छत्तीसगढ़ी कहानी - सजा
हँड़िया के मुँह म परई ल देबे आदमी के मुँह म काला तोपबे। जे मुँह ते गोठ। मनखे जेन बात ल चिचियाके नई गोठिया सकय ओला फुसुर- फासर गोठिया लेथे। फेर गोठियाके रहिथे-
‘टूरी ल अच्छा जानत रेहेन यार।’
‘अरे ! जवानी म काकर जोर चलथे भाई ! बड़े -बड़े साधु- महात्मा खसल जथे त ये टूरी कोन खेत के ढेला ये।’
‘बनेच बने म तो कीरा परथे जी।’
मरद तो मरद ठहीरिस। बात ल कम से कम नाप - तऊल के गोठियाथे। नारी-परानी ल का कहिबे। नारी के जात छेरी के जात। वोमन टठिया भर भात ल अइँठ-गोंठके पचो लेही फेर ‘फुस्स ले’ पादत सुन परही तेन ल नई पचो सकय। अउ चारी चुगली बर तो उन बरदान माँगे आए हे। खेत होवय ते खार होवय, नदिया होवय ते कूआँ पार होवय, जिहाँ दू परानी मिलगे समझ ले मुँह बाँधे नइ रहे सकय।
तरिया के पचरी म बइठे साबुन लगाके लगर -लगर के नहावत गोठियाथे - चरबी चढ़े रिहिस हे राँड़ ल, गन्ना चुहक-चुहक के ललियाए परदेसिया टूरा मन भा गे अउ का ?’
‘ओकरो दाई -ददा ल चाही रिहिस हे। ओकर ले नान्हे-नान्हे मन के कोरा म दूदी- तीन-तीन झन गेदा खेलत हे अउ वोहँ बीस-पचीस साल के बूढ़िया, छी !
‘हहो ! चर्रागे रिहिस हे।’
‘जब मैं ससुराल आए तब के देखत हवँ ओहँ आए- जाए के लइक होगे रिहिस हे, आज मैं तीन-तीन लइका के महतारी होगेवँ, बंद तको होगे।’
‘अई ! अई !! तैं आपरेशन घलो करवा डरे हस ?’
‘त रे।’
जवानी के डारा ल अभी-अभी अमरत नवा-नवा जहुँरिया कूआँ पार म मिलथे त मुसकिया भर देथे काबर के उहाँ काकी-बड़ी, भौजाई के संगे-संग ठगेके नता घलो रहिथे। का पूछत हस ताहेन। डोकरी दाई मन नतनीन टूरी मन ल ‘हबरस ले’ कोचकथे - ‘खुसियार चुसरे बर आहू वो। हमरो बारी म यहा मोठ -मोठ खुसियार ठढ़ियाए हे।’ अउ मार अपन एक ले दूसर हाथ ल कोहनी के आवत ले अँटियाथे।
साऊ नोनी मन लाज के मारे मुड़ी नइ उठा सकय।
गाँव तो गाँव आस-परोस के कोस-कोस भर दूरिहा गाँव म घलो इहीच गोठ चलथे। नवा - नवा टूरा मन तरिया पार म संझा -बिहिनिया मंजन घीसत गोठियाथे -
‘कोन निशा यार ?’
एक तो बीच म भाँजी मारके जम्मो रसा ल नीरस कर दिस अउ ऊपर ले बात ल खोधियाथे -‘अरे पागल ! निशा ल नई जानस। बता एला यार।’- दूसर कोति ओधा देथे।
‘अबे दू साल पहिली हमरे गाँव म पढ़े बर आवत रिहिस हे। नदिया के पूरा म बोहावत लइका ल बचाए रिहिस हे तेकर सेति वोला ‘बीरता पुरूस्कार’ मिले रिहिस हे।’
‘अच्छा ! उही यार .. वो तो मास्टरीन होगे रिहिस का रे।’
‘हहो रे। लाल रंग के स्कूटी म आवय - जावय। कोनो दिन खम्हरिया ले आवत -जावत करमू मोड़ म पहुँचाए घलो होबे, उही डाहर कोन गाँव म पढ़ावय। परदेसिया मन के फारम हाउस घलो उही कोति हावय।’
‘अच्छा ! ठीक ..... ठी ...क, आवत -जावत सिगनल मिलगे अउ चिड़िया ‘फुर्र ले’ उड़गे.... है नहीं ।’
‘फेर भाई ये परदेसिया मन घला बड़ा हरामी हे न, वो टाइम रे गोल्लर ल टँगिया म काट दे रिहिस हे।’
जँहुरिया मन मुड़ी ल जोड़े गैंदू भैया के गोठ सुनत हे -‘स्साले मन ! दू नम्बर के धंधा करथे बइहा।’
‘झन कहा। करत होही। तभे तो बाहिर ले आके अतेक -अतेक खेत बिसा डरथे, अउ हमन ल देख, जिनगी भर कमाके एक एकड़ तको नइ ले सकन।’
‘मैं अपन आँखी म देखे हौं बइहा। वोमन मिर्चा पेड़ तरी गाँजा लगाथे।’
‘उन्कर ओतेक बड़ जंगल कस बारी म कोन काय करे बर जाही।’ गौकरण हूँकारू देवत अपन भरोसा के पलौंदी दिस।
‘वोमन गाँव के चीन्हे-जाने मनखे के छोड़ दूसर ल घुसरन तको नइ देवय।’ अब गैंदू भैया कहानी सुनाए लगथे - ‘का होइस... एक पइत मैं अपन दीदी घर गे राहवँ। भाँटो अपन संग महूँ ल बारी लेगे। उहेंचे कमाथे। वोमन रोकत रिहिसे। भाँटो भरोसा देवाइस कि येहँ मोर साला हरे भई ! चिन्ता करे के कोनो बात नइ हे।’
‘उहेंचे देखे रहेवँ भाई, मिर्चा पेड़ तरी या... मोठ-मोठ गाँंजा के पेड़ ल पथरा म चपक-चपक के राखे राहय।’ गैंदू भैया अपन मुरूवा ल दूसर हाथ के हथेरी म रमजत -अँइठत बताइस।
‘एक पइत अपन खेत के तार काँटा म करेंट लगा दे रिहिस हे त चार- पाँच ठन गाय मन चटक के मरगे।’
‘यार ! तैं तो अतके सुने हस। वोदे गाँव कोति के परदेसिया मन के ल नइ सुने हस। एक झन आदमी हँ साइड माँगे बर हारन भर बजाइस हे कहिथे बइहा !’
‘त फेर’ ?
‘वो साइड मँगइया के गाड़ी ल रोक के बेदम मारीस कहिथे।’
‘हौ, महूँ अइसेने सुने रेहेवँ। थाना वाले मन रिपोट तक नई लिखिस कहिथे बइहा।’
‘तेकर ले तो येमन ल एती बसन नई देना चाही भाई !
‘अरे कतको दलाल हे यार, अपन बर लेवत हाववँ कहिके मोल -भाव कर लेथे। पाछू पता चलथे, अपन बर नही उन्करे बर बिसाए हे।’
‘हमरे आस्तीन म साँप होगे हे, भाग ल दोस देके का करबे।’
‘सही बात ये -भाग ल दोस देके का करबे। भोगौ रे नर करम बेवहारा, हरि को दोस झन देहू गँवारा।’
‘कोनो लाख काँही काहय भाई, फेर मोर मन नई काहत हे कि वो अपन होके गिस होही।’-छिटके-छरियाए चिन्ता ल सकेल के गठरी बाँधत कहिस-‘हो न हो सुघरई के सजा भोगत हे बपुरी हँ !’
‘ निशा ’! उही निशा जेन कक्षा म हर बछर अव्वल आवय। जेकर ऊपर सिरिफ माँ- बाप भर ल नहीं, भलकुन जम्मो गाँव ल गरब रिहिस हे। लोगन ओकर आदत ल देखके काँही बात बर निशा के कसम खाए बर तिहार राहय। लइका मन ओला डर्राय नहीं, भलकुन ओकर सम्मान करय। गाँव के चटरही मुँहा नेवरनीन माइलोगन मन घलो ओकर आगू म गोठियाए के पहिली सोच लेवय तेकर पीछू मुँह उलावय। जेकर रहे ले घरे भर नहीं पारा -परोस भर म उछाह चहकत-चुलबुलावत किंदरत राहय।
निशा सोज्झे काहय -‘चटकन के का उधार ?’ अउ कोनो भी बात ल बिना डर-भय के तपाक ले बोल देवय। अति अउ अन्याव के विरोध बर एक पाँव खड़े राहय।
हाँ, हाँ उही निशा ! आज चुपचाप मुड़ी ल गड़ियाए फारम हाउस म परदेसिया मन बर भात राँधत हावय। वो सब जानथे, एक ओकर बोले ले का कुछु नइ हो सकत हे। रही-रही के ओकर मन म पीरा बरसऊ बादर कस उमड़त हे। छिन म आँखी म झूले लगथे -कइसे परदेसिया टूरा मन साइकिल ल घेरके रोकिन। कइसे चिंगिर-चाँगर उठाके फारम हाउस म लेगीन। कुकुर-कऊव्वाँ कस बदन ले जम्मो कपड़ा ल चीथ डरीन अउ ओसरी-पारी........... छी छी।
निशा के मुँह म पलपलाके पिचर्री पानी भरगे। एक दिन म निशा हँ जहर के दसो घूट ल पीयत- जीयत हे - ‘भगवान कोनो ल एकट्ठा सुघरई झन देवय।’
जाँच बर गिनके अँगरी म दू झिन सिपाही आये हे। लइका सियान निशा के बात ल सुने-जाने बर कटाकट जुरियाए हवय। साँस ल थाम्हे सुने बर लुहुर-तुकुर, आसरा-असमंजस के बीच उबुक- चुबुक झूलत हे सबो के मन।
आगू म संजय परदेसिया के बियान ले के बाद थानादार साहब निशा ल बलवाथे। परदेसिया मन निशा ल कुरिया के दुवारीच म गजब अकन फोटू असन देखावथे। ओकर कान म सबो के सबो काय -काय काहथे। फोटू ल देखके, परदेसिया मन के बात ल सुनके निशा अल्लर परगे। संजय ओला पानी लाके पीलाइस। निशा चिटिक रूकके धीरे- धीरे पाँव उसालिस। थानादार कोति रेंगत आवथे।
भीड़ के बीच कोनो मुड़ी ल टाँगके त कोनो अगल-बगल ले अकर-जकर करत हावय। निशा ल देखे बर जम्मो के आँखी तरस गे रिहिसे। निच्चट करियागे हवय बिचारी हँ। चेहरा मुरझागे हवय, चिटको चमक नई रहिगे हे।
‘अब का होही ?’ सब के साँस थमगे हवय। आँखी उघरे के उघरे रहीगे हे। ’ निशा आखिर का बोलथे ?’ सबो के मन म एके सवाल आवत -जावत धुर्रा पार दे हवय।
थानादार साहब पूछथे - ‘का संजय तोर ले जबरदस्ती करे हे ?’
निशा चुप।
साहब उहीच सवाल फेर दुहराथे। तीसरइया -चौथइया पइत म निशा मुँह उलाइस -‘मोर दाई-ददा सही- सलामत राहय साहब !’
मनखे उही रहिथे, फेर वर्दी पहिरे ले जबान बदल जथे - ‘जतका पूछे जात हे ओतके के जुवाब दे।’ साहब के गोठ ले वो मेरन के जम्मो आब-हवा म बास गँजमजागे।
‘मैं अपन मरजी से आहे हौं।’ अतके कहिके निशा दऊँड़त-दऊँड़त जाके फारम हाऊस म घुसर जथे अउ गोहार पारके रो डरथे।
परदेसिया मन के माथा म बिफिक्री हँ पहिलीच ले उमड़त-घुमड़त रिहिस हे। उहाँ ले उतरके थोथना अउ होंठ म इतराए -तुलमुलाए लगिस।
पुलुस वाला मन के मेंछा अउ नाक सरीदिन ठाढ़ रहिथे। आज दू इंच ऊँच उचके परत रिहिस हे।
लोगन काँव-काँव करे लगीन। उन्कर काँव-काँव के भीड़ म निशा के रोवई हँ दब-कुचराके मरगे, कोनो ल चिटको आरो नइ मिलिस। ओकर आत्मा कुलुप अंधियार होगे।
सब चीरबोर -चीरबोर गोठियावत गाँव कोति लहुटगे। निशा के ददा रामाधीन ल काटबे त खून नही। रामाधीन ककरो संग नजर नइ मिला सकत हे।
पाहर-पाहर चलत चार दिन बीतगे। चारी-चुगली के नींद परगे। समे के धार म सबो बोहागे। फारम हाऊस म परदेसिया परिवार बिहाव के उछाह-मंगल मनावत हे। फारम हाऊस जगर -मगर होगे हे। खार म बने फारम हाऊस कोति ले आवत अंजोर गँवई ल चिचिया-चिचियाके बलावत हे। लुहलुहावत हे फारम हाउस, तभो गाँव ओति झाँके बर तको डर्रावत हे। वोहँ अपन बेरा म खाईस-पीइस अउ रतिहा के घपटे अंधियार ल ‘घुमुक ले’ ओढ़के सुतगे।
रामाधीन के आँखी ले नींद हँ दुरिहागे हे। टकटकी संग इशारा म गोठियावत मुक्का छानी ल देखत हे रामाधीन। एक बजगे राहय। अचानक ओकर कान म सँकरी खटखटाए के आरो सुनाथे। झकनका जथे। सोचथे- ‘मोर भरम होही।’ सँकरी फेर बाजथे- ‘खन खन खन !’
एकक पीछू घर भर जाग गे। कोनो अनहोनी के डर म सबो के पोटा काँपे लगिस। पास-परोस के दू-चार झिन सियान मन तको जागगे। रामाधीन मुहाटी के सँकरी ल खोलके देखथे। ओकर आँखी म भरोसा के अकाल परगेहे। झुँझुर-झाँझर कलमुँहा अंजोर म आँखी ल लिबलिबावत देखिस- -‘ निशा !’ निशा मुड़ी ल गड़ियाए आगू म खड़े हे। रामाधीन घुड़क के कहीस - ‘नाक ल तो उही दिन काट डरे रहे मोर, आज अउ काला काटे बर आये हस ?’
‘मैं सजा काटे बर आये हौं ददा !’ निशा के पाँव ल लड़भड़ावत देखके रामाधीन ओला संभाले बर आगू बढ़ते रहिथे। ओकर बाँहा म लोमत-गिरत - ‘जम्मो परदेसिया मन ल ....खाना म... जहर........।’ अउ अतके कहीके निशा अचेत होके ‘भड़ाँग ले’ गिर जथे।
धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346
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