-
*"नइ कहें ये तब ला का होइस।काही मैं वोमन ले पाहू झन हो जाँव गंगा -असनान बर।आज खास दिन आय। आज साही-असनान ये। वोमन बुड़की लेत तोर-हमर बर जरूर नाँव धरके बुड़की लिहीं। मितान कहही... हे गंगा मइया... ये बुड़की हर मोर मितान बर ये। मितानिन कहहीं.. ये बुड़की मोर मितानिन बर ये... ।अउ.. अउ... येती मैं... ?" मानसाय कहिस।*
*गति -मुक्ति*
*(छत्तीसगढ़ी कहानी)*
मानसाय अठ बोधराम दूनो बइठे- बदे मितान तो नहीं फेर वोकर से कोंहो जादा मितानी ला मनइया जीव। फेर समय के संग
सब्बो जिनिस म, लोहा कस जंग लग जाथे। वोमन के संबंध हर पहिली कस नई ये अब अपन कमावत हे, अपन खावत हें Iहफ्ता - पंद्रह दिन मा कोंहो जगहा ठेसा-टकरा गइन त दू पद गोठ बात निकल गय नहीं त अब कोई मतलब नइये काकरो से कोनो ला...।
* * * *
"अरे जावन दे न वोमन ल कुम्भ मेला देखे बर परायग राज...। अरे भई, जेकर रहही तेहर नई जाही का? हमरो रथिस त हमू मन जाथेन...।" मानसाय अपन परानी धरमिन ला किहिस जऊन हर अभीच्चे खोल कोती ला आके ये गोठ ला अपन गोसान मानसाय ला बताय रहिस के उन्कर मितान मन कुँभ मेला चल दिन।
धरमिन कुछु नई कहिस फेर बहिरी ला घर के अभी-अभी बहराय घर ला फेर बाहरे लागिस;जाने- माने वोहर वो गोठ ला बाहर के
निकाले के कोसिस करत रहिस। फेर वोला अब ले घलो भाँय-भाँय लागत रहिस; काबर के कुम्भ मेला जाये के तो वोहू मन के मन रहिस अऊ अइसन नइये के मानसाय हर कोंहो लेढुवा -थेथवा ये जेहर अपन कुटुम-परिवार ल, बोधराम कस परयाग के दरसन करा के नइ लाने सकिही। असल गोठ रहय... पूछ... पूछारी के। अतकी चलत रहेन
अऊ चलत घलो हावन तव मितानन अउ मितानिन कोंहो एको पद
कम से कम... बात जीते बर घलो नइ कहिन के चला संग मा... कहिके। वोमन ये गोठ ला बरोबर जानत है के संग मा जाय ले मानसाय
अऊ वोकर परिवार हर, कभु काकरो बर बोझा नइ होवय, वोहर खुद आने के बोझा ला उठाये हे... तन, मन अऊ धन ले घलो ।
* * * *
पहिली मानसाय घलो पूरा परिवार सहित कुंभ मेला देखे जाये के मन बना डारे रहिस...। बारा-बच्छर मा एक पईत तो होथे। अभी नइ जाय पाबे त अवइया आगु बारा बच्छर ले कोन जीयत हे के कोन मरत है, का पता? फेर मितान बोधराम के परिवार के पहिली जवई ल सुनके, वोकर मन हर थोरकुन खिन हो गये; काबर के दुनो परिवार के का... पूरा गाँव भर के पंडा तो वोईच्च महराज आय अऊ बोधराम हर ही काबर गाँव के कोंहो भी परयाग राज जाही तेहर वोकरेच्च डेरा मा जाके रहही।
"देखे... धरमिन.... देखे! मैं हर गुनत रहें के काल वोमन के घर जाके कुंभ असनान करे जाय के सझ मढ़ाबो... । अऊ एती वोमन कहिन न बोलिन... अऊ उदुप ले निकल गईन।" मानसाय धरमिन ला साखी देवत कहिस धरमिन घलो बाहिरी ला छोड़ के
वोकर तीर मा आगस, अऊ कहिस... "संग मा जाये बर कहथिन तब फिर पा के ले जाय बर लागथिस नीही हमन ला वोकरे सेथी नइ कहिन होही।"
मानसाय धरमिन के गोठ ला सुनिस तब हाँस भरिस वोहर कहिस कछु नहीं अऊ उठके वो जगहा ला कोठा मा आ गय। कोठा
मा बंधाय गाय-बइला मन मा एकठन आनंद आ के समा गय काबर के मानसाय हर गाय गरू मन ला अब्बड़ मया करय आजो भी
कोठा मा जाके बारी-बारी ले वोहर गरूवा मन के घेंच ला समारे के सुरू कर देय रहिस।
मानसाय हर ये गाय -गरू मन के मंझ म आके अपन रिस-पित्त ल भुला जाय। आज घलो इहाँ आके वोला बने लागत रहिस। ये
पोटरू बछवा हर तो हाथ ला चाँटत चाबे कस कर दे रहिस।
बोधराम परिवार ला कुंभ मेला गय आज पाँचवा दिन ये। कोन जनी वोती का होवत हे तउन ला फेर आज इहाँ तो पोठ अकरासी पानी गिरे हे। अकरासी पानी माने बिन मउसम बरसात.. करा.. पानी...धुल धक्कड़... आँधी तूफान...। पानी अतेक गिरे हे के लागत हे हफ्ता भर... नंगराही चलही अवार मा। दून बर तो पंद्रहा दिन ठीक रहही।
चल हमर बर येही कासी -परयाग ये... धरमिन... कहत मानसाय अपन नाँगर -बइला ला लेके, खेत कोती निकल गय। मितान के
वेवहार अउ येती अकरासि पानी म, खेत ला जोते के लोभ दूनो के दूनो वोमन के कुंभ मेला जाये के जोम ला बिगाड़ दीन। धरमिन तो
पहिलीच ले ये मेला-ठेला के झेल-झमेला ल एको नइ भावे फेर कुंभ मेला हर नाचा -गाना वाले मेला तो होइस नही येहर तो गति -मुक्ति के परब ये कहिके वह वोहर तियार हो गय रहिस चला बने हरू लागिस हे... धरमिन मने मन मा कहत हाँस परिस।
* * * *
हफ्ता भर नाँगर के चले ले ये दे सबो खेत हर जोता गय अवार। दून तो कभू भी गड़ही। अभी तो धरती अतेक कुँवर हे के दू-चार
दिन अवार-जोत अउ हो सकत है।
"ये! अब अउ नाँगर-बइला ले के कहाँ जावत हव!"धरमिन अबक्क होके अपन गोसान कोती ला देखे लागिस, जउन हर आन दिन कस नाँगर अउ बईला ल लेके निकलत रहिस।
'मितान के कोसमाही डोली... उहें आबे कलेवा पानी पसिया लेके...।" मानसाय आँखी ला मिचकावत कहिस वोला।
" वोमन कहे हावें तुँहला?"
"नइ कहें ये तब ला का होइस।काही मैं वोमन ले पाहू झन हो जाँव गंगा -असनान बर।आज खास दिन आय। आज साही-असनान ये। वोमन बुड़की लेत तोर-हमर बर जरूर नाँव धरके बुड़की लिहीं। मितान कहही... हे गंगा मइया... ये बुड़की हर मोर मितान बर ये। मितानिन कहहीं.. ये बुड़की मोर मितानिन बर ये... ।अउ.. अउ... येती मैं... ?" मानसाय कहिस।
धरमिन उदित नरायन सुरूज भगवान के अंजोर ले दप-दप करत अपने गुसान के चेहरा ल देखिस फेर मुचकावत कहिस- "
चला अगुवावा मैं कलेवा धर के आतेच्च हों।"
*रामनाथ साहू*
-
No comments:
Post a Comment