"लाड़ू भात "
मांदी मेरा बर बिहाव के लाड़ू खाय म बड़ मजा आथे।पहिली लाडू चोरय,ढुलाय लुकाय के मजा अलगेच राहय। दिनों दिन एकरो साइज लंम्बाई × चौड़ाई घटत जात हे।पहिली भौरा कस राहय,अब तो मंहगाई म सुखा के ठेला बांटी कस होगे। कतकों मन जिही मेर खाथे उही जगा मड़ा देथे।बरा के साइज घला पिपर मेंट कस बरनी में भर के बेचे के लइक होगे।खाबे ते दांत म लटक जथे। लाड़ू समाज अपन दिनों दिन घटत साइज ल ले के बहुत फिकर मे पड़ गेहे।अवईया चुनावी बछर ल देख, ज्ञापन शापन आंदोलन करे के मूड बनावत हे।नारा घलो बना डरे हे। महंगाई का बहाना नहीं चलेगा सबको पहले जैसे साइज में खिलाना पड़ेगा। इखरो समाज मनखे मन कस दू फांकी म बंट गेह। लाडू अउ बुंदी अउ सब ल पता हे बंटे समाज के कोनो कुकुर पुंछता नी राहय।
बरा मन ल घला अपन भविष्य के चिंता पड़ गेहे कोनो दिन बाद नंदा तो नी जबोन।ताहन हमू मन ल इतिहास म पड़हाही।बरा नामक खाद्यय व्यंजन होय जेला उरीददार के बानाय अऊ मांदी मेरा व तिहार बार के खिलाय जाय।जे हर महंगाई के बाढ़ में बोहा के नंदा गेहे ।वहू मन लाड़ू मन ल देख के मऊका म चऊंका मारे के उदिम म लगे हे। "बड़ी
नहीं बडा़ बनके रहना हे, अब ये अत्याचार नई सहना हे।"
ऐति सोहारी मन काहत हे हमरो कोनो मान गोन इज्जत नई हे कोनो जगा एक ठन रेंगा देथे कोनो जगा दू, तमाशा बना के रखे हे।
अटवारी, पटवारी, सचीव, आंगनबाड़ी, मितानिन, मन कस यहू मन लाड़ू बरा कस धरना धरे के बीचार करत हे। फेर सोहारी मन ल संतोष जरूर हे।कम से कम हमर साइज ह घटत तो नई हे। चुनावी बछर के गंगा म यहू मन हाथ धोय के उदिम बनाय हे। हमारी मांगे पूरी करो "एक नही दो नहीं सबको बराबर खिलाना पड़ेगा" सबका साथ सबका विकास।
इकर धरना म आड़ू बाड़ू खसमाडूछाप वाले मन के घलो कृपा बरसत रहिथे यहू मन ल आंदोलन जीवी पारटी मन के साथ घलो मिलथे। कुछ पारटी के नाम समर्थन पारटी रख दिही त कतिक सुग्घर रही। हां समर्थन ले याद आइस , समर्थन माने अपंगहा कुर्सी। ऐला
लेवईया पारटी वाले मन गावत रहिथे ।
मेरे सर पर सदा तेरा हाथ रहे। ओ समर्थन वाले बाबा तू हमेशा मेरे साथ रहे।
लाडू के नाम ले के सुरता आगे मोर मितान के टूरा बिगडगे ।आज कल टीवी मोबाइल के आय ले लोग लईका मन नंगत बिगड़त हे। टीवी मोबाइल कस आजकल एकरो रिपेयरिंग सेंटर खुल गेहे।गामिण समाज, परिक्षेत्रीय ,जिला ,प्रदेश, स्तरीय सुधार सेंटर बनगेहे । कतको जगा ठेका चूंकि कस चलथे त कतको जगा रेट फिक्स रहिथे।ऐला समानिक ठेकादारी घलो कही सकथन।कखरो नोनी बाबू बिगड़गे त अतिक रुपया अउ समाज ल लाड़ू भात ।कभू तो ये समझ नई आय ये मन घर बनात हे कि घर बिगाड़त हे।
खैर समाज म कुछ बंधन जरूरी हे। फेर लाड़ू भात खाके मिली हर वैज्ञानिक दृष्टिकोण ले समझ नई आय। जरूर ये लाडू भात म अइसन कोनो बल हो ही,जेहा आन जात ल अपन जात म मिला लेथे।येला कोनो अनुसंधान केन्द्र म अनुसंधान करना चाही। , समाजिक वैज्ञानिक मन ल घलो ये "लाड़ू भात "घर बनाय के उदिम आय के घर बिगाड़े के ऐकर ऊपर रिसर्च करना चाही।
लाड़ू+भात=अपनजात?
फकीर प्रसाद साहू
"फक्कड़ "सुरगी
राजनांदगांव छत्तीसगढ़
No comments:
Post a Comment