाव तो हे , फेर अनुपस्थिति बिल्कुल भी नई ये । खैर आज के हमन के विषय 'आधुनिक युग म छत्तीसगढ़ी काव्य ' के चर्चा करे के हे ।
आधुनिक छत्तीसगढ़ी साहित्य के चर्चा- मीमांसा ल घलव हमन, स्पष्ट रूप ले तीन खंड म बांट सकत हन -
1 प्रथम खंड- सन 1901 ले लेके सन 1935 तक
2.दूसरा खंड-सन 1936 ले लेके सन 2000 तक।
3.तीसरा खंड-सन 2001 ले लेके आज तक।
*काल के छत्तीसगढ़ी कविता : दशा अउ दिशा*
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( भाग -2 )
जइसन की जम्मो भाखा म होथे , छत्तीसगढ़ी साहित्य के शुरुआत काव्य रचना ले ही होइस। छत्तीसगढ़ी भाखा म आधुनिक साहित्य के बीजारोपण हो गय रहिस । जुन्ना भक्ति भाव अउ आधुनिक बहुरंगी साहित्य के बीच जोड़े के सेतु बरोबर काम बाबू रेवाराम जी (गुटका ) के रचे भजन मन करिन । येहर एक प्रकार ले संक्रमण काल रहीस।
एकर बाद 1904 म पंडित लोचन प्रसाद पांडे जी के रचना मन आईंन । सन 1909 म वोमन के लिखे 'वंदना गीत ' प्रकाशित होइस-
जयति जय जय छत्तीसगढ़ देस
जनम भूमि, सुंदर सुख खान
जहां के तिल,सन, हर्रा लाख
गहूँ अउ नाना विध के धान
बनिया बैपारी के आधार
बढ़ाथै देस राज के महान
ठीक अइसन बेरा म सन 1915 म पंडित सुंदरलाल शर्मा जी के छत्तीसगढ़ी दानलीला प्रकाशित होइस ।दोहा अउ चौपाई म लिखे गए ये कृति हर श्रृंगार रस म उबुक -चुभुक। होवत हे । ए कृति म पूरी तरह से एक प्रकार ले पूरा कृष्ण वांग्मय के छत्तीसगढ़ीकरण होगय । गोपी- ग्वाल मन ल छत्तीसगढ़ी पहनावा छत्तीसगढ़ी गहना- गुरिया में देखके पढ़के सुनके छत्तीसगढ़ी मनखे हर गदगद हो गए -
पहिरे लुगरा लाली पिंवरा
देखत मा मोहत हे जिवरा
डोरिया पातर सारि ऊंचहा
मेघी चुनरी कोर लपरहा ।
अइसन समय म भाव- भक्ति ले भरे रचना मन लगातार आवत रहिन । भक्त कवि नरसिंह दास के तीन ठन कृति मन के परिचय मिलथे-
1.जानकी माई हित विनय
2. नरसिंह चौतीसा
3. शिवायन
शिवायन हर बहुत प्रसिद्धि रहीस अपन के समय मा -
आइगे बारात गांव तीर भोला बाबा जी के
देखे जाबो चलो गिंया संगी ल जगावा रे ।
पहुंच गए सुखा भये देखि भूत प्रेत कहें
नई बांचन दाई ददा प्राण रे भगावा रे !
धीरे-धीरे छत्तीसगढ़ी कविता म घलव जनवादी स्वर , देश -समाज के सरोकार मन देखे बर मिले लगिन । कवि गिरवर दास वैष्णव के ' छत्तीसगढ़ी सुराज ' हर सन 1930 के रचना आय -
मजदूर किसान अभी भारत के
एक संगठन नइ करिहॅव
थोरिक दिन म देखत रहिहौ
बिन मौत तुम मरिहॅव ।
सन 1954 में पंडित कपिल नाथ मिश्र जी के कृति ' खुसरा चिरई के बिहाव ' प्रकाशित होइस । छत्तीसगढ़ी कविता म ध्वन्यात्मकता अउ बिंब प्रतीक विधान मन प्रवेश करे लगिन -
तेला सुनके निकरिस खुसरा
ठउका मोटहा अउ धम धुसरा
जो तो बटोरिस आंखी ल
फट फट करके पांखी ल
कच पच कच पच करे लगिस जब
सबो चिरई सटक गईन तब
एइच रचना के एक अउ दृश्य देखव -
दूलहा हर तो दुलही पाइस
बाह्मन पाइस टक्का
सबो बराती बरा सुहांरी
समधी धक्कम धक्का ।।
ये रचना म मनोरंजन हास के संग म सामाजिक जागृति के मधुरस हर पागे गय हे।
ये समय के लिखईया बाबू बोधी सिंह 'प्रेम' जी के 3 ठन काव्य कृति के जानकारी मिलथे -
1.कोइलारी दर्शन (1937 )
2. अमृतांजलि
3 भूत लीला
इहाँ भी कवि के जनवादी स्वर हे। 'कोइलारी दर्शन' में जनवादी चेतना बगरावत छत्तीसगढ़िया मनखे के मुक्ति के कामना हे; वोकर दरिद्रता- कंगाली ले , वोला निकले के रास्ता बतावत वोला 'इंटरप्राइज' करे के सलाह देवत हे कवि हर -
लंका म सोन के मोती
मर जाबो नाती पोती
मैं का जानेंव मोर दाई
कुकरी ल ले जाही बिलाई
ये खण्ड म छत्तीसगढ़ी कविता हर भाव -भगति के संगे -संग अउ आन आन विषय मन ल अपन म समोखे के शुरू कर देय रहिस ।
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* आधुनिक काल के छत्तीसगढ़ी कविता : दशा अउ दिशा*
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( भाग -3 )
श्री राहुल सिंह जी के गवेषणामूलक आलेख म दानलीला के रचनाकाल सन 1903 स्वीकारे गय हे। बाकी तिथि मन अउ परवर्ती संस्करण मन के आंय । दानलीला तो हमर आधुनिक छत्तीसगढ़ी साहित्य के सबले मजबूत , सबला पोठ नींव के पथरा आय -
- दानलीला के अंश -
सब्बो के जगात मड़वाहौं।
अभ्भी एकक खोल देखाहौं।।
रेंगब हर हांथी लुर आथै।
पातर कन्हिया बाघ हराथै?।।
केंरा जांघ नख्ख है मोती।
कहौ बांचि हौ कोनौ कोती?।।
कंवल बरोबर हांथ देखाथै।
छाती हंडुला सोन लजाथै।।
बोड़री समुंद हबै पंड़की गर।
कुंदरू ओठ दाँत दरमी-थर।।
सूरुज चन्दा मुंहमें आहै।
टेंड़गा भऊं अओ! कमठा है।।
तुर तुराय मछरी अस आंखी।
हैं हमार संगी मन साखी।।
सूवा चोंच नाक ठौंके है।
सांप सरिक बेणी ओरमे है।।
अभ्भो दू-ठन बांचे पाहौ।
फोर बताहौं सुनत लजाहौ।।
आगु के छत्तीसगढ़ी कविता हर हिंदी के समानांतर रूप ले, आगु बढ़त रहिस , काबर कि अपन समय के हिंदी, संस्कृत, उर्दू -फ़ारसी , अंग्रेजी के उद्भट विद्वानमन ही छत्तीसगढ़ी के घलव साहित्य रचना करत रहिन । अब हिंदी के असन , ये समय के छत्तीसगढ़ी कविता मन स्वदेश- प्रेम,आजादी के संघर्ष, अपन भाषा के महत्तम, समाज- सुधार जइसन स्पष्ट परछर विषय मन छत्तीसगढ़ी कविता के विषय वस्तु बनत रहिन । ये बखत हिंदी कविता हर स्थापित होके कईठन वाद, उपवाद अपन म समोखत रहिस फेर छत्तीसगढ़ी कविता हर अपन म प्रगतिशील चेतना ला धारण करे रहिस ।
ये समय के कवि मन अपन आप में एक ठन समूचा संस्थान रहिन । आगु के अध्ययन -अनुशीलन ये कवि मन ल ही सोपान बना करना उचित रहही , फेर यहां कालक्रम के बाध्यता नई ये ।
पंडित द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र'-
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समकालीन तथाकथित शिष्ट समुदाय में छत्तीसगढ़ी प्रेम जागृत करे बर विप्र जी के बहुत बड़े योगदान है । वोमन किसिम- किसिम के नान नान छत्तीसगढ़ी पुस्तक प्रकाशन के पक्षधर रहिन । हिंदी म शास्त्रीय छंद में रचना लिखे के साथे साथ लौकिक छंद मन म घलव आप मन रचना करे हावा ।
सुआ छंद , करमा छंद , दहँकी छंद मंडलाही छंद जइसन देशज छंद म रचना करे गय हे । आप मन हास्य व्यंग लिखे म घलव विशेष महारत हासिल करे रहा। कभु कभु तो आपमन के अद्भुत शब्द संयोजन अउ प्रतिमान मन देखनी पर जाँय -
चऊ मास के पानी परागे
जाना माना अब आकाश हर
चाऊर साही चरागे ।।
आपमन के सुप्रसिद्ध कविता 'धमनी हाट' के बानगी देखव -
तोला देखे रेहेंव गा, हो तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, हो तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~
लकर धकर आये जोही, आंखी ल मटकाये गा
लकर धकर आये जोही, आंखी ल मटकाये गा
कइसे जादु करे मोला
कइसे जादु करे मोला, सुक्खा म रिझाये
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~
चोंगी पिये बइठे बइठे, माड़ी ल लमाये गा
चोंगी पिये बइठे बइठे, माड़ी ल लमाये गा
घेरी-बेरी देखे मोला
घेरी-बेरी देखे मोला, बही तें बनाये
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~
बोइर तरी बइठे बइहा, चना-मुर्रा खाये गा
बोइर तरी बइठे बइहा, चना-मुर्रा खाये गा
सुटूर सुटूर रेंगे कइसे
सुटूर सुटूर रेंगे कइसे, बोले न बताये
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा बोइर तरी रे
तोला देखे रेहेंव गा, तोला देखे रेहेंव रे~~
धमनी के हाट मा, बोइर तरी रे
तोला, देखे रेहेंव गा~
आपमन के एक ठन अउ अति प्रसिद्ध गीत देखव -
धन-धन रे मोर किसान
धन-धन रे मोर किसान
मैं तो तोला जानेव तैं अस,
तैं अस भुंइया के भगवान।
तीन हाथ के पटकू पहिरे
मूड मं बांधे फरिया
ठंड-गरम चऊमास कटिस तोर
काया परगे करिया
कमाये बर नइ चिन्हस
मंझंन सांझ अऊ बिहान।
तरिया तीर तोर गांव बसे हे
बुडती बाजू बंजर
चारो खूंट मं खेत-खार तोर
रहिथस ओखर अंदर
इंहे गुजारा गाय-गरू के
खरिका अऊ दइहान।
तोर रेहे के घर ल देखथन
नान-नान छितका कुरिया
ओही मं अंगना ओही मं परछी
ओही मं सास बहुरिया
एक तीर मं गाय के कोठा
ओखरो उपर म हे मचान।
बडे बिहनिया बासी खाथस
फेर उठाथस नांगर
ठाढ बेरा ले खेत ल जोंतथस
मर-मर टोरथस जांगर
रिग बिग ले अन्न उपजाथस
कहां ले करौं तोर बखान
धन-धन रे मोर किसान ।
ठीक अइसन एक ठन अउ प्रसिद्ध कविता हे-
देवता बन के आए गांधी
देवता बन के आए ।
विप्र जी छत्तीसगढ़ी कविता ल एकठन नावा स्वरूप ,निजता अउ राग दिन ।
श्री कोदूराम दलित
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ग्रामीण संस्कृति और चिन्हारी के संवाहक कोदूराम दलित जी के कविताई के अपन अद्भुत संसार हे । गांव- गंवई के शब्द मन ल लेके वो जो कविता रचिन । वोहर अपने आप में अपन प्रतिमान आय -
छन्नर- छन्नर पैरी बाजय,
खन्नर खन्नर चुरी
हांसत-कुलकत -मटकत रेंगय
बेलबेलहिन टुरी
वहीं भारत -चीन युद्ध के समय के उँकर राष्ट्रीय भावना हर छत्तीसगढ़ी साहित्य के प्राण आय-
ओरी, ओरी दिया बारबो।
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आइस सुग्घर परब सुरहुत्ती अऊ देवारी
चल नोनी, हम, ओरी, ओरी दिया बारबो।
जउन सिपाही जी परान होमिन स्वदेश बर,
पहिली उंकरे आज आरती, हम उतारबो।
वो लछमी के पूजा हमला करना हेबय
जेहर राष्ट्र-सुरक्षा-कोष हमर भर देही।
उही सोन-चांदी ऊपर हम फूल चढाबो
जेकर से बैरी मारे बर, गोली लेही।
झन लेबे बाबू रे, तै फूलझड़ी फटाका
बिपदा के बेरा मां दस-पंघरा रूपिया के।
येखर से तो ऊनी कम्बल लेबे तैहर
देही काम जाड़ मां, एक सैनिक भइया के
राउत भइया, चलो आज सब्बो झिन मिलके
देश जागरण के दोहा हम खूब पारबो।
सेना मा जाए खातिर जे राजी होही
आज उही भय्या ल हम्म तिलक सारबो।
देवारी के दिया घलो मन क़हत हवयं के
भइया होरे, कब तुम्मन अंजोर मं आहू?
खेदारों मेड़ों के रावन मन ला पहिली
फेर सुरहुती अउ देवारी खूब मनाहूं।
बाबू प्यारेलाल गुप्त -
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बहुत कम कविता लिखिन हे ,फेर जउन लिखिन वो तो पोठेच हे-
हमर कतका सुन्दर गांव
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हमर कतका सुन्दर गांव
जइसे लछमि जी के पांव
धर उज्जर लीपे पोते
जेला देख हवेली रोथे
सुध्धर चिकनाये भुइया
चाहे भगत परुस ल गूइया
अंगना मां बइला गरुवा
लकठा मां कोला बारी
जंह बोथन साग तरकारी
ये हर अनपूरना के ठांवा।। हमर
बाहिर मां खातू के गड्डा
जंह गोबर होथे एकट्ठा
धरती ला रसा पियाथे
वोला पीके अन्न उपयाथे
ल देखा हमर कोठार
जहं खरही के गंजे पहार
गये हे गाड़ा बरछा
तेकर लकठा मां हवे मदरसा
जहं नित कुटें नित खांय।। हमर
जहां पक्का घाट बंधाये
चला चला तरइया नहाये
ओ हो, करिया सफ्फा जल
जहं फूले हे लाल कंवल
लकठा मां हय अमरैया
बनवोइर अउर मकैया
फूले हय सरसों पिंवरा
जइसे नवा बहू के लुगरा
जंह घाम लगे न छांव।। हमर
जहाँ जल्दी गिंया नहाई
महदेव ला पानी चढ़ाई
भौजी बर बाबू मंगिहा
"गोई मोर संग झन लगिहा"
"ननदी धीरे धीरे चल
तुंहर हंडुला ले छलकत जल"
कहिके अइसे मुसकाइस
जाना अमरित चंदा बरसाइस
ओला छांड़ कंहू न जांव।। हमर
खाथे रोज सोंहारी
ओ दे आवत हे पटवारी
झींटी नेस दूबर पातर
तउने च मंदरसा के मास्टर
सब्बो के काम चलाथै
फैर दूना ब्याज लगाथै
खेदुवा साव महाजन
जेकर साहुन जइसे बाघिन
जह छल कपट न दुरांव।। हमर
आपस मां होथन राजी
जंह नइये मुकदमा बाजी
भेद भाव नइ जानन
ऊँच नीच नइ जानन
ऊँच नीच नइ मानन
दुख सुख मां एक हो जाथी
जइसे एक दिया दू बाती
चरखा रोज चलाथन
गाँधी के गुन-गाथन
हम लेथन राम के नावा।। हमर
हरि ठाकुर
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छत्तीसगढ़ी कविता म वीर रस अउ नावा जनवादी चेतना के मशाल जलाकर पहली बार बहुत ही संजीदगी के साथ, इहाँ के दोहन- शोषण ल उजागर करइया हरि ठाकुर जी के कविता हर वोमन के अपन खुद के संघर्ष के आँच ले तपे हुए हे -
भीतर भीतर चुरत हवन जी
हम चाऊँर जइसे अंधन के
प्राकृतिक संसाधन मन के दोहन उपर उँकर नजर देखव-
सबे खेत ला बना दिन खदान
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सबे खेत ला बना दिन खदान
किसान अब का करही
कहाँ बोही काहां लूही धान
किसान अब का करही
काली तक मालिक वो रहिस मसहूर
बनके वो बैठे हे दिखे मजदूर।
लागा बोड़ी में बुड़गे किसान
उछरत हे चिमनी ह धुंगिया अपार
चुचवावत हे पूंजीवाला के लार
एती टी बी म निकरत हे प्रान
वोकर तिजोरी म खसखस ले नोट
लाघन मा पेट हमर करे पोट पोट
जिनगी ह लागत हे मसान
चल दिन सब नेता मन दिल्ली भोपाल
पूंजी वाला मन के बनगे दलाल
काबर गा रिसाथ भगवान
पढ़ लिख के लई का मन बैठे बेकार
भगो भगो भगो कहिके देते निकार
ए कइसन बिकास हे महान
वहीं चलचित्र बर वो 'गोंदा फुलगे मोर राजा' जइसन कालजयी गीत लिखिन ।
नारायण लाल परमार
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छत्तीसगढ़ी कविता म आधुनिक भाव व्यंजना, श्रृंगार के आधुनिक तत्व अउ प्रतिमान लेके श्री नारायण लाल परमार के छत्तीसगढ़ी काव्य जगत म अवतरण होइस । वोकर अपन विशिष्ट शैली हे अपन अभिव्यक्ति करे के -
रेंगना सुहावत है।
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नदिया के कुधरी साहींन काबर बइठ जान
पानी कस लहर लहर रेंगना सुहावत है।
हिम्मत राखेन, मानेन
आत्मा के कहना ला।
पहिरेन हम सबर दिन
आगी के गहना ला।
सूरज, बिंदिया बन चमकय हार माथ मां,
करके अब करिया मुंह, अंधियारी जावत हे।
मितानी चालत हावय
हाथ अउ पांवव के।
हम दुकान नइ खोलेन
घाम अउ छांव के।
छोटे अउ बड़े फल, हमार बर बरोबर हे,
उहिच पाय के जिनगी, गज़ब महमहावत हे।
चीखे हन, हम सवाद,
नवा-नवा ‘डहर के
देखे हन नौटंकी
अमृत अउ जहर के
पी डारेन जहर ला, संगी। हम नीलकंठ,
हमर पछीना अमृत सहीं चुहचुहात हे।
तराजू मां नई तौलेन
हमन अपन सांस ला।
हांसत-हांसत हेरेन
पीरा के फांस ला।
अडचन ला मानेन हम निच्चट चंदन चोवा,
धरती महतारी के भाग मुचमुचावत हे।
विमल कुमार पाठक
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छत्तीसगढ़ी कविता में देह अउ देह गंध ल उतार के वोला, अपन समय के चलत आन- आन भाषा मन के कविता, के बराबरी में खड़ा करने वाला कवि मन मन म विमल कुमार पाठक जी के नाम बहुत आदर के साथ लिये जाही । युवावस्था ,भरे- जवानी , प्रेम, स्वतंत्रता ,बंधन- मुक्ति के आकांक्षा... सब कुछ आपके कविता म देखे जा सकत हे -
उनमन नहावत तो होहीं रे
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करा असन ठरत हावय पानी रे नदिया के
उनमन नहांवत तो होहीं रे।
उंखरे तो गांवे ले आये हे नदिया ह
होही नहांवत मोर जोही रे।
महर-महर महकत मम्हावत हे पानी ह।
लागत हे घुरगे हे सइघो जवानी ह।
चट कत कस, गुर-गुर ले छू वत हे
अंग-अंग ल, चूंदी फरियावत तो होही रे।
तउरत नहांवत तो होही रे।
अब तो गुर-गुर एक ढंगे के लागत हे।
अट गे पानी हा, सुरता देवावत हे।
ओठ उंकर चूमे कस मिट्ठ -मिट्ठ लागत हे।
पीयत अउ फुरकत तो होही रे।
घुटकत अउ पुलकत तो होहीं रे।
करा असन ठरत हावय पानी रे
नदिया के उनमन नहावत …… ।
ये दे मटमइला पानी के रंग हो गय।
अब तो लगथे घटौदा मं उन चढ़ गंय।
साबुन तो चुपरे कस पानी ह दीखत हे
अंग अंग मं चुपरत तो होहीं रे।
लुगरा ल कांचत तो होहीं रे।
करा असन ठरत हावय
पानी रे नदिया के
उनमन नहांवत तो होहीं रे।
कइसे पानी अब तात-तात लागत हे।
लगथे लुगरा निचोके उन जावत हे।
पानी अब सिटठ तो हो गय रे, लागत हे….
घर बर उन लहुट त तो होहीं रे।
नदिया ले लहुटत तो होहीं रे
करा असन ठरत हावय…..
एमन के संग पंडित कुंज बिहारी चौबे, स्वर्गीय हनुमंत नायडू 'राजदीप' ये समय के बड़े पोठ कवि रहिन । ये जुग हर छत्तीसगढ़ी कविता के जो मजबूत नींव तैयार करे हे, ओकरे ऊपर में आज सशक्त और समृद्ध छत्तीसगढ़ी कविता के महल तैयार होवत हे।
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*आधुनिक छत्तीसगढ़ी कविता :दशा अउ दिशा*
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*( भाग -4 )*
छत्तीसगढ़ी कविता के थोरकिन पीछू के समय ल हमन हरि ठाकुर जी के आइकन गीत- गोंदा फूलगे के तरज म 'गोंदा फूल' कह सकत हन तब आगू के समय ल हमन 'चंदैनी गोंदा' काल कह ली ।
देश हर पाए रहिस हे नवा- नवा आजादी अउ मनखे मन के इच्छा चाहत हर बाढ़ गय रहिस । वोमन सोन के दिन अउ चांदी के रात के कल्पना करत रहिन । आजादी आए के बाद फदके आर्थिक- विषमता हर, ए आजादी के प्रति मनखे मन के मोह ल भंग कर दिस । येहर मोह भंग होय के काल रहिस । गरीबी , बेकारी, भुखमरी, बाढ़त जनसंख्या , आर्थिक असमानता जईसन जिनिस मन ल मनखे मन पाय आजादी के संग जोड़ के देखे बर विवश होवत रहिन ।तब अपन समय के यह सब चुनौती मन ल कवि मन अपन अक्षर अपन स्वर दिन।
यह समय म हिंदी कविता के प्रभाव म आके बहुत अकन छंद मुक्त कविता मन के रचना होइस । ए कविता मन के ये विशेषता रहिस कि छत्तीसगढ़ी परंपरागत शब्द अउ शिल्प ले के कवि मन अपन -अपन ढंग ले नावा मुहावरा गढ़े के शुरू कर देय रहिन । ये समय के कुछ प्रमुख कवि मन के थोर- थोर बानगी भर इहां रखे जात हे -
*डॉ. बलदेव*-
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कंडिल के ओहरत बाती कस
दिखत हे चंदा
रखियावत हे अंजोर
*प्रभंजन शास्त्री*
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गरम चहा पिये सही लागत हे घाम
धरती के ब्यारा म सुपा ल धरके
सुरुज किसनहा ओसावत हे धान।।
*डॉ. नरेंद्रदेव वर्मा*
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अरपा पैरी के धार, महानदी हे अपार
इँदिरावती हा पखारय तोर पईयां
महूं पांवे परंव तोर भुँइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया
सोहय बिंदिया सहीं, घाट डोंगरी पहार
चंदा सुरूज बनय तोर नैना
सोनहा धाने के अंग, लुगरा हरियर हे
रंग
तोर बोली हावय सुग्घर मैना
अंचरा तोर डोलावय पुरवईया
महूं पांवे परंव तोर भुँइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया
रयगढ़ हावय सुग्घर, तोरे मउरे मुकुट
सरगुजा अउ बिलासपुर हे बइहां
रयपुर कनिहा सही घाते सुग्घर फबय
दुरूग बस्तर सोहय पैजनियाँ
नांदगांव नवा करधनिया
महूं पांवे परंव तोर भुँइया
जय हो जय हो छत्तीसगढ़ मईया ।
*डॉ. नन्दकिशोर तिवारी*
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जरत परसा जंगल के
साखी मैं ।
मही हर तो टोरेंव पाना
पाना के ही डसना बनायेंव
फुले -फूल म वोला सजा के
मुरझात फूल के दुख के
साखी मैं ।
उही पेड़ के नीचे जेवन
दार-भात मही रनधवाएंव
सजाए वोला थारी म अगोरत
कठिन समय के
साखी मैं ।
परसा म झुमरत
टेसू म
तोला मोला मंय देखेंव
सबो जर गय
अनदेखनई के आगी म
जरत परसा जंगल के
साखी मैं ।
*श्री लक्ष्मण मस्तुरिया*
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मोर संग चलव रे
ओ गिरे थके हपटे मन
अऊ परे डरे मनखे मन
मोर संग चलव रे
अमरैया कस जुड छांव मै
मोर संग बईठ जुडालव
पानी पिलव मै सागर अव
दुःख पीरा बिसरालव
नवा जोत लव नव गाँव बर
रस्ता नवा गढव रे
मोर संग चलव रे
मै लहरी अव
मोर लहर मा
फरव फूलो हरियावअ
महानदी मै अरपा पैरी
तन मन धो हरियालव
कहाँ जाहु बड दूर हे गँगा
मोर संग चलव रे
विपत संग जूझे बर भाई
मै बाना बांधे हव
सरग ला पृथ्वी मा ला देहूं
प्रण अइसन ठाने हव
मोर सुमत के सरग निसेनी
जुर -भरमिल सबव चढ़व रे
मोर संग चलव रे ।
*पं. दानेश्वर शर्मा*
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चल मोर जंवारा मंड़ई देखे जाबो,
संझकेरहा जाबो अउ संझकेरहा आबो।
रेसमाही लुगरा ला पहिर के निकर जा,
आंखी मां काजर रमा के निकर जा,
पुतरी जस लकलक सम्हर के निकर जा,
हंसा के टोली मां हंसा संधर जा,
रहा ला ठट्ठा मा नान्हे बनाबो।।
छोटे बाबू बर तुतरु लेइ लेतेन,
नोनी बर कान के तितरी बिसातेन
तोर भांटो बर सुग्धर बंडी बिसातेन
अपन बर चूरी अउ टिकली मोलासेन,
पाने ला खाबो अउ मुंह ल रचाबो।।
रइपुरहिन बहिनी कहूँ आये होही,
अंचरा मां बांधे मया लाये होही,
मिल भेंट लेबो दूनों जांवर जाही
आमा के आमा अउ गोही के गोही
मइके कोती के आरो लेके आबो।।
के दिन के जिनगी अउ के दिन के मेला
के दिन के खेड़ाभाजी के दिन करेला
के दिन खटाही पानी के बूड़े ढेला
पंछी उड़ही पिंजरा हो ही अकेला
तिरिथ बरत देवधामी मनावो।।
*पवन दीवान*
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टघल -टघल के सुरुज
झरत हे धरती ऊपर
डबकत गिरे पसीना
माथा छिपिर -छापर।
झाँझ चलत हे चारों कोती
तिपगे कान, झँवागे चेथी
सुलगत हे आँखी म आगी
पाँव परत हे ऐती-तेती ।
भरे पलपला , जरे भोंभरा
फोरा परगे गोड़ म
फिनसेंगर ले रेंगत-रेंगत
पानी मिलिस पोंड़ म ।
नदिया पातर- पातर होगे
तरिया रोज अँटावत हे
खँड म रुखवा खड़े उमर के
टँगिया ताल कटावट हे ।
चट-चट जरथे अँगना बैरी
तावा बनगे छानी
टप-टप टपके कारी पसीना
नोहर होगे पानी ।
साँय-साँय सोखत हे पानी
अब्बड़ मुँह चोपियावे
कुँवर ओठ म पपड़ी परगे
सिट्ठा-सिट्ठा खावे ।
चारों कोती फूँके आगी
तन म बरगे भुर्रा
खड़े मँझनिया बैरी लागे
सबके छाँडिस धुर्रा ।
डामर लक -लक ले तीपे हे
लस-लस लस-लस बइठत हे
नस-नस बिजली तार बने हे
अँगरी-अँगरी अईंठत हे ।
लकर-लकर मैं कइसे रेंगव
धकर -धकर जी लागे ।
हँकर-हँकर के पथरा फोरेंव
हरहर के दिन आगे ।
लहर-लहर सबके परान हे
केती साँस उड़ाही
बुड़बे जब मन के दहरा म
तलफत जीव जुड़ाही ।
*श्री मेहत्तर राम साहू*
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घर बइठे वृंदावन गोकुल,
घर बइठे हे कांसी।
ऐ माटी ल तिरथ जानौ,
नइ मानौ त माटी ।।
राम रहीम हे पोथी-पतरा,
आवय खेती-खार ह।
तुलसी के दोहा चौपाई,
बाहरा अउ मेड़-पार ह।।
नांगर जोंतत राम लखन ह,
हो गे हे बनवासी.....
ऐ माटी ल तिरथ जानौ,
नइ मानौ त माटी......!
नरवा नदिया के पानी ह,
सरजू सही बोहावत हे।
पंचवटी बन डोंगरी भीतर,
कुंदरा गजब सुहावत हे।।
सीता आवत हावै धरके,
चटनी रोटी बासी......
ऐ माटी ल तिरथ जानौ,
नइ मानौ त माटी....!
धरती ह एक मंदिर जइसन,
दिखत हावै नजर म।
दाई ददा हे देवी-देवता,
अपन-अपन के घर म।।
राधा रुखमिन माला फेरत,
हावय तोर मुहाटी।
ऐ माटी ल तिरथ जानौ,
नइ मानौ त माटी......
*रघुवीर अग्रवाल 'पथिक'*
-------------------------------
अरे गरीब के घपटे अंधियार
गांव ले कब तक जाबे,
जम्मो सुख ला चगल-चगल के
रूपिया तैं कब तक पगुराबे?
हमर जवानी के ताकत ला
बेकारी तैं कब तक खाबे?
ये सुराज के नवा तरक्की
हमर दुवारी कब तक आबे?
हमर कमाए खड़े फसल ल
गरकट्टा मन कब तक चरहीं?
कब रचबो अपनों कोठार म
सुख-सुविधा के सुग्घर खरही?
कब हमरो किस्मत के अंगना
सुख के सावन घलो मा कब तक
उप्पर ले खाल्हे मा कब तक
नवा सुरूज ह घलो उतरही?
हमर भुखमरी एहवाती हे
हमर गरीबी हे लइकोरी।
जिनगी के रद्दा मा ठाढ़े
दु:ख, पीरा मन ओरी-ओरी
देख हमर दु:ख पीरा कोनो
बड़का-बड़का बात बघारै।
कागज के डोंगा म कोनो
बाढ़ पूरा पार उतारै।
नानुक कुर्सी, थोरिक पइसा
अपरिध्दा के अक्कल मारै।
सूपा हर बोलय तो बोलय
चलनी तक मन टेस बघारै।
चितकबरा हे दीन दयालू
संकट मोचन हे मतलबिया
ऊप्पर ले दगदग ले दीखै
अउ भितरी ले बिरबिट करिया।
झूठ-मूठ तो सच्ची लागै
सही बात हर लगय लबारी।
दुनिया म बहिरूपिया मन के
अड़बड़ कुसकिल हवै चिन्हारी।
दुखिया के आंसू सकेल के
दुखीराम काला गोहरावै?
वोट, नोट के जादूगर तो
किसम-किसम के खेल देखावै।
हमर पसीना भाग बनाही
जब ले चलही हमरो जांगर।
हमर खेत म सोन उगाही
हमरे बइला हमरे नांगर
अपन-अपन किस्मत बदले बर
चलौ सुकालू, चलौ समारू
मिहनत के संग आज बदे बर
गंगा जल अउ गंगा बारू॥
*सतलोकी सुकालदास भतपहरी*
------------------------------------------
साखी-
उज्जर ओनहा पहिन पान सुपारी नित खाय ।
सतनाम भाखे बिना जीव जावे न
भवपार ।।
मुड़ पटकि पटक रोवे पथरन मं
मोर हीरा गंवागे बन कचरन मं...
पथरा मं बंदन बुक देवी देवता माने
सुवारथ बर पसु पक्षी नरबलि चढ़ाये
मंद मांस सब नखरन मं...
भूत परेत मरी मसान जगावे
सुपा बजा के माथ डोलावे
दीया नचाए मंतरन मं...
रंग बिरंग देवता बनाए
घर घर बइठे ताक लगाए
बइगा मगन जस पचरन मं...
मन के भरम तोर मन ले हटा ले
सत के महिमा ल हिरदे म लगाले
दया धरम तोर आचरन मं...
***
सतखोजी गुरु घासीदास
घरे मं मन नइ माढ़य संगी
घरे मं मन नइ माढ़य न ...
रद्दा धरिन जगन्नाथ के ,गजब सुनिस बड़ाई ,
दीन- दुखिया मन के देखिस करलाई ,
अउ देखिस पण्डा के लुटाई
बद्रीनाथ पर चरण बढाइस -2
मन के पीरा नइ हराये...
कपड़ा रंगाये मिले गोरखमुनी ,
बाबा बइठिन उंकर पास
सुनिस परवचन मुनी के गुरुजी,
पूरा न होइस मन के आस
रंगहा कपड़ा फेर मन नइ रंगाये -2
मनखे मन मं भेद बताये
देखे लहुटत चंद्रसेनी मं बली छैदत्ता
पाड़ा
मन विचलित हलाकान जीव हिंसा
गाड़ा गाड़ा
देख बाबा के मन भिरंगे तीरथ मं शांति नइ पाये,
पुन्नी के पुनवास मं सतनाम उच्चारे-2...
*श्री हेमनाथ यदु*
--------------------
ये मोर संगी सुमत अटरिया,
चढ़बोन कइसे मन ह बिरविट बादर है।
जतन के मारे बनत बिगड़थे,
आंखी आंजे काजर है।
भाई भाई म मचे लड़ाई, पांव परत दूसर के हन
फ़ूल के संग मां कांटा उपजे, अइसन तनगे हावय मन
धिरजा चिटको मन म नइये, ओतहा भइगे जांगर हे। ये मोर
बात बात म बात बढ़ाके, दूरमत ल मोलियाये हन।
परबर चारी बना बनाके, अपने आपन हंसाये हन
भाई के अब भाव नई रहिगे बनगे घुनहा खांसार हे। ये मोर
लड़त कछेरी नर नियांव म, घर ह धलोक मठावत हे
नाव नठागे गांव भठागे, सेवत करम ठठावत हे
घर ला फोरत फोर करइया हासत एक मन आगर हे। ये मोर
दाई दादा के मयां ह जागे तिरिया माया सजागे हे।
कोन ले कहिबे कइसन कहिबे, मन हा घलोक लजागे हे
कल किथवन में अंकल सिरागे, सुक्खा मयां के सागर हे मोर
*स्व0 भगवती लाल सेन*
---------------------------------
अजब देश के गजब सुराज
भूखन लाघंन कतकी आज
मुरवा खातिर भरे अनाज
कटगे नाक, बेचागे लाज
कंगाली बाढ़त हे आज
बइठांगुर बर खीर सोंहारी
खरतरिहा नइ पावै मान
जै गगांन...
*लखनलाल गुप्त*
----------------------
डर डरावन। अंजोर
दुरिहा म चमकत हे
अंधियार के आंखी
*भगत सिंह सोनी*
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भंदोई पहिर के अंधियारी
पाख म आथे
अंजोरी पाख हमन बर
देव सुतनी हो गय
*चेतन आर्य*
---------------
दुनिया के कोन भाग म
रोटी के बारे में
पढ़ाए जाथे
वोकर आत्मकथा ।
*ईश्वर शरण पांडेय*
--------------------------
मन म रिस हे
रोस हे दुख हे
एकरे खातिर कहत जात हे
पान मुखारी पान मुखारी
भीख नी मांगत हे
कीमत ल आंकत हे
ये कविता म धूमिल के मोचीराम के आवाजाही असन लागथे । मेहनतकश के मेहनत के मूल्य कम आंकना हर , मनखे के फितरत आय ।
*रविशंकर शुक्ल*
----------------------
मोर गीत सांझ अउ बिहान के
मोर गीत खेत अउ खलिहान के
करमा के मांदर कस
बरसा के बादर कस
बइला अउ नागर कस
कांचा माटी के घर कस
गंगा के पानी कस बोहावत
मोर गीत कमइया किसान के
*विद्याभूषण मिश्र*
-------------------------
सुरुज किरन म भिनसरहा मुँह धोते
मोर गांव
जोंक असन पीरा आसा के
तन ल चूसत हावे ।
रोज गरीबी हर सपना के
मुँहटा बइठे हावय
संसो के धुँआ अइसन गुंगुवाथे
मोरे गांव ।।
*प्रदीप वर्मा*
-----------------
छत्तीसगढ़ म होगे संगी
अधरतिहा से नवा बिहान
चौरासी चौमास परागे,
सोन चिरैया भरे उड़ान
*मैथ्यु जहानी 'जर्जर'*
----------------------------
वीर नारायण सिंह ल भज के
पैंया लागव सुंदर लाल
राज दुलारे प्यारे बेटा
जय यदुनंदन। छेदी लाल
*विठ्ठल राम साहू*
-------------------------
छत्तीसगढ़ के बासी हा संगी,
कखरो ले नइहे घिनहा
कोन्हों दुरुग,कोन्हों रायगढ़
कोन्हों हे जसपुरिहा।।
*शिवकुमार पांडेय*
-------------------------
मोर छत्तीसगढ़ महतारी
सुघ्घर गुरतुर बोली मा
गंवई सहर के खोली म
भुईयां के हरियर डोली मा
देखेंव मैं तोला ।।
*राघवेंद्र दुबे*
----------------
जेवनी हाथ म हंसिया धरे
डेरी म धान के बाली ।
तँय सबके पालनहार मइया,
जय होवय तोर ।।
*डॉ. संतराम साहू*
-------------------------
झिमिर -झिमिर पानी गिरय
बुढ़वा के होगे खोखी
छानी परवा के नाक बोहावत
अबड़ हांसय गोखी ।।
*उमेश अग्रवाल*
---------------------
अइसन बरसिस पानी
जग जग पानी होगे
एक घरी म धरती दाई
रानी होगे ।।
*आधुनिक छत्तीसगढ़ी कविता :दशा अउ दिशा*
-------------------------------------
*( भाग -5 )*
छत्तीसगढ़ी कविता म जउन मौज अउ लहरा -रवानगी हे , वोहर अब परगट होय के शुरू हो गय रहिस । छोटे -छोटे वर्णन म बहुत अकन गहिल गोठ ल कहे के क्षमता अब छत्तीसगढ़ी कविता म आ गय रहिस । अभिधा -लक्षणा -व्यञ्जना ले आगु ,आनन्दवर्धनाचार्य प्रणीत 'ध्वनि ' , सब छत्तीसगढ़ी कविता म दिखे लग गय रहिस । वोमे कांस के कटोरी ले उठे टन्न के आवाज आये के शुरू हो गय रहिस । ये जिनिस मन के थोरकुन बानगी देखव -
*ईश्वर शरण पांडेय*
--------------------------
मन म रिस हे
रोस हे दुख हे
एकरे खातिर कहत जात हे
पान मुखारी पान मुखारी
भीख नी मांगत हे
कीमत ल आंकत हे
ये कविता म धूमिल के मोचीराम के आवाजाही असन लागथे । मेहनतकश के मेहनत के मूल्य कम आंकना हर , मनखे के फितरत आय ।
*रविशंकर शुक्ल*
----------------------
मोर गीत सांझ अउ बिहान के
मोर गीत खेत अउ खलिहान के
करमा के मांदर कस
बरसा के बादर कस
बइला अउ नागर कस
कांचा माटी के घर कस
गंगा के पानी। कस बोहावत
मोर गीत कमइया किसान के
*विद्याभूषण मिश्र*
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सुरुज किरन म भिनसरहा मुँह धोते
मोर गांव
जोंक असन पीरा आसा के
तन ल चूसत हावे ।
रोज गरीबी हर सपना के
मुँहटा बइठे हावय
संसो के धुँआ अइसन गुंगुवाथे
मोरे गांव ।।
*प्रदीप वर्मा*
-----------------
छत्तीसगढ़ म होगे संगी
अधरतिहा से नवा बिहान
चौरासी चौमास परागे,
सोन चिरैया भरे उड़ान
*मैथ्यु जहानी 'जर्जर'*
----------------------------
वीर नारायण सिंह ल भज के
पैंया लागव सुंदर लाल
राज दुलारे प्यारे बेटा
जय यदुनंदन। छेदी लाल
*विठ्ठल राम साहू*
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छत्तीसगढ़ के बासी हा संगी,
कखरो ले नइहे घिनहा
कोन्हों दुरुग,कोन्हों रायगढ़
कोन्हों हे जसपुरिहा।।
*शिवकुमार पांडेय*
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मोर छत्तीसगढ़ महतारी
सुघ्घर गुरतुर बोली मा
गंवई सहर के खोली म
भुईयां के हरियर डोली मा
देखेंव मैं तोला ।।
*राघवेंद्र दुबे*
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जेवनी हाथ म हंसिया धरे
डेरी म धान के बाली ।
तँय सबके पालनहार मइया,
जय होवय तोर ।।
*डॉ. संतराम साहू*
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झिमिर -झिमिर पानी गिरय
बुढ़वा के होगे खोखी
छानी परवा के नाक बोहावत
अबड़ हांसय गोखी ।।
*उमेश अग्रवाल*
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अइसन बरसिस पानी
जग जग पानी होगे
एक घरी म धरती दाई
रानी होगे ।।
*रामेश्वर शर्मा*
-------------------
सोवथे मोर ललना
पुरवाही धीरे बहना।
तोर आये ले डोले डारा पाना।
ललना रिसाही मान मोर कहना।
झरर झरर झन बहना।। सोवथे।।
पीरा के हीरा सूतत हे ना।
निंदिया ह आंखी झूलत हे ना।
निंदिया ला नइ हरना।। सोवथे।।
झन बन बैरी तैं हिरदे जुड़ाते।
कहना अंतस के हे धीर धरिआते।
जोर ले अंते बहना।। सोवथे।।
*रामप्यारे रसिक*
----------------------
नोनी झिन जाबे तरिया अकेले
कोई बइरी आंखी म गड़ जाही गा ।
*पुरुषोत्तम अनासक्त*
----------------------------
कइसे धुनिया धुनकत हे
कपास के खरही अगास में
आवत हे बादर, जावत हे बादर
गरजत हे बादर, गावत हे बादर
छिंचत हे पानी
बूंद -बूंद पहिरे जुग जुग
नाचत हे धान के पान ।।
*राम कैलास तिवारी*
----------------------------
पीपर के लाल कोंवर पाना झिलमिलाए
रहि-रहि के आम सिरिस महुआ महमहाए
झूम-झूम नाच-नाच मितवा गीत गाए
मोर संगी मया झ बिसार देबे ।।
*भरत लाल नायक*
-------------------------
सेमर हर फूलगे गोई,
सेमर ह फूल गे।
मोर आंखी म तोर,
चेहरा ह झूल गे ।।
*रामलाल निषाद*
-----------------------
मोर उमर के आमा रुख-
कोला के मउरे हे बइरी
का दे दे मोहनी के महूँ मउर के
गंध म बगर गय हँव
छत्तीसगढ़ी कविता के अजस्त्र यात्रा बिना अवरोध के जारी रहिस । एमा, ये यज्ञ म एके संग कइठन पीढ़ी अपन आहुति नावत रहिन ।
-
*आधुनिक छत्तीसगढ़ी कविता:दशा अउ दिशा*
---------------------------------------
*( भाग- 6 )*
संयमित - असंयमित काम , प्रेम ,वासना ,देह हर घलव छत्तीसगढ़ी काव्य म अपन ठउर बनात रहिस । वइसे दानलीलाकार हर तो ये बुता म बड़ आगु रहिस , फेर उहाँ कोई लौकिक प्रेम अउ राग नई होके सब कुछ हर कृष्णार्पण रहिस । लौकिक प्रेम अउ राग के स्वर ल देखव -
*अनिरुद्ध नीरव*
----------------------
मया म बूड़ी-बूड़ी जांव रे
मोर एहिच्च बूता ।।
* * * *
जबले निहारें तोला सलका बजार म
आंखी नई लूमें
फिफली के पाछू - पाछू धांव रे
मोर एहिच्च बूता ।।
*अशोक नारायण बंजारा*
---------------------------------
लागथे वोकर संग हवय
मोर पुराना लागमानी
पीरा एहू कोती होवय
जभे चोंट ओती परय
*बद्री विशाल 'परमानन्द'*
-------------------------------
का तैं मोहिनी डॉर दिए गोंदाफूल
* * * *
तोर होगे आती अउ मोर होगे जाती
रेंगत -रेंगत आंखी मार दिये गोंदा फूल
*सीताराम साहू*
--------------------
तोर सुरता के पीरा कटोरी
कइसे बाढ़ के धमेला होगे
*ठाकुर जीवन सिंह*
--------------------------
छोड़ गिरस्ती के चिंता
ए जिनगी फोटका पानी रे।।
धर लाज लिहाज पठेरा म
जूरा भींजय भिंज जावन दे।
अंचरा खिसकय, कजरा धूलय
मुड़ छाती उघरय उघरन दे ।
-
*पं.शेषनाथ शर्मा 'शील'*
------------------------------
(बरवै छंद )
सुसकत आवत होही , भइया मोर,
छइहा मा डोलहा, लेहु अगोर।
बहुत पिरोहिल ननकी , बहिनी मोर,
रो-रो खोजत होही खोरन- खोर ।
तुलसी चौरा म देव , सालिग राम,
मइके ससुर पूरन, करिहौ काम।
अंगना- कुरिया खोजत, होही गाय,
बछरू मोर बिन कांदी, नइच्च खाय।
मोर सुरता म भइया। दुख झन पाय
सुरर सुरर झन दाई, रोये हाय।
तिया जनम के पोथी ,म दुई पान,
मइके ससुरार बीच म, पातर प्रान।
*रमेश अधीर*
-----------------
तोर बिन सुन्ना परे झन अंगना
कांटा गड़ के झन रहि जाही सपना
*मुकुंद कौशल*
-------------------
छत्तीसगढ़ी गजल के सशक्त हस्ताक्षर कौशल के अपन अलग रचना संसार हे-
ठोमहा भर घाम धरे आ गइस बिहान
रच रच ले टुटगे अंधियार के मचान।।
*निशीथ पाण्डेय*
----------------------
ओंठ म सज गय मया के राग रे
ए मोर सुते-सुते सपनाजाग रे ।।
*पुरुषोत्तम अनासक्त*
----------------------------
सूजी गोभत हे मंझनिया के घाम...
*सन्तोष कश्यप*
---------------------
मया म मिंयारी के होगे मरन...
*आनंद तिवारी पौराणिक*
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बिहनियां हर बांचत हे सुरुज के लिखे ।।
*राजेंद्र प्रसाद तिवारी*
----------------------------
गर मुरकेटवा मेघराज के
भोग काल कुछू अइसे बुलकिस
हाय पेल दिस नस नस भीतर
धान कटोरा के दिल कर दिस
*देवेन्द्र नारायण शुक्ल*
-----------------------------
कहाँ पा बे खोखमा पोखरा
अउ पुरइन के पतरी
पंचायत हर डारे हावे
तरिया म अब मछरी।।
*रूपेंद्र पटेल*
----------------
सुघ्घर मुसकी असीस देवत सुरुज बुड़ती म
काली फेर आये के किरिया लेके जावत हे।
*रविन्द्र कंचन*
-------------------
धुंका -कोटवार
गली- गली हाँक-पारे
खिड़की दुआर
फूंक -फूंक उघारे
आगी बरत हे
कोन
दिया बुताए ।।
*लाला जगदलपुरी*
------------------------
पेट सिकंदर होगे हे ,
मौसम अजगर होगे हे ।
निच्चट सुक्खा परगे घर
आंखी पनियर होगे हे ।
*द्वारका यादव*
-------------------
करले चिन्हारी मितान
खायले एक बीरा पान
आंखी कर नइए क़सूर
हइये हस लोभ लोभान
आयातित छंद विधान हाइकू, सायली,तांका म घलव छत्तीसगढ़ी कवि मन बढ़िया हाथ आजमाइन -
*नरेंद्र वर्मा*
-------------
पापी रावन
हर साल जरथे
कभू मरथे ?
*डॉ.राजेन्द्र सोनी*
------------------
कोलिहा हर
पहिने बाघी छाल
पहिचानव
*डॉ. रामनारायण पटेल*
-------------------------------
चार ठी बेटी
कब तक झेलही
दाइज डोर
अउ कतेक न कतेक सर्जक मन छत्तीसगढ़ी कविता कामिनी ल सजाय समहराय बर लगे रहिन हे, एमे तो बनेच झन आज हमर बर अब दरस -नोहर स्मृति -शेष होगिन हें, फेर जउन मन हें वोमन के कलम ले छत्तीसगढ़ी महतारी के चरण बर लगातार फूल झरत हे।
***
*आधुनिक छत्तीसगढ़ी कविता :दशा अउ दिशा*
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(भाग- 7 )
समय के संगे -संग छत्तीसगढ़ी कविता के परिदृश्य घलव बदलत रहिस।कई ठन जिनिस मन वोला प्रभावित करत रहिन।आवव वो कारक मन ल थोरकुन देख ली -
*छत्तीसगढ़ राज्य निर्माण और छत्तीसगढ़ी कविता*
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1 नवंबर सन 2000 के दिन छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण होइस । छत्तीसगढ़ राज्य के निर्माण होय ले इहाँ के लेखक -रचनाधर्मी मन अब्बड़ खुश होइन । एकर से इहाँ के रहइया मन के खुश होवइ हर स्वभाविक रहीस । एहर कोई अप्रत्याशित घटना नइ रहिस । हमर अपन पहली के राज मध्यप्रदेश म छत्तीसगढ़ अंचल के खास चिन्हारी रहिस । मध्यप्रदेश म मालवा, बघेलखंड अउ बुंदेलखंड मन एकठन अन्चल आंय फेर छत्तीसगढ़ हर तो एकठन समग्र संस्कृति आय । राज बनिस तब इहां के कवि मन राज भक्ति और माटी के मया में सराबोर होके, नाना प्रकार के गीत-गोविंद लिखिन । राजभक्ति अउ माटी मया के अतिरेक अतेक होगय कि लिखइया मन भुला तक गिन कि हमन पहली भारतीय अन तेकर पाछु छत्तीसगढ़िया ।
नाना विध के रचना फेर ये रचना मन म इतिवृत्तात्मकता अतेक कि किंजर बुल के वोइच नदी वोइच पहाड़ वोइच बरा वोइच सुंहारी । तभो ले ये बीच गंभीर साहित्य के लेखन होवत रहिस -
*सुशील भोले*
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जोहार दाई..
मोतियन चउंक पुरायेंव... जोहार दाई
डेहरी म दिया ल जलायेंव ....जोहार दाई
छत्तीसगढ़ महतारी परघाये बर,
अंगना म आसन बिछायेंव... जोहार दाई...
ओरी-ओरी धान लुयेन, करपा सकेलेन
बोझा उठा के फेर, सीला बटोरेन
पैर बगरायेन अउ दौंरी ल फांदेन
रात-रात भर बेलन घलो, उसनिंदा खेदेन
तब लछमी के रूप धरे, धान-कटोरा जोहारेंव... जोहार दाई...
बस्तर के बोड़ा सुघ्घर, सरगुजा के चार
जशपुर के मउहा फूल सबले अपार
शबरी के बोइर गुत्तुर, रइपुर के लाटा
नांदगांव के तेंदू पाके, हावय सबके बांटा
महानदी कछार ले, केंवट कांदा मंगायेंव..... जोहार दाई...
छुनुन-छानन साग रांधेंव, गोंदली बघार डारेंव
मुनगा के झोर सुघ्घर, बेसन लगार मारेंव
इड़हर के कड़ही दाई, अम्मट जनाही
अमली के रसा सुघ्घर, कटकट ले भाही
दही-लेवना के मथे मही, आरुग अलगायेंव..... जोहार दाई...
चूरी-पटा साज-संवागा, जम्मो तो आये हे
खिनवा-पैरी सांटी-बिछिया, करधन मन भाये हे
चांपा के कोसा साड़ी, जगजग ले दिखथे
रायगढ़ के बुने कुरती, सुघ्घर वो फभथे
राजधानी के सूती लुगरा, मुंहपोंछनी बनायेंव..... जोहार दाई...
खनर-खनर झांझ-मंजीरा, पंथी अउ रासलीला
करमा के दुम-दुम मांदर, रीलो के हीला-हीला
भोजली के देवी गंगा, जंवारा के जस सेवा
गौरा संग बिराजे हे, देखौ तो बूढ़ा देवा
कुहकी पारत ददरिया संग, सुर-ताल मिलायेंव...जोहार दाई...
(ये गीत हर साहित्य अकादमी के तत्वावधान म आयोजित एक भारत : श्रेष्ठ भारत -गुजराती छत्तीसगढ़ी सम्मेलन अहमदाबाद म 08 अक्टूबर, 2017 के पाठ करे गय रहिस,जेकर साक्षी माननीय प्रो.(डॉ.)केशरीलाल जी वर्मा (कुलपति ),डॉ. परदेशी राम वर्मा (मरिया कहानी ),जनाब मीर अली मीर (नन्दा जाही का रे)अउ खुद आलेख- लेखक (रामनाथ साहू -गति मुक्ति कहानी ) रहिन ।
*दुरगा प्रसाद पारकर*
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अपन वर्णन चातुरी बर प्रसिद्ध कवि पारकर के रचना मन म वर्णन हो हावे फेर प्रमाणिकता के स्तर म -
(तीजा पोरा गीत)
दीदी कुलकत हे सुवना, तीजा पोरा बर दीदी कुलकत हे ना |
मन ह झूमरत हे सुवना, मइके जाए बर मन ह झूमरत हे ना ||
तीजा लेगे बर भइया ह मोर आही
मइके के मया मोटरी धर के लाही
घाटे -घठौंदा मोला जोहत होही
सांटी मांजे बर नोनी आवत होही
दीदी कुलकत हे सुवना ,तीजा पोरा बर दीदी कुलकत हे ना |
मन ह झूमरत हे सुवना, मइके जाए बर मन ह झूमरत हे ना ||
करु भात खाबोन हम्मन आरा पारा
झूलना झूलाही सुग्घर पीपर के डारा
संगी जउँरिया संग करबोन ठिठोली
मीठ मीठ लगही हमला मइके के बोली
दीदी कुलकत हे सुवना, तीजा पोरा बर दीदी कुलकत हे ना |
मन झूमरत हे सुवना, मइके जाए बर मन ह झूमरत हे ना ||
भादो के बादर कस तन मन ह घुमरत हे
रहि रहि के चोला ह मइके ल सुमरत हे
करबोन सिंगार नवा लुगरा पहिर के
फरहारी करबोन सिव संकर ल सुमरि के
दीदी कुलकत हे सुवना, तीजा पोरा बर दीदी कुलकत हे ना |
मन ह झूमरत हे सुवना, मइके जाए बर मन ह झूमरत हे ना ||
*डॉ. बलदाऊ राम साहू*
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हिंदी अउ छत्तीसगढ़ी बाल गीत मन के पर्याय डॉ बलदाऊ राम साहू के बालगीत मन म जउन कसावट अउ तरलता हे ,वोहर विलक्षण हे-
1.
सुख छरियागे
होगे बिहान
सुन गा सियान।
ठगते हावै
इहाँ भगवान।
सावन भादो
घाम निटोरे
तब किसान हर
माथा फोरे।
संसो मा जी
चेत हरागे
दुख हर आगे
सुख छरियागे।
करिया बादर
दोगला लागे
बुड़ती आ के
उत्ती भागे।
2.
फुग्गा
कक्का फुग्गा ले के आबे
हमरो मन के मन बहलाबे।
फुग्गा लाल पींवरा होही
करिया अउ चितकबरा होही।
आसमान मा पंछी जइसे
बिन पाँख के ये उड़ते कैसे?
अतका ताकत कहाँ ले पाथे
बोल कका ये का-का खाते?
थोरिक तैं समझा दे कक्का
समझ म आये हमला पक्का।
3
सुख ला पाबो
पानी आगे
मन हरसागे।
भाई छत्तर
आगे बत्तर।
धर ले नाँगर
समरथ जाँगर।
बाँवत कर ले
निकल घर ले।
खेत म जाबो
सुख ला पाबो।
ये जिनगानी
हरे कहानी।
ठीक अइसन शम्भू लाल शर्मा 'वसन्त 'के बाल गीत मन हर हें ।
*छंद आंदोलन और 'छंद के छ'*
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कविता म मुक्त छंद के अराजक स्थिति के प्रतिक्रिया बरोबर छंद बद्ध रचना मन बर आग्रह बढिस । मुक्त छंद अउ छंद मुक्त कुछु भी कह लो ,अइसन कविता के हालत अतेक खराब होगिस कि मनखे मन वोमन ल पढ़े -सुने ल छोड़ दिन ।मुक्त छंद में भी छंद हे फिर गदय कविता रचत रचत वोमन का न का लिख दिन। कविता के जो राग तत्व हे, वोहर समाप्त हो गए । बात बढ़त बढ़त इहां तक बढ़ गय कि अइसन लिखइया उत्तर आधुनिक अउ उत्तर उत्तर आधुनिक कवि मन विराम चिन्ह मन तक ल पूरा के पूरा छोड़ दिन । अइसन अराजक स्थिति के सहज प्रतिक्रिया स्वरूप, सबो भाषा में छंद के पुन: आवाहन चालू हो गए । बहुत ही जोर -शोर के साथ एक नवा पीढ़ी छंद रचे में लग गए ।
हमर छत्तीसगढ अउ छत्तीसगढ़ी येकर ले अछूता नई रह गिस । कईझन छंदकार मन छंद के पुनर्स्थापना के प्रयास म अपन आप ल होम कर दिन ।श्री अरुण निगम जी घलव एकझन अइसन छंद गुरु आंय अउ आज उँकर शुरू करे ' छंद के छ ' ऑनलाइन छंद शाला हर छत्तीसगढ़ी महतारी के नित नूतन श्रृंगार करत हे । एहर नाभिकीय विखंडन असन प्रक्रिया रहिस । एक से अनेक गुरु बनत अभी नवा -दसवां पीढ़ी के छंद -गुरु मन , इच्छुक मन ल छंद सिखात हें । छत्तीसगढ़ी हिंदी कविता ल समृद्धि बनाय म एकर बड़ हाथ हे।
आलोचक -समीक्षक मन छंद आंदोलन उपर कविता ल पांच सौ साल पीछू धकेले के आरोप लगाथें । वोमन के कहना हे कि तुलसीदास जी ल अउ बढ़िया का दोहा चौपाई लिखे जाही। गिरधर ल बढ़िया तँय का कुंडलियां लिख डारबे ।
फेर छंद आंदोलन म श्रुत -बहुश्रुत- अश्रुत सबो किसिम के शास्त्रीय छंद म रचना लिखत हें । हां ,वोमन ल देशज छत्तीसगढ़ी छंद मन ल घलव पोठ करे के काम आय ।
आवा कुछ छत्तीसगढ़ी छन्दबद्ध -छांदस रचना मन ल देखी -
*श्री बोधनराम निषाद*
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*अमृतध्वनि छंद*
(1) पानी-पानी
देखव पानी के बिना , होवय हाहाकार।
नदिया तरिया सूख गे,बंजर परगे खार।।
बंजर परगे, खार सबो जी,सुनलौ भाई।
देखव पानी, बचत करव ओ, दाई-माई।।
एखर ले हे, जम्मो जन के, ए जिनगानी।
ए भुइयाँ हा, माँगत हावय,देखव पानी।।
(2) तीरथ बरथ
कतको तीरथ घूम लव,काशी हरि के द्वार।
गंगा जमना डूब लव,पी लौ अमरित धार।।
पीलौ अमरित,धार अबिरथा,नइ हे सेवा ।
मात-पिता के, सेवा करलव, पाहू मेवा।।
इँखर चरन मा,जम्मो देबी,झन तुम भटको।
पा लव दरशन,इहाँ बसे हे, तीरथ कतको।।
*श्रीमती वसंती वर्मा*
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(कुकुभ छंद )
*बेटी*-
बेटी ला इस्कुल भेजव जी,
बेटी मन मान बढ़ाहीं ।
पढ़-लिख के बेटी मन सुघ्घर,
ग्यान घरों-घर बगराहीं ।1।
नई भेजिहा पढ़े ल ओला,
अनपढ़ नोनी रह जाही ।
नोनी-बाबू म फरक करिहा,
तव ओखर जी दुख पाही ।2।
बेटा बेटी दुनों बरोबर,
अलग अलग झन जानौं गा ।
सबो काम बेटी कर सकथे,
बात मोर जी मानौ गा ।3।
सिच्छा के अधिकार मिले हे,
होय ज्ञान के उजियारी।
बेटी पढ़ही जिनगी गढ़ही,
इस्कुल भेजव सँगवारी ।4।
तुलसी-चौंरा घर के मैना,
बेटी पुन्नी के चंदा।
उड़नपरी हे बेटी सुघ्घर,
बाँधव झन गोड़ म फंदा ।5।
जग में नाम कमाही बेटी,
जननी दुर्गा अवतारी।
मान बढ़ाही बेटी घर के,
मइके के राजदुलारी ।6।
बेटी पढ़ही ता का मिलही?
अइसन गोठ तुमन छोड़ा।
चुल्हा-चौंका घर के करही,
जुन्ना भरम तुमन तोड़ा ।7।
बेटी बचावा पोठ पढ़ावा,
नावा जुग हा अब आगे।
बेटी सुघ्घर अघवावत हे,
देख सुरुज कस अब भागे ।8।
*श्री जितेंद्र कुमार वर्मा*
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*मोर गॉव अब शहर बनगे....*
शहरिया शोर म सिरागे ,
सियन्हिन के ताना |
लहलहावत खेतखार म बनगे,
बड़े-बड़े कारखाना |
नदिया नहर जबर होगे ,डहर बनगे बड़
चँवड़ा|
पड़की परेवा फुरफुंदी नँदा, नँदागे
तितली भँवरा|
सड़क तीर के बर पीपर कटगे, कटगे
अमली आमा|
सियान के किस्सा नइ सुहावै,सब देखे
टीवी ड्रामा|
पहट के आहट,अउ संझा के सुकून
आज कहर बनगे...|
मँय हॉसव कि रोवौ,मोर गॉव आज
शहर बनगे.........|
संगमरमर के मंदिर ह,देवत हवे नेवता|
कहॉ पाबे गली म, बंदन चुपरे देवता?
तरिया ढोड़गा सुन्ना होगे,घर म होगे
पखाना सावर|
बोंदवा होगे बिन रूख राई के,डंगडंग
ले गड़गे टावर|
मया के बोली करकस होगे,लइका होगे
हुशियार|
अत्तिक पढ़ लिख डारे हे,दाई ददा ल
देहे बिसार|
बिहनिया के ताजा हवा घलो,अब जहर
बनगे....|
मँय हॉसव कि रोवौ,मोर गॉव आज
शहर बनगे...|
मंदिर-मस्जिद गुरूद्वारा संग, सबला
बॉट डरिस|
जंगल अउ रीता भुंइया ल,चुकता चॉट
डरिस|
छत के घर म, कसके तमासा|
सब कोई छेल्ला ,
नइ करे कोई कखरो आसा|
होरी देवारी तीजा पोरा,घर के डेहरी म
सिमटागे|
चाहे कोनो परब तिहार होय,सब एक
बरोबर लागे|
नक्सा खसरा संग आदमी बदलगे,नइहे
गाना बजाना|
चाकू छुरी बंदूक निकलगे, सजगे
मयखाना |
चपेटागे बखरी बियारा,पैडगरी अब
फोरलेन डहर बनके....|
मै हॉसव कि रोववौ मोर गॉव आज शहर बनगे.....
*कन्हैया साहू 'अमित*
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*धरती महिमा*
नँदिया तरिया बावली, जिनगी जग रखवार।
माटी फुतका संग मा, धरती हमर अधार।
जल जमीन जंगल जतन, जुग-जुग जय जोहार।
मनमानी अब झन करव, सुन भुँइयाँ गोहार।
*चौपाई:-*
पायलगी हे धरती मँइयाँ, अँचरा तोरे पबरित भुँइयाँ।
संझा बिहना माथ नवावँव, जिनगी तोरे संग बितावँव।1।
छाहित ममता छलकै आगर, सिरतों तैं सम्मत सुख सागर।
जीव जगत जन सबो सुहाथे, धरती मँइयाँ मया लुटाथे।2।
फुलुवा फर सब दाना पानी, बेवहार बढ़िया बरदानी।
तभे कहाथे धरती दाई, करते रहिथे सदा भलाई।3।
देथे सबला सुख मा बाँटा, चिरई चिरगुन चाँटी चाँटा।
मनखे बर तो खूब खजाना, इहें बसेरा ठउर ठिकाना।4।
रुख पहाड़ नँदिया अउ जंगल, करथें मिलके जग मा मंगल।
खेत खार पैडगरी परिया, धरती दाई सुख के हरिया।5।
जींयत भर दुनिया ला देथे, बदला मा धरती का लेथे।
धरती दाई हे परहितवा, लगथे बहिनी भाई मितवा।6।
टीला टापू परबत घाटी, धुर्रा रेती गोंटी माटी।
महिमा बड़ धरती महतारी, दूधभात फुलकँसहा थारी।7।
आवव अमित जतन ला करबो, धरती के हम पीरा हरबो।
देख दशा अपने ये रोवय, धरती दाई धीरज खोवय।8।
बरफ करा गरमी मा गिरथे, मानसून अब जुच्छा फिरथे।
छँइहाँ भुँइयाँ ठाड़ सुखावय, बरबादी बन बाढ़ अमावय।9।
मतलबिया मनखे मनगरजी, हाथ जोड़ के हावय अरजी।
धरती ले चल माफी माँगन, खुदे पाँव झन टँगिया मारन।10।
*श्री पोखन लाल जायसवाल*
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*बाँचे हे अउ का पता, कतका गिनवा साँस।*
बाँचे हे अउ का पता, कतका गिनवा साँस।
टूटै सुतरी-साँस झन, रहि रहि चुभथे फाँस।।
जिनगी के दिन चार ले, जोरे साँसा-तार।
बँधना माया मोह के, खाए हावै खार।
धन-दोगानी जोर के, जाना हे सब छोर।
बनके मितवा बाँट ले, दया-धरम तैं जोर।
ठगनी-माया मोह के, माया अपरम्पार।
माटी-तन माटी मिले, हावै अतके सार।
हावय साँसा के चलत, तोर पुछारी जान।
माटी हर माटी मिले, जगती छोड़ परान।।
दुनिया लागे छोटकुन, जिनगी के दिन चार।
दुनियादारी के इहाँ, झंझट हे भरमार ।।
*चित्रा श्रीवास*
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*मजदूर*
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*(जयकारी छंद)*
करथवँ मिहनत जाँगर तोड़ । ईटा पथरा गारा जोड़।
देथवँ महल अटारी तान । पावँव कभू नहीं मँय मान।
कहिथे मोला सब मजदूर । कतका हावँव मँय मजबूर।
लाँघन गुजरे कतको रात । खुश हँव खाके चटनी भात।
जरके करिया होगे चाम । मिलथे कम मिहनत के दाम।
पानी पथरा ले ओगार । रद्दा बनगे देख पहार।
आथँव सबके मँय हा काम । देथँव सबला मँय आराम।
मोरो मिहनत ला पहचान । देवव मनखे मोला मान।
*रामकली कारे*
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*दुख पीरा*
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पिंजरा के रे व्याकुल मैना,
टुकुर- टुकुर का देखत हस।
नइ खुलय तोर बर मया दुवारी,
घेरी- बेरी का पूछत हस,
कौन? सुनहि तोर के पुकार,
नइ मिलय इहाॅ मया उधार।
ऐ, तो मनखे के जात रे संगी,
देथे ऊँच- नीच अउ आघात।
बुंद- बुंद आँसु ल पीले,
अंतस के अंधियारी म जीले।
दुख- पीरा ल झन बिसराना,
हाॅस ले, गा ले अउ मुस्का ले।
रंग- बिरंगा देख ले दुनियाॅ,
जाड़- घाम तैं सेक ले मुनिया।
सिक्का के दू ठन पहलू हे,
चिट्ट अउ पट्ट के जादू हे।
तोर दशा घलो बदल जाही,
ऐ, हो जाही सब माटी।
आशा धीरज बाँध ले मन म,
जीवन तो हे अभी बाकी।
इक दिन तोर आही रे संगी,
दुख के बादर छॅट जाही रे ।
सुरुज- नरायण उवै के पहिली,
तोरे कपाट खुल जाही रे।
*श्री अश्विनी कोसरे*
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*मँहगाई*
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महँगाई हे बाढ़े भारी, पइसा रुपिया गुणकारी|
रोज कमाले बाँचय नाही, तंगाई हर दिन जारी||
लालच राहय रुपिया खातिर, जिनगी भर तरसावत हे|
कमा कमा तन खुवार होगे, ए तो आवत जावत हे||
सबो परे एखर चक्कर मा, करत हवँय संसो भारी|
जोरे ले जखर बन जाथें, धन्ना धनृकेव्यापारी||
बस मा कर लँय कोनो मनखे, धनदौलत ले लद जाहीं|
देख बने फिर दाना पानी, घर घर खुशहाली पाहीं||
*डॉ. अनिल भतपहरी*
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*मंगल पंथी गीत*
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साखी-
सत फूल धरती फूलय,
सुरुज फूलय अगास ।
कंवल फूल मन सागर फूले,
जिहाँ खेले गुरु घासीदास ।।
तोला नेवता हे आबे गुरु घासीदास
हमर गांव म मंगल हे
आबे आबे गुरु घासीदास
जुनवानी गांव मं जयंती हे...
करिया करिया बादर छाए हवय
घपटे हे अंधियार
मनखे ल मनखे मानय नही
घोर अत्याचार।
बगरादे बबा सत के परकास...
दुनों आंखी हवय फेर
होगे मनखे अंधरा
मोह माया म मगन होके
पूजय लोहा पथरा
सिरजादे मनखे मन के हिरदे मं धाम...
आगी लगगे चारो मुड़ा म
जरगे ये संसार
आके अमरित चुहा दे बाबा
करदे ग उद्धार
विनय करत हवन हमन बारंबार ...
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*आधुनिक छत्तीसगढ़ी कविता :दशा अउ दिशा*
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भाग -8
छत्तीसगढ़ी कविता के राग तत्व ल बगराय के बुता म एकठन नहीं कई ठन पीढ़ी मन आज ले घलव बड़ मेहनत करत लगे हांवे ।
*श्री मिलन मलरिहा*
*एदे बादर आगे*
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एदे बादर आगे रे, एदे पानी बरसगे रे
संगेसंग करा-पथरा हा, घलो एदे गिरगे रे....
अझिचतो धान ला, लुइके हमन, तियार होएहन
बिड़ियाएबा बाचे हे करपा, एदे सब्बो हा फिलगे रे....
आए के दिन मा नई आए, किसाने ला रोवा डारे
नहर के पातर धार खातिर, बड़ झगरा करा डारे...
कब आबे तै कब जाबे, कहुँ ठिकाना नई हे गा
कभु जादा कभु कमती, मति मा तोर बसा डारे
***
*शोभा मोहन श्रीवास्तव* ------------------------------
*तैं तो पूरा कस पानी उतर जाबे रे ।*
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तैं तो पूरा कस पानी उतर जावे रे ।
ए माटी के घरघुंदिया उझर जाबे रे ।।
जीव रहत ले मोहलो-मोहलो,काया के का मोल ।
छूट जही तोर राग रे भौंरा,बिरथा तैं झन डोल ।।
आही बेरा के गरेरा तैं बगर जाबे रे ।
तैं तो पूरा कस पानी उतर जाबे रे ।।
हाड़ा जरही मास टघलही,जर बर होबे राख।
बाचे रही तोर बानी जग में,तैं हा लुकाले लाख ।।
पाँचो जिनीस में सरबस मिंझर जाबे रे।
तैं तो पूरा कस पानी उतर जाबे रे ।।
जेन फूल ले गमकत हावै,जिनगी के फुलवारी ।
काल रपोटत जाही सबला,देखबे ओसरी पारी ।।
अरे डुँहडू तहूँ फूल बन झर जाबे रे ।
तैं तो पूरा कस पानी उतर जाबे रे ।।
सक के रहत ले रामभजन कर,छिनभंगुर संसार ।अगम हे दहरा ऊँचहर लहरा,धुंँकना धुंँकत बयार ।।
शोभामोहन रटन कर तर जाबे रे ।
तैं तो पूरा कस पानी उतर जाबे रे ।।
***
*सुधा शर्मा*
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*मोर देश के धुर्रा माटी*
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मोर देश के धुर्रा माटी,
मया गीत गावत हे।
डेना पसरे सोन चिरैया,
मान ला बढ़ावत हे।
खलखल खलखल नदिया हाँसत,
मिले मयारु ल भागय।
चंदा संग अकास चँदैनी,
रात रात भर जागय।
सुग्घर पुरवा राग बसंती
गीत ला सुनावत हे।
डेना पसरे------
होत बिहान सुरूज देवता,
लकलक ओन्हा साजय।
मस्जिद मा अजान हा गूंजय,
मंदिर घ॔टी बाजय।
राम- रहीम ह सँघरा खेले,
मान सबो पावत हे।
डेना पसरे---
देवी- देवा रिसी- मूनि सब,
जनम धरके आइन।
खेलिन- कूदिन पबरित माटी,
नाव शोर ल जगाइन।
बाँटे ग्यान अँजोरे सबला,
गुरू जग कहावत हे।
डेना पसरे---
हीरा सोना अन उपजाये,
खेत -खार हे हरियर।
मीठ- मया के बोली- ठोली,
सबके मन हा फरियर।
धुर्रा फुतकी हावे चंदन,
मूड़ सब नवावत हे।
डेना पसरे---
***
*श्री शशिभूषण स्नेही*
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*काबर*
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अँगना के मुनगा सुखावत हावै काबर
मँउरे आमा म फ़र लागत नइ हे काबर
काबर नँदावत हे डोंगरी के तेन्दु-चार
थोरकुन गुनव अउ करव ग बिचार|
चौपाल के पीपर रुख घलो चूँन्दागे
गाँव के हितवा के आँखी हर मुँदागे
बारी -बखरी होगे बिन करेला नार
थोरकुन गुनव अउ करव ग बिचार|
जेखर भरोसा म मनखे के जिनगानी
एको बूँद कहूँ मेर दिखत नइ हे पानी
ठाढे़ देखत हँव निहार मँय नदिया पार
थोरकुन गुनव अउ करव ग बिचार|
दिन-दिन गरमी अउ घाम हर बाढ़त हे
एक ठउर छिन भर बादर नइ माढ़त हे
कइसे अन्न ल उपजाही खेत-खार
थोरकुन गुनव अउ करव ग बिचार|
***
*श्री अरुण निगम*
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*जिनगी छिन भर के*
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(विष्णुपद छन्द)
मोर - मोर के रटन लगाथस, आये का धर के
राम - नाम जप मया बाँट ले, जिनगी छिन भर के
फाँदा किसिम - किसिम के फेंकै, माया हे दुनिया
कोन्हों नहीं उबारन पावै , बैगा ना गुनिया
मोह छोड़ जेवर - जाँता के, धन - दौलत घर के
दुन्नों हाथ रही खाली जब , जाबे तँय मर के
वइसन फल मिलथे दुनिया-मा , करम रथे जइसे
धरम-करम बिन दया-मया बिन, मुक्ति मिलै कइसे
बगरा दे अंजोर जगत - मा, दिया असन बर के
सदा निखरथे रंग सोन के, आगी - मा जर के ।
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*स्व.गजानन्द प्रसाद देवांगन*
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*प्रजातंत्र के मरे बिहान*
उघरा लइका नंगरा सियान
प्रजातंत्र के मरे बिहान
लबरा मन के नौ नौ नांगर
सतवादी के ठुठुवा गियान
बिन पेंदी के ढुंढवा ठाढ़हे
बने गवाही छाती तान
उघरा लइका नंगरा सियान
प्रजातंत्र के मरे बिहान
बइठके गद्दी पेटलामन बोलय
सेफला मन धरव धियान
अलगे राखव राजनीति ले
धरम करम ला दे के परान
उघरा लइका नंगरा सियान
प्रजातंत्र के मरे बिहान
देखत सुनत कहत मन मन के
जागत सोवत जियत तन के
चोर चोर मौसेरे भाई
महतारी परे अतगितान
उघरा लइका नंगरा सियान
प्रजातंत्र के मरे बिहान
भूंकत कुकुर ला रोटी डारत
सिधवा मन ला मुसेट के मारत
जइसने तइसने बेरा टारत
फोकट गजब बघारय सान
उघरा लइका नंगरा सियान
प्रजातंत्र के मरे बिहान
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*श्री मिनेश कुमार साहू*
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*मंय बेटी अंव गउ जात*
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मंय बेटी अंव गउ जात..
रे संगी...२
कोनो मारय खोर दुवारी,
कोनो मारय लात...रे संगी...
मंय बेटी अंव गउ जात।
नव महिना कोख म संचरेंव,
आयेंव जग के बाट।
कतको बर होगेंव गरु मंय,
फेंकिन अवघट घाट।।
कतको नीयत के नंगरा मन हा,
छेंकत हे दिन रात... रे संगी!
मंय बेटी अंव गउ जात...!
जुग जुग नारी ल अबला जाने,
आजो उहि दिन आवत हे।
कोनो दाईज लोभी त कोनो।
बेंदरा नाच नचावत हे।।
अग्नि परीक्षा कतको दे दे,
कोनो नइ पतियात... रे संगी !
मंय बेटी अंव गउ जात...रे संगी।
मूंड़ म बोहेंव दुख के बोझा,
जिनगी लटपट काटत हंव।
घर दुवार अउ समाज ला,
सुख के बेरा मा बांटत हंव।
उही पूत हा काबर मोला,
मारत हवै लात...रे संगी!
मंय बेटी अंव गउ जात...
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* श्री गयाप्रसाद साहू*
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*चल संगी चल,बढ़ चल*
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घानी के बईला मत बन
चल रहे संगी चल बढ़ चल
उन्नति के रद्दा अपनाबो जी
गंवई-गांव ला शहर बनाबो जी
देश-राज ला सरग बनाबो जी
घानी के बईला मत बन,
चल रहे संगी .......
धर ले झउहा रांपा-कुदारी
गैंती टंगिया चतवारी
मेहनत के फल गुरतुर होथे
ठलहा झन बैठौ गली-दुवारी
जुर-मिल के हम खूब कमाबो
दुख के दिन बिसराबो
घानी के बईला मत बन ,
चल रहे संगी.....
पखरा ले पानी ओगराबो
खंचवा-डीपरा ला सुधारबो
सुमता के हथियार बनाबो
दुख-अंधियार भगाबो
मेहनत धरम-ईमान हे संगी
मेहनत के अलख जगाबो"
घानी के बईला मत बन,
चल रे संगी ........
नवा-नवा तकनीक आ गे
नवा उदीम अपनाबो जी
नवा-नवा कारखाना खुल गे
नवा रोजगार पाबो जी
गंवई-गांव शहर ले जुड़ गे
'गया' खूब ब्यापार बढ़ाबो
घानी के बईला मत बन,
चल रे संगी .....
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*शशि साहू*
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*(सरसी छंद)*
*तरिया*
निस्तारी के ठउर ठिकाना,मिले जुले के ठाँव।
चुहुल पुहुल तरिया हर लागय, सफ्फा राखय गाँव।।
आमा अमली पीपर छइहाँ, मनखे बइठ थिराय।
बरदी के सब गरवा बछरू, अपनो प्यास बुझाय।।
घाट घटौदा सफ्फा राखव, राखव फरियर नीर।
दँतवन चीरी लेसव बदलव, तरिया के तकदीर।।
तरिया के पथरा हर जानय, मन भीतर के बात।
कोने तिरिया कठलत हाँसय, कोन रोय हे रात।।
काखर खारो आँसू गिरके,पानी मा मिल जात।
कोन अभागिन दँदरत रोवय, अपन सुहाग गँवात।।
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येहर तो एक बानगी ये। अइसन हजार हजार कलम आज छत्तीसगढ़ी महतारी के महिमा गावत,अपन समय के सरोकार अउ चुनौती मन ले दो दो हाथ करत सर्जना करत हें। जउन अकेला लोकाक्षर समूह म 200 कवि हैं। जउन संगवारी मन के रचना इहाँ नई आ पाइस ये , वोमन घलव पोठ रचनाकार आंय । बस समय अउ मानवी सामर्थ्य के सीमा हे ।
*मंचीय कविता अउ छत्तीसगढ़ी साहित्य*
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छत्तीसगढ़ी साहित्य के विकास म मंचीय कविता मन के भी बड़ महत्व हे। मंच में पढ़ने वाला कवि अउ कविता मन 'तुरंत दान महा कल्याण ' में विश्वास रखथे । तड़का फड़ाक माला मुंदरी शाल कंबल नगद नारायण आत रहिथें अउ कविता चलत रहिथे । ये कर्म म कभु कभु बहुत सुंदर कविता मन, वोमन के डायरी म ही रह जाथें । मंचीय कवि मन वोमन ल संग्रह निकाले के प्रति ज्यादा गंभीर नहीं रहें । छत्तीसगढ़ी मंचीय कविता मन के समृद्ध संसार हे । आज मीर अली मीर, रामेश्वर वैष्णव, स्वर्गीय मुकुंद कौशल , डॉ. सुरेंद्र दुबे, किशोर तिवारी जइसन मंचसिद्ध कवि मन, अपन आप में एकठन स्कूल आंय , फेर आज जरूरत हे मंचीय कविता मन ल घलव लिखित रूप में संग्रहित और संरक्षित करे के ।
*दृश्य- श्रव्य माध्यम ,मल्टीमीडिया ,इंटरनेट अउ आधुनिक छत्तीसगढ़ी कविता*
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दृश्य- श्रव्य माध्यम मन म सबले पुरजोर अउ पावरफुल रहिस अपन समय में रेडियो हर । आकाशवाणी रायपुर , बाद में कईठन अउ आन केंद्र मन म प्रसारित होवइया कविता, लोकगीत मन घलव छत्तीसगढ़ी साहित्य के अनमोल खजाना आंय । आकाशवाणी रायपुर के 'सुर -सिंगार', 'चौपाल' मैं बाजत गीत , 'चंदैनी गोंदा' , 'कारी ' जइसन जैसे पब्लिक प्लेटफॉर्म मन म बजत गीत ,सिनेमा - चलचित्र में बाजत गीत , अभी के समय में सबले लोकप्रिय ब्लॉग अउ यूट्यूब में भराय गीत -संगीत मन घलव छत्तीसगढ़ी साहित्य के अनमोल निधि आंय ।
डॉ विनय कुमार पाठक द्वारा लिखे गए नवगीत 'तोर बिना सुन्ना हे...", प्रो. राम नारायण ध्रुव के द्वारा लिखे गए गीत- कुंआ हे बड़ा गढ़ा रे ...अपन मधुरता के संगे -संग साहित्यिक महत्व घलव रखत हें । व्यवसायिक गीत लिखेया दिलीप षडंगी, नीलकमल वैष्णव ,डॉक्टर पीसी लाल यादव जी के रचे गीत मन उत्कृष्ट गीत होये के सेती, छत्तीसगढ़ी कविता ला समृद्ध करत हें । छत्तीसगढ़ी व्यवसायिक गीत मन के भी एक खूबी है कि वोमन म रंच मात्र अश्लीलता नई झलके । अउ जउन गीत अश्लील हें दर्शक मन वोला खारिज कर देथें । व्यवसायिक गीत मन म घलव अभिव्यंजना शक्ति के चरमोत्कर्ष है । सीमा कौशिक के गाए गीत - टूरा नई जाने बोली ठोली माया के... में प्रयुक्त पद 'मोर मया ल गैरी मता के ' , 'मोर तन के तिजोरी ल...' कतेक अधिक पावरफुल अभिव्यंजना देवत हें । अइसन व्यंजना के आगु म पांच- परगट अश्लील गावत यूपी- बिहार वाले तथाकथित विश्वव्यापी भाषा- बोली के गीत मन पानी भरत हें ।
*छत्तीसगढ़ी कविता के प्रकाशित पुस्तक*
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छत्तीसगढ़ी काव्य कृति मन के संख्या हजारों म होही , फेर होम -धूप असन दु चार कविता किताब के नांव इहाँ देवत हंव -
* सांवरी- लक्ष्मण मस्तुरिया
* सवनाही -रामेश्वरशर्मा
* मंजूर झाल -अनिल जांगड़े गंवतरिहा
* हरिहर मड़वा- रमेश कुमार सोनी
* नोनी बर फूल - स्व.शंभू लाल शर्मा 'वसंत'
*छिटका कुरिया - सुशील भोले
*बिन बरसे झन जाबे बादर - डॉ. बी.आर.साहू *अमृत ध्वनि - बोधन राम निषाद
*मैं कागद करिया कर डारेंव - शोभा मोहन श्रीवास्तव
* गजरा- स्व.गजानन प्रसाद देवांगन
*जिंदगी ल संवार - ओम प्रकाश साहू 'अंकुर' *गंवागे मोर गाँव - जितेंद्र वर्मा 'खैरझिटिया'
* जोत जंवारा - गया प्रसाद साहू
छत्तीसगढ़ी कविता के दशा पोठ अउ दिशा सही अउ परछर हे ।
*सन्दर्भ*-
*इंटरनेट के बहुत अकन वेबसाइट
*राहुल सिंह जी के ब्लॉग
*नन्दकिशोर तिवारी जी के 'छत्तीसगढ़ी साहित्य :दशा और दिशा '
* मोर अपन प्रकाशकधीन पुस्तक 'सदानीरा चित्रोत्पला'
*छत्तीसगढ़ी लोकाक्षर व्हाट्सएप ग्रुप के सामग्री ।
सबो बर आभार !
*रामनाथ साहू*
देवरघटा डभरा
जिला -जांजगीर चाम्पा
छत्तीसगढ़
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