छत्तीसगढ़ी व्यंगय - फेसबुक, वाट्सएप, कवि अउ कवितई
आजकल फुसियाहा फेसबुक अउ कनटेटरा वाट्सएप हँ फुस्स-फुस्स फुसियाना अउ दाँत निपोरत ले खुशियाना के सबले बड़का, पोठ अउ रोठ आशियाना होगे हे। सस्ता, सरल, सहज, सबल अउ सुलभ तो हइच हे। अपन फेस के द्वेष-क्लेश, सरी ऐब ल चपक-दबा, छपक-छुपाके फ्लेश मार झकास-छपासके टेस मारना ही नवयुग के नवा समझदारी ये। समे के संग अपन थकहा कदम मिलाके चलना, जंगहा अउ कोचरे चेहरा म रंग चढ़ाके जमाना म रंग जमाए रहना ही असल अकलमंद के पहिचान हे।
मैं ओइसनेहे सच्चा मरद किसम के बेदरद मरद हरौं। दूसर मन बरोबर रेचका, कुबरा अउ पंगुरहा दिमाक घुटना म नइ रखौं, भलकुन भूँसा भरे भेजा म गोबर खाद ले उपजे सौ टका टनाटन दिमाक रखे के भरम पाल रखथौं मैं।
अतेक अगुन-निर्गुन अवगुन के रहिते अइसन कैशलेस ऐस ले महूँ काबर पीछू रहौं। झट एकठो एकाउण्ट बनाएवँ। अपन फुसियाहा, केरवस कस बिरबिट करिया-बिलवा फेस ल नवा लुक देके श्यामसुन्दर बना लेवँ। एक सुग्घर श्लोगन ढिलेवँ - ‘श्याम (करिया) तको जिनगी के एक रंग हरे’ अउ फेसबुक के हुक म लटकाके बुक कर देवँ। ‘जल्दी के काम शैतान के’ ये हाना हँ अबूझ, बयकूप अउ गँवार मन के बस्सावत मुँह ले झरके खेबड़ा थोथना म शोभा देवत होही। हमर तो ‘पहली आवव पहली पावव’ टाइप एके ठिन सिध्दांत हे - ‘पहिली पहुँचो पहिली खींचो, तेकर पीछु दूसर ल नेवतो। कोट -कोट ले खाए के मामला होवय, चाहे कुट-कुटले कुटाय के, सिंघ्दात बोले तो सिध्दांत।
उहाँ कतको लपरहा, चटरहा, चिटियाहा, चिपराहा टूरामन कवितई झाड़त मिलिन। हमर इहाँ बबा हँ डोकरी दाई ल हाना म गज्जब ताना मारय। ओला नान्हेपन म सुने रहवँ। तुक मिलावत-मिलावत महूँ गजब बड़ कवि होय के भरम पोसे-पाले अँटियावत बइठे रहेवँ। भड़ास निकाले के जगा पाके महूँ भड़ौनी गाए लगेवँ। अइसे तो मोर मन कविता के सघन वन हरे। एक ठिन विचार ल हलाथौं हजार कविता बरबर-बरबर झरे-बोहाए लगथे। एक ठन पेड़ ल हलाके एक कविता झर्राएवँ-
सजना/सज ना/जलन लगे/जल न लगे/जिया न परे/ जियान परे/ जीए बर/जीए जावत हौं/ ए जी ! ए जावत हौं/ ले सम्हाल।
नौसिखिया मनके फुल कमेंट मिलिस बॉस। घाघ मन तो जनमजात जलनकुकड़ा होथे। उन्कर मनके सदाबहार कैक्टस कभू ककरो बड़ई बर कोंवर होबे नइ करय। मैं अपन आप ल बिगबॉस समझे-जाने-माने म चिटको देरी नइ करेवँ।
समझदार मनखे ल शुभ काम म देरी करना भी नइ चाही।
जादा नहीं त कम से कम अतका समझदारी तो मोर तीर हावय। अइसे मैं जनम से समझदार हौं। कोनो बात के मतलब समझवँ चाहे झन समझवँं, फेर मतलब के हरेक बात त ‘फट्ट-ले’ समझ जाथवँ अउ ‘फट्ट-ले’ लपक लेथवँ।
ओकर बाद मैं का नइ करेवँ -झन पूछ। तुम पूछेच नइ सकव। अउ पूछिहौच काबर जी - मोला बताए बर खुदे लकर्री छाए हे।
फेर का होइस ! कविता के नाम म उत्ता-धुर्रा चुटकुला पेले लगेवँ। हरे दाँव म ककरो कविता ल चोराके मोर ये कहिके ढील देवँ।
बूता बड़े राहय कि छोटे राहय पूरा ताकत लगाए ले ही सफलता हाथ लगथे। ये गुण ल जंगल के असल राजा शेर ले सीखे हौं। तुमन मोर ले सीखौ। अइसन जऊन नइ कर सकय वोमन बिलई मौसी कस हाथ मलथे।
अइसने-वइसने करत-करत, लड़त-पेलत कतको झन के गारी-गुप्तार, उलाहना झेलेवँ। फेर हार नइ मानेवँ, ओला गला के हार बना लेवँ। मनखे ल सीखना चाही कि वो अपन कमजोरी ल ताकत बनावय, जइसे मैं बनाएवँ । नकटा पर गेवँ। सियान मन नकटा के नौ नाँगर कहिते वोला मही पसीना ओगारके बिसाए रहेवँ।
कतको झिन कूटे बर घलो दऊड़ाइन-कुदाइन, महीं मेंछरावत भाग गेवँ। आखिर म मोर महाकवि तन, मन अउ कविता फेसबुक म बसियाए-फुसियाए लगिस।
अतका अकड़म-बकड़म तिकड़म करके घलो फेसबुक के सहारा ककरो फेस तो फेस दिल ल तको बुक नइ कर सकेवँ। एकर ले बढ़के भला भोला-भाला, ईमानदार अउ सादा-सच्चा, सादा-नर्मदा, पावन-निर्मल मनखे होए के दूसर का प्रमाण हो सकथे ?
का -का उदीम-अतलंग नइ करेवँ। हफ्ता म दूदी पइत फेसियल कराएवँ। जिहाँ जाववँ सेल्फी लेववँ। सेल्फी के चक्कर म सेल्फिस होगेवँ। आखिर म टाँय-टाँय फिस्स होके रहिगेवँ। गत उही होइस जो सत हे। मछली जल के रानी हे, कतको धो बस्सानी हे।
फेसबुक म गदफद-पचपच ले फुसियाए-बसियाए के बाद बस्सावत वाट्सएप कोति भाग अजमाए बर भागेवँ। भाग भरोसा जीयइया-खवइया मनखे मनके आसरा-भरोसा गजब पोठ होथे। ये अलग बात हे कि ककरो भाग झोल-झोल ले पातर-पनियर त ककरो लदबद ले गाढ़ा अउ मोठ होथे। आसरा के मामला म मैं बिलकुल बिन पेंदी के ढुलमुलहा लोटा हौं। मतलब न एकदम रिंगी-चिंगी, पातर-पनियर हौं, न बने दमदम ले रोंठ, चमचम ले मोठ, न ठसठस ले पोठ हौं।
हाँ, गोठ-गोठ बजूर हे। गोठ-गोठ माने गोट्ठू गिल्ली बरोबर -फोदल्ला। गोट्ठू गिल्ली माड़े म फदामा अउ मारे के बेरा छदामा। डिक्टो वइसनेहे मैं पोठ-पोठ, मोठ-मोठ, गोठ-गोठ भर म अँटियाथौं-सोंटियाथौं। असल बूता के बेरा करमछड़हा गोट्ठू-गिल्ली कस बोचक जथौं। ‘बात के बत्तु, काम के टरकू’ के नाम से मैं फेमिली म बचपन ले फेमस हौं। अइसे मनखे ल गोठ म कमी नइ करना चाही। बोचकना-बाचना तो बेरा-बखत के बात ये। काबर कि ’बात -बात म बात बनै, बात-बात म लात तनै’ कहे जाथे।
ये किसिम ले हुसियार मनखे ल घात लगाके बात के अघात करना चाही अउ जिनगी के खुसियार चुहक रसा ले लेना चाही। ‘जब पातर मुँह के छोकरी बात करे गंभीर त कुंदरू मुँह के छोकरा हर बात म भाला तीर’ काबर नइ कर सकत हे। कोनो ल आपत्ति होना भी नइ चाही।
कोनो कर भी देही तेन ल देखे जाही -साइड से।
वाट्सएप म देखेवँ, उहों एक ले बढ़के एक साहित्यकार ग्रुप बने हे। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ, भरे दाहरा बुड़’ नौसिखियामन पकर-पकर मारत रहय। चपर-चपर गोठियावत राहय। सठियाहा मन उन्कर लंदी-फंदी तुकबंदी के घेराबंदी-नाकाबंदी करत कविता मनके सटर-पटर म लगे रहय। उन्करो फटे म धीरे से अपन एक टाँग ल घुसेर देवँ। उप्परवाले जब टाँग दिए हे त ओकर सदुपयोग तो होना चाही न। टाँग ल टाँगके रखना बयकूप, डरपोकना अउ लिज्झड़ मन के काम ये। हम तो सीधा टाँग घुसेरे अउ अँड़ाए के काम करथन। सट्ट-ले कविता पेल देवँ -
मोर कमीज/बदतमीज/झाँके बोड्डी/देखे चड्डी/देखे बदतमीज/मोर कमीज
एमा घाघ, नौसिखिया, घाघ नौसिखिया अउ नौसिखिया घाघ सबो के कमेंट आइस, बड़े-बड़े इमोजी के संग। मोर एक झिन जुन्नेटहा नंगराहा, चड्डियाहा अउ जिंसयाहा संगी हे। नंगराहा ये सेति काबर के हमन जब ले नंगु-चंगु रहेन तब ले संगवारी हवन अउ चड्डियाहा ये सेति काबर के हमर जमाना म लंगोट नइ रिहिस, हम सीधा चड्डीधारी होएन। अब जिंस के जमाना आगे हे। भले जिंस मारके भी नंगु-चंगु के जमाना ले मन से जादा पंगु होगे हवन। इतिहासकार मन चाहय त हमर नाम ल चड्डीधारी गिरोह के प्रवर्तक के रूप म निस्संकोच स्वर्णाक्षर म लिख सकत हे।
वाह ! वाह !! गज्जब। - एक झिन चड्डीयाहा संगी लिखिस।
का बकथस यार ! - मैं होश म जोसियाएवँ।
अबे ! हर बखत फकत बकत नइ राहौं मैं। कभू-कभार मोर भूँकई ल घलो पतिया ले कर। - चड्डीयाहा चंगिया-जंगिया के कहिस।
मैं फूलके हाउसफुल होगेवँ।
मोर टें टें देख कतको झन के टाँय टाँय फिस्स होगे। साहित्य जगत तको कैक्टस के घनघोर जंगल कम नइ हे। दिखय भले नहीं, इहाँ के निवासी मन जनम के कैराहा, खैटाहा, अनदेखना अउ जलनकुकड़ा होथे। हरेक परम आदरणीय के पेट म दाँत खचाखच भरे हावय।
ग्रुप म एक झिन ककामुँहा, गोल्लर टाइप, बंचक किसम के कवि रिहिस। वो अपन आप ल गजब बड़ समीक्षक समझै। वो अपन आप ल समीक्षक भर समझै, समीक्षा अउ कविता ल नइ समझै। अइसे कतको मनखे होथे जउन हर बात के मतलब समझथे फेर मतलब के बात नइ समझै। अइसे ये विसय म मैं गोल्उ मेडलिस्ट हववँ।
वो मोर असन महाकवि के कविता म मीन मेख निकाले लगिस। एक दिन तड़ातड़ ताड़, झाड़के फाड़ देवँ -
कका ! कुकुर कर्कस कुँकियाए/केंवची-केंवची ल नोखियाए/कोंवर-कोंवर दबाए-खाए/पर ल बढ़त/देख न पाए/नीच/देखाए/रहि जाए/नीच।
कका समीक्षा तो समीक्षा कविता कहानी पढ़े-लिखे बर छोड़ दिस। सोचिस होही - ‘जा रे ! परलोकिया !! तोर जातरी आए हे तेला कोन काय करही ! अपन रूच भोजन पर रूच सिंगार ! धर अपन कविता, अपने मुँह म मार।’
मोला कुछू फरक नइ परिस। मैं तो एकला चलो म विश्वास करथौं। खाए के बेर अकेल्ला चलो, गँवाए के बेर पीछल्ला।
एक दिन अइसे आइस के मैं अपने ताने साहित्य जगत के जाने-माने गोल्लर होगेवँ। कोनो जानय-मानय के नही तेला नइ जानवँ, फेर मैंह जानत, मानत अउ तानत रहेवँ। ग्रुप म एक झिन चिपरीमुँहा टेटकी कवियित्री मिलिस जउन मोर कविता के गजब दीवानी होगे। वोकर खातिर अपन छप्पन इंची छाती म छिपे छुटकन दिल ले ए कविता पेलेवँ -
अबक तबक सबक
चटक मटक फटक
खटक सटक गटक
चहक महक बहक
रट फट चट पट
खोल मन के पट
मत कर खटपट
मत हट झट सट
मामला फिट होगे। काम सलटे लगिस। काया पलटे लगिस। ओ दीवानी संग मोर जिनगानी के कहानी बनगे। ओकरे संग साइड गृहस्थी के सटर खुलगे। हम दूनो मिल ज्वाइंट एकाउण्ट खोल लेन। अब हम दूनों अपन अलग ग्रुप बना ले हवन, जेकर एडमिन मैं अउ चिपरी दूनो झिन हवन। ग्रुप बिंदास चलत हे। हमर कविता म सबो चेला-चपाटी मनके कमेंट आथे। हमन ककरो रचना म कमेंट नइ करन। हमर मन के बियाबान म उगे बंबरी के काँटा हँ हमन ल कमेण्ट करे बर रोकथे-थामथे। ग्रुप के सरगना होए के इही एक फायदा होथे। साहित्य म घलो घाघ होना कोनो साधना ले कम नइ होवय।
फेसबुक होय के वाट्सएप, मोला अपन कवितई से मतलब हे । आह रे फेसबुक ! वाह रे वाट्सएप !! फेसबुक अउ वाट्सअप म कवितई के अपन अलगे मजा हे दोस्त !
धर्मेन्द्र निर्मल
9406096346
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