*पुस्तक परिचय-माटी के सोंध*
राजकुमार चौधरी रौना जी के पहली काव्य संग्रह, माटी के सोंध, शीर्षक अनुरूप माटी के महक ला जन जन के अन्तस् मा समोवत हे। आज ईटा, पथरा अउ कांक्रीट के मोह मा मनखे माटी ले दुरिहावत हें, ता उँखर भाग मा माटी के सोंध कहाँ रही। अइसन समय मा जेन माटी ले जुड़े कलमकार होथें, तेन मानव समाज के बीच माटी के महक ल महाकाय के उदिम करथें। समाज ला बताथें माटी के महत्ता, श्रम साधना, तप- जप संग वो समय के गुण अउ दोष। वइसने आशा बाँध के न सिर्फ देखे-सुने बल्कि जीये जिनगी के रंग ला अपन अनुभव के पाग मा पाग के, जन मानस के बीच श्री राजकुमार चौधरी"रौना" जी परोसे हे- अपन पहली छत्तीसगढ़ी काव्य संग्रह "माटी के सोंध" मा। माटी के सोंध मा जिनगी के सबो रंग समाहित हे- चाहे सामाजिक,आर्थिक,राजनीतिक,सांस्कृतिक होय या फेर प्राकृतिक। मया पीरा, सुख दुख, छल कपट, भाव भजन, ऊँच नीच,शोषण, संस्कार, संस्कृति, धरम करम सबे के आरो चौधरी जी अपन कविता संग्रह मा लेय हे। नाँगर मुठिया, रापा कुदारी धरइया हाथ ला कलम धरे बर उंखर अन्तस् मजबूर करिस। मजबूर करिस देश काल के वस्तु स्थिति अउ सामाजिक राजनीतिक ताना बाना हा। डिग्री उही आय जेन किरदार मा झलके, चौधरी जी पढ़ई लिखई मा जादा डिग्री नइ ले हे, तभो जिनगी के पाठशाला मा बरोबर महिनत करे हे। तभे तो उंखर कलम ले "माटी के सोंध" जइसे अनमोल संग्रह सृजित होय हे। न सिर्फ कविता मा बल्कि गद्य के सबो विधा मा रौना जी बरोबर कलम चलाथे। रौना जी कवि, छंदकार, गीतकार,गजलकार के संगे संग व्यंग्यकार अउ कहानीकार के रूप मा घलो जाने जाथे। माटी के सोंध के बाद उंखर अन्य विधा के पुस्तक घलो पाठक बीच आ चुके हे। माटी मा उठइया बठइया, माटी मा खेलइया खवइया, माटी ले मया करइया, माटी ला महतारी मान के सेवा बजइया, माटी पूत चौधरी जी भला माटी के सोंध ले कइसे अंजान रही। उही महक ला,राजकुमार चौधरी जी बिखरे हे, अपन काव्य संग्रह मा।
ता आवन उही काव्य संग्रह के भाव अउ कला पक्ष ले वाकिब होथन। रौना जी के काव्य संग्रह माटी के सोंध मा भाव पक्ष गजब सधे हुए हे, उंखर मन के भाव सीधा सीधा पुस्तक मा समाय हे। बिना लाग लपेट के अपन मन के बात ल बहुत ही बढ़िया ढंग ले ठेठ छत्तीसगढ़ी शब्द के संग जनमानस के बीच, रौना जी मन रखे हें। जइसे के घाव के पीरा देखावटी नइ होय, वइसनेच रौना जी के भाव हे, जे न सिर्फ तन बल्कि अंतर्मन के उद्गार आय। पुस्तक मा सिरजे जन्मो कविता मा रौना जी के व्यक्तित्व तको सहज झलकत हे, जिहाँ बने ला बने अउ गिनहा ला फरी फरी गिनहा केहे हे। शोषक के प्रति क्रोध अउ शोषित के प्रति दया रौना जी के सरल सहज व्यक्तित्व ला उकेरत हे। एक बानगी देखन--
*हाड़ा गोड़ा टोर के कमाये*
*फेर कभू नइ डपट के खाये*
*सिरतोन मा तोर हिस्सेदारी*
*लोभिया झपटिन हें तोर थारी*
चाहे देश राज होय या पार परिवार बिना एकता के कखरो कल्पना नइ करे जा सके। फेर तोर मोर, जात पात आज मनखे ला खँड़त हे, एकता बर जोर देवत रौना जी कथें--
*मनखे के कहूँ एक धरम, एक जात होतिस*
*तब काबर कोनो बर, पर बिरान के बात होतिस*
रौना जी के कविता मा फुहड़ता, फैशन अउ देखावा कस नवा जमाना के कतको जिनिस बर विरोध के स्वर दिखथे, एखर मतलब ये नही कि रौना जी जुन्ना सोच के। अरे उहू का नवा जेन दवा के जघा अउ जहर बन जाये।चाहे नवा होय या फेर जुन्ना हर बने चीज के सपोट अउ हर बुरा चीज के विरोध रौना जी मन खुलके करे हे। पहली आदि मानव मन तो नग्न ही रहय, फेर जब धीरे धीरे विकास करत गिन तब उन मन कपड़ा लत्ता पहिरत गिन। आज यदि नग्नता फेसन आय ता आदि मानव मन ला का कहिबों? लोक लाज सिरिफ़ नारी मनके गहना नोहे पुरुष मन ला घलो मर्यादा मा रहना चाही।
*मुड़ी ला ढाँक नोनी, मरजाद बाँचही*
*फेसन के घुँच दुरिहा,तोर लाज बाँचही*
मनखे के सोहलियत बर खोजे अविष्कार, मनखे के ही गल के फाँस बनत जावत हे, चाहे बम बारूद होय, चाहे मोटर कार होय चाहे प्लास्टिक झिल्ली, ये सब आज प्रदूषण बढ़ावत हे, अउ जिनगी के बाढ़त बिरवा ला ठुठवा करत जावत हे।
*फसल खेत के ठुठवा हे, सब खागे कीरा इल्ली*
*साठ बरस मनखे जिही अउ सौ बरस के झिल्ली*
कथे कि कवि के कलम देखे बात ला लिखथे, फेर रौना जी के कलम जीये जिनगी ऊपर चले हे। चाहे घाव होय या अभाव सब ला झेलत,दाई ददा अउ बड़का मन के बात ला धरत, रौना जी सतत आघू बढ़िन--
*झाँझ झोला तन ताला बेली बरजत हे महतारी*
*सीथा कमती पसिया जादा, चटनी फूल अमारी*
रौना जी के स्वाभिमानी सुभाव उंखर कविता मा सहज दिखथे। संगे संग यहू बात लिखथें कि,बखत पड़े मा अपन हक के बात करे मा तको नइ पाछू हटना चाही, माने बैरी हितवा देखत स्वाभिमानी संग अभिमानी तको होना चाही।
*मुड़ी गड़िया के रबे, ता चेथी ला मारही*
*छाती अँड़िया के रबे, बैरी हा भागही*
रौना जी के कविता संग्रह"माटी के सोंध",मा वर्तमान, भूत अउ भविष्य ला समेटे देश राज गांव के चिंतन हे, साज सिंगार के सुख स्वप्न हे, महँगाई भूखमरी बेरोजगारी अकाल दुकाल के दुख दरद हे, मिटावत,भ्रस्टाचार,मंद मउहा,जुआ चित्ती, दहेज कस बुराई के जहर हे, ता पेड़ प्रकृति,संस्कृति अउ संस्कार के संसो तको हे। मनके के सबे मनोभाव ला रौना जी शब्द देहे। भाव पक्ष के दृष्टि ले रौना जी के ये संग्रह बनेच पोठ हे।
*कला पक्ष*--
"माटी के सोंध" मा अलंकारिक छटा सहज समाय हे। ज्यादारत अनुप्रास अलंकार दिखथे। जइसे
*छेकानुप्रास*
तोर तिसर आँखी ला उघार।
सुरता कर लव सुरवीर के।
मान माटी के राखे बर।
चाल चिन्हारी।
लाली लगाही।
सुरता हे सुभाष के नारा। आदि आदि
*वृत्तानुप्रास*
हितवा के हिनमान होवय।
परही पाछू पछताना।
कतका करम के गीत।
हर हाथ हा धरही।
मैं मिल जाहूँ माटी मा।
बल बैरी के बढ़े।
दुरिहा ले देखे दुख देवइया।
महल मिले मोला।आदि आदि
*उपमा/रूपक अलंकार*
नील गगन।
सुआ पाँखी हरियर धरती।
ऊँच पहाड़ कस ऊँच।
चंद्र खिलौना।
आस के झुलनी मा झूलत हन।
गिल्ली बाँटी भँवरा लइका के भूख सरी।
*यमक अलंकार*
माटी के मान ला माटी करथें।
*मानवीकरण अलंकार*
धरती ओढ़े कार्तिक मा कथरी सोन सोन के।
मैं ठुड़गा मुस्कावत हँव।
सुरुज देव बउराय।
परसा देख ठेही मारे।
शहर जगमगाये गांव ढिबरी बारत रहिगे।
*पुनरुक्तिप्रकाश अलंकार*
गली-गली,भाई-भाई,नेता-नेता, महर-महर,बाढ़त-बाढ़त, तिनका-तिनका, खाँव-खाँव।
*अतिश्योक्ति अलंकार*
अंगरा कस बरसहूँ।
खरतिहा बन अंगद कस।
*विरोधाभाष अलंकार*
मूंदे आँखी मा रूप रंग।
बिन फुलवा भौरा के बगिया
*चिपके/युगल शब्द*
पास-परोस, पाँव-पलेगी,लाली-गुलाली, संगी-जँहुरिया, लकर-धकर, घर-बार,सज-धज।
*मुहावरा,हाना*
चुरवा भर पानी मा डूब मर।
जेखर लाठी तेखर भैंस।
नाव अमर कर।
कानून हाथ मा लेना।
मेंछा टेंड़े मजा उड़ावै।
लबरा के नांगर नौ नब्बे।
जोगनी चाबे अंधियार ला।
जियत मा जुल्मी मरे मा सोरियाय।
आँखी पनियाना।
जरे मा नून डारे।
चूल्हा मा गय।
*ठेठ छत्तीसगढ़ शब्द*
ओथराये, पोटारे, चाकर,पातर, ऑंखर, टरक, संडेबा,लुवाठी, सथरा, टेहरावत, मेड़रावत, कनकरहा, अनचिन्हार, घोरनाहा, सधनोहरा, खुरखेत, दनाक।
*समनार्थी शब्द*
लहू-रकत, रद्दा-बाट, संसो-फिकर
ये सब उदाहरण के अलावा अउ कतको कन उदाहरण पाठक मन पढ़त बेरा मिल जही,चाहे उदाहरण भावपक्ष बर होय या फेर कलापक्ष बर। रौना जी के,कलम अउ व्यक्तित्व के रौनक उंखर काव्य संग्रह मा बरोबर बने हे। उंखर कलम ले कुछु नइ छूटे हे। ये संग्रह मा कुछ जघा लिखावट मा त्रुटि हे अउ कुछ जघा वचन दोष घलो दिखथे। जे प्रकाशक डहर के तको खामी जनाथे, प्रकाशक मण्डल मा छत्तीसगढ़ी के जानकार सदस्य होना चाही, नही ते अइसन त्रुटि दिखते रही। कवि या लेखक कतको बेर पढ़े अपन गलती ला नइ पकड़ सके। खैर येला मैं गलती नही,बल्कि टंकन त्रुटि मात्र कथों। रौना जी के ये संग्रह ला सब ला पढ़ना चाही,अउ माटी के सोंध ला अन्तस् मा उतारना चाही।रौना जी ला अइसन उत्कृट कृति बर बारम्बार बधाई। आघू तको अइसने सरलग नवा नवा विधा मा सृजन होवत रहय।
पुस्तक नाम-माटी के सोंध(छत्तीसगढ़ी कविता संग्रह)
कृतिकार-राजकुमार चौधरी रौना
प्रकाशक-विचार विन्यास सोमनी,राजनांदगांव
प्रकाशन वर्ष-2016
मूल्य-50 रुपये मात्र
आवरण सज्जा-डॉ दादूलाल जोशी"फरहद"
कुल कविता-55
भूमिका लेखन-डॉ मुकुंद कौशल जी, डॉ पीसी लाल यादव जी,दादू दयाल जोशी"फरहद"
परिचयकर्ता
जीतेंद्र कुमार वर्मा"खैझिटिया"
बाल्को,कोरबा(छग)
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