धर्मेंद्र निर्मल: कहानी - पूत के पाँव
अक्सर मोर ददा काहय -‘पूत सपूत त का धन जोरय, पूत कपूत त का धन जोरय।’
वो पइत मैं बनेच छोटे राहवँ। अब्बड़ चेंध -चेंधके मायने पूछवँ। अउ आन पइत कऊव्वा जावय -‘अब्बड़ सवाल पूछथस रे !’
फेर अइसना बेरा होवय त चिटको नई गुसियावय। ओकर मतलब ल बजुर समझातिस। अभीन तको ओइसनेहे होइस।
कहिस -‘सपूत बर जोरे के कोनो जरूरत नइ परय, वो बड़े होके खुदे जोर-जँगार लेथे। कपूत बर जोरे तको अबिरथा होथे, काबर कि वोहँ जोरे-जुरियाए सब ल उजार डरथे।’
वो समे तो एक कान ले सुनके दूसर कान ले भूँसा-बदरा समझ उड़वा देववँ। फेर जगत के जम्मो पोठ गोठ मन हँ मन के कोनो कोन्टा म माढ़े रहि जाए रहिथे। जइसे माटी म बड़ोरा चले के बाद तको पोठ दाना माढ़़े रही जथे। अउ समे परे हवा-पानी खाके बिरवा बन जथे। बचपन के कुछु गोठ मनखे के जिनगी म अइसनेहे प्रभाव डारथे। नान्हेपन हँ जिनगी के नेंव होथे, जइसे गढ़ले। इही संस्कार हँ आगू चलके लइका ल लाइक अउ मनखे ल मनखे बनाथे।
बुढ़हत काल म दाई -ददा लइका ले छप्पन भोग के इच्छा नई राखय। लइका के व्यक्त्वि अउ कृतित्व ल देख जतका खुस होथे, ओतका खुस छप्पन भोग खाके नई होवय। बुढ़ापा म छप्पन भोग का, खिचरी पचाए के उन्कर सामरथ नई राहय। दाँत संग देई देही त आँत ह धपोर देथे। दाँत हे चना नहीं, चना हे त दाँत नहीं जस हाल रहिथे।
दाई ददा जनम देके संस्कार देथे। पालथे -पोसथे अउ नेकी कर दरिया म डार के भाव म भूला तको जथे।
आजकल के चलागन अइसे हे कि दीखथे तेन बिकथे। मनखे दिखावा के पीछू भेंड़ियाधसान भागे लगे हे। दिखावा, फैशन अउ आधुनिक चमक-दमक म चौंधियाके कतको गलत संगत म पर जथे। इही संगत मनखे के जिनगी ल नरक तको बना देथे। संगत के जोर, जादा नहिते थोरे थोर। गरब के गोठ ल मनखे चपक-दबाके बइठ जथे अउ अहम के गोठ ल गरज के बोलथे।
बाप कहिते रहि जथे- तोर बाप औ रे मैं। बेटा कब बाप के पनही पाँव म खाप के दुनिया नाप जथे, पते नई चलय। मोला गरब हे कि मोर पुत्तर अइसन-वइसन चरित्तर ले कोसो दूरिहा हवय।
पूत के पाँव पलने म दीख जथे।
लोगन कहिथे कि पूत के पाँव, पिता के पनही म आ गे त समझ लइका लाइक होगे।
मोर लइका लक्ष्य हँ उम्मर के सत्रा विराट ओपनिंग मैच खेल डारे हे। अठारवाँ ओवर चलत हावय।
पढ़ई के नाम लेके ओकर संग मोरो जगदलपुर जाना होइस। जगदलपुर इंजीनयरिंग कॉलेज के बीटेक म ओकर भर्ती होना राहय। गँवई ल छोड़के ओतका दूर जाना मोरो पहिली पइत राहय अउ हमन ल छोड़के ओकरो ओतका दूरिहा जाना पहिलीच पइत रिहिस हे। भर्ती के आखरी दिन हँ दूए दिन बाचे राहय। हमन दूनो बाप-बेटा तुरत-फुरत मोटर के टिकिस कटाके निकल गएन -सिक्षा यात्रा म। हमर ये सिक्षा यात्रा पेरेन्ट ले पार्टनर तक होगे।
हमर जाना रात के होइस।
दिन होतिस त अकर-जकर ल देखत जातेन। मोटर संग हमर दऊँड़ई -भगई ले आजू -बाजू के छूटत ठऊर -ठिकाना, पेड़-झाड़ मन के दूरिहा होवई ले हमर कुछू बेरा कट जतिस। जाड़ के दिन रहय। हमन काँच-ऊँच ल बंद करके अपन सीट म दुबक के बइठ गएन।
लड़कपन म जिज्ञासा के संगे-संग एक किसम के डर तको मन के कोन्टा म कलेचुप मिटकियाए बइठे रहिथे। उही डर या जिज्ञासा अचानक बेरा-कुबेरा अँटियावत जाग जथे। ओइसनेहे मोरो लइका संग होइस। ओकर मन म आइस होही- ‘रतिहा के बेरा, कहूँ दूनो झिन के नींद परगे त ?’
‘अतेक असन कीमती हमर समान ल कोनो उठाके ले जाही। सुते अउ मरे कहिथे।’
जबकि हमर तीरन पढ़ई -लिखई के कागज -पत्तर अउ ओढ़ना-दसना के छोड़ अउ आने कोनो कीमती समान नइ रिहिसे। ओतके हँ ओकर बर भारी रिहिस। ओकर दिमाक ल अंतस के उठत बँड़ोरा हँ झकझोरिस होही। मोला कहिथे - ‘ओसरी पारी सुतबोन।’
‘हौ बने कहिथस।’ मैं ओकर हाँ म हाँ मिलाएवँ।
‘आप सो जावव, मैं अभी नइ सुतवँ।’ वो बिना कुछु देरी करे ‘फट्ट ले’ कहिस।
‘तैं सुत जा न।’ मैं अपन सियानी के हुसियारी बघारेवँ।
‘नहीं मोला अभी नींद नइ आवत हे’ काहत मोबाइल ले मोटर के वीडियो बनाए लगिस। अउ ओला अपन व्हाट्सअप के स्टेटस म डार दिस।
‘नींद तो महूँ ल नइ आवत हे’- ओकर नींद के आसरा ल पंदोली देवत कहेवँ।
वो चुप रहिस। मोला ओकर जुवाब के चिटको आसरा तको नइ रिहिसे।
मैं ठलहा गोठ ल आगू ढकेलत-रेंगावत कहेवँ- ‘चल अच्छा होगे यार ! तोर सरकारी कॉलेज म चयन होगे, नइ ते निजी इंजीनयरिंग कॉलेज म आजकल छोटे -मोटे मनखे अपन लइका ल नइ पढ़ा सकय।’
अइसे वोह पहिलीच ले हमर तीरन कहि डारे रिहिस हे -‘सरकारी कॉलेज म चयन होही तभेच कॉलेज करहूँ, नइ ते आईआईटी बर घर ले ही मेहनत करहूँ।’
‘इंजीनयरिंग भर के बात नइ हे आजकल के महँगई म लइका ल ऊँच कक्षा म पढ़ाए बर पालक ल एक पइत सोचे बर परथे। अगल-बगल के कमईच वाले मन अपन लइका ल जऊन चाहथे पढ़ा सकथे।’
‘हाँ’-कहिके हुँकारू देवत वो कुछु सोचे लगिस। जना-मना मोर संग बहुत कुछ गोठियाना चाहत हे, फेर बक्का नइ फोर पाइस।
मैं कहेवँ - ‘फेर जेन हँ जऊन करना चाहथे ओला वो नइ मिल पावय। अउ जेन करवाना चाहथे, जेन सुविधा-संपन्न हे ओकर लइका बिगड़े नवाब हो जथे।’
अइसन कहिते -काहत मैं गौर करत रहेवँ। ओकर चेहरा म उछाह अउ आत्मसंतोस के एक ठो पतला तार हँ तऊरत रिहिसे। मैं वो तऊरत तार के भाव ल पढ़े-जाने बर गोठ के फुचरा ल आगू बढ़ाएवँ-‘फेर ये सब संस्कार ऊपर होथे। बालमन हँ कच्चा माटी के लोंदा बरोबर होथे। कच्चा माटी ल मन मुताबिक अकार दे सकथस, वइसनेहे बालमन म उचित संस्कार भरके ओला सहीं रद्दा म लेगे जा सकथे।’
वो मुस्कुरावत, बड़ा धियान से मोर गोठ ल सुनत राहय।
मैं कहिते गएवँ - ‘कोनो होवय, सब ल अपन लक्ष्य बनाके चलना चाही। ओला अपन एक आदर्स बनाके रखना चाही, जेकर जिनगी के बारे म ल पढ़-समझ के ओकर ले मार्गदर्शन मिलत राहय’- कहिते -काहत देखत रेहेवँ वो अबक-तबक कुछ बोलना चाहत हे। मैं ओकर गोठ के अगोरा अउ स्वागत म अपन बोली -बचन के हाथ धरके थाम लेवँ। चुप रहिगेवँ।
वो कहिस - ‘हाँ, बजुर रखना चाही। महूँ रखे हौं।’
मोला खुसी होइस कि मोर लइका अपनो जिनगानी के एक आदर्स, एक रद्दा, एक लक्ष्य बनाके रखे हवय। वो मोर चेहरा ल धियान से देखत राहय। मोला लगिस कि वोहँ कुछु बोले बर तुकतुकावत हे।
वो बोलय कहिके मैं अपन मुँह म मुस्कुरई के तारा लगा लेवँ। ओकर गोठ के अगोरा करे लगेवँ। दुबारा देखेवँ त लगिस जना मना वोहँ मोर कोनो प्रश्न के अगोरा करत हवय। मैं नइ जानत रहेवँ कि वो हँ काकर अगोरा करत हवय। उही ल जाने बर मैं मुस्कुराके ओला देखत सहारा देवँ। मोर सहिलावत भाव ल वो हँ पढ़ डारिस। ओला भरोसा होगे कि मैं ओकर गोठ के अगोरा करत हाववँ।
कहे लगिस -‘ददा ! आप ल सुरता हे ? एक दिन हमन दूनो झिन सइकिल म नानी घर जावत रहेन। वो समे मैं तीसरी कक्षा म रेहेंव।’
मैं अपन दिमाक के थैली ल झाँक-टमर के देखेवँ। वो हँ जुच्छा रिहिस। मोला काँही सुरता नइ आइस। मैं फोकटइहा सुरता के बहाना इही मेर चलत गोठ ल रोके नइ रखना चाहत रहेवँ - ‘हाँ जावत रहे होबोन, मोला सुरता नइ हे। फेर का होइस ?’ मैं प्रस्न करेवँ।
वो बिना रूके सरलग कहे लगिस -‘चौंक म पहुँचे रहेन। उहाँ हमन देखेन, एक झिन लइका ल कुकुर हँ भूँकत कुदावत रिहिसे। आगू -आगू रोवत लइका, पीछू -पीछू भूँकत कुकुर।’
जब वो मुचुर-मुचुर मुसकावत बतावत रिहिस हे, मैं मगन ओला देखते रहिगेवँ टुकुर-टुकुर। वो उमंग अउ उछाह म भरे अइसे गोठियावत राहय, जना-मना मैं ओकर लइका अवँ, वो मोर सियान।
वो अपन आप म मगन गोठियावत हावय - ‘हमन दूनो देखत रहेन। का देखथन, रोते रोवत वो लइका अचानक रूकगे।’
’डर म मनखे के अवाज पता नहीं काबर, बाढ़ जथे। वो लइका एकदम जोर से चिचियाके रो डरिस अउ रोते-रोवत अचानक रूक के खड़ा होगे। चिचियाके रोए के बेरा ओहँ कुकुर कोति मुड़गे अउ जोर से किकियाइस- ‘हुर्रे’। कुकुर ल लगिस होही कि एहँ मोला मारे बर खड़ा होगे। कुकुर भूँकई अउ कुदई ल छोड़के रूकगे।’
‘तब जानत हस का होइस ?’
मैं उदुपहा ये प्रस्न ले हड़बड़ा गेवँ अउ इन्कार म मुड़ी ल डोलाएवँ- ‘उहूँ !’
वो सरलग बताए लगिस - ‘आप मोला पूछेव - देखे हस का होइस हे तेला ? मैं कहेंव - हौ, कुकुर हँ कुदावत रिहिसे, लइका भागत रिहिसे। लइका रूकिस त कुकुर तको रूकगे। कुछु समझ म आइस ? मैं अचानक ये बिन बलाए पहुना बरोबर प्रस्न ले चकरित खा गेवँ। मोला निरूत्तर देख आप कहेव- देख, डर के जउन भाव हे वोहँ भागत लइका हरे। माने डर हमर मन के भीतर रहिथे। हम भागे जाथन, डर हमला दऊँड़ाते रहिथे।’
मोला थोर -थोर सुरता आए लगिस। मैं सुनते रहेवँ, वो कहिते रहिस -‘सही म जेन डर हे, जोन समस्या हे, या ये दुनिया हे, वोहँ कुकुर बरोबर हे। जब तक तैं डरबे -भागबे, ये डर, ये दुनिया सब तोला डरवाए परही। दऊँड़ाही -कुदाही। एक पइत अइसे होही कि तैं अपन डरे ले डरके जिनगी के जंग हार जबे। जब तक डराबे जिनगी म हारते रहिबे।’
‘थोरिक रूकके आप कहेव- बेटा ! हारना नई हे। डर ल ही अपन ताकत बनाना हे। गनित म तैं अपन आप ल कमजोर समझथस। गनित ले डर के भागथस। तैं कमजोर नई हस। मनखे कभू कमजोर नइ हो सकय। मनखे कमजोर होतिस त उड़नखटोला म बइठ आज अकास म नई उड़ातिस। सागर के गहरई नइ नाप सकतिस।
कमजोर होथे ओकर हिम्मत, ओकर आत्मबल। डर या समस्या कोनो बघवा तो नोहय जउन जीयत लील-खा डारही। वो तो सवाल हरे, एक परिस्थिति हरे। दुनिया म अइसे कोनो सवाल नई होवय, जेकर जवाब नई रहय। अइसे कोनो समस्या नइ होवय जेकर निवारण नइ होवय, भलकुन जवाब ले ही सवाल बनथे। पढ़, बने समझ अउ बना।
एक पइत गलत होही, दू पइत गलत होही। चल तीसरइया पइत घलो गलत होही। चउथइया म ओला बनेच बर परही। ओला बने बर परही ओकर बाप ल बने बर परही। एके कौंरा म पेट नई भरय । घेरी पइत कौंर खाथस तब जाके पेट भरथे न !’
फेर वो हँ बड़ा गरब अउ आत्मविश्वास ले लबालब भरे तरिया कस उफनावत कहिस -‘बस ! वो एक बात हँ मोर मन के जम्मो डर ल निकालके रख दीस। गनित बर रूचि जागगे। वो दिन ले मैं आप ल अपन सबले बड़े प्रोत्साहक मानथौं। सही म मोर पहला प्रोत्साहक (मोटिवेटर) आप हरौ।’
मैं ओकर गोठ ल सुनत जाने कोन दुनिया म दऊँड़े -भागे लगेवँ। कोन जनी कोन उमंग-उछाह के पाँखी उड़ाए लगेवँं। मोर पाँव हँ भूइँया म नइ माड़त रहय। सोचे लगेवँ -‘दुनिया म सब फिल्मी सितारा के, बड़े -बड़े खेल हस्ती के त कोनो अउ काकरो काकरो फेन होथे। उन सितारा मन के आचरण, बेवहार अउ उन्नति ल देखके।’
ओतके म मोला अपन पढ़ई जिनगी के एक ठो बात सुरता आगे। कहूँ सुने रहेवँ कि कोनो लइका अपन दाई-ददा ल आदर्स नइ मानके दूसर ल आदर्स काबर मानथे ? फेर उही एकर जुवाब तको देहे रिहिस हवय - ‘काबर कि हम अपन लइका के आगू वोइसन आदर्स नइ परोस सकन।’
तब मैं अपन आप ल धन्य माने लगेवँं। गरब म मोर छाती फूलके चऊँक-चाकर होगे।
आज ये जानके कि मोर लइका मोरे फेन हे, मैं ओकर फेन होगेंवँ।
धर्मेन्द्र निर्मल
ग्राम कुरूद, पोस्ट एसीसी जामुल
तहसील भिलाईनगर जिला दुर्ग छग
पिन 490024
9406096346
समीक्षा
[3/23, 10:55 AM] पोखनलाल जायसवाल:
जिनगी म कखरो ले कहे हमर कोनो गोठ-बात ओकर मन के कोनो कोनटा म कब माढ़ जही? कहे नइ जा सकय। एकरे सेती हम ल बड़ सावचेत होके बात कहना चाही। अइसे भी कहे गे हे- बातन हाथी पाइए, बातन हाथी पाॅंव। माने कोनो भी बात ल बड़ सोच विचार के कहना चाही। नइ तो ले के बलदा दे ल पर सकथे। कखरो दिल दुखे के लइक बात ह एक कोती मनखे ल भीतरे-भीतर करोवत रहिथे, त दूसर कोती ओकर मन म बैर भाव ह भभकत रहिथे अउ बखत परे लावा बनके उफने लगथे। कोन बात कोन ल चुभ जही कौनो ल पता नइ चले। इही च भाॅंप के रहीम जी कहे हें- ऐसी वाणी बोलिए, मन का आपा खोय।
औरन को शीतल करे, आपहु शीतल होय।।
अउ कहूॅं हमर बात लोगन के सीख के लइक हे, प्रेरणा के लइक हे। जिनगी सॅंवारे के लइक हे, त वो बात मनखे बर वरदान साबित हो जथे। ओकर अंतस् म हमाय निराशा के ॲंधियारी बर काल बन जथे। मनखे नवा उछाह अउ ऊर्जा ले भर जथे। जिनगी जिए के सार ल पा लेथे।
अभी के बेरा अतेक भटकाव के होगे हे कि नवा पीढ़ी बर संगत के चुनई बड़ मुश्किल बुता होगे हे। अइसन म दाई ददा ल अपन लइका ले मित्रवत बेवहार रखे के जरुरत हे। तभे तो मन के दुविधा ल बड़ सहज भाव ले रख पाही। बहुत अकन जिनिस जिनगी म बेवहार म कब समा जथे, मनखे गम नइ पावय। इही ह तो संस्कार आय। इही सब बात के परछो करावत हे- पूत के पाॅंव कहानी।
छोटे से दैनिक घटना जउन आय दिन हम ल गली खोर म दिख जथे। उहाॅं ले जिनगी के दिशा कइसे बदलथे अउ बदले जा सकथे ए कहानी ओकर प्रमाण आय। जब तक मनखे के भीतर डर समाय रहिथे, सच म वो कुछु च करे नइ सकय। सबो ऊर्जा डर म सिरा जथे। फेर डर ल जीते बर सिखाने वाला मिलगे त जिनगी भर कदम कभू थमे के नाव नइ लय। आगू बढ़तेच जाथे। लक्ष्य तीसरी कक्षा के उमर म अपन बाप ले अइसन हिम्मत पाइस कि अपन भीतर डर ल खोभन नइ दिस, जड़ जमावन नइ दिस अउ गणित ले पार पावत आज इंजीनियरिंग करे बर जावत हे।
ए कहानी यहू मामला प्रेरक कहे जा सकत हे कि दाई ददा अपन लइका के आदर्श बने के कोशिश करयॅं। दाई ददा अउ लइका एक दूसर के पूरक बनयॅं। एकर ले पारिवारिक जुड़ाव ल मजबूती घलव मिलही। कहानीकार के यहू एक ठन उद्देश्य हे।
कहानी आदर्श अउ प्रेरणा के मिशाल हे। भाषा शैली प्रभावी हे। हाना मुहावरा मन के प्रयोग सटीक हे। कोन जनी काबर ते, कहानीकार 'श' वर्ण के प्रयोग ले हिचकत हें? अइसे लगिस।
एक अच्छा कहानी पढ़वाय खातिर कहानीकार धर्मेंद्र निर्मल जी ल बधाई💐🌹🙏
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