Thursday 23 May 2024

छत्तीसगगढ़ी कविता मा गरमी के मौसम"

 "छत्तीसगगढ़ी कविता मा गरमी के मौसम"



                    धरती सूरज के सरलग चक्कर लगाथे, जेखर ले ऋतु परिवर्तन समय समय मा होवत रहिथे। ऋतु मुख्य रूप ले तीन प्रकार के होथे- वर्षा, शीत अउ गरमी। बरसा के रिमझिम फुहार अउ शीत के कनकनवात जाड़, मन ला भाबेच करथे, फेर गरमी के घाम,  हाय!राम; कोनो ल चिटिको बने नइ लगे, काबर कि चटाचट जरत भुइयाँ, ताते तात चलत झाँझ झोला, धुर्रा धरके दंदोरत बँरोड़ा, दहकत घर-बन, अँउटत नदिया तरिया के पानी, लाहकत जीव जंतु, सरलग सुखावत टोंटा, दरिया बरोबर बहत पछीना, घाम मा करियावत चाम, अइलावत पेड़ पात, सब के चैन सुख ल छीन लेथे। गर्मी मा चाम का जंगल के जंगल तको भभकत दिखथे, जे बड़ दुखदाई लगथे। पर जइसे बरसा, जाड़ जरूरी हे वइसने गरमी तको जरूरी हे, अउ गर्मी हे कहिके, काम बूता छोड़के, घरेच मा तको नइ बइठे जा सके। अइसन मा चाहे कोनो होय अपन अपन हिसाब ले जोरा जांगी करत, ये बेर ला काटे के कोशिस करथें। कोनो पेड़ पात के छाँव मा मन ला मड़ा लेथे, ता कोनो ठौर ठिहा भीतर एसी फ्रीज कूलर पंखा के बीच गरमी ला भगाये के उदिम करथें। कोनो कोनो ला तो छाँव-गाँव तको नसीब नइ होय, अइसन मा घाम मा तपना उंखर मजबूरी हो जथे। सजा के संग गर्मी मा बर बिहाव,परब तिहार अउ गर्मी छुट्टी के मजा घलो रथे। ठंडा ठंडा बरफ गोला, आमा के पना, बेल के सरबत, ककड़ी, खीरा कलिंदर, करसा के जुड़ पानी, जघा जघा खुले पियाउ घर, जुड़ छाँव गरमी मा बड़ राहत देथे। ये समय चिरई चिरगुन अउ कतको छोटे बड़े जीव जानवर मन पानी खोजत दिखथे। नाना प्रकार के दृश्य गर्मी मा देखे बर मिलथे, कवि मन के कलम ले कुछु भी चीज नइ छूटे हे, अइसन मा भला गरमी के मौसम के दृश्य कइसे छूट सकथे। गरमी के का का रूप के चित्रण कवि मन करे हे, आवन ओखरे कुछ बानगी देखन-------


                     *पानी जिनगानी आय, फेर जेठ बैसाख घरी सुरुज देवता सपर सपर पानी ल पीयइच बूता करथे, ये कारण कुँवा, बावली, तरिया, नदिया के पानी सूखा जथे, भुइयाँ के जल स्तर गिरे ले  कुँवा ,नल,बोरिंग दाँत ल निपोर देथे, ते पाय के गर्मी म चारो कोती  पानी के बिकराल समस्या हो जथे, उही सब ल शब्द देवत रघुवीर अग्रवाल पथिक  जी मन लिखथें----*

तरिया नरवा निचट सुखाय

कुँआ काकरो काम न आय

पानी बर दस कोस जवई

नल बोरिंग मा देख लड़ई।

चारों खूँट अड़बड़ करलई

जेठ अउर बइसाख अवई।


                  *भरे गर्मी मा किसान मन लकड़ी फाटा अउ खातू माटी लाय लेजे के काम करथें, इती मदरसा के छुट्टी हो जथे। पियासे बर करसा के जुड़ पानी अमृत बरोबर लगथे। तेखरे सेती पानी पियई बड़ पुण्य के काम होथे, इही सब बात ल सँघेरत दानेश्वर शर्मा  जी मन लिखथें------*

गाड़ा रेंगिस धरसा म, छुट्टी सबो मदरसा म

कोनो पियास मरँय, अमरित भर दव करसा म

डोकरी दाई कुँवा पार म, हर-हर गंगा कहिके नहाय

गरमी के दिन ह कइसे पहाय, मँझनिया कुहरय, संझौती भाय।।


                    *गर्मी मा तन ले तरतर सरलग पछीना झरथे, अइसन मा जादा पानी मनखे मन ला पीना पड़थे, पानी के कमी होय ले सेहत बिगड़ जाथे, इही बात ल श्यामलाल चतुर्वेदी जी मन  अपन कविता मा लिखथें-----*

तर तर गर्रउहा पानी कस, पलपल निकलय पसीना।

ओव्हर हालिंग होवत हे, परथे पानी पीना।।


                *जेठ बैसाख आगी अँगरा बरोबर बरसत घाम मा, जब सुखियार अउ बड़का आदमी मन घर मा खुसरे रथे, ता भले चाम जर भूँजा जाय फेर अकरस नांगर जोतत किसान अपन खेत म डंटे दिखथे। बनिहार, मजदूर किसान बर का जेठ अउ का आसाड़, बारो महीना बरदानी बरोबर अपन बूता काम म लगे रथे, चाहे चाम जरे या घूरे, इही ल देखत जनकवि लक्ष्मण मस्तुरिया  जी लिखथें---*

आगी अँगरा बरोबर घाम बरसत हे

जेठ बैसाख तपे भारी घाम।

अकरस के नाँगर तपो डारे चाम।।


                         *जेठ बैसाख के महीना मा सुरुज के ताप बड़ बाढ़े रथे, मनखे संग छोटे बड़े सबे जीव जंतु तको ये बेरा मा लाहके बर धर लेथे।जुड़ छाँव अउ जुड़ पानी बर सबे ललावत दिखथे, तभे तो उधोराम झखमार जी मन लिखथें--------*

सरी मँझनिया झाँझ सुरेरे, डारे सुरुज के रिस ल।

गाय गरू तब छैंहा खोजे, भंइसा खोजे चिखला।

कोल्हिया कुकुर हँफरत भागे, जीभ निकाले यहा लाम।

हाय राम ! जेठ के ठड़ियाय घाम….


                    *जेठ महीना मा घर बन, गली खोर सबे कोती आगी लगे हे तइसे जनाथे, चारों मुड़ा रगरगावत घाम अइसे लगथे, जइसे ये महीना ह कोनो टोना जादू कर दे हे, मनखे तनखे सबके हालत पस्त दिखथे, इही बात ल दादुलाल जोशी "फरहद" जी मन लिखत कहिथें-----*

जेठ टोनहा रंग सोनहा, टोके कोनहा

गली म भुर्री बारे हे, चारों खूँट उजियारे हे।


                       *गर्मी मा जहाँ लगभग सबे परेशान रइथे, उहाँ पढ़इया लिखइया लइका मन गर्मी के छुट्टी पाके बड़ खुश रइथे, काबर की पढ़ाई लिखाई के झंझट नइ रहय अउ इती उती गाँव घूमे बर घलो मिलथे, संगे संग रंग रंग खेल अउ खाजी। इही सब ला अपन कलम मा उकेरत अरुण कुमार निगम जी मन लिखथें----*

 गरमी के छुट्टी मन भाथे। लइका मन ला नँगत सुहाथे।।

नइये पढ़े लिखे के झंझट। नइये गुरुजी मन के खटखट।।

मिलथे ममा गाँव जाए बर। फुरसत खेले बर खाए बर।।

डुबकी मारव जा के तरिया। या तउरे बर जावव नदिया।।

कैरी तोड़ ममा घर लावव। नुनछुर्रा के मजा उड़ावव।।

अमली तोड़व खावव लाटा। गरमी ला कर दव जी टाटा।।


                    *जीवलेवा गर्मी मा जीव जंतु तो हलाकान रहिबे करथे, संगे संग पेड़ पात, तरिया नरवा, धरती आगास संग बिजना,पंखा,एसी फ्रीज सब मुँह ला फार देथे। सुक्खा तरिया, नदिया अउ दर्रा हने भुइयाँ, मुँह फार के पानी माँगत हे तैसे लगथे। अइसन सब दृश्य डॉ पीसी लाल यादव जी के ये कविता मा सहज दिखत हे----*

उकुल-बुकुल होगे जी परान,

घर - बाहिर म कुहर के मारे।

पटका - बिजना सबो धपोरे,

डोकरा-डोकरी मुँह ल फारे।।

दरगरा हनत धरती के तन,

पानी बर सब मुँह फारत हे।।

दाऊ बरोबर जेठ के सुरुज,

ऊसर-पुसर के दबकारत हे।


                  *बिकराल बाढ़े गर्मी  के दशा दिशा ल अनुभव करत अउ ओखर जीव जंतु, मनखे, पेड़ पौधा मा का असर पड़त हे, ते सब के संसो करत, काली का होही कहिके गुनत, चोवाराम वर्मा "बादल" जी मन लिखथें----*

तात भारी झाँझ झोला, देंह हा जरिजाय।

जीभ चटकय मुँह सुखावय,प्यास बड़ तड़फाय।

का असो अब मार डरही,काल बन बइसाख।

लेसही आगी लगाके, कर दिही का राख।


                 *शहरीकरण के चकाचौन्ध म अंधरा बने मनखे स्वारथ खातिर पेड़, प्रकृति के बाराहाल कर देहे, जघा जघा कांक्रीट बिछे दिखथे, रुख राई, छाँव,नदी नाला सबके गत बिगड़ गे हे, इही सब बात ल सँघेरत, चिंतन करत आशा देशमुख जी कहिथें----*

नदिया पटय जंगल कटय, कतका प्रदूषण बाढ़गे।

पथरा बिछत हे खेत मा, मिहनत तरी कुन माढ़गे।।

तरसे बटोही मन घलो, मिलही कहाँ जी छाँव अब।

शहरीकरण के लोभ मा ,करथें नकल सब गाँव अब।।


                   *खाई खजानी, फर जर कस साग भाजी घलो ऋतु के हिसाब ले सुहाथे। गरमी मा भाजी,कड़ही के का कहना,तभे तो राजेश चौहान जी के कविता के माध्यम ले डोकरा बबा डोकरी दाई ल कइथे-----*

बबा ल देख मसलहा नइ भावे, अमटहा खाय बर जीभ लमावै

तभे बूढ़ी दाई डुबकी हे राँधे, जीव लेवा लागत हे जेठ के झाँझे।


                   *घाम मा जुड़ जिनिस गजब सुहाथे चाहे वो खाय पिये के जिनिस होय या फेर घूमे फिरे के जघा। अउ वो जघा कहूँ नैनीताल जइसे बर्फिला होय ता का कहना। अइसने जघा मा घूमे बर जिद करत लइका अपन महतारी ला, बलदाऊ राम साहू जी के कविता के माध्यम ले काहत हे-----*

गरमी मा होगेन बेहाल, आँखी हर होगे हे लाल।

पापा ला तैं कहिदे मम्मी, एसो जाबो नैनीताल।।


                      *बैसाख जेठ महीना मा जब सुरुज के तेज कहर ढाथे, ता परब तिहार के लहर सुकुन तको देथे, कतको अकन दिवस गर्मी मा मनाए जाथे, उही ल गिनावत गजानन्द पात्रे जी कहिथे-----*

नाम पड़े बैसाख, विशाखा शुभ नक्षत्रा।

सिक्ख धर्म नव वर्ष, बताये नानक पत्रा।।

जन्मदिवस सिद्धार्थ, धर्म जन बौद्ध मनाये।

भीम राव साहेब, जन्मदिन पावन आये।।

गुरु जी बालकदास के, दिवस शहादत त्रास के।

अमरदास गुरु जन्म भी, बेटा जे घासीदास के।।

परब पड़े एकादशी, उपवास रखे निर्जला।

पूजा गंगा दशहरा, पड़े सावित्री व्रत घला।।


               *वइसे तो हमर राज मा बासी बारो महीना खवइया मन खाथें, तभो गरमी मा बासी,गोंदली अउ चटनी के अलगे मजा हे, उहू मा खीरा ककड़ी, जरी, बरी मिल जाये ता का कहना, तभे तो सुनील शर्मा नील जी लिखथे----*

खावव संगी रोजदिन, बोरे बासी आप |

देवय बढ़िया ताजगी, मेटय तन के ताप ||

मेटय तन के ताप, संग मा साग जरी के |

भाथे अड़बड़ स्वाद, गोंदली चना तरी के ||

खीरा चटनी संग, मजा ला खूब उडा़वव |

पीजा दोसा छोड़, आज ले बासी खावव ||

              

                  *सुरुज के तेज, जीव जंतु अउ मनखे मन ला तरसाथे ता रुख राई ले मिलइया किसम किसम के फर, जर जिवरा ला ललचाथे। गरमी के फल फूल बरत आगी बरोबर घाम मा मनखे मन ल ठंढक अउ ताकत देथे, चाहे वो खीरा ,ककड़ी,कलिंदर, कांदा, कुसा, आमा, अमली,जामुन, बेल,कैत, चार ,तेंदू कुछु भी होय,अइसने सुवाद के एक गीत मोरो कलम ले लिखाये हे-----*

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।

रंग रूप अउ स्वाद देख सुन, लड्डू फूटय मन मा।।

पिकरी गंगाअमली आमा, कैत बेल फर डूमर।

जोत्था जोत्था छींद देख के, तन मन जाथें झूमर।।

झुलत कोकवानी अमली हा, डारे खलल लगन मा।

किसम किसम के फर बड़ निकले, घाम घरी घर बन मा।


           *"कहे जाथे कि जहां न पहुँचे रवि उहाँ पहुँचे कवि" अउ सिरतों घलो ए, अइसन मा सबें कवि मन के कविता के गर्मी विशेष  बानगी, एक आलेख मा दे पाना सम्भव नइहे। गर्मी के घाम, काम-बूता,फर- फूल, कांदा- कुशा, खेल- खाजी, घूमई-फिरई, पेड़-प्रकृति,आगी-पानी, जीव-जंतु, कुँवा-तरिया, नदिया- नरवा, डहर-बाट, खेत-खार, धरसा-करसा,पंखा-कूलर,परब-तिहार, ये सब के आलावा अउ कतकोन विषय मा कवि मन कलम चलाए हें। जेमा के कुछ उदाहरण ला सँघेरे के प्रयास करे हँव। आशा हे कि ये आलेख मा सँघरे जम्मों कवि मन के पूरा कविता ल पढ़े के उदिम पाठक मन करही।  ता लेवव, कवि मन के कविता के संग "गर्मी के मजा", फेर पानी बचाए अउ पियासे जीव जंतु मन ला पानी पियाय के पबरित काम ला करते चलव।  पेड़ प्रकृति ही पर्यावरण के आधार आय ओखर क्षरण ऋतु के अनियमितता( कम या फेर अधिकता) के कारण बनथे, ये सब ले बचे बर जागरूक होके सब ला पर्यावरण संरक्षण कोती ध्यान देना चाही, तभे समय मा, बरोबर सब ऋतु आही अउ मन ला भाही।* 

जय जोहार


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)

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