Thursday 26 October 2023

ये दुनिया की रस्म है , इसे मुहब्बत न समझ लेना

 ये दुनिया की रस्म है , इसे मुहब्बत न समझ लेना

                   मेंहा सोंचव के तुलसीदास घला बिचित्र मनखे आय । उटपुटांग , “ भय बिनु होई न प्रीति “ , लिख के निकलगे । कन्हो काकरो ले , डर्रा के , प्रेम करही गा तेमा ...... ? लिखने वाला लिख दिस अऊ अमर घला होगे । मेहा बिश्लेषण म लग गेंव ।  

                  सुसइटी म चऊँर बर , लइन लगे रहय । पछीना ले तरबतर मनखे मन , गरमी के मारे , तहल बितल होवत रहय । सुसइटी के सेल्समेन , खाये के बेरा होगे कहिके , सटर ला गिरावत रहय , तइसने म खक्खू भइया पहुँचगे । गिरत सटर अपने अपन उठगे , खक्खू भइया के चऊँर तऊलागे , पइसा घला नइ दिस । सेल्समेन के चेहरा म , दर्दीला मुस्कान दिखत रहय । भइया ला शरबत घला पियइस । ओकर जाये के पाछू , दुकान के कूलर म टिप टिप ले पानी भराये के बावजूद , हावा गरम गरम फेंके लगिस । सेल्समेन के देंहे , पइसा के भरपाई हिसाबत , पछीना पछीना होगे । लइन म लगे मनखे मनले घला , बिरोध के कन्हो स्वर सुनई नइ दिस बलकि , जम्मो झिन भइया ला हाथ जोर के , नमस्कार तक करिन । ओकर जाये के पाछू , सेल्समेन ला , तैं बिगन लइन लगे कंन्हो ला रासन कइसे दे कहिके बखानिन ..... अऊ अइसन रासन लेगइया बर घला बुड़बुड़इन । यहू तिर , भय दिखिस , फेर पिरीत नइ दिखीस ।

                   मोर गाँव के एक झिन मनखे , अतेक सुंदर लिखय के , ओकर रचना जब छपय , बिगन पढ़हे , ओकर संगवारी मन , बहुत सुंदर रचना , बधई हो , अइसे कहय । में सोंचेव , मोरो कभू कभार छपथे , एको झिन बने हाबे नइ कहय । पाछू पता चलिस के , ओकर जम्मो संगवारी मन ओकर ले डर्राथे अऊ उही डर के मारे , बहुत सुंदर रचना कहत , बधई पठो देथे । फेर मोला लागथे , येमा प्रेम कती तिर उपजिस होही ..... ? खैर , बात अइस गिस निपटगे । 

                    लइका के जाति प्रमाण पत्र बर , कतेक दिन होगे रहय , तहसील दफ्तर के चक्कर काटत । बाबू ते बाबू , अर्दली तक ला खवा पिया डरे रहँव । एक दिन तमतमाके आपिस पहुँचेंव , बाबू साहेब ला खिसियाहूँ सोंचेंव । अर्दली मोला बाहिर म छेंक दिस । थोकिन बेर म एक झिन ननजतिया अइस , बिगन रोक छेंक , खुसरिस । आधा घंटा म , हाथों हाथ लइका के जाति प्रमाण पत्र धरके निकल गिस । अर्दली हा आये जाये के दुनो बेरा म नमस्कार ठोंकिस , फेर थोकिन दुरिहइस तहन , फोकट राम कहिके , बखानिस । तुलसीदास जी के , भय बिनु होई न प्रीति , यहू तिर फेल होगे । 

                    तुलसीदास के चौपाई गलत होही त , लोगन येला पढ़थेच काबर । मोर दिमाग चले लइक नइ रहिगे ... तभे चुनाव के घोषणा होगे । बड़े बड़े मनसे मन , नान नान , चाँटी फाँफाँ चिरई चिरगुन कस मनखे मनले , अतेक प्रेम करे लगगे के , ओकर प्रेम गाड़ा म नइ हमावत रहय । नानुक बइगा घर के छट्ठी , पहटिया घर के काठी , रेजा घर के बिहाव , मिस्त्री घर के कथा पूजा , बढ़ई घर के रमायन , चपरासी के लइका के जनम दिन , कोटवार घर के जवारा , कहींच नइ छूटत रहय । इहाँ तक प्रेम उमड़गे रहय के , काकर घर काये होने वाला हे , जेमा जाके , प्रेम बाँट सकन , तेकर तैयारी एडवांस म होये लगगे । कोन ला काये बात के कमी हे अऊ काकर तिर काये बिपदा हे तेला दुरिहाये बर  , एसी म रहवइया बपरा मन , गाँव गाँव , गली गली , जंगल जंगल , धूप छाँव ला झेलत किंजरत रहय । ऊँकर प्रेम के गहराई म .. सागर उथला परगे । उदुपले अतेक प्रेम पाके , मनखे के सुकुरदुम हो जाना स्वाभाविक हे । इही बेरा म , तुलसीदास जी के चौपाई के अर्थ मिलगे । में जान डरेंव तुलसीदास इही बेरा बर लिखे रिहीस होही । चुनाव लकठियागे ... खुरसी बचाना या खुरसी पाना हे । खुरसी गँवाये के या खुरसी तक नइ पहुंच सके के डर हा , बड़का मनखे मन के हिरदे म , अतेक प्रेम भर दिस के , तुलसीदास के चौपाई , अक्षरसह सच होगे के , भय बिनु होई न प्रीति .......। छत्तीसागढ़िया का जानय अइसन फरेबी प्रेम ला । प्रेम देवइया अपन मतलब साध के , भेंट लागत , अपन बात कहत , धीरे से मसक दिस –

महफिल में गले मिल के , वो धीरे से कह गए । 

ये दुनिया की रस्म है , इसे मुहब्बत न समझ लेना । 

हरिशंकर गजानंद देवांगन , छुरा .

छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - पंडाल सजाए चंडाल

 छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - पंडाल सजाए चंडाल

उप्पर वाले हँ एसो अइसे झमाझम मया बरसइस के भूइँया के संगे-संग तन-मन-धन सबो के मइल धोवा-बोहागे। 

‘छकछक-ले’ धोवाए-ओगराए मन म ‘भकभक-ले’ धरम के बिरवा फूटगे। कुंवार म ‘चकचक-ले’ देवी दर्शन के चुलुक ‘खबखब-ले’ ठढ़ियागे।

‘धन-दोगानी के बाढे ले साध अउ साधन दूनों के गुटानी-फुटानी बाढ़ जथे।’

अइसे साध अउ साधन दूनों के साँठगाँठ होए ले ही धरम के रद्दा पोठ होथे।

साध अउ साधन के अगिनकुंड म कहूँ सुविधा अउ सहयोग के समिधा मिलगे ताहेन मनखे के मुक्ति म कोनो दुविधा-बाधा के युक्ति काम नइ आवय।

साध ल धर-पोटार फटफटिया उठाके हम चलेन सहर कोति। अभीन के समे म शहर के देवीमन सँऊहत, जागरित अउ अबड़े फुरमानुक होथे कहिथे। जाके फटफटी ल खड़ा भर करे पाए रहेन, दूझिन कुंवारामुँहा टुरामन कुँवरहा कुकुर टाइप लाहकत लार बोहावत तीर म आगे। उन लाल-पिंयर परची के जीभ ल लमावत-हँफरत कहिन- ‘गाड़ी स्टेण्ड के परची कटा।’

‘गाड़ी स्टेण्ड के परची।’ हम अकबकाए-बकबकाए पूछेन-‘गाड़ी स्टेण्ड के का-कइसन परची भाई ?’

‘तुँहर देवी दर्शन के करत ले गाड़ी के रखवारी कोन करही ?’

‘रखवारी के का जरूरत हे ?’

‘निच्चट कोड़हा-भूँसा कस भोकवा हस यार। तुमन ओति देवी दर्शन म भुलाए रहू अऊ एति गाड़ी ल कोनो लेगे त ?’

‘अरे ! अइसे कइसे ले जही जी। सबो दर्शन खातिर आए हे। इहाँ कोन गाड़ी के पीछू परे रहिही भई।’

‘श्रद्धालुमन सब दर्शन करे म भुलाए रहिथे, चोर-ढोरमन ल थोरे दर्शन-वर्शन से मतलब रहिथे। हम ये मेरन फोकट छाप काबर खडे हन ?’

मोर ‘ठकठक-ले’ खलपट्टा मन म ‘खटखट-ले’ खपटहा विचार ‘खलबल-ले’ खलबलइस- ‘ सोला आना सही बात। ये मन काबर खड़े हे ?’

मोला उन्कर मन के लुटलुट करत खड़े होए के कारण समझ म आ गे।

कउव्वाके दूठिन गुटका के पइसा वो कुंवरहामन ल देके फटफटी के परची कटाएन। फटफटी के ‘फटफट-ले’ जी छोड़ाके आगू बढ़ेन। 

अतका भीड़ कि मुड़ी-पूछी के चिन्हारी नइ रहय।

उहाँ शिवजी के बराती बरोबर एक ले बढ़के एक जीव रिहिसे। गेंड़ी कस ‘ढंगढंग-ले’ दू पाँव के रहिते मन से विकलांग। ‘बटबट-ले’ बड़े-बड़े आँखी के रहिते देखब के अँधरा, नीयत के निच्चट खोटहा अउ अबड़े छोटे आँखी के मनखे। तन व्हाइट सीमेण्ट म पोते कस ‘फकफक-ले’ ओग्गर अउ मन केरवस कस निच्चट बिरबिट करिया-कलमुँहा। किसम-किसम के सुरहा-बैसुरहा मनखे गा, अब काला बताववँ। सुर-असुर, सरग-नरक के दर्शन करे बर होवय त अइसेनेहे परब म निकलै।

देवी के सुन्दर अउ सुग्घर रूप के दर्शन खातिर सुर म जस गीत गावत मनुज तुल्य कुछ असुर-बैसुर। देवी के अँगना म नाचत इतरावत झूमत गावत रिझावत मनखे तुल्य लंगुर, सबो पधारे राहय।  

ओइसनेहे शहर के देवी मन तको सजे-सँवरे मार लकलक-लकलक, चमचम-चमचम, छमछम-छमछम करत बरत-झूपत रहय। 

भीड़ ल कइसनो करके चीरत पंडाल के तीर म पहुँचेन। उहाँ जाके देखेन, पंडाल के बाहिरे म दुवार तक जाए बर अबड़े लंबा लाइन। रस्ता अबड़े घुमावदार रिहिस। ‘चमचल-ले’ बाँस बल्ली बँधाए टेड़गा-बेड़गा साँप सहिन घूम के दुवारी तक पहुँचे रहय। जम्मो मनखे जिनावर उहाँ ओरी-ओरी एक के पीछू एक लगे राहय। हमू सबके पीछू ल धर लेन। मुड़ी ल पेलत घुसरे लगेन। वो मेरन सेऊक बने दू झिन ‘बन के रक्सा’ बइठे रहय। वो बन के रक्सामन रद्दा म बाँस के अड़ंगा लगाए रहय। भगत अउ साऊ-सिधवा मनखे मन बर हरेक जगा अड़ँगा लगे रहिथे। वो अडँगा नइ होवय भलकुन भगत मन के भक्ति के परीक्षा होथे। वो ‘बन के रक्सा’ मन हमन ल देखके अड़ँगा डारत कहिस-

‘टिकिट देखाओ जी।’

हम सकपका गेन, पूछेन -‘वो कहाँ मिलत हे भाई।’

‘वो देख, सोझ आगू म मिलत हे’ - वो हँ अंगरी देखावत कहिस।

हम कहेन - ‘वो मेरन तो कटोरा धरे भीखमँगा मन लाइन से बइठे हे।‘

वो कहिस - ‘अरे कटोरा नहीं रे भइया। कागज के परची धरे बइठे हे।’ 

भीखमँगा तको अलग-अलग किसम के होथे, ये आज जानेन।

ओकर बताए जगा म जाके देखेन ? उहों दू किसम के टिकट। एक शुध्द भक्तमन बर दूसर अशुध्द भक्त मन बर। शुध्द भक्त मन के टिकट 100-रू. अशुध्द भक्त मन के 10 रू.। टिकट बेचइया मन संतशिरोमणि-निर्माही महात्मा बरोबर परमभक्त स्वरूप रहय। जब हम उन्कर ले देवी दर्शन खातिर टिकट के कारण जानना चाहेन। अउ पूछ परेन कि दस रूपिया वाले मन ल देवी नान्हे अउ सौ रूपिया वाले मन ल विराट रूप देखाही का ? त उन ‘रज्झ-ले’ सोज्झे-सोझ कहिस-

‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दर्शन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे तब जाके कृपा बरसथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दर्शन दे देही, त अतेक रचे-रूचाए बसे-बसाए माया के का महानता अऊ महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोझ-सहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक सजे-सुजाए पंडाल, चंडाली भरे भक्तिभाव अउ विग्यापन भरे दुकानी के का होही। ये गूढ़ रहस्य ल तुम निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। अरे ! समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’

‘हम उन परमपुरूषमन के अमृतबानी ले परमग्यान के रसपान करके धन्यवाद देवत आगू बढ़ गेन।

टिकट ल तीन-चार परत मोड़-चिमोटके धरे, हम अपन पारी के बाट जोहत लाइन म खड़ा होगेन। हमन ला खड़े-खड़े आधा ले एक घंटा होगे। पारी आएच् नइ रहय। जी कऊव्वागे रहय। हमर घुसरे के दुवारी के बाजू म शुध्द भक्त मन के घुसरे बर अलग दूवारी बने रहय। शुद्ध भक्तमन ल पारी लगाके बाट जोहे के जरूरते नइ परय। उन आवय अउ ‘बुलुंग-ले’ बुलक के भीतर घुसर जाय। हम हालत-डोलत धकर-धकर करत खड़े बोटोर-बोटोर देखते रहन।

ओतके बेरा मोला उन सिद्धपुरूषमन के संतवाणी सुरता आ गे -‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दर्शन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे तब जाके कृपा बरसथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दर्शन दे देही, त अतेक रचे-रूचाए बसे-बसाए माया के का महानता अऊ महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोझ-सहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक सजे-सुजाए पंडाल, चंडाली भरे भक्तिभाव अउ विग्यापन भरे दुकानी के का होही। ये गूढ़ रहस्य ल तुम निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। अरे ! समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’


हमर घुसरे के दुवारी मेरन एक ठो बडे जनिक रक्सा के मुड़ी बने रहय। वो रक्सा के मुड़ी हँ अपने-अपन अबड़े जोर-जोर से हाँसत राहय।

हम मुँह फारे सोचत ओला बोक-बाय देखते रहिगेन।

हमर मुँह फारे सोचई-गुनई अऊ मुँह फारके जम्हावत पारी के बाट जोहई ल देखके घेरी-बेरी वो सरलग हाँसत रहय- ही ही हा हा। ही ही हा हा। ओकर अपने-अपन हँसई ल देखके एक झन नानचिन नोनी अपन ददा ल पूछे लगिस-

‘ये घेरी-बेरी अपने-अपन काबर हाँसथे ददा ?’

ओखर ददा कहिस -‘हमन अपन घर के सँऊहत देवी-देवता, दाई-ददा के सेवई-पुजई ल छोड़के अपन मिहनत के कमई ल कागज के कटोरा धरे इन खखाए-भुखाए रक्सा मन के भूख मड़ाए बर फोकटइहा फेंकत हन तेकर सेति हाँसत हे बेटी। एहँ हमर शुद्ध अंधभक्ति, मूर्खता अउ गँवारी ऊपर हाँसत हे।’

ओतके बेरा शुद्ध भगत मन के ओरी म खड़े एक झिन शुद्ध भगत पिला हँ तको अपन ददा ल पूछ परिस - ‘ये घेरी-बेरी अपने-अपन काबर हाँसथे डैड ?’

वो मनखे के बुद्धि तो भ्रष्टाचार म भ्रस्ट होगे रहय। विकास के चक्कर म हँफर-हँफर के दँऊडत, एण्ड-बेण्ड करत वोहँ धरम के डेडलाइन ल पार कर डारे रहय, त का जुवाब देवय बिचारा हँ।

ओकर बगल म खड़े गरीब, गँवार अउ गदहा टाइप दिखत एक झिन दादाजी कहिस - ‘हमर फोकट अउ चंडाली के कमई हँ थैली म बोजाए-बोजाए अकबका-बकबका जथे। वो अकबकई-बकबकई म हमन झन अकबका-बकबका जावन कहिके वोला पंडाल के चंडाल मन ऊपर चढ़ावा चढ़ाथन तेकर सेति हाँसत हे मोर बच्चा ! एहँ हमर अशुद्ध महानता, मक्कारी अउ अहम-गरब भरे फुटहा करम ऊपर हाँसत हे।’ 

उन्कर रोंठ-पोठ ग्यान-गोठ ल सुनके मोर अंतस के कुकरा जाग गे। बाँग देवत कहिस  -‘सिरतोन काहत हे रे येमन हँ, अब तो चेत रे मूरख के दमांद।’

कइसनो करके गिरत-अपटत झाँकी देखत दाई के दर्शन करेन। बाहिर निकलके देखेन भंडारा लगे रहय। काँही बूता बर भले पीछुवा जावन, फेर खाए के नाम हमन अगुवा रहिथन। येहँ हमर भारतीय सोच, संस्कार अउ सभ्यता के परम पुनीत पहिचान अउ प्रमाण हरे। हम उही कोति दऊड़ गेन। 

उहाँ जाके देखेन उहों मार मरे-जियो चिथो-चिथो माते रहय। कोनो कहय - हमू तो चंदा दे हन, हमला पहिली दे। कोनो कहय -हमर बेटा वालन्टियर हे। त कोनो हँ खिसियावत रहय - ‘हमर चंदा के चरन्नी के पुरति नइहे अतका खिचरी हँ।’

चोरो-बोरो चींव-चाँव ल सुनके एक कोंटा म हमू मुड़-कान ल पेलत घुसर गेन। ऊहाँ का देखथन - बँटइयामन मनखे चिन्ह-चिन्ह के खिचरी बाँटत हे। बने-बने मनखे ल बला-बलाके उन्कर टिफिन-डब्बा, कटोरा, बाँगा म भरत रहय अऊ हमर असन निजोर, भूखाय अउ लचार मनखे मन ल धुत्कार के भगा देवय। हम सोच म परगेन। यहा काय-कइसन धरम ये गा ? जिहाँ भरे पेट ल मरत ले खवावत हे अऊ भूखन ल भगावत हे।

मोर कान म फेर वो संतवाणी गूँजे लगिस -‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दर्शन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे तब जाके कृपा बरसथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दर्शन दे देही, त अतेक रचे-रूचाए बसे-बसाए माया के का महानता अऊ महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोझ-सहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक सजे-सुजाए पंडाल, चंडाली भरे भक्तिभाव अउ विग्यापन भरे दुकानी के का होही। ये गूढ़ रहस्य ल तुम निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। अरे ! समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’

हम फेर एक बेर मुँह फारे सोचते रहि गेन। मैं कान ल धरत बुड़बुडाएवँ - ‘ये पंडाल ले दूसर पंडाल अब जाबेच् नइ करवँ।’

धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

छत्तीसगढ़ी व्यंगय - फेसबुक, वाट्सएप, कवि अउ कवितई

 छत्तीसगढ़ी व्यंगय - फेसबुक, वाट्सएप, कवि अउ कवितई

आजकल फुसियाहा फेसबुक अउ कनटेटरा वाट्सएप हँ फुस्स-फुस्स फुसियाना अउ दाँत निपोरत ले खुशियाना  के सबले बड़का, पोठ अउ रोठ  आशियाना होगे हे। सस्ता, सरल, सहज, सबल अउ सुलभ तो हइच हे। अपन फेस के द्वेष-क्लेश, सरी ऐब ल चपक-दबा, छपक-छुपाके फ्लेश मार झकास-छपासके टेस मारना ही नवयुग के नवा समझदारी ये। समे के संग अपन थकहा कदम मिलाके चलना, जंगहा अउ कोचरे चेहरा म रंग चढ़ाके जमाना म रंग जमाए रहना ही असल अकलमंद के पहिचान हे। 

मैं ओइसनेहे सच्चा मरद किसम के बेदरद मरद हरौं। दूसर मन बरोबर रेचका, कुबरा अउ पंगुरहा दिमाक घुटना म नइ रखौं, भलकुन भूँसा भरे भेजा म गोबर खाद ले उपजे सौ टका टनाटन दिमाक रखे के भरम पाल रखथौं मैं। 

अतेक अगुन-निर्गुन अवगुन के रहिते अइसन कैशलेस ऐस ले महूँ काबर पीछू रहौं। झट एकठो एकाउण्ट बनाएवँ। अपन फुसियाहा, केरवस कस बिरबिट करिया-बिलवा फेस ल नवा लुक देके श्यामसुन्दर बना लेवँ। एक सुग्घर श्लोगन ढिलेवँ - ‘श्याम (करिया) तको जिनगी के एक रंग हरे’ अउ फेसबुक के हुक म लटकाके बुक कर देवँ। ‘जल्दी के काम शैतान के’ ये हाना हँ अबूझ, बयकूप अउ गँवार मन के बस्सावत मुँह ले झरके खेबड़ा थोथना म शोभा देवत होही। हमर तो ‘पहली आवव पहली पावव’ टाइप एके ठिन सिध्दांत हे - ‘पहिली पहुँचो पहिली खींचो, तेकर पीछु दूसर ल नेवतो। कोट -कोट ले खाए के मामला होवय, चाहे कुट-कुटले कुटाय के, सिंघ्दात बोले तो सिध्दांत।

उहाँ कतको लपरहा, चटरहा, चिटियाहा, चिपराहा टूरामन कवितई झाड़त मिलिन। हमर इहाँ बबा हँ डोकरी दाई ल हाना म गज्जब ताना मारय। ओला नान्हेपन म सुने रहवँ। तुक मिलावत-मिलावत महूँ गजब बड़ कवि होय के भरम पोसे-पाले अँटियावत बइठे रहेवँ। भड़ास निकाले के जगा पाके महूँ भड़ौनी गाए लगेवँ। अइसे तो मोर मन कविता के सघन वन हरे। एक ठिन विचार ल हलाथौं हजार कविता बरबर-बरबर झरे-बोहाए लगथे। एक ठन पेड़ ल हलाके एक कविता झर्राएवँ-


सजना/सज ना/जलन लगे/जल न लगे/जिया न परे/ जियान परे/ जीए बर/जीए जावत हौं/ ए जी ! ए जावत हौं/ ले सम्हाल।


नौसिखिया मनके फुल कमेंट मिलिस बॉस। घाघ मन तो जनमजात जलनकुकड़ा होथे। उन्कर मनके सदाबहार कैक्टस कभू ककरो बड़ई बर कोंवर होबे नइ करय। मैं अपन आप ल बिगबॉस समझे-जाने-माने म चिटको देरी नइ करेवँ। 

समझदार मनखे ल शुभ काम म देरी करना भी नइ चाही। 

जादा नहीं त कम से कम अतका समझदारी तो मोर तीर हावय। अइसे मैं जनम से समझदार हौं। कोनो बात के मतलब समझवँ चाहे झन समझवँं, फेर मतलब के हरेक बात त ‘फट्ट-ले’ समझ जाथवँ अउ ‘फट्ट-ले’ लपक लेथवँ। 

ओकर बाद मैं का नइ करेवँ -झन पूछ। तुम पूछेच नइ सकव। अउ पूछिहौच काबर जी - मोला बताए बर खुदे लकर्री छाए हे।

फेर का होइस ! कविता के नाम म उत्ता-धुर्रा चुटकुला पेले लगेवँ। हरे दाँव म ककरो कविता ल चोराके मोर ये कहिके ढील देवँ। 

बूता बड़े राहय कि छोटे राहय पूरा ताकत लगाए ले ही सफलता हाथ लगथे। ये गुण ल जंगल के असल राजा शेर ले सीखे हौं। तुमन मोर ले सीखौ। अइसन जऊन नइ कर सकय वोमन बिलई मौसी कस हाथ मलथे।

अइसने-वइसने करत-करत, लड़त-पेलत कतको झन के गारी-गुप्तार, उलाहना झेलेवँ। फेर हार नइ मानेवँ, ओला गला के हार बना लेवँ। मनखे ल सीखना चाही कि वो अपन कमजोरी ल ताकत बनावय, जइसे मैं बनाएवँ । नकटा पर गेवँ। सियान मन नकटा के नौ नाँगर कहिते वोला मही पसीना ओगारके बिसाए रहेवँ। 

कतको झिन कूटे बर घलो दऊड़ाइन-कुदाइन, महीं मेंछरावत भाग गेवँ। आखिर म मोर महाकवि तन, मन अउ कविता फेसबुक म बसियाए-फुसियाए लगिस। 

अतका अकड़म-बकड़म तिकड़म करके घलो फेसबुक के सहारा ककरो फेस तो फेस दिल ल तको बुक नइ कर सकेवँ। एकर ले बढ़के भला भोला-भाला, ईमानदार अउ सादा-सच्चा, सादा-नर्मदा, पावन-निर्मल मनखे होए के दूसर का प्रमाण हो सकथे ?

का -का उदीम-अतलंग नइ करेवँ। हफ्ता म दूदी पइत फेसियल कराएवँ। जिहाँ जाववँ सेल्फी लेववँ। सेल्फी के चक्कर म सेल्फिस होगेवँ। आखिर म टाँय-टाँय फिस्स होके रहिगेवँ। गत उही होइस जो सत हे। मछली जल के रानी हे, कतको धो बस्सानी हे।

फेसबुक म गदफद-पचपच ले फुसियाए-बसियाए के बाद बस्सावत वाट्सएप कोति भाग अजमाए बर भागेवँ। भाग भरोसा जीयइया-खवइया मनखे मनके आसरा-भरोसा गजब पोठ होथे। ये अलग बात हे कि ककरो भाग झोल-झोल ले पातर-पनियर त ककरो लदबद ले गाढ़ा अउ मोठ होथे। आसरा के मामला म मैं बिलकुल बिन पेंदी के ढुलमुलहा लोटा हौं। मतलब न एकदम रिंगी-चिंगी, पातर-पनियर हौं, न बने दमदम ले रोंठ, चमचम ले मोठ, न ठसठस ले पोठ हौं। 


हाँ, गोठ-गोठ बजूर हे। गोठ-गोठ माने गोट्ठू गिल्ली बरोबर -फोदल्ला। गोट्ठू गिल्ली माड़े म फदामा अउ मारे के बेरा छदामा। डिक्टो वइसनेहे मैं पोठ-पोठ, मोठ-मोठ, गोठ-गोठ भर म अँटियाथौं-सोंटियाथौं। असल बूता के बेरा करमछड़हा गोट्ठू-गिल्ली कस बोचक जथौं। ‘बात के बत्तु, काम के टरकू’ के नाम से मैं फेमिली म बचपन ले फेमस हौं। अइसे मनखे ल गोठ म कमी नइ करना चाही। बोचकना-बाचना तो बेरा-बखत के बात ये। काबर कि ’बात -बात म बात बनै, बात-बात म लात तनै’ कहे जाथे।

ये किसिम ले हुसियार मनखे ल घात लगाके बात के अघात करना चाही अउ जिनगी के खुसियार चुहक रसा ले लेना चाही। ‘जब पातर मुँह के छोकरी बात करे गंभीर त कुंदरू मुँह के छोकरा हर बात म भाला तीर’ काबर नइ कर सकत हे। कोनो ल आपत्ति होना भी नइ चाही।

कोनो कर भी देही तेन ल देखे जाही -साइड से।

वाट्सएप म देखेवँ, उहों एक ले बढ़के एक साहित्यकार ग्रुप बने हे। ‘जिन खोजा तिन पाइयाँ, भरे दाहरा बुड़’ नौसिखियामन पकर-पकर मारत रहय। चपर-चपर गोठियावत राहय। सठियाहा मन उन्कर लंदी-फंदी तुकबंदी के घेराबंदी-नाकाबंदी करत कविता मनके सटर-पटर म लगे रहय। उन्करो फटे म धीरे से अपन एक टाँग ल घुसेर देवँ। उप्परवाले जब टाँग दिए हे त ओकर सदुपयोग तो होना चाही न। टाँग ल टाँगके रखना बयकूप, डरपोकना अउ लिज्झड़ मन के काम ये। हम तो सीधा टाँग घुसेरे अउ अँड़ाए के काम करथन। सट्ट-ले कविता पेल देवँ -

मोर कमीज/बदतमीज/झाँके बोड्डी/देखे चड्डी/देखे बदतमीज/मोर कमीज


एमा घाघ, नौसिखिया, घाघ नौसिखिया अउ नौसिखिया घाघ सबो के कमेंट आइस, बड़े-बड़े इमोजी के संग। मोर एक झिन जुन्नेटहा नंगराहा, चड्डियाहा अउ जिंसयाहा संगी हे। नंगराहा ये सेति काबर के हमन जब ले नंगु-चंगु रहेन तब ले संगवारी हवन अउ चड्डियाहा ये सेति काबर के हमर जमाना म लंगोट नइ रिहिस, हम सीधा चड्डीधारी होएन। अब जिंस के जमाना आगे हे। भले जिंस मारके भी नंगु-चंगु के जमाना ले मन से जादा पंगु होगे हवन। इतिहासकार मन चाहय त हमर नाम ल चड्डीधारी गिरोह के प्रवर्तक के रूप म निस्संकोच स्वर्णाक्षर म लिख सकत हे।


वाह ! वाह !! गज्जब। - एक झिन चड्डीयाहा संगी लिखिस।

का बकथस यार ! - मैं होश म जोसियाएवँ।

अबे ! हर बखत फकत बकत नइ राहौं मैं। कभू-कभार मोर भूँकई ल घलो पतिया ले कर। - चड्डीयाहा चंगिया-जंगिया के कहिस।

मैं फूलके हाउसफुल होगेवँ।

मोर टें टें देख कतको झन के टाँय टाँय फिस्स होगे। साहित्य जगत तको कैक्टस के घनघोर जंगल कम नइ हे। दिखय भले नहीं,  इहाँ के निवासी मन जनम के कैराहा, खैटाहा, अनदेखना अउ जलनकुकड़ा होथे। हरेक परम आदरणीय के पेट म दाँत खचाखच भरे हावय।


ग्रुप म एक झिन ककामुँहा, गोल्लर टाइप, बंचक किसम के कवि रिहिस। वो अपन आप ल गजब बड़ समीक्षक समझै। वो अपन आप ल समीक्षक भर समझै, समीक्षा अउ कविता ल नइ समझै। अइसे कतको मनखे होथे जउन हर बात के मतलब समझथे फेर मतलब के बात नइ समझै। अइसे ये विसय म मैं गोल्उ मेडलिस्ट हववँ। 

वो मोर असन महाकवि के कविता म मीन मेख निकाले लगिस। एक दिन तड़ातड़ ताड़, झाड़के फाड़ देवँ -


कका ! कुकुर कर्कस कुँकियाए/केंवची-केंवची ल नोखियाए/कोंवर-कोंवर दबाए-खाए/पर ल बढ़त/देख न पाए/नीच/देखाए/रहि जाए/नीच।

कका समीक्षा तो समीक्षा कविता कहानी पढ़े-लिखे बर छोड़ दिस। सोचिस होही - ‘जा रे ! परलोकिया !! तोर जातरी आए हे तेला कोन काय करही ! अपन रूच भोजन पर रूच सिंगार ! धर अपन कविता, अपने मुँह म मार।’

मोला कुछू फरक नइ परिस। मैं तो एकला चलो म विश्वास करथौं। खाए के बेर अकेल्ला चलो, गँवाए के बेर पीछल्ला।

एक दिन अइसे आइस के मैं अपने ताने साहित्य जगत के जाने-माने गोल्लर होगेवँ। कोनो जानय-मानय के नही तेला नइ जानवँ, फेर मैंह जानत, मानत अउ तानत रहेवँ। ग्रुप म एक झिन चिपरीमुँहा टेटकी कवियित्री मिलिस जउन मोर कविता के गजब दीवानी होगे। वोकर खातिर अपन छप्पन इंची छाती म छिपे छुटकन दिल ले ए कविता पेलेवँ -


अबक तबक सबक 

चटक मटक फटक 

खटक सटक गटक 

चहक महक बहक 

रट फट चट पट 

खोल मन के पट

मत कर खटपट 

मत हट झट सट  

मामला फिट होगे। काम सलटे लगिस। काया पलटे लगिस। ओ दीवानी संग मोर जिनगानी के कहानी बनगे। ओकरे संग साइड गृहस्थी के सटर खुलगे। हम दूनो मिल ज्वाइंट एकाउण्ट खोल लेन। अब हम दूनों अपन अलग ग्रुप बना ले हवन, जेकर एडमिन मैं अउ चिपरी दूनो झिन हवन। ग्रुप बिंदास चलत हे। हमर कविता म सबो चेला-चपाटी मनके कमेंट आथे। हमन ककरो रचना म कमेंट नइ करन। हमर मन के बियाबान म उगे बंबरी के काँटा हँ हमन ल कमेण्ट करे बर रोकथे-थामथे। ग्रुप के सरगना होए के इही एक फायदा होथे। साहित्य म घलो घाघ होना कोनो साधना ले कम नइ होवय।

फेसबुक होय के वाट्सएप, मोला अपन कवितई से मतलब हे । आह रे फेसबुक ! वाह रे वाट्सएप !! फेसबुक अउ वाट्सअप म कवितई के अपन अलगे मजा हे दोस्त !

धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

बाबा बिल्होरन दास

 बाबा बिल्होरन दास

वीरेन्द्र सरल

पहिली हमर देश ह कृषि प्रधान रिहिस अब बाबा प्रधान होगे हावे। कहे के मतलब हे कि बाबा मन काबा-काबा  होगे हावे । अधर्मानन्द ले लेके निशर्मानन्द तक किसम- किसम के बाबा हमर चारो कोती अइसे चक्कर लगावत जइसे गुड़ के चारो कोती चांटा या चांटी । खांसे-खखारे के पहिली घला बने चेत लगा के आजू- बाजू ल देखना पड़थे, डर लागथे कहूँ  थूकत बेरा भोरहा म कोन्हों बाबा उप्पर  झन पड़ जाय,  नहीं ते  बाबा ह  गुसिया के श्राप दे दिही। खने-कोड़े के बेर घला ध्यान रखना पड़थे कि कोन्हों बाबा ह भुइयां भीतरी समाधि लगा के  बइठे तो नई होही?

मुख्य रूप ले बाबा मन के दु ठन बुता होथे। पहिली बुता प्रवचन झाड़ना अउ दूसर बुता दक्षिणा के हिसाब ले आशीर्वाद देना। एक दिन एक झन संगवारी ह बतावत रिहिस कि बाबा बिल्होरन दास ह दक्षिणा तो जमा के लिस फेर मोला सस्ता वाला आशीर्वाद थमा दिस तइसे लागथे। वोहा आशीर्वाद देवत कहे रिहिस कि जा तोर घर अन्न -धन्न, गौ - लक्ष्मी के भंडार भरही।  फेर आज ले मोर घर अन्न - धन तो नई आइस बल्कि धरे रहेव  तहू धन ह ओला दक्षिणा देवई म सिरागे। बने दक्षिणा नई देबे तब अइसने एन्टी आशीर्वाद देथे तइसे लागथे। 

बाबा बिल्होरन दास  के नावेच ह बड़ा गजब के हे। संगवारी के गोठ सुनके उंखर संग भेंट करे के मोरो मन होय लगिस।

मैं अपन संगवारी ल कहेंव  - " संगी! अभी तक किसम - किसम के बाबा मन के नाव सुनत रहेव फेर बाबा बिल्होरन दास के नाव पहली बेर सुनत हंव, नवा- नवा उद्गरे हे का ? "

संगवारी बताइस - " नहीं,  ओ तो  बहुत सीनियर बाबा आय। बाबागिरी के मैदान जुन्ना खिलाड़ी । अपन गोठ बात म अपन भक्त मन ल अइसे बिल्होर देथे कि भक्त ह कंगला हो जथे अउ ओला पता घला नई चलय। जब तक भक्त ल पता चलते तब तक बाबा अंतर्ध्यान हो जथे अउ ओखर असिस्टेंट बाबा मरखण्डा नन्द के तो बातेच मत पूछ। जउन  ल एक बेर उंखर आशीर्वाद मिल जथे ओहा  एकेच बेर म सोझे ये भवसागर ले पार हो जथे। भक्त के भूत अउ वर्तमान के बात ल  अइसे सऊँहत बता देथे कि भक्त खुदे भूत बन जथे। ओहा भविष्य भर के बात ल अपन मन रखथे जउन उंखर अंतर्ध्यान होय के बाद पता चलथे।

 बाबा मरखण्डा नन्द  ह जउन बात ल बताथे ओला कले चुप सुने के आय। जादा आंय-तांय पुछबे तब खींच के लटारा चमकाथे।

 संगवारी के गोठ ल सुनके , मैं मन में गुनेंव।  येहा बैहागे हे तइसे लागथे?  तभे  आंय- बांय गोठियात हे। येहा बाबा मन के गोठ  गोठियावत हे धुन चिटफंड कंपनी वाले मन के?

 एक तो येहा बाबा मन के नावेच ल ऊटपुटाँग बताथे अउ दूसर लटारा - छटारा  के बात घला करथे ? 

अब तो बाबा मरखण्डा नन्द के दर्शन करके उंखर आशीर्वाद पाय के शउंख महुँ ल चर्रागे।

 एक दिन के बात आय। मैं अपन फटफटी म  गांव जावत रहेंव। एक ठन बड़का गांव के चउंके म पहुँचेव तब देखथंव के मनमाने भीड़ सकलाय रहय। भीड़ ह गोल खड़े रहय अउ भीतरी ले नदियां बइला बुगबुग बुगबुग कहिके आवाज आवत रहय। महुँ फटफटी ले उतर के भीड़ के तीर म पहुँचेव अउ एड़ी ऊँचाके देखे लगेंव। नंदियाँ बईला के गोसाइया ह चिन्हें जाने असन लगिस। रब ले सुरता आगे, ये तो हमर पड़ोसी गांव के बईला कोचिया बुधारू आय।

 कोचियाई म पहिली पैसा तो बहुत कमाय रिहिस फेर सब ल मंद - मउंहा, जुआ - ताश म फूंक घला डारे रिहिस। ओखर मेंरन एक ठन फुटहा ढोल, जुन्ना चिमटा अउ एक ठन बुड़गा बईला भर बांचे रिहिस, येहा कब  बाबागिरी विभाग म  पोस्टिंग पा गए हावे भाई ? कब बाबा गिरी के कोर्स कर डारिस, ट्रेनिंग कर डारिस अउ इंखर नियुक्ति घला होगे। हम आज ले बेरोजगारेच घुमत हावन। ये विभाग म तो मनमाने पैसा झोरत हे बुधारू कका ह। 

मैहा जोर से चिचिया पारेंव - " बुधारू कका! " 

ओहा मोर कोती ल देखिस, तीर म आइस अउ मोल समझावत किहिस - " तोला भोरहा होवत हे बच्चा! मैहा बुधारू कका नो हंव। मैहा बाबा बिल्होरन दास  अउ येहा मोर चेला बाबा मरखण्डा नन्द आय , सऊँहत नन्दी के अवतार , समझे ?  तैहा नई पतियावस तब देख,  मैहा ह कहीं पूछहूँ  तेखर जवाब ये मोर चेला ह दिही।

 बाबा ह पूछिस  - " बोल चेला!  ये सब भक्त मन के गरीबी ह दूर होही या नहीं? मंहगाई कम होही या नहीं? 

 बेरोजगार भगत मन ल रोजगार मिलहि की नहीं? "

 बाबा के सवाल सुनके चेला ह हंव कहिके अपन मुड़ीं ल डोलावय। ताहन भीड़ ह मनमाने थपड़ी पिटय अउ पैसा चढ़ावय। जउन ज्यादा पैसा चढ़ावय ओला बाबा मरखण्डा नन्द ह जादा आशीर्वाद देवय। 

आशीर्वाद के लालच म दस रुपया के नोट निकाल के मैहा बाबा मरखंडा नन्द के आघू म खड़े हो पारेंव। दस के नोट ल देख के वोहा मोर बर बगियागे अउ हुमेले बर दौड़गे। बाबा मरखण्डा नन्द ह चिल्ला के किहिस- "अरे! तैहा पाछू डहर ले आशीर्वाद ले जी, सौ, दो सौ, पांच सौ अउ हजार दक्षिणा वाला भक्त मन आघू डहर ले आशीर्वाद ले सकथे, समझे? 

 मैहा डर के मारे ओखर पाछू कोती जा के पूछ पारेंव - " देश के गरीबी अउ महंगाई कब दूर होही बाबा?  मोर अतका पूछना रिहिस कि बाबा मरखण्डा नन्द ह अपन पाछू के दुनों गोड़ ल उठाके मोला जमा के लटारा जमा दिस। मोर थोथना ह फुटगे। मैहा अपन मुड़ी ल धरके सोचत रहिगेंव, बाबा ल सही बात पुछबे तब लटारा जमा के आशीर्वाद देथे तइसे लागथे ददा। मोर किस्मत बने रिहिस तब ये भवसागर ले पार होय बर बांच गेंव । नहीं ते इंहचे निपट जाय रहितेंव। अब ये बाबा ल  मरखण्डा नन्द कँहव कि लटारा नन्द? जय हो बाबा जी , तोर महिमा अपरंपार हे , क्षमा करबे ददा।

   मैं अपने थोथना ओथारे , अपन घर लहुट गेंव।

  वीरेन्द्र सरल

रावन वध

 रावन वध 

           गाँव म हरेक पइत , दशहरा बखत , नाटक लीला खेलथे । गाँव के सियान मन ये पइत तय करिन के , ये दारी के लीला , स्कूल के लइका मन करही । लइका मन अपन गुरूजी ला पूछिन - काये नाटक लीला खेलबो गुरूजी ? गुरूजी बतइस - रावन वध खेलबो बेटा । मेंहा रात भर बइठ के पाठ छांट डरे हौं । कोन कोन , काये काये पाठ करहू ? अपन अपन हिसाब ले देख लौ । हाँ , एक ठिन गोठ जरूर हे , जेन लइका जे पाठ करहू , वो पाठ ल अइसे निभाहू के , देखइया मन के मुहूँ , खुल्ला के खुल्ला रहि जाय । एकर बर , एक ठिन अभ्यास करे लागही , जेला कालीच ले शुरू करे बर लागही । लइका मन पूछिन – काये अभ्यास गुरूजी ? गुरूजी बतइस - जेला जे पाठ करना हे तेकर आदत के अभ्यास अभू ले अइसे करव के , अभिनय के समे , नाटक हा सिरतोन कस लागय । 

                 गुरूजी पूछिस - अब हाथ उठाओ , राम कोन कोन बनहू ? कक्षा में बइठे , जम्मो लइका के हाथ उचगे । गुरूजी किथे - जम्मो झिन राम बनहू , त बाँचे पाठ ल कोन करही जी ? काली अपन अपन महतारी बाप ल पूछ के आवव के , काये पाठ के अभ्यास करवा सकत हे ओमन । 

                 दूसर दिन कक्षा म सन्नाटा छाये रहय । गुरूजी के आतेच साठ , गाँव के धन्ना सेठ के लइका केहे लागिस - गुरूजी , में राम नइ बनव । गुरूजी पूछिस - काबर ? लइका किथे - घर के मन मना करत हे । ओमन किथे .... में राम के पाठ नइ कर सकँव । मोला घर म .... राम के अभ्यास कोन कराही । बाबू ल देखथँव , बिहनिया ले राम राम के बेरा म , धान तउले के समे केऊ खेप कांटा मारथे । हमर दई हा रात ले ... हरदी मिरची म ईंटा पथरा पीस के मिलाथे । गोंदली के जमाखोरी करे बर , हमर बड़े भई पठऊँहा म फजरे ले निंगे रिथे । में पूछेंव तब ओमन कहिथें ‌, अइसन नइ करबो त , हमर धंधा में बढ़होत्तरी कइसे होही । हमन बड़े आदमी कइसे बनबो ? इही ल बिहाने ले संझा , महूँ सीखथँव गुरूजी , राम के आदत सीखे के मोर करा समे निये , मेंहा राम के पाठ नइ निभा सकंव ।  

                 गुरूजी , महूँ राम नइ बनव , गाँव के सरपंच के लइका ठाड़ होगिस अऊ केहे लागिस - तेंहा जानत हस गुरूजी , गाँव म चुनई के समे आये हे । मोर घर म चेपटी के सीसी अऊ बड़ अकन पइसा सकलाये माढ़हे हाबे । घर म मनखे के खरीदी बिक्री , संझा बिहाने चलत हे । राम के आदत के अभ्यास तो दूर , ओकर नाम लेके फुरसत निये कन्हो ल । हाँ ते कबे त , रावन भले बन जहूँ । ओकर अलग से अभ्यास के कन्हो जरूरत निये । ओकर कस बूता रोज चलत हे हमर घर..... ।

                 एक झिन लइका धिरलगहा किथे – महूँ राम नइ बनतेंव तइसे लागथे गुरूजी । गुरूजी पूछिस - तोला काये अड़चन हे रे ......। लइका किथे - गुरूजी , तूमन जानत हव .... मोर बाबू हमर विकासखंड के सबले बड़े अधिकारी आय । ओकर बिना इहाँ पत्ता नइ हालय । ठेकेदार , नेता , करमचारी अऊ जनता के दे , घींव के रोटी खाथन गुरूजी । बिन रिश्वत के हमर घर आगी नइ बरय । उही ल खा‌ - खा के हमू मन भ्रस्टाचार कस मोटावत हन । हमला तेंहा राम बना देबे , अऊ खेल के बेरा , रावन के वैभो देख .... मोरो मन ललचागे अऊ ओकर कमई म नजर परगे तब ..... रावन कइसे मरही गुरूजी । महूँ ल माफी दिहौ । 

                  दरोगा के बेटा , बड़ बेरा ले अगोरत रहय । कतका बेर ये चुप होय त , मेंहा गोठियावँव कहिके ...... । जइसे बइठिस अधिकारी के लइका , तइसे ठाड़ होवत शुरू होगे – गुरूजी मेंहा राम बनिच नइ संकँव । राम बन जहूँ त कोन ल मारिहौं । रावन हमर बाबू के संगवारी आय । हमर संस्कार म , अपराधी ल भरपूर सुरक्षा देना हे , वोला कइसे भी करके अदालत के चंगुल ले बचाना हे । अब तिहीं बता , अइसन म राम के अभ्यास कहाँ करहूँ ...... । रावन ल मेंहा कइसे मार सकत हँव ? 

                  बड़ डररावत उठिस वो लइका अऊ किथे - महूँ राम नइ बनव गुरूजी । मोर बाबू के अधिकारी मन , अपने कस करमचारी ल पसंद करथें । राम कस , हमूमन गाँव के , जंगल के गरीब मनखे संग मिल बांट के खाथन , फेर अपन कमई के पइसा ल नइ बाँटन – दूसर के फोकट के पइसा ला बाँटथन .... इहीच करा फरक हो जथे । इही फरक मोला राम बनन नइ देवत हे गुरूजी । मोर बाबू किथे के , आदत सुधारे के फेर म , मेंहा सुधर गेंव तब ..... , जब मोर समे आही , मोर घर के चूल्हा कइसे जलही , मोर तनखा के पइसा कतेक पुर जही गुरूजी । मोला माफी देहू गुरूजी , गलत आदत सीख अपन भविष्य नइ बिगाड़ंव .. ।  

                  वकील के लइका , पूरा पाइंट लिख के धरे रहय । वो किथे - देखव गुरूजी , मोला रावन बनाहू , त तहूँ मनला अतका अस फायदा होही । जतका होही ओमे , सिरीफ आधिया दे देहू , वूहू म केस फाइनल होये के पाछू । गुरूजी किथे - काये केस रे बाबू ? लइका किथे - कहींच नइ जानस गुरूजी , रावन बनाबे त , मोला मरे बर परही , मोर बाबू , राम ऊप्पर केस करही , सेटलमेंट बर । बड़ अकन पइसा हकनाबो , उही म तोला हिस्सा मिलही गुरूजी । गुरूजी हाँसिस - अरे बुद्धू , सहींच के थोरे मरना हे रावन ल । फेर तें सहींच के मर जबे रावन बनके त , तोला कति करा ले फायदा होही । लइका किथे - वकीली पाईंट ल तूमन का समझहू गुरूजी ? में सहींच मे नइ मरंव , फेर मोर बाबू साबित कर दिही के , मोर लइका रावन बने रिहीस , सहींच म मरगे ओहा , फेर देखव ....... । राम बने म बूंद भर फायदा रहितिस , त उहू ल सोंचतेंव । ले आज सोंच लेवव गुरूजी , येदे मोर बाबू के मोबाइल नम्बर । कालीचे गोठिया सकत हव । 

                   सन खाके पटवा म दतगे गुरूजी । वोहा सोंचे नइ रिहीस तइसन , तइसन बात सुने ल मिलत रहय । एक झिन लइका किथे - गुरूजी मोरो ल सुन लेते का ? गुरूजी किथे - हाँ बोल बेटा । लइका किथे - महूँ रावनेच बनतेंव गुरूजी...... । राम नइ बनंव । रावन बनहूँ त ओकर लंका बनाये बर , बड़ अकन के टेंडर होही । में रावन बनहूँ , त मोर चलही । मोरे बाबू ल ठेका मिलही । अइसे झिन सोंचव ....... , तहूंमन ला बाँटा देवा देतेंव गुरूजी । ए बछर ठेकादारी म बड़ नकसान होहे हमर , गुरूजी .......... , मोला रावन बना के एकर भरपाई करा देतेव ... तुँहर बड़ कृपा होतिस । 

                   कोन्हो कुछु बहाना बनाए , कोन्हो कुछु । राम बने बर कन्हो तियार नइ होवत रहय । एक झिन लइका बाँचे रहय । सबले पाछू बइठे रहय वोहा । गुरूजी किथे - भकाड़ू , तेंहा कुछु नइ गोठियात हस , राम बनबे रे तेंहा ......... । बड़ मुश्किल ले खड़ा होइस अऊ किहिस - हव गुरूजी , राम बने के बड़ इच्छा हे , अपन बाबू ल घला पूछे हँव , फेर कते रावन मोर ले मरही ........ ? मोर तिर , न तन म कपड़ा , न पेट म रोटी , न रेहे के छत । ले दे के खड़े होवत हँव त , तुँहीमन देखव .. कतका झिन मोर गोड़ ईंचत हे , डेना ल हेचकार के बइठ जा तेंहा - ” तें का राम बन सकबे अऊ रावन ल काला मार सकबे “ कहिके कतको झिन कहत हे । मोला कोन संग दिही , रावन मारे बर ...... । इहाँ जतका झिन बइठे हे , जम्मो रावन अऊ ओकर संगवारी आय । मोर करा हथियार निये , कामेच मारहूँ अतका झिन कोरी खइरखा रावन ल ...... । मोर चलतिस गुरूजी , त एक्को रावन ल नइ बचातेंव । मेंहा खाली नाटक लीला के गोठ नइ करत हँव । मेंहा असल जिनगी के रावन ल घला मारतेंव , फेर ये रावन मन , रावन मरगे कहिके , ओकर पुतला लेस के भरमा देथे । हमू मन इँकर बात म आ जथन , अऊ बछर भर फेर चुप बइठ जथन , फेर आ जथे दशहरा , फेर धोखा खा जथन....... । 

                  रावन नइ मरिस । बिगन राम बने , फोकटे फोकट रावन के पुतला लेसागे । रावन जीतेच हे ...... अगले बछर राम के हाथ मरे के ...... अगोरा म ........। 

       हरिशंकर गजानंद देवांगन , छुरा

प्रगति

 प्रगति          

            बात तइहा तइहा के आये । मनखे अऊ कुकुर के बीच ताकतवार होये के प्रतियोगिता सुरू होइस । एक घाँव कुकुर हा मनखे ल चाब दिस । मनखे मरगे । मनखे के मन म डर हमागे । कुकुर हा ताकत के पहिली लड़ई जीत डरिस । कुछेच बछर पाछू कुकुर फेर भिड़गे मनखे संग । मनखे मरगे अऊ कुकुर घला मरगे । मनखे अऊ कुकुर के बरोबरी सुनके जम्मो देस खुस होगिस । इही दिन ले मनखे ल घला कभू कभू कुकुर केहे लागिन । 

                   एक दिन अड़बड़ खुशी मनावत रिहीन मनखे मन .... पता चलिस के कुकुर हा मनखे ल चाब दिस तब .... कुकुर मरगे अऊ मनखे जियत हे । इही प्रगति ल तिहार कस मनावत रहय मनखे मन । इही समे ले कुकुर ल मनखे के सेवा बर मजबूर होये बर पर गिस । 

                   समे नहाकत कतेक लागथे । प्रगति सबो के होवत रहय । तभ्भो ले कुकुर अभू बड़ डर्राये । एक घाँव जीत के सुवाद पाये मनखे हा कुकुर ल मजा चखाये के कोन्हो मौका हाथ ले नइ जावन दे ।  मनखे ले परेशान कुकुर हा एक दिन मनखे ला फेर हबक दिस । फेर ये काये गो .. ? न कुकुर मरिस ...... न मनखे । सरी दुनिया म खलबली माचगे । कोन्हो ल बिसवास नइ होइस । मनखे के प्रगति म प्रश्नचिन्ह लगगे ? वैज्ञानिक मन बर शोध के बिसे होगिस । वैज्ञानिक मन के दावा रिहिस के मनखे अतेक प्रगति कर चुके हे के ..... अइसन होईच नइ सके के ...... कोन्हो कुकुर हा मनखे ल चाबय अऊ कुकुर हा जिंदा बाँच के निकल सके । ओमन कहय चबरहा जीव ..... कुकुर नइ होही ....... बलकी मनखेच होही ।

                   इही वो समे आये जब कुकुर अऊ मनखे के दोस्ती होईस । अब कुकुर अऊ मनखे एके खटिया में सुते लागिन अऊ एके संग खाये लागिन । तरपोंरी ले गोदी म पहुँचगे कुकुर ... । प्रतियोगिता अभू ले चलथे फेर दोस्ताना होगे हे । एमा न मनखे जीतत हे न कुकुर । सोंचे बर बिबस हे विज्ञान घला के ..... ये काये ..... काकर अऊ कइसे प्रगति ...... ? 

                                        बहुत बछर पाछू ... सभ्य मनखे मन कुकुर ले एको बेर के हार ला नइ पचो सके लगिस । ओहा कुकुर ला सदा सदा बर हराना चाहिस । जनम के अप्पत मनखे ला तुरत उपाय मिल गिस । ओहा अपन आप ला कुकुर बना लिस । कुकुर बनते साठ ... इही मन ... मनखे बर बैरी बन गिन । दिन भर मनखे ला भोंकय .. नोचय अऊ काटय .. अनर्गल गोठियावय .. जब डरुवा नइ सकय तब जीभ म अइसे चाँटय के ... चाँटत चाँटत चट कर डरय । मनखे अतेक प्रगति कर डरही ... कन्हो नइ सोंचें रिहिस । सब जान डरिन तहन अइसन मनखे ला कुकुर के उपाधि ले नवाजना शुरू कर दिन । एती असली चरगोड़िया कुकुर घला काबर कन्हो ला घेपही । वहू मनखे के रात दिन के आतंक ले त्रस्त रिहिस । ओहा चरगोड़िया मनखे बने के जुगत जमइस । अब वहू केवल मनखे ला भोंकय ... मनखे ला काटय .. अऊ मनखे ला नोंचय ... । कुकुर हा अतेक गिर जहि तेकर अंदेशा नइ रिहिस ... प्रगति करत कुकुर हा ... मनखे बन ... अपनेच दुर्गति कर डरिस ।              

हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन  छुरा

कर्जा ले के घीव पी

 कर्जा ले के घीव पी

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बन सम्हर के अपन घर ले निकलत परोसी चचा ल पूछ परेंव-- "कहाँ जाथस चाचू?"

वो ह बिलई काटे असन ठोठक के खड़ा होगे।वोकर चेहरा ल देखेंव त अइसे लागिस के अचानक वोल्टेज डाऊन होगे।जइसे कोनो नेता ला जनता ह कुरेद के सवाल पूछ देथे त वो हा बइहाय कुकुर कस गुर्वावत हाँव ले करथे वोइसने चचा हा नराज होवत कहिस--"तोला का करना हे मैं कहूँ जाँव। फोकट के भाँजी मार देयेच न। आज के शुभ कारज बिगड़ जही तइसे लागत हे। मैं माफी माँगत कहेंव--"काबर नराज होथस पिताजी।शुभ कारज मा जाथँव काहत हस ता अशुभहा झन बोल ।बतई देबे त का बिगड़ जही?" मोर मुँह ले माफी शब्द ल सुनके एकदम ले वोकर चेहरा म चमक आगे अउ एक बीता लम्बा मुस्की ढारत कहिस--कर्जा लेये बर सुसायटी जाथँव बेटा--समझे।

 हाँ चचा थोक-थोक समझ गेंव फेर ये समझ नइ आइस के कर्जा लेना हा शुभ कइसे होही?तुहीं सियान मन कहिथव के कर्जा हा जीव के जंजाल होथे।कर्जा ह मूँड़ मा चढ़थे तहाँ ले भूँख-पियास अउ नींद ला चोरा लेथे।

"वाह बाबू वाह ! तैं तो बड़ गुन्नीक गोठ करत हस।फेर ये तोर बेद पुरान के गोठ मन वो कर्जा बर आय जेला छूटे ला परथे। मैं तो माफी वाला --मतलब अइसे समझ --फोकट वाला कर्जा लेये बर- मतलब अइसे समझ ये कर्जा हा आज नहीं ते काली---एक साल मा नहीं ते पाँच साल मा कभू न कभू माफ होगे करही--मतलब अइसे समझ जेला पटानेच नइये---उही ल लेये बर  जावत हँव।अइसे भी ए दरी मोला कर्जा लेये मा चार छै महिना लेट होगे हे। कतेक झन तो साल भर पहिली ले सुँघिया डरे रहिन तेकर सेती जे आदमी ते ठन ऋण पुस्तिका बनवा बनवा के ससन भर कर्जा ले लेके लक्ष्मी मा घर ला भर डरे हें।कर्जा लेये मा विकास होथे रे बाबू"--वो कहिस।

मैं हा अकबकावत कहेंव-- " हाँ चचा तोर मतलब मा मतलब वाला कर्जा ला कुछ-कुछ समझगेंव फेर कर्जा मा तो बेंदरा विनाश होथे--- बड़े बड़े आदमी कर्जा मा बूड़ के मर जथें अइसे सुने हँव चचा?"

"हत तो रे ढपोर शंख --तोला थोरको जनरल नालेज नइये  तइसे लागथे।ये कर्जा मा लेवइया नइ बूड़य भलुक देवइया हा बूड़ जथे।सुसायटी बूड़ जथे---बैंक के जीव ऊबुक-चुबुक हो जथे "- वो हा गाड़ी ला टेंकाके चौंरा मा बइठत कहिस।

मैं 'हाँ ' काहत मूँड़ी ला टेटका कस डोलावत   बोलेंव--" चचा तैं हा तो कर्जा शास्त्र के पक्का विशेषज्ञ होगे हस।इहू ला थोकुन समझा देते के ये सुसायटी अउ बैंक मन ला कर्जा बाँटे बर पइसा कोन देवत होही?"

"अउ कोन देही--सरकार हा देथे।"-चचा हा हाँसत कहिस।

"अतेक पइसा कहाँ ले आवत होही चाचू?"

"कहाँ ले आही- कोनो अपन जेब ले देही का ?सरकार हा तको कई कई लाख करोड़ कर्जा ले लेथे।ये कर्जा के गोरख धंधा अइसने चलत रइथे जी भले देश अउ प्रदेश हा भँइसा के जुँआ-किरनी कस कर्जा मा जिहावत रहिथे" वो समझावत कहिस।

"हाँ अब पूरा समझगेंव चचा फेर एक चीज अउ बता देते- अइसन कर्जा बाँटे मा बँटइया मन ला का मिलत होही"--मैं लम्बा साँस लेवत पूछेंव।

वोट मिलथे जी--वोट। गाड़ा-गाड़ा वोट। वोट ले सत्ता।वोट---सत्ता। वोट--सत्ता।वोट--सत्ता।। अइसने जुगलबंदी चलत रहिथे। ये जुगलबंदी के नाम 'जन भलाई ' बताये जाथे। वो हाँसत कहिस अउ उठे ला धरिस।

मैं केलौली करत बोलेंव--अच्छा ये बात हे चचा।एक दू ठन अउ आखिरी जाने के इच्छा हे तेनो ला बताये के किरपा करतेव।

 "अच्छा ले पूछिस ले।"

"चचा! 'ये कर्जा ले अउ वोट दे '  हा  कीमती वोट ला बेंचना-खरीदना नइ होइस गा। चाचू जी तैं तो पचास एकड़ के मालदार हस।तोर घर मा दू झिन सरकारी नौकरी वाला हे तभो ले कर्जा लेवत हस।तोला भला कर्जा लेये के का जरुरत हे? मतलब तहूँ हा अपन वोट ला बेंच देथस गा "-मैं थोकुन ठोलियावत कहेंव।

"तैं कुछु समझ रे बाबू।मही भर हँव का?चार सौ पाँच सौ एकड़ वाले बड़े-बड़े गँउटिया-पटइल मन, फैक्ट्री वाले मन, नेता-अभिनेता, बैपारी,अंत्री,मंत्री,संतरी सब तो अइसनहें करत हें। तैं भले वोट बेंचइ समझ फेर कोनो नौकरी बर ,कोनो बेरोजगारी भत्ता बर,कोनो बोनस के लालच मा, कोनो तनखा बढ़वाये बर,कोनो डी०ए० बर,कोनो गोबर एजेंसी खातिर कोनो अउ कुछु बर --सब तो इही करत हें। वोट दे तहाँ ले  कर्जा ले के घीव पी । सबके इही गुरुमंत्र होगे हे।" 

चचा हा एक साँस मा कहिस अउ कन्नेखी देखत उठ के रेंग दिस।


चोवा राम वर्मा 'बादल'

हथबंद, छत्तीसगढ़

छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - शिक्षा के स्तर

 छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - शिक्षा के स्तर 

मनखे पढ़थे-लिखथे-कढ़थे तभे आगू बढ़थे। शिक्षा के फरे-फूले ले मनखे तको फूलथे-फरथे। अब शिक्षा अबड़े़ फूल-फर-फइल गे हे। जेकर ले मनखे साक्षर होके गजब गुरू, गहिर ग्यानी अउ घात गरू होगे हे। अब ओकर शब्दकोस म असंभो नाम के शब्द नइ रहि गे। खासकर हमर देशवासी मन बर। 

मनखे के स्तर जस-जस गरू होइस शिक्षा के स्तर हरू हो गे। अतेक हरू हो गे कि गिरे से गिरे, उन्डे-घोन्डे अउ परे-डरे मनखे तको हँ खेले-खेल म बड़े-बड़े डिग्री ल उठा डरथे। डिग्री ल चेचकार के चिंगिर-चांगर उठाए इहाँ-उहाँ डोलत रोजगार-रोजगार खेलत रहिथे।

जेन हँ बावन अक्षर ल सरलग ओसरी-पारी नइ बोल-पढ़ सकय तेनो हँ हिन्दी म मास्टर अउ डॉक्टर हो जथे। गनित के परेड ले जिनगी भर नौ दो ग्यारह रहइया हँ इंजीनियर बन जथे। स्कूल म सरी दिन तीन तेरा करइया हँ प्रावीण्य सूची म अव्वल रहिथे। 

जेन हँ पढ़ई के छोड़ कोनो तीन पाँच ल नइ जानिस। बस्ता बोहे-लादे घर ले स्कूल, स्कूल ले घर आइस-गिस उही बोदा होके बोहा गे। धोबी के टूरा, न स्कूल न घाट के। उही हँ निनान्बे के फेर म फँसके एके कक्षा म कई साल ले खुरचत-मुरचावत रहि जथे। शिक्षा के ये गिरत स्तर म अब जर-मूर ले सुधार लाए बर परही, ताकि हमर देस हँ फेर विस्व गुरू बन सकय। 

एकर खातिर जरूरी हे कि डिग्री मन ल चना-मुर्रा टाइप फोकट म बाँट देना चाही। जइसे दुनिया के झोला म जीरो ल डारे हवन। 

वोमन जीरो के आगू म एक लिख लिन। पीछू जुवर पूछी म कइठन जीरो लगा लिन। लाखो करोड़ो बना डारिन। हम रहि गेन कबीर के कबीर अउ उन कुबेर बन गे।

येला कहिथे गुरू हँ गूरे रहिगे अउ चेला सक्कर बनत-बनत मिसरी-मेवा-मिष्ठान्न सबो हो गे। ये हमर स्वर्णिम इतिहास के स्वर्णिम पृस्ठभूमि हरे। 

जब हर नागरिक डिग्रीधारी हो जही। तभे तो देस हँ सिक्षित कहाही। होना नइ होना अलग बात हे। कोनो मायने घला नइ रखय। देश के गिनती बर खाली साक्षर होना बहुत बड़े बात होथे। 

पाँचवी आठवी बोर्ड ल खतम करके बने काम करे हावय। गुनी अउ ग्यानी होए-कहाए बर पढ़ना-लिखना जरूरी नइ होवय। सौ बक्का एक लिक्खा। डिग्री हँ डिग्री होथे। फर्जी हे के असली, ये मायने नइ रखय। नाँव लिखे बर आना चाही उही गजब हे। एकर ले फर्जी स्कूल-कालेज अउ फर्जी मनखे मन के जन्मे-बाढ़े के समस्या खतम हो जही।


पढ़-लिखके मनखे चोखू हो जथे। सिंघासन के नेंव ल कोड़े-खने बर चोखा-चोखा जोखा मड़ाए लगथे। सिंघासन ल हलाए-डोलाए लगथे। चोक्खा-चोक्खा अरई-तुतारी म हुदरे-कोचके लेथे। ओकर ले बने जनता ल साक्षर भर ही बनाना चाही। हुसियार झन करय। 

जे सड़क बनते-बनत उखड़ के खदर-बदर हो जाय। जे मकान बनते-बनत भरभराके ओदर-भसक जाय। ओकर इंजीनियर ल पुरूस्कार ले लाद देना चाही। जेकर ले प्रेरना लेके नवा-नवा इंजीनियर मन जोस म होस गवाँ डरय। बूता करे के लार बोहवावत रहय।

अइसे सड़क बनावय के बनाते-बनावत ओकर जम्मो समाने ल सफाचट कर देवय। सड़क अउ भूइयाँ ल बरोबर कर देवय । येकर ले सड़क उखड़े के समस्या-च् नइ रहिही। जनता ल तको ये सिकायत-परेसानी ले बचाके रखे जा सकही।

अइसन मनखे ल डाक्टर बनाए जाए जेकर इंजेक्सन लगाए ले मरीज अपन सरी दुख-पीरा ल भूलाके ये मया-मोह के दुनिया-च् ल सदादिन बर भूला-छोड़ देवय। 

हिन्दी म मास्टरी बर व्याकरण के कोई जगा नइ होना चाही। का के जगा की लिखय, चाहे उच्चारण सही होवय के गलत, डिग्री से मतलब।

हिंदी के मास्टर उही ल बनावय जेन हँ अपन चेला-चेलिनमन संग भावना के अदान-प्रदान ल ढंगलगहा करे सकय। तन के भले करिया रहय फेर मन मनभावन, मनमोहन अउ मनोहर होना चाही। काबर के हिंदी साहित्य बर हिरदय के भावना अउ कल्पना जरूरी होथे। व्याकरण, मात्रा अउ हिज्जा के कोई मायने नइ होवय।

माइलोगन बरोबर बुजुर-बुजुर अउ पुचुर-पुचुर करत रहना उन्कर हिरदय के अल्लार साहित्य भावना ल प्रगट करथे। एकर सेती साहित्य अउ कला के जानकार मन ल मेहला होना परम आवस्यक हे। जेकर एक ले जादा गोसइन होवय, तेन ल हिंदी म डाक्टरेट के उपाधि अइसेनेहे दे देना चाही।

अब इन सबले बड़का, पोठ अउ ठाहिल बात हे पढ़ई के। पढ़ई-लिखई म जुन्ना घिंसे-पिटे बात ल रटत रहना पिछड़ापन के परिचायक होथे। नवा-नवा खोज होना चाही। नवा-नवा बिसय होना चाही। परीक्षा के पद्धति म तको जर-मूर ले बदलाव-सुधार होना चाही। 

भारत के रास्ट्रपति कोन हे कहिथे। अरे भई ! जेन हे तेन हे। घेरी घँव उहीच्-उही बात ल पूछे-पचारे के का मतलब ? 

ये मामला म गनित जादा बिगड़े हवय। जब देख दू दूनी चार काहत रहिथे। उमर भर पढ़ डारथे। चार ले पाँच नइ करे सकय। एक ठन सूत्र ल रट लेथे। सबो सवाल म उहीच् ल उल्टा-पुल्टा के जोड़-घटा लेथे, ताहेन सिध हो गे ! 

सिध होए बात ल दस पइत सिध करो कहिथे। एकर ले काय सिध परही ? सिध ल सिध करना भरम भर आवय। अरे दू धन दू बरोबर पाँच सिध करे बर काहय तब देखातेन। हम कतका बड़ तोपचंद हवन तेन ल। 

अर्थशास्त्र म उहीच् बात, माँग बाढ़े ले पूर्ति म कमी के संग मूल्य म बृध्दि होथे। येला तो सबो जानथे। 

ओमा अब येहू जोड़ना चाही के माँग-पूरति के बीच इमान-धरम के टोपी पहिरे सेठ-साहूकार मन कतका डंडी मारथे ? जनता ल कइसे टोपी पहिराथे ? कतेक प्रतिशत लालच बाढ़े के पीछू उन गोदाम म कोन हिसाब से कतका माल दबाके रखथे ? 


भौतिकी वाले चिल्लाए जाथे-समान ध्रुव म टकराव अउ असमान ध्रुव म खिंचाव होथे। 


अरे भई ! टूरी-टूरा असमान ध्रुव होथे। वोमन में खिचाव होथेच्। एला तो सरीदिन के देखत आवत हवन। एहू म अपवाद होए लगे हे। देस-बिदेस म बाढ़त समलैंगिक मन के जोड़ा ल देखत हुए ध्रुव मनके ये तीरिक-तीरा, खिचावन-सिंचावन, संकोच-तनाव के नियम ल अब बदले बर परही। 

अइसन सब बात ल लिखत बइठे रहिहूँ त संसार के कागज सिरा जही। बोलत रहिहूँ त बरसो बीत जही। सुनइया के मुड़ी चार भाँवर घूम जही। चुँदी उखड़े ले खोपड़ी म चाँद पर जही। ओकर ले बने पाठक मन ल ये सुलाह देवत हौ- 

आगू-आगू ले ग्यान बटोरना हे त मोर अप्रकासित ग्रंथ जेकर नाँव हे - ‘‘जनतंत्र के हुँकड़त गोल्लर अउ साहित्य ल कतरत कीरा के बीच राजनैतिक अउ सांस्कृतिक अवैध संबंध के समाज अउ सासन म परत परभाव’’ के अध्ययन कर लेवयं। 

अइसे ये किताब म ये गुन हे के जेन एकर सुमिरन भर कर लेही तेन हँ मनचाहे बिसय म मास्टर हो जही। जेन हँ घोलन्ड के प्रनाम करही तेन डाक्टर हो जही। 

अब सबो बड़े गुन जेन ल गुरू-मंतर कहिथे। जेन ल सिरिफ ट्यूसन भर म पढ़ाए-बताए-सिखाए जाथे, कक्षा म नइ बताए जाए। उही ल देस-समाज हित म खाल्हे म बतावत हौं - जेन हँ ये किताब के दर्सनमात्र कर लेही तेला साक्षात मुख्यमंतरी के खुरसी हँ खींचके बइठार लेही। वोहँ चमचागिरी अउ चुनई-फुनई के झंझट ले डायरेक्ट पास हो जही। 

मैं ओमा तोता रटन्तवाले पढ़ई ल छोड़के नवा-नवा ग्यान के तरीका बताए हववँ। एकर ले बिगर पढ़े दिमाग बाढ़ही। काबर के सोंच-समझके बताना हे। पढ़बे त समे अउ दिमाग दूनो खराब अउ खतम भर होही। फोकट मगजमारी के जरूरते नइ हे।

जेन हँ लिखा गे हे तेन ल अउ का पढ़बे ? 

सिरिफ दरसन, सिरिफ चढ़ावा, 

ताहेन देख जिनगी के बढ़ावा।  

ये दफे मोर बनाए प्रस्न ल आईएएस, आईपीएस के परीक्षा म पूछे जाही। ताकि उन्कर दिमाग म कतका खोल हे, ये पता चल सकय। उही खोल के सहारा कुछ झोल करे जा सकय। जेकर ले लायक के फर्जी प्रमानधारी नालायक अफसर, बैग्यानिक अउ मंतरी मन के सही चयन हो सकय।

 

संस्था संग मोर गोंटी फिट होगे हे। अवइया समे म मोरे सेट करे प्रस्न पूछे जाही अउ मोरे सेट करे अपसेट बेरोजगार मन ल अफसर, बैग्यानिक बनाए जाही। शिक्षा ल धंधा-बेवसाय बनाके पूरा देस ल तो गदहा-घोड़ा बनइच् डारे हौं। 

जे मनखे मोर ये ग्रंथ ल पढ़के बने नंबर पा लेही। ओला ’’सिक्छा बजार के बेंवारस हुसियार’’ नाँव के उपाधि से लादके जोंते जाही। 

ये जगा मैं थोरिक उदाहरन पेस करत हौं। जेकर ले तुमन मोर किताब के अच्छई अउ मोर गुन के गहिरई के अनुमान लगाके अपन परम गदहई के प्रमान दे सकत हौ।

सिरिफ हाँ या ना म जुवाब देना हे। 

का तैं चोरी करे बर छोड़ दे हवस ? एला हल करना अनिवार्य हे । 

अब सही उत्तर म चिन्हा भर लगाना हे। तोर बाप के झन हे- चार, दू, छै, पाँच ? 

मुड़ी ल के डिगरी घूमाके मनखे अपन चेथी ल देख सकथे ? 

मनखे हँ मुँहु के छोड़ अउ कोन-कोन कोती ले बोलथे-गोठियाथे ? उपरहा बोले म दू नंबर उपरहा काटे जाही अउ कम बोले म चुकता फैल कर दे जाही। 

अब बिना सोचे-बिचारे संझा अउ बिहिनिया के स्थिति म सिरिफ एक वाक्य म उत्तर देना हे - 

साफ, सुग्घर, चमकदार अउ खूस्बूदार टायलेट के रंग कइसन होथे ? 

मनखे-मनखे झगरा होथे त कुत्ता, कमीना, हरामजादा कहिथे-कुकुर मन झगरा होथे त का कहिथे ? 

आधुनिक संत के आश्रम म का-का सीखे बर मिलथे ? 

बापू के मुताबिक कोनो एक गाल ल मारय त दूसर गाल ल दे। जब दूसरो गाल हँ लोर के परत ले पीटा-सोंटा गे, त काला देना चाही ? 

पाकिस्तान घेरी-बेरी अभरथे-हुदरथे-कोचकथे, छेड़खानी करथे तभो हमार चूरी टूटय न घूँघट उठय। ये हँ अर्धनारी के पहिचान ये के पूर्णनारी के ? ये पौरूस के निचतई-नकटई, नारी गुन के निर्लल्जता म बृध्दि करे के उदीम-उपाय बतावव। 

सुसु बैंक के बिला म घुसरे-घुसरे हमर देसी मुसुवामन के बछर म भलुवा बन सकत हे ? 

अब कम से कम तीन सौ सब्द म उत्तर देना हे। 

सिध कर कि तोर बाप हँ सहींच म तोर बाप ये अउ एकमात्र बाप हरे। 

प्रमान पत्तर म जात के उल्लेख जरूरी नइ हे वोहँ बाद म घलो बनत रहिही। 

भारतीय ज्योतिस के अनुसार दमांद ल का गिरहा माने गे हे ? दमांद गिरहा के सनि अउ सकराएत संग तुलना करव। 

खोपड़ी के उल्टा का होथे ? बीसो अंगरी म बीस खोपड़ी होतिस त मनखे कतेक ऊपर उड़ सकतिस अउ कतेक नीच करम कर सकतिस ? बने फरियाके जुवाब देवव। 

चमचामन के अंधियार पीछवाड़ा म फोकस डारते हुए भविस के दलदल म भ्रस्टाचार के बस्सावत फूल खिलावब म उन्कर योगदान बतावव। 

देस ल भ्रस्टाचार अउ घोटालाबाजी म बिस्व म अव्वल बनाए बर का करना चाही ? नवा-नवा उदीम लिखव। उपाय बतावव। 

कउँवा, घुघुवा, चील, चमगेदरी, सुरा, कुकुर, कोलिहा, बेंदरा, बइला, बिच्छी, कोकड़ा, गदहा इन्कर के-के प्रतिसत सुभाव मिलके मनखे-सुभाव ल संपूरन करथे ? सत्य, प्रमानित, सर्वसुलभ अउ सार्वभौमिक उदाहरन देके समझावव।

पोठ, वजनदार अउ मालदार उम्मीद्वार नइ मिले म विज्ञापन निरस्त हो सकत हे। येकर पूरा-पूरा दोस उम्मीद्वारमन के रहिही।

पहिली अपन आप ल तन, मन अउ धन से काबिल बनावव। हमन ल काबुली चना खवाना कबूल करव। तेकर पीछू पद म बइठके जिनगी भर वसूल करहू, येकर सोला आना गारण्टी हे।



धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

छत्तीसगढ़ म बसदेवा गीत...

 छत्तीसगढ़ म बसदेवा गीत...

    छत्तीसगढ़ के धनहा-डोली मन म अन्नपूर्णा दाई सोनहा रूप धरे जइसे-जइसे लहराए लगथे किसान मन के मन नाचे अउ झूमे लगथे. एकरे संग वोला खेत ले परघा के बियारा अउ फेर बियारा ले मिंज-ओसा के कोठी अउ ढाबा म जतने के उदिम शुरू होथे. ठउका इहिच बेरा म इहाँ के गाँव गाँव अउ बस्ती बस्ती म ' जय हो गौंटनीन, जय हो तोर... जय गंगान' के सुर लहरी छेड़त बसदेवा मन के आरो मिले लगथे. 

    हमन लइका राहन त हमर गाँव म हमरे घर तीर के पीपर पेड़ के छइहां म एकर मन के जबर डेरा देखे बर मिलय. बढ़िया छमछम करत सवारी गाड़ी अउ गाड़ा म इन तीन चार परिवार माई-पिल्ला  आवंय अउ रगड़ के तीन चार महीना असन इहें रमड़ा के रहंय. एमन अपन- अपन पूरा परिवार सहित आवंय. गाड़ी गाड़ा म आए राहंय उही गाड़ी मनके खाल्हे ल तोप-ढांक के सूते बसे के ठउर बनावंय अउ आगू के खाली जगा ल लिप-बहार के अंगना बरोबर उपयोग करंय, जेमा रंधना-गढ़ना सब हो जावय. 

    लइका अउ माईलोगिन मन पीपर छइहां म ही अस्थायी बसेरा बरोबर राहंय, फेर आदमी जात मन होत बिहनिया जय गंगान के सुर लमावत घरों घर दान -दक्षिणा के जोखा म निकल जावंय. कभू कभार सियानीन माईलोगिन मन ल घलो "कांटा झन गड़य दाई, तोर बेटा के पांव म कांटा झन गड़य" गीत गावत, असीस देवत दिख जावय. जब हमर गाँव के पूरा घर म मांग-जांच डारंय, त फेर तीर-तखार के गाँव मन म घलो जावंय.

    वइसे भी लुवई-मिंजई के सीजन म छत्तीसगढ़ ह औघड़ दानी हो जाथे, तेकर सेती एमन ल धान-पान के संगे-संग नगदी अउ कभू-कभार बुढ़ावत बइला-भइंसा के संग खेत-खार घलो दान म मिल जावय. एला एमन या तो लहुटती बेरा म बेंच देवंय या फेर अधिया रेगहा म सौंप देवंय.

   एमन पूछे म बतावंय, के उन वृंदावन क्षेत्र के रहइया आंय, भगवान कृष्ण के सियान वासुदेव के वंशज. एकरे सेती वासुदेव के जीवन गाथा ल हमन गाथन. कभू-कभू कृष्ण अवतार, राम अवतार, श्रवण कुमार, हरिश्चंद्र, मोरध्वज, भरथरी, सती अनुसुइया, शिव विवाह आदि  के कथा ल घलो गावंय.

   रायपुर आए के पाछू एकर मनके बारे म अउ जाने बर मिलिस, काबर ते इहाँ विवेकानंद आश्रम के आगू रामकुंड म एकर मन के जबर बसेरा हे. इहाँ एकर मनके एक पूरा के पूरा पारा हे, जेला बसदेवा पारा के नांव ले जाने जाथे. अब ए मन इहाँ स्थायी रूप ले बस गे हावंय. छत्तीसगढ़ के निवासी बनगे हावंय. ए मन इहाँ अपन स्वतंत्र चिन्हारी के उदिम घलो कर डारे हावंय. बसदेवा पारा (बस्ती) के आगू म एक सिरमिट के बने प्रवेशद्वार हे जेमा "जय माँ काली मंदिर बसदेव पारा" लिखाए हे. एला 13 नवंबर 1879 विक्रम संवत 1936 माघ कार्तिक कृष्ण पक्ष चतुर्दशी दिन गुरुवार के सिपाही लाल वासुदेव द्वारा बनवाए के उल्लेख करे गे हे, जेला बाद म 1997 म फिर से जीर्णोद्धार करे गे हवय. ए मंदिर म काली माता विराजमान हें. मंदिर म बड़का असन पीपर पेंड़ घलो जामे हे, वोकर संग शिव लिंग के पूजा होथे.

   एकर मनके तब जीवकोपार्जन के मुख्य साधन इही बसदेवा गीत गा के गुजर बसर करना ही रिहिसे, फेर अब बेरा के संग नवा पीढ़ी ह अलग- अलग काम-बुता म घलो रमे बर धर लिए हे, तेकर सेती अब एकर मनके गीत गा के मंगई-जचई ह कम घलो दिखथे.

    रायपुर के बसदेवा पारा म आके बसे के संबंध म इन बताथें, के उन गंगा तीर के मूल निवासी आयं. वैदिक काल म यज्ञ के विविध अनुष्ठान के बीच बीच म आख्यान गाए के परंपरा रिहिसे, इही ह लोककथा अउ लोकगाथा के रूप म पूरा गंगा क्षेत्र म फैल गे. बाद म अइसे कई किसम के परिस्थिति आवत गिस, जेकर चलत हमन बघेलखंड ले होवत एती गोंडवाना के धरती म पहुँच गेन अउ इहें अपन गाथा मनला गाये लगेन. अइसे करत फेर भोरमदेव अउ कवर्धा होवत रायपुर पहुँच गेन. छत्तीसगढ़ के धरती हमन ल भारी निक लागिस तेकर सेती अब हमन इहाँ के स्थायी निवासी बन गेन. अउ एकरे संग हमन छत्तीसगढ़ के कतकों अउ इलाका मन म घलो बगरगे हावन.

-सुशील भोले

संजय नगर, रायपुर

मो/व्हा. 9826992811

Saturday 21 October 2023

आलेख-सरला शर्मा

आलेख-सरला शर्मा


 कुंवार के नवरात्रि ल शारदीय नवरात्रि घलाय कहिथें ..आज दूसर दिन आय जेमा देवी के ब्रम्हचारिणी रूप के पूजा करे जाथे । पूजा के विधि विधान आप सबो झन  जानबे करथव फेर लोकाक्षर मं तो सबो लिखइया , पढ़इया मन जुरे हें त देवी के पूजा , आराधना करत समय ये श्लोक के सुरता आगिस .....

" महाविद्या , महावाणी , भारती , वाक् , सरस्वती , 

  आर्या , ब्राम्ही , कामधेनु: वेदगर्भा च धीश्वरी ..। " 

        देवी दाई ! जतका विद्या हे संसार मं तेन सबले बड़े विद्या , जतका वाणी ( भाषा ) हे तेकर   सिरमौर भारती , वाक माने बोले के गुण ,सरस्वती , ब्रम्ह के शक्ति , कामधेनु ( मनोकामना पुरवइया ) वेद के जननी अउ बोध बुद्धि के मालकिन तो तहीं अस त मोर कलम ल बल दे , मोर भाषा ल असरदार बना न तभे तो मैं जन जन के दुख पीरा , हांसी खुशी सब ल लिखे सकिहंव । 

तैं तो बुद्धि के स्वरूप अस मोला बरदान दे न के मैं अन्याय , अनीति ल लिखे सकंव मोर लिखाई हर भूले भटके मन ल रस्ता देखाये सकय । जेमन चिटिक पिछुवा गए हें तेमन मोर संग चलयं । 

देश , काल , समाज मं बगरे कुरीति मन घुंचयं , ज्ञान के प्रकाश के अंजोर जग जग ले बगराये मं मोर लिखे हर सफल होवय । वाणी के बरदान ये नवरात्रि मं सबो लिखइया मन ल मिलय । 

    इही सब गुनत रहेवं ...पाठ करके क्षमापन स्तोत्र पढ़त रहें जेला आदि शंकराचार्य लिखे हें ...भारी कलकुत करे हें के देवी तैं तो चर , अचर , जड़ चेतन सबके महतारी अस न? त लइका मन तो धुर्रा माटी मं खेलबे करथें उही सांसारिक धुर्रा लोभ , मोह , क्रोध , अभिमान , अहंकार के चिखला माटी मं तन मन सना जाथे ...फेर महतारी हर तो लइका के धुर्रा माटी ल पोंछथे अउ मया करके कोरा मं बइठार लेथे , चिटिकन धमका लेथे त कभू धीरे कुन एको चटकन मार घलाय देथे त का होइस ?तुरते दुलारथे घलाय तो ..तभे तो महतारी कहाथे न ? 

  त मोर अपराध मन ल क्षमा कर न , माफ़ी दे न । 

" मत् समः पातकी नास्ति , पापघ्नी: त्वत् समा नहि , 

 एवम् ज्ञात्वा महादेवी , यथा योग्यम् तथा कुरु ...। " 

      वाह ! शंकराचार्य ...बने च रिसा के गोहनाये हव जी ...मैं पातकी आंव त का होइस तै तो पापनाशनी अस न ? तोर असन पाप ताप घुंचइया त आउ कोनो नइये । तहूं तो ए बात ल जानत हस , मैं तो तोर लइका च अवं  माफ़ी दे दे न । मोर गोहार ल अतको मं नइ सुनबे त ले भाई ..तोर मन ..मैं जौन लाइक हंव तइसने कर ..( मया कर चाहे दुत्कार दे ) । 

      लइका रिसा के , मुंह फुलो के बइठ गे माने इही हर तो शरणागत होना होइस न ? अब तो महतारी ल आए च बर परही , लइका ल मनाए , पथाये बर परही तभे तो महतारी कहाही .ओहू सकल संसार के माता जेला जगज्जननी कहिथन । 

  मोर जानत मं अइसन शरणागत भाव , अइसन क्षमा मंगाई कोनो मेर  नइ पढ़े हंव ... आँखी मं झूले लगिस छोटकन शंकराचार्य जे नदिया के बीच धार मं खड़े अपन महतारी ल कहत हे " मोला सन्यास लेहे दे नहीं त ये मंगर मोला लील देही । " बने जानत रहिस के महतारी के मया लइका के जीव बंचाये बर साधु सन्यासी बने देहे बर तियार होबे च करही । तभे तो उन 32 साल के उम्मर मं भारत के चारों मुड़ा मं चारों धाम के स्थापना करे सकिन । 

     जगज्जननी के पूजा अर्चना के नौ दिन आये हे, बिनती करत हंव " मां  वाणी! सबो लिखइया मन के कलम ल शक्ति दे " । 

   सरला शर्मा

एक कहानी हाना के .... अक्कल बड़े ते भँइस

 एक कहानी हाना के .... 



अक्कल बड़े ते भँइस


गाँव के कोलकी सोंसी गली म रेंगे के मजा घला बहुत रिहिस । एती ले जवइया ला , ओती ले अवइया के देंहे छुवाये बिगन , पार नहाकना सम्भव नइ रहय । घर ले गरूवा बछरू जब ढिलावय तब अतेक सटक जाय के .. उहाँ ले निकलके बड़े खोर के आवत ले , रऊत हा पछीना पछीना हो जाय । काकरो चौंरा फूटय त काकरो घर के कोंटा ओदरय । फेर पारा म अतेक एका अऊ आपसी समझ प्यार दुलार रहय के ओकर नाव ले कभू झगरा नइ मातय । उही सोंसी ले जब कन्हो नाँगर धरके निकलय , तब दूसर घर के पनिहारिन ला तीसर घर म खुसरे ला परय । उदुपले बड़े संग आमना सामना होय म .. ये दई कहत .. ढँकाये मुड़ी ला .. अऊ ढाँके उपर ढाँके अऊ पिछू डहर मुहूँ करके, चौंरा म तब तक खड़े रहय जब तक , ओकर आरो मिलना बंद नइ होवय । 

ओ पारा म रहवइया मनला, एके संघरा अवइ जवइ म बहुतेच मुश्किल होवय फेर घर ले निकले के पाछू इहीच मारग म रेंगना मजबूरी रहय .. अऊ तो अऊ उही कोलकी गली हा गाँव के सप्ताहिक बजार जाये के बहुत छोटे रसता घला रहय तेकर सेती .. बजार के दिन तो उही गली ले रेंगे के मजा कुछ अऊ रहय । कुछ मनचलहा देवर मन , भउजी ला छेंड़त .. एक कनि तिर पाये बर .. बजार के दिन उही रसता ले जरूर आवय जावय । मटमटही भउजी मन घला जानबूझके उही गली ले रेंगय । 

एक बेर के बात आय .. सप्ताहिक बजार के दिन चार बज्जी मुड़ी कान कोर गाँथ के , एक झन भऊजी हा टुकना धरके बजार गिस । जाये के बेर अपन संगवारी ला घला संघेरना रिहिस तेकर सेती सोंसी गली ले नइ गिस । बजार म साग भाजी बिसावत मइके के सगा मिलगे ... का करबे गा , मइके के करिया कुकुर तको नोहर होथे .. ओकर संग गोठियावत बतावत बेरा ढरकगे । सुरूज ललियाये बर धरिस ... तब अपन घरवाला के ललियाये के सुरता अइस । बिसाये टुकना भर साग भाजी धरके , लकर धकर वापिस होना रहय .. उही सोंसी गली म , संझाती बेर एक दू बेर फँसे रहय .. तभो ले .. घर म गारी खाये ले बाँचे बर .. लकर धकर उही कोलकी म खुसरगे । सोंसी घला नानुक नइ रहय बनेच लम्भा रहय । कोलकी म खुसरके लम्बा लम्बा डग भरे लगिस ... थोकिन धूरिहा गे रिहिस तइसना म , ओकर कान म , भदभद भदभद के अवाज अइस , पिछू कोति मुहूँ करके देख पारिस .. एक ठिन बड़े जिनीस बड़ारी गोल्लर ओकर पिछू पिछू आवत रहय । गोल्लर ला गाँव वाले मन पोस के राखे रिहिस .. अबड़ खबड़ा हरहा अऊ मरखंडा घला .... । भउजी के होश उड़ागे । रेंगे के जगा दऊँड़े लगिस । ओला देख गोल्लर घला दऊँड़ना शुरू कर दिस । भदभद भदभद के आवाज .. एकदमेच लकठियागे । 

थोकिन आगू कोलकी के सिराती म .. एक ठिन अड़जंग खटिया बिछउ पीठ वाले भँइसा हा गली ला छेंक के भउजी तनि मुहुँ करके सटक के खड़े रहय । भउजी के आगू तनी जाये के रसता खतम .. पिछू म बइला के सेती वापिस लहुँट सकना सम्भव निहि .. । भँइसा ला है है .. घुच रे घुच कहत .. एक हाँथ ले मुड़ी के टुकना सम्हारत , दूसर हाँथ ले , भँइसा के थोथना ला हुदरत रहय .. भँइसा टस ले मस नइ होइस .. तब तक गोल्लर पिछू तनि ले एकदमेच तिर म अमरगे ... अब भगवान के नाव लेके अलावा कोई विकल्प नइ बाँचिस .. । सोंसी के थोकिन आगू डहर म एक ठिन घर के खुल्ला कपाट देख .. जोर जोर से कन्हो हाबो का .. मौसी ये या मौसी .. कहत .. गोहारे लगिस .. तब तक गोल्लर पिछू कोती ले एकदमेच तिर म पहुँचगे .. अब तब हुमेले के अँदेशा म भउजी अपन आँखी मुंद लिस । आगू डहर ले पारा के दू झन देवर बाबू मन माखुर रमजत , ददरिया गावत गमछा धरके , बजार म मंजन बिसाये के जुगत जमावत .. बाहिर बट्टा निपटे खातिर , तरिया जाये बर आवत रहय । भउजी के अवाज सुन लकर धकर दऊँड़िन । 

भउजी ला बिपदा म परे देख .. लकर धकर भँइसा के पीठ म चइघ .. ओकर मुड़ी के टुकना ला एक झिन अपन खाँध म बोहि के दूसर ला दिस अऊ भँइसा के मुड़ी डहर ले ये पार कूदके  .. भउजी ला अल्लग उचाके भँइसा के पीठ म बइठार के ये पार नहका दिस । गोल्लर हा तब तक टुकना के मुरई ला अमर डरे रहय अऊ अराम से खावत रहय .. । भँइसा ला पार करके ये पार नाहाक के आये के पाछू ... भउजी के आँखी खुलिस .. तब ओला हाय लगिस । अई हाय कहत .. अपन कनिहा म लागत गुजगुज ला छू पारिस ... गुड़ाखू लगगे रहय । माजरा अऊ मामला समझके लजागे भउजी हा ... । 

मार गारी ले बाँचे बर .. घर म देरी के कुछ ठोस कारण बताना रहय , भँइसा अऊ गोल्लर के बीच फँसे अपन राम कहानी ला बतावत कहत रहय ... अतेक बड़ भँइस रिहिस .. घुचबेच नइ करिस .. ओती गोल्लर अड़जंग ठड़े रहय .. त कइसे करतेंव .. ? ओकर गोसइंया भड़कगे – अतेक बेर ले उहि तिर फँसे रेहे त .. ओतका बेर म कन्हो अइन गिन निहि का तेमा , अकेल्ला उहीच तिर म ठड़े रेहे .. ? अतेक बेर म गोल्लर तोला नइ हुमेलिस का .. ? भँइसा उपर टुकना ला मढ़हाके चइघके नहाक जतेस ... । अपन अकल नई लगा सकत रेहे हस .. ? अतेक बड़ भँइस , अतेक बड़ भँइस कहत हस .. । तोर अक्क्ल ले बड़े रिहिस का भँइस हा तेमा .. ? भउजी कलेचुप सुनत सकपकावत रहय ..। ओकर सास हा अपन बहू के सरोटा इँचत रहय – तोर संग होतिस त जानतेस रे .. केहे म का लागत हे .. । अतेक बड़ ठड़े भँइस के मुड़ी डहर ले चइघके .. कइसे नहाक डरतिस तेमा ... । चघत बेर भँइस हुमेल देतिस त ..  आफत हो जतिस ... । अलहन ले बाँचगे .. बपरी हा .. । साग निमारत सास पूछ पारिस – मुरई हा एके ठिन दिखथे या बहुरिया ... ? बहू किथे – हव दई .. मुरई हा मोर प्रान बचइस दई । उही मुरई ला हेर के गोल्लर तनि फटिक देंव .. गोल्लर हा मुरई खावत उही तिर ठड़ा होगे .. अऊ हुमेलिस घला निहि .. । सास किथे – अई सही म बनेच अक्कल करेस या .. हमर संग होतिस त उही तिर पट ले मर जतेन .. बने अक्कल लगाये बहुरिया .. । सास ला पूरी तरह ले अपन कोत देख बहुरिया कहत रहय .. जब मुरई खाये म गोल्लर हा एकदमेच मगन होके उही म भुलागे तहन , धीरे ले भँइस के उपर चघके ये पार आये हँव दई .. । 

सास कहत रहय – अई बने अक्कल करे या बहुरिया .. । कहाँगे हे चंडाल हा .. अबड़ भड़कत रिहिस .. अक्कल ले भँइस बड़े रिहिस का .. अइसे कहत  .. बपरी ला गारी देवत रिहिस ... । नाती ला इशारा म कहत रहय - बला तोर ददा ला , अऊ बता कति बड़े आय तेला ... ? भऊजी के बात बनाये के अक्कल काम कर गिस । कनिहा म लगे मंजन ला कलेचुप बखरी डहर धो डरिस .. अऊ मने मन बुदबुदाये लगिस ... अक्कल बड़े ते भँइस ... ?  जिनगी के हरेक रसता ला , बिपदा हा छेंक के आजो बइठे हे .. अक्कल वाले मन नहाक जथे .. फँसइया मन जरूर सुनथे .. अक्कल बड़े ते भँइस .. ।   


 हरिशंकर गजानंद प्रसाद देवांगन , छुरा

छत्तीसगढ़ी कहिनी) -रामनाथ साहू

 [10/16, 6:48 AM] रामनाथ साहू: -


      🌈 *छत्तीसगढ़ी कहानी माला* 🌈


                        (1)


                         *दूध-पूत*

                (छत्तीसगढ़ी कहिनी)

 

                      -रामनाथ साहू


       देशव्यापी बन्द के तेइसवां दिन रहिस ।अउ अइसन कतेक दिन ल रहही......!फुलकुँवर सुन्न सान ...अल्लर परे सड़क कोती ल देखे।काबर के  ये सड़क   जब रेंगथे तब वोमन के जिनगी हर रेंगथे ।


             फुलकुँवर मन के, ये चौक  जउन हे स्कूल तीर म,वोई करा बरा - भजिया वाला छोटकुन होटल हे।वोइच हर वोमन के जीविका के अधार ये।कोरी- खइरखा स्कूल के पढ़इया लइका, पांच दस मास्टर मन तो ये होटल के पक़्क़ी- पक्का ग्राहक रहिन।

बाकी अवइया- जवइया,गांव -गंवतरी वाले मन बर पाव ..आधा -किलो जलेबी, लड्डू करत गाड़ी हर बड़ सुभीता ले  चलत रहीस ।


         फेर ये लॉक डाउन हर ये जोम ल बिगाड़ दिस।कान्हा के बंसरी बजा दिस।दु -चार पइसा हाथ म हे ,तउन ल दांत म चाब के खरचा करे बर लागत हे। सरकारी राशन  हर तो मिले हे।फेर अइसन हालत कतका दिन ल चलही तेला कनहुँ बताय नइ सकत यें।

"चल चाउर हर रहही तब नून म टिक के खा लेबो...।"सास पीली बाई हर फुलकुँवर ल सुनावत कहिस।


                फुलकुँवर हर सास ल अब्बड़ डराथे।काबर के वोहर होटल म दिन भर घाना म बईठे रथे।आगी तीर म बइठत सात धार के पसीना वोकर तरुवा ले छूटत रइथे। वोकर खुद अपन हिस्सा  म तो जूठा कप -प्लेट धोये के बुता रथे ।ये बुता ल वोकर गोसान दूज लाल   घलव करथे।अउ  एक दिन वोकर कोती ल देख  हाँसत कहत घलव रहिस-"फुलकुँवर मोर ये बुता ल परछर अपन  आँखी म देख के तोर ददा  हर तोला हमर घर म हारे हे।"

"तव का होइस।जब तुँ धो सकत हव ये जूठा कप- पिलेट मन ल त  मैं काबर नइ धोये सकहां।"फुलकुँवर कहे रहिस अउ अपन गोसान दूज लाल के हाथ ल धोवत प्लेट मन ल लूट लेय रहिस ।फेर दूज लाल बल भर के वोला खेदत जरूर रहिस ...रहन दे पाछु करबे कहिके।

"अपन घोड़ा म का के घसिया..तूं तो सुनेच होइहा ।ठीक वइसन येहर हमर धंधा पानी ये ।हमर जिनगानी ये। हमर लक्ष्मी ये।"फुलकुँवर एके सांस म अतका ल कह डारे रहिस ।दुज लाल बने निच्चट कर के वोकर मुहरन ल देखत रहिस।

"ये  बुता ल करबे,फेर एक बात हे।"दूज लाल फेर कहिस।

"वो का...!"

"ये बुता ल आधा -सीसी करे ले नइ बने।करबे त पूरा मन लगा के करबे।अब तैं पुछबे काबर..?"

"....."फुलकुँवर हाँस के रह गय रहिस ।

"ये बुता बहुत बड़े बुता ये।"

"कोई भी बुता छोटे- बड़े  नइ होय।"

"छोटे -बड़े तो बाद के बात,पहिली जउन जिनिस हे वोहर ये -विश्वास ।मोर हाथ ल धोवात ये प्लेट मन ल कोइ नइ देखत येँ। अउ जब  येमा ग्राहक ल कुछु परोसबो तब वोहर ये नइ पूछे के ये प्लेट हर धोवाय हे के नहीं।वो तो बस सीधा शुरुच कर देथे।"

"हाँ ..।ये बात तो सोला आना सच आय।"

"हमर होटल म बनत जिनिस मन म का भराय हे न का।बिना येला पूछे जाने जउन भी  बइठथे तेहर विश्वास म  भर के ,के एमा कुछु आन तान नइ ये,खातेच लेथे।

" हाँ....।"

"तभे देखे हस ददा हर मसाला बनात आलू के नान कुन  छिलका तक  ल नइ रहन देय।अउ ..अउ..घाना म बइठे दई के माथा ल सात धार के पसीना छूटत रइथे फेर का मजाल के एको बूंदी  सनाय बेसन म पर जाय।"

"......."फुलकुँवर बस हँसतेच रह गय रहिस वो दिन।वोकर मुँहू ल बस अतकेच भर निकले रहिस के यहु बुता हर एक ठन सेवा के बुता ये।अउ वोला ये बुता करे म कोई तकलीफ नई ये।


अतका ल सुने रहिस तभे गोसांन दूज लाल हर विस्वास म भर के वोला ये बुता ल छुवन देये रहिस।फेर सत्रह घव तिखारे रहिस के तीन पानी ले कम म काम नइ चले।चाहे कनहुँ देखे के झन देखे ।


       ये  जूठा कप- प्लेट धोये के जगहा म वोकर पक्का संगवारी  रहिस 'कारी'कोटी ।ये  कुतिया हर कोइ पोसे कुकुर नइ  होइस ।  फेंकाय ...जूठा -काठा हर वोकर बांटा म रहिस।फुलकुँवर अउ कारी कोटी दुनों म एकठन अदृश्य सम्बन्ध  होंगय रहिस।

जूठा काठा ल खावत देखे तव फुलकुँवर ल लगे ..चल येला काबर खेदहाँ ।अगर ये जूठा म एक झन प्राणी के पेट भरत हे तब मैं  काबर  मना करहां।अउ कारी कोटी घलव भी कभु लक्ष्मण रेखा ल नइ नाहकिस। फेंकाय जूठा ल ही खाथिस,कभु भी प्लेट मन ल मुँहू नइ लगाइस ।


           ये पाय के बर्तन धोये के जघा म जब कारी नइ दिखे तब मन ही न वोला खोजथे जरूर।एक  प्रकार ले अपने आप उदगरे सम्बन्ध  रहिस येहर ।


          आठ -पन्दरा दिन ल बुता के ठउर म वोला आय के मउका वोला नइ मिले रहिस।वोहर छेवारी होय रहिस।

उप्पर ...नीला छतरी वाला के दया ले वोकर कोरा म आज पूत खेलत हे अउ दूध..?जोरन्धा होये रथिन तब ले भी कम नइ परथिस ।अगला उछला हे वोकर पूत बर...।


            सास  महतारी पीली बाई हर आन कछु कह दिही,के आन कछु म कमी कर दिही फेर वोकर खाना- पानी बर बड़ सचेत हे।खाना- पानी ल पेट भर खवाथे ,कोंच- कोंच के।अउ पहिली के डोकरी -ढाकरी मन ल सुद्धा भर के पानी पी पी के सरापथे...पापिन हो ..पहिली के लइकोरही मन ल पंच.. पंच.. छै ..छै दिन ल अन्न पानी नइ देवव ।क्षीर के सोत हर भीतरे भीतर सुखा जाय।अउ पीछू बेचारी लइकोरही ल दोष देवव एकर करा पूत तो हे फेर दूध नइ ये कहत ।अउ पट पट ले चन्गोरा फोरत रहिस...जॉव रे मर गय हावा ते मन अउ मर जावा कहत।येला सुनके  फुलकुँवर हाँस भरे रहिस,भले ही वोहर वोला कतको डराथे ।


         ये समय म वोकर गोसांन करत रहिस ये बुता ल ।बरही नहाय के बाद वो फिर लग गय अपन के ये बुता म।फेर गोसांन हर तो मना करतेच रथे।अब कारी कोटी ले फेर भेंट होथे।


          फेर ये पइत पांच ..छै ..दिन ल वोहर नइ दिखिस ।तब मन हर तो वोला खोजे।फेर मने मन कहिस..चल कत्थू आन जगहा चल दिस होही।एकदम पोसवा थोरहे ये ओमन के।फेर कुकुर जात के का...!चल दिस मानै चल दिस ।अउ अपन बुता म लग गय ।


         फेर वो दिन जब कारी हर फिर के आइस।वोहू अकेला नहीं.. वोकर संग म चार ठन  नान- नान आने कारी

माने वोकर पिला मन रहिन।

ये...बबा गा!फुलकुँवर के मुंहू ले निकल गय ।कारी वोकर तीर म आके कूँ.. कूँ.. करत रहय।एक प्रकार ले वोकर ले विनती... अनुनय- विनय करत रहे के येमन मोर यें ।अउ एहु मन ल मोरे कस बिना रोक टोक इहाँ आये जाये के अधिकार दे दे मालकिन कहत।


           फुलकुँवर हाँस भरे रहिस। वो बहुत खुश हो गय रहिस ये नावा दंगल ल देख के।सास करा अपन खुशी ल बांटे के हिम्मत तो नइ होइस वोला त अपन पति दूजलाल ल इशारा म बला के वोमन ल बताइस ।दूजलाल घलव आंखी बटेर के ये नावा पहुना मन ल देखिस एक घरी ल । फेर मुचमुचावत इशारा म फुलकुँवर ल कहिस के राहन दे एहु मन ल ।



               ये गोठ हर तो वे दिन के ये।अब आज ये  लॉक डाउन चलत हे।आना जाना बंद त होटल बन्द।होटल बन्द तब बुता बन्द।न ददा समोसा म भरे बर मसाला बनाय।न दई घाना म बइठ समोसा बड़ा ल छाने।न दूजलाल ग्राहक मन ल प्लेट.. प्लेट येमन ल परोसे।न फुलकुँवर ल जूठा प्लेट धोय के मउका लगे।अउ जब जूठा प्लेट नइ धोवाय तब कारी कोटी के कुनबा मन ल...?


          यती मनखे मन जइसन तइसन अपन मन ल समोंखे हें।ये लॉक डाउन लम्बा खींचा जाही त का होही..?कोई नइ जानत यें ।एकरे सेथी पीली बाई फुलकुँवर ल चीज बसूत मन ल पुर पुरोती बउरे बर बार बार कहथे।एक प्रकार ले वोकर उप्पर बनेच बारीक नजर राखे हे।आज ले दे के चल जात हे।काल के दिन कुछु बर ललाय बर झन परे कहके ।


         अभी सास पीली बाई हर फुलकुँवर के मन ल तउले बर ये नून भात के बात निकाले हे।बइठे -बइठे का करिहीं तेकर ल कम से कम ये गोठ बात तो  होवत रहय ये कहके।आज येहर छेवर होही कहत रहीन फेर कहाँ

आज घलव सब कोती हर बन्द हे।अउ यती सास नावा नावा प्रश्न पूछत हे।


           वोकर सास के ये बरन हर फुलकुँवर के मन म एकठन आतंक  बरोबर समा गय हे। ये पीली बाई महारानी !जाहिर हे दस के जघा म बइठत हे त दस रकम के गोठ सुनही अउ दस रकम के गोठ सुनही तव दस रकम के गोठियाबे करिही ।येकरे  सेथी  पीली बाई के गोठ बात हर   घलव पोठ रइथे ।दुएच बच्छर तो होय हावे वोला इहा बिहा होके आय।अउ ये दे भगवान बढ़िया चिन्ह दिस हे त कोरा म महीना भर के पूत खेलत हे।फुलकुँवर।अतका सब ल गुन डारिस ।

"बहु....!"पीली बाई अपन गोठ के फुलकुँवर करा ल समर्थन नइ पाये रहीस तेकर सेथी  थोरकुन खर लागत रहीस।वोला लागिस के वोकर गोठ  बहु के मन  नइ आइस ।

"हाँ....दई !"वो थोरकुन झकनकावत कहिस

"कइसे मोर  गोठ तोर मन नइ आइस।"पीली बाई के अवाज़  फूल कांस के बटकी  कस ठनकत रहय ।

"मन काबर नइ  आही दई ।"फुलकुँवर डरे- बले कहिस।

"नही...नहीं...!तोर मन नइ आइस ये।"पीली बाई थोरकुन विचित्तर भाव ले कहिस ।अपन गोठ बर बहु के सहमति नइ मिलइ ल वोहर अपन प्रतिष्ठा के प्रश्न बना डारे रहिस।

"अरेअसतनीन,तोला नून म खवंहा के मतलब नुनेच म खवंहा ये का।"वो फिर कहिस।


        येला सुनके फुलकुँवर तुरत- फ़ुरत कुछु कहे नइ सकिस। अब तो सास पीली बाई सिरतोन नराज हो गइस ।येहर तो सिरतोन पतिया जावत हे मोर गोठ ल....जानके। वो कहिस तो कुछु नही फेर अपन कुरिया म चल दिस।


             येती बइठे -बइठे अस्कट लागत हे कहके ,फुलकुँवर  लइका ल पाये -पाये  अपन होटल खोली कोती आ गय ।सब कोती भांय... भांय..करत रहे।ग्राहक मन के बइठे के टेबल कुर्सी सबो म धुर्रा- फुतका के मोटहा परत जम गय हे। ये जगहा ल छोड़ के वोहर अपन बइठे के जगह कोती गइस।

अरे....! बपुरी कारी ..!! वोकर मुँहू ल निकल गय।कारी जउन जगहा मेर ल जुठा- काठा बीन के अपन पिला मन ल खवाय अउ खुद खाय ।वो जगहा म वो सब मन परे रहीन।हाँ एक दु पिला मन वोकर ममता- मन्दिर ल थोथमत घलव रहीन ।फेर वोमन कुछु पावत हें ....अइसन नइ लागत रहिस ।सदाकाल गिल्ला रहइया ये जगहा हर खन खन सुक्खा हो गय रहिस अब ।


         फुलकुँवर के जी धक्क ल करीस ।वोकर नजर एक पइत वोकर  बहां म सुतत अपन पूत कोती परय तव फेर जुच्छा ल चुहकत वो श्वान संतति मन कोती परय ।

     कारी हर बड़ अशक्त दिखत रहिस।पिला मन भी ले दे के अपन प्राण ल राखे भर रहीन ।


    फुलकुँवर के जी विधुन हो गय।काबर के कारी हर जइसन तइसन उठ के वोकर तीर म आय के कोशिश करिस।फ़ेर वोहर अब ले भी वो लक्ष्मण रेखा  के बरोबर ध्यान  रखे रहिस।

      क्षीर के सोत हर सुखा जाथे... सास के गोठ वोकर कान म रह रह के गुंजत हे। अभी तो राम कह ले के, सरकार कहले ,के सास- ससुर कहले येमन के दया ले वोला खाना- पानी  के राई -रत्ती अंतर नइ परे ये।बीस दिन बइठ के खावत हन तब ले भी अउ आने वाला अउ कतको दिन के फ़िकर नइये।वोकर दूध वोकर पूत ल कुछु के फरक नइ परे, फेर.......?      

"  अभी आगी- अंधना के बेर नइ होय ये ,बहु।कइसे आज जल्दी आगी सुलगा डारे..!"सास के ठनकत आवाज उँहा तउर उठिस ।

"अइसनहेच दई। पाछु  जादा गरमथे ।"

"तोर मन...।" पीली बाई कहिस अउ अपन कुरिया म फेर खुसर गइस।


              फुलकुँवर पानी पसिया उतार के वोला चोरी लुका ले जा के कारी के 

कटोरा असन जिनिस म उलद के आ गे ।थोरकुन बेरा म जाके देखिस त वो कटोरा हर पोछे बराबर साफ हो गय रहय ।फुलकुँवर के मन म सन्तोष उतर अइस ।पूरा दुनिया ल मैं गरीब समोखे थोरहे सकहां ..? फेर मोर हिस्सा के जउन एक हे वोला जरूर सकहां ..।


            अब तो  ये कोती एइच बुता बांचे रहय ।लॉक डाउन माने रंधई अउ खवई । फुलकुँवर चाउर ओइरे के बेर दु ओंजरा जादा ना देवत  हे अउ पसाय के बेरा पसिया के सङ्गे संग आधा थोरा सीथा घलव वोमे जान बूझ के छलका देवत हे।  फेर सास के नजऱ बचावत  लाने बर लागथे ।


          कारी कोटी थोरकुन पानी... पानी दिखिस हे अब ।महतारी हरियर तब सन्तान हरियर।

"बहु चाउर हर जल्दी सिरागे ,तोला नाप के देय रहें तउन हर।"सास के अवाज हर गरजिस ।

    एती फुलकुँवर  सुख्खा..!का जवाब दों, उनला ।

"देखबे बने देख ताक के  ओइर।का पता कतका दिन अउ अइसन चलना हे।"सास के अवाज अब ले भी खर रहिस ।चल.. देव ..बचाइस !

      फेर अब कइसन होही आगु के व्यवस्था ह...?

      संझाती बेरा जानबूझ के थोरकुन अंधियार होइस तब  फुलकुँवर भात ल पसावत रहिस।फेर वोला पता नइ रहिस के सास  हर पसिया  गिरे के शब्द  ले ही जान डारिस के पसिया के संग कछु अउ आन गिरत हे।


    फुलकुँवर चोरी -लुका अपन अभियान म आइस।झटपट सीथा पसिया ल उलदिस अउ तुरते ताही वापिस जाये बर लागिस।

"बहु.....!"सास के पोठ अवाज अंधियार म गुंजिस।ये बबा गा..!वो तो वोकर चोरी ल पकड़ डारिन।

"तब तो मैं कहत रहें ,चाउर हर अतेक जल्दी कइसे खतम हो गइस कहके।"सास के अवाज फेर तउरिस हवा में।

"मोला माफी दे दो दई ।अब अइसन गलती नइ होय ।"फुलकुँवर थरथरात कहिस,"ये पीला मन सुख्खा छाती म जटके कें.. कें..करत रहिन।तब मोला तुंहर गोठ के सुरता आइस ।खाना- पानी कम होय ले क्षीर के सोत हर सूखा जाथे...।अउ  ..अउ.मोर पूत बर तुंहर दया ले अभी सब कुछ हे।त एकरो पूत मन भर थोरकुन पानी चाही कहके ये गलती ल कर डॉरें ।"

"......."

"पूरा हफ्ता भर हो गय अइसन करत दुनो बखत एक एक पव्वा अगरिहा नाथों अउ पसाय के बेर वोला उलच के लान येमन ल दे देवत रहें ।"फुलकुँवर अपने आप अपन पाप ल उगलत रहिस।

"फेर मैं तो तोला ये नइ पूछे अंव।"सास पीली बाई हाँसत कहिस।

"दई...!"

"बने करे बेटी।दाना ल तो राम पूरोथे।चल अभी सरकार पुरोवत हे।तंय एक ठन महतारी अस ।तब महतारी के पीरा ल जान डारे।का मैं एक ठन महतारी नोहंव तोर गोसांन  के।बिलकुल झन डरा।जइसन करत हस तउन ल पांच परगट कर लेबे काल ल ।"

"दई..!"फुलकुँवर अतकिच भर कहे सकिस।

"एक घर हर एक झन असहाय ल सहाय होये नइ सकही का ।"सास के अवाज ये पइत गहिल कि कुंवा ल निकलत   जान परिस ।


        फुलकुँवर अगास कोती ल देखिस,उहाँ ले बादर मन परा गय रहींन अउ उत्तर दिशा म ध्रुव तारा हर चमकत रहिस बिना मिटकी मारे...।


 *रामनाथ साहू*


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समीक्षा---पोखनलाल जायसवाल: विश्वास अउ समर्पण भाव ले पगाय सुग्घर कहानी आदरणीय साहू जी💐💐


     कहे बर तो पुरखा मन दू ठन गोठ कहे हें, एक भगवान जीव ल जनम दे हे के सँघरा पेट के जोखा घलव मढ़ाथें। दूसर, सबो जीव के जोड़ी बनाथें। पहलइया गोठ के श्री रामनाथ साहू के कहानी 'दूध-पूत' परछो देवत हे। 

      सरी दुनिया बर बिपत बने कोरोना काल के बिपत घरी के बेरा म मानवीय संवेदना ले भरे  फुलकुँवर के सेवा भाव अउ लगाव ह समाज ल नवा संदेश देथे। कारी संग ओकर अंतस् के ए गोठ गुनान म जिनगी म असली सुख के सार हे।

        'पूरा दुनिया ल मैं गरीब समोखे थोरहे सकहाँ..फेर मोर हिस्सा के जउन एक हे वोला जरूर सकहाँ।' इही सेवा भाव मनखे ल मनखे बनाथे। कहूँ हर मनखे के अंतस् म अइसन भाव लहरा उफनाय धर लिही त सिरतोन ए धरती सरग बन जही। कोनो ल कोनो दुख पीरा नइ जनाही।

        कहानी म घर परिवार अउ समाज के मनोविज्ञान घलव हे। हर बहू के मन म सास के एक डर समाय रहिथे। एकर बढ़िया जीवंत चित्रण हे। दूसर कोती सास पीली बाई के कहना कि 'तँय एक महतारी अस। तब महतारी के पीरा ल जान डारे। का मैं एक ठन महतारी नोहँव...।' नारी मन के थाह ल गहिर ले नाप लिस। 

       कहानी के भाषा शैली पाठक ल मोह लेथे। संवाद पात्र के मुताबिक हे। सास-बहू दूनो के चरित्र बढ़िया गढ़े गे हे।

       मार्मिक अउ उत्कृष्ट कहानी बर हार्दिक बधाई💐🌹

पोखन लाल जायसवाल

पठारीडीह, पलारी

महुआ रस चन्द्रहास साहू

: महुआ रस                            

                                      चन्द्रहास साहू

                                 मो क्र 8120578897

महुआ इही नाव तो हाबे भूरी टूरी के। छक्क पड़री तो नइ हे फेर गाँव भर ले ओग्गर  हाबे।  बंबरी बन मा कौहा रुख बरोबर। महुआ फूल के रंग कस देह, उल्हा-उल्हा पाना लाली गुलाबी कस होंठ, रौंदाए परसा फूल ले लगे गोड़ मा माहुर। बंबूर के रुखवा के रंग कस काजर फेर चुन्दी गुलमोहर के रुखवा बरोबर भुरवा। एखरे सेती तो ये टूरी ला भूरी महुआ कहिथे गाँव भर। सिरतोन, गोठियाही ते मंदरस टपकथे, हाँसही ते महुआ झरथे.... मन मतौना कस महुआ। दू आखर गोठिया तो ले काकरो संग,गोठ के निसा हो जाही। छिन भर बइठ तो ले बइठे के निसा हो जाही, एक बेरा देख तो ले देखे के निसा हो जाही। अंग-अंग ले सम्मोहन अउ आकर्षण फुटत हाबे महुआ के रुख बरोबर। ममहावत महुआ फूल के ममहासी ले कोन बांच सकथे...? वोकर गमकना, रतबिद-रतबिद टपकना, हरियर मोठ्ठा पाना अउ लाली गुलाबी ललछौहा रंग के उल्हा पाना भूरी टूरी महुआ के चेहरा बरोबर सुघ्घर दिखत हाबे।

              पर्रा भर घाम के ताप ला दाई महुआ रुख अपन मा बोहो लेथे अउ ठोमहा भर घाम ला छान के बेटी महुआ के चेहरा मा पठोथे तब सिरतोन श्रमतपा भूरी महुआ सोना बरोबर निखरे लागथे। महुआ फूल के ममहासी अउ श्रमतपा महुआ के काया ले निकले पसीना के ममहासी मिंझरके गमके लागथे, खिलखिलाए लागथे जंगल मा।

                सोनारिन भेलवा कुंती सोनादई बुधिया समारिन अउ सोहागा बड़का-बड़का टुकनी धर के आए हाबे महुआ बिने बर। गाँव भलुक सुन्ना हाबे फेर जंगल गदबदावत हाबे। बेरा पंगपंगाती दाई महुआ रुख हा अपन अचरा ला बिगरा देथे पिंयर-पिंयर सोना कस महुआ फूल झर्राके। धरती मा चंदैनी अवतरे बरोबर। .... अउ दाई के बगरे अचरा मा कोन मया नइ पाए हे..? गाँव भर महुआ बिने बर आ जाथे संझकेरहा अउ रिगबिग-रिगबिग बगरे महुआ फूल ला बिने लागथे। दाई महुआ रुख घला जानथे अउ वोतकी ला गिराथे जतका ला वनवासी मन बिन सके महतारी बरोबर वोतकी गोरस पियाथे जतका ला पचा सके लइका हा। ....नही ते पेट पीरा नइ उमड़ जाही। सुम्मत अउ भाईचारा टूट जाही  ? रोज अइसना तो गिराथे।

               बड़का टुकनी ला उतारिस भूरी महुआ अउ संगी मन हा। टिफिन मा बासी अउ अंगाकर रोटी बंगाला चटनी ला जतन के राखिस। तुमा के खोटली मा नक्काशी दार बने तुमड़ी मा रखाये पेज ला डारा मा टांगिस। कमेलिन कलाकार मन के प्लास्टिक बॉटल मा चेंद्री ला लपेट के बनाए  देशी फ्रीज ला  अरोइस अउ माथ नवावत बुता मा लगगे। 

"देबी दंतेसरी तुमचो असीस माई। सदा सहाय माई। दाई महुआ रुखवा तुमचो मया।''

भूरी महुआ अन्नपुर्णा महतारी महुआ रुख ला पोटार लिस काबा भर। महुआ के मन गमके लागिस। सरसराहट के आरो संग कुलके लागिस रूखवा हा। महुआ रुख घला अपन बेटी मन बर मया बरसाये लागिस। पिंयर सोना टपके लागिस पाना के संग। जम्मो संगी-संगवारी कछोरा भीर के अब बिने लागिस महुआ फूल ला। 

कर्मा ददरिया के संग बारामासी गीत के तान देवत हाँसी ठिठोली करत अब जम्मो कोई बिनत हाबे महुआ फूल ला। फेर महुआ ला कोन जन का होगे हाबे ते ? 

"महुआ ! कोन जन का संसो धर ले हाबे ते तोला ? जब ले शहर ले लहुटे हावस तब ले न जादा हाँसस, न जादा गोठियावस।''

"कु... कुछू नही सोनारिन। मेंहा तो बने हावंव बहिनी। बने हाँसत हावंव, बने गोठियावत हावंव खी...खी...।''

महुआ बनावटी हाँसी हाँसे लागिस। चंदा कस दमकत चेहरा मुरझागे। 

बिने महुआ मा  छोटका टुकनी भरगे अउ बड़का टुकनी मा उलद के फेर बिने लागथे। अब श्रम के ममहासी बगरे लागिस जंगल मा । भूरी महुआ संग मोटियारी मन के कान के पाछू ले पसीना ओगरे लागिस। जंगल हा पसीना के ममहासी ले गमकत हाबे अब। रुखवा महुआ गरब करत हाबे अपन कमेलिन बेटी मन ला देख के। सिरतोन बेटी मन ही तो मरजाद ला राखे हाबे। बेटा जात मन तो महुआ रस के निसा मा बुड़गे हे। जांगर चोट्टा होगे हे बेटा मन अउ बेटी कमेलिन बनके घर चलावत हाबे।

                  अब अगास मा सुरुज जिबराए लागिस। फेर सोना तो आंच मा तप के अउ निखरथे। पसीना मा धोवाये  भूरी महुआ के ललछौहा चेहरा उल्हा पाना बरोबर। खीरा बीजा बरोबर दांत अउ लौंग के करिया गोदना, रवाही फूली, लाली सादा लुगरा माड़ी के उपर ले। जौन देखही तौन मोहा जाही श्रम तपा बस्तर बाला ला देख के। ... अउ भूरी महुआ के ये बरन ला लुका के देखत हाबे दू आँखी हा महुआ रुख के फूलिंग मा चढ़के। कोन जन कब आइस, कब चढ़ीस रुखवा मा... कोनो नइ जाने।  अउ जानिस तब ?

"हात.....''

जझरंग ले कुदिस वो दू आँखी वाला कुबेर हा। 

"हे दाई मोचो मरली वो !''

"बचाले मोर दंतेसरी दाई।''

महुआ अउ सोनारिन डर्रागे धड़कन बाढ़गे। रुआ ठाड़ होगे। ......अउ वो कुदइया ला देखिस तब  ? अब खिलखिला के हाँसे लागिस दूनो मोटियारी मन हा। 

"कुबेर ते ..? तेंहा डरवा के मार डारबे..... सिरतोन हा हा..... खी खी......।''

एक संघरा किहिस सोनारिन अउ महुआ दुनो झन। सोनारिन घला हाँसत हाबे अब। अउ टूरा तो कट्ठठलगे । महुआ पेट पीरावत ले हाँसे लागिस। हाँसत-हाँसत लहसगे अउ खांध मा झूलगे जवनहा के। सोनारिन देखते रहिगे। ... ससन भरके हाँस लिन तब थोकिन बेरा मा शांत होइस अउ अब देखे लागिस टूरा ला बिन मिलखी मारे एक टक टुकुर-टुकुर। ....अब तो पथरा बनगे महुआ हा। न हालत हाबे न डोलत हाबे। न हुंके न भूंके। जइसे सांस लेवई घला अतरगे। 

"का होगे महुआ ! का होगे ? कइसे ? कुछु बोल न ! कुछु जादा सप्राइज होगे का ?''

टूरा हला-डोला के किहिस तब सुध मा आइस महुआ हा।  थोकिन आगू जौन रंग दूध में कुहकू के रंग मिले बरोबर दिखत हाबे तौन भूरी महुआ के रंग  उदासी के रंग दिखे लागिस। 

"का होगे तोला ? बता न!''

टूरा कतको मनाइस फेर महुआ नइ मानिस भलुक  अब कजरारी आँखी मा इंद्रावती हिलोर मारे लागिस। अब टूरा ला पोटार के रो डारिस ससनभर  महुआ हा। सोनारिन घला अचरज मा परगे। आने संगी-संगवारी मन दुरिहा के रुख मा दते हाबे। देशी फ्रीज के पानी ला पियिस अउ सुसके लागिस महुआ हा।

"तेंहा निच्चट देहाती हावस रे महुआ ! सिरतोन। ये का रोवई आवय भई। गाँव-गंवई के अइसना रोना गाना बने नइ लागे मोला। सगा आही तब रोना, सगा जाही तब रोना। शहर मा कोनो नइ रोवय। ये पारी तो तोला शहर लेगे बर आए हंव मोर मैना !''

टूरा कुबेर किहिस फेर टूरी महुआ मुक्का होगे रिहिस भलुक अब्बड़ गरेरा चलत रिहिस अंतस मा।

"गाँव मा रहिके निच्चट देहाती बनगे हावस। गोबर कीरा बनगे हस। गोबर बिनना अउ गोबर मा खुसर के रहना तोला बने लागथे। हमर शहर चल। शहर के सुघरई ला देखबे ते खुश हो जाबे।''

टूरा मुहूँ मुरकेटत किहिस। 

"जानथो तुंहर शहर ला। हमर गाँव के गोबर तो आंगन लीपे के बुता आथे, गौरी गणेश बनथे फेर तुंहर शहर के गोबर तो  बस्साथे। ..... अउ का शहर-शहर लगाये हस। न सांस लेये बर हवा हाबे सुघ्घर न खाए बर कोनो आरुग जिनिस। ... अउ तोर शहर के सुघरई बर गाँव के पसीना ओगरे हाबे। कतको गाँव मेटागे तब तोर शहर बने हाबे, झन भूलाबे।''

महुआ अगियावात किहिस। टूरा कुबेर के  मुहूँ उतरगे। 

"असली जिनगी तो शहर मा जिए जाथे महुआ ! चल उहां, तोला मैडम कहिके जौन मान मिलही तौन ये गाँव मा नइ मिले। उहां  सभ्य समाज अउ पढ़े लिखे के कॉलोनी रहिथे। खाना-पीना,रहना-बसना जम्मो सलीका ले होथे। चल हमरो दुनिया ला बसा लेबो अइसन सुघ्घर जगा मा।''

टूरा कुबेर हा महुआ के हाथ ला धरत किहिस फेर महुआ ला तो जइसे करेंट लगगे। हाथ ला झटकारत दुरिहा घूँच दिस।

"प्यासे ला पानी नइ मिले। भूखे ला जेवन नही। बिन मतलब के कोनो पंदोली नइ देवय। अइसन शहर के गोठ झन कर। भलुक विकास अब्बड़ होवत हाबे फेर संस्कार सभ्यता ला लील डारिस। टूरी-टूरा रातभर पब मा उघरा नाचत हाबे, नशाबाजी करत हे। कोनो ला गाड़ी मा घसीटके मार डारत हाबे तब काकरो ऊपर एसिड फेंकत हाबे। अब तो फ्रीज मा सब्जी कमती अउ टूरी के कई कुटका मा कटे लाश जादा दिखत हाबे शहरिया बाबू! टूरी, माइलोगिन ला मुनगा बरोबर चुचरके काहंचो भी फेंक देथे अइसन शहर के शोहबती झन मार कुबेर ! नइ जावंव  मेंहा तुंहर शहर।''

महुआ किहिस अउ गोहार पारके रो डारिस।

"का होगे हे बही तोला ! आगू शहर जाए बर अब्बड़ अतलंग लेवत रेहेस अउ अब शहर के नाव मा ....?''

कुबेर किहिस फेर महुआ के नस-नस मा लहू नइ दउड़त रिहिस भलुक समंदर के लहरा मारत रिहिस। आगू मा अवइया जम्मो ला लील डारही, बुड़ो डारही अइसन समुंदर उठत हाबे। .....अंतस के पीरा के समुंदर आवय येहां। 

"मोला शहर अउ शहरिया के नाव मा नफरत होगे हाबे अब।''

महुआ मुहूँ मुरकेटत किहिस अउ महुआ फूल भरे अपन टूकनी ला बोहों के आने रुख कोती चल दिस। वोकर जम्मो संगी-संगवारी मन अब गाँव लहुटे के तियारी करत हाबे।

                भूरी महुआ जंगल के बेटी आवय। वनदेवी के कोरा मा खाए खेले हाबे, बाढ़े हे। कोनो नइ जाने कोन महतारी के कोख ले अवतरे हाबे तौन ला। नानकुन रिहिस तब महुआ रुख के तरी मा परे रिहिन नानकुन ओन्हा मा लपेटाए। नेरवा घला नइ झरे रिहिन। बइगिन डोकरी हबरगे रिच्छिन माता के पूजा करे ला जावत रिहिन तब। कोंवर उल्हा पाना कस नोनी के ललछौहा देहे। बइगिन डोकरी के कोरा हरियागे। l माता देवकी तो कभू झांके ला नइ आइस फेर यशोदा माता बनके अब्बड़ जतन करिस बइगिन डोकरी हा। 

नोनी महुआ भलुक महतारी ला नइ देखे रिहिस कभू फेर इही महुआ के रुख मा अपन महतारी के छइयां देखे लागथे। सुख अउ दुख मा महुआ संग गोठियाना अब्बड़ सुहाथे महुआ ला। महुआ रुख घला हुकारु देथे, कभू लोरी सुनाथे अपन पत्ता ला हलाडोला के। मन अनमनहा लागथे तब  अपन पत्ता के  सरसराहट ले गीत-संगीत सुना देथे महुआ रुख हा। उदास होथे मन हा तब सोनहा फूल टपका के मदमस्त कर देथे। ... अउ कोरा मा बइठार के लोरी घला सुना देथे ये जम्मो रूखराई हा। गाँव भर के दुलारी आवय बइगिन डोकरी के रिच्छिन माता भूरी टूरी महुआ हा।

                             आज गाँव गदबदावत हाबे। बाजार चौक मा ट्रक आए हे। ट्रक नो हरे भलुक गाँव के जवनहा अउ मोटियारी के सपना आवय। उही जवनहा अउ मोटियारी जौन रोजगार गारंटी योजना मा कमाए बर लजाथे। फेर चंदवा कोचिया तो अब्बड़ चतरा हाबे वोला तो जादा ले जादा मोटियारी मन ला ले जाना हे शहर। बिमला केतकी मंगली रूपदई जम्मो कोई तियार होवत हे।

"महुआ ! मेंहा शहर जावत हावंव कमाए खाए बर तहूं चल। खाए पीए पहिने ओढ़े के जम्मो जिनिस फोकट मा दिही। ... अउ नगदी रुपिया घला दिही उहा थपटी के थपटी।''

सोनारिन किहिस मुचकावत। 

".....अउ का बुता करहूं उहां ?''

महुआ पूछिस। आँखी रगरगावत रिहिस।

"कोन जन  ? बने फोरिया के नइ बताइस चंदवा कोचिया हा फेर जम्मो मोटियारी मन फाइव स्टार होटल मा रोटी बनाही अउ सियान मन  बर्तन धोए के बुता करही अइसना बताए हे। मेंहा तो अब सुघ्घर गोल-गोल फुल्का  रोटी बना डारथो  महुआ ! सिरतोन, पुलाव घला बनाए ला आ जाथे अब तो। मास्टरिन काकी सिखोइस न मोला।'' 

सोनारिन अउ किहिस उछाह मा कुलकत फेर महुआ के मन उदास होगे, आँखी मा पानी आगे। गरेरा उमड़े लागिस अंतस मा। बादर गरजे लागिस अउ बरसिस तब पूरा आगे। समुंदर के लहरा कस पीरा उमड़ीस।

"बहिनी सोनारिन ! तेंहा मोला पुछ्त रेहेस न पाछू महीना कहां गेये रेहेस अइसे अउ मेंहा मोर महापरसाद घर गेये रहेंव कहिके लबारी मार दे रहेंव।......... फेर मेंहा अइसने शहरवाला मन के मेकरा जाला मा अरहजगे रहेंव महापरसाद के संग शहर जाके। अइसना रोटी बनाएं के बुता के सपना देखाइस अउ जौने देखिस तौने राच्छस बनगे, देहेे ला नोचे लागिस रोटी समझके। फाइवस्टार होटल के बरन मा चकलाघर मा अमरगे रहेंन। नेता अधिकारी बैपारी तिलकधारी टोपीवाला उज्जर ओन्हा वाला जम्मो कोई ग्राहिक बनके आवय अउ बइला बाजार के जानवर बरोबर सौदा करे टूरी के देह के। व्हाट्सएप फेसबुक सोशल मीडिया मा बोली लगथे। मरद मन रौंद डारिस तन ला अउ मन ला रौंद डारिस  माइलोगिन मन। एक माइलोगिन आने माइलोगिन के मरजाद ला नइ राखिस। अइसन मइलाहा बरन हाबे शहर के। झन जा बहिनी ! इखर गुरतुर गोठ के पाछू कतका करू हाबे तेंहा कभू अजम घला नइ सकस।''

सोनारिन तो अकचकागे। कभू अइसन गुने घला नइ रिहिस। भलुक आँखी ले आँसू के धार नइ अतरत रिहिस फेर सोनारिन के तन बदन घला अगियाये लागिस।

"कइसे बांचे बहिनी वो राच्छ्स मन ले।''

सुसकत आँसू पोंछत पुछिस सोनारिन हा।

"राच्छ्स राज रावण के लंका मा विभीषण अउ माता त्रिजटा रिहिस वइसना एक झन डोकरी दाई हा बेरा देख के वो काल कोठरी ले बुलकाइस मोला अउ मोर महापरसाद ला। तब आज सौहत ठाड़े हावंव तोर आगू मा, नही ते........?''

महुआ बम्फाड़ के रो डारिस।

उदुप ले मोहाटी के कपाट बाजिस। कुबेर आवय दूनो के गोठ ला सुन डारिस l

"तेंहा कब शहर चल देस अउ लहुट के आगेस।...फेर मोला एको दिन नइ बतायेस महुआ !...... मोर संग मया के स्वांग रचत रेहेस महुआ अतका दिन ले।''

कुबेर अगियाये लागिस अब। महुआ तो अचरज मा परगे। "ये  पंदोली देये के बेरा मा काबर खिसियाथस कुबेर ! मेंहा अब्बड़ उदिम करेंव बताहू कहिके फेर सामरथ नइ हो पाइस। येहां अलहन आवय कुबेर ! मया करथस तब समझदारी देखा।''

महुआ के करेजा फाटगे बतावत ले।

"खिसियाहूं नही तब तोर आरती उतारहूं का ...? अपन पवित्रता ला शहर मा बेंच डारेस। अउ....तोर जूठा तन ला चांटे बर तोर संग बिहाव थोड़े करहूं मेंहा। बाय,.......ब्रेकअप।''

कुबेर किहिस। 

"तोर बहिनी संग कभू अइसन अलहन होतिस तब अपन बहिनी ला दोष देते का...?''

सोनारिन समझाए लागिस फेर कुबेर तो ससन भर  गुर्री-गुर्री देख के फुनफुनावत चल दिस, अंधियार मा लुकागे कुबेर हा अब। महुआ रोवत हाबे। नारी के तन कोनो जिनिस आवय का कि जूठा हो जाही ? 

                                आज गाँव के देवगुड़ी करा जम्मो कोई सकेलाय लागिस अब। सुकूरपाल जोंगपाल बेंद्रागाँव आमटी ये जम्मो गाँव ले पंद्रा बीस झन मोटियारी मन आवत हाबे हाँसत मुचकावत सपना देखत। .... अउ आवत हाबे पचास पचपन बच्छर के मनखे जौन सोना के चैन पहिरे हाबे हाथ अउ नरी में। चाकर चेहरा कर्रा-कर्रा मेंछा अउ चंदवा। ....सादा ओन्हा के पाछू करिया मन। 

"गाँव के टूरी मन ला बने सकेले हावंव दादा। पांच के जगा मा पच्चीस आवत हाबे। अब तो मोर कमीशन ला बढ़ाबे दादा !''

"हांव भाई! तुहरे मन असन ले हमर दुकान चलत हाबे रे ! तोर कमीशन ला बढ़ायेच ला पड़ही हा..... हा .....। भाई जी अउ मैडम जी ले ईनाम देवाहुं तोला।''

कुबेर के गोठ ला सुनके चंदवा कोचिया किहिस।

"कइसे तुंहर गाँव के महुआ रस मा मिठास नइ दिखत हाबे कुबेर ! तेहां तो अब्बड़ सुघ्घर रहिथे काहत रेहेस।''

"हाबे न भइया अभिन देखेच कहां हस .....? चल खाल्हे पारा तब देखाहूँ महुआ ला घला अउ महुआ रस ला घला।''

कुबेर दांत निपोरत किहिस अउ खाल्हे पारा चल दिस खांध धरे-धरे।

"कका ! पहुना आए हे गाँव मा। येहां शहर के मोर संगवारी आवय। दूनो कोई एक्के कंपनी मा बुता करथन। सुघ्घर स्वागत करना हे। महुआ रस के एक पानी वाला प्योर माल ला लान पिये बर।''  

कुबेर हा चंदवा कोचिया के चिन्हारी करवावत किहिस। अउ कका हा तो लगगे स्वागत में। बॉटल ऊपर बॉटल लाने लागिस। गाँव के दू चार झन अउ आगे अब शहरिया बाबू के संगी संगवारी मन।

"एक बात तो हे चंदवा भईया ! पहिली मालगुजारी प्रथा रिहिस तौने सुघ्घर रिहिन। गरीब मन ला अपन औकात तो पता राहय। दाऊ के आगू मा पनही घला नइ पहिन सके। फेर आजकल के मन हमर मुकाबला करथे। मेंछराथे बड़का-बड़का मोबाइल धर के किंजरत रहिथे।''

"हाव भाई कुबेर ! सिरतोंन कहत हस। वो बेरा तो गाँव के नेवरनींन बहु  ला चाऊर निमारे ला बला के का नइ कर डारे। पहिली दाऊ के कोठा राहय अउ अब हमर असन के चकला घर हाबे। ..... अउ ये गाँव के टूरी मन अब्बड़ भोकवी हाबे। पइसा के लालच देखाबे ते कहांचो चल देथे। जब तक ये भोकवी-भोकवा हाबे तब तक हमर असन चतरा- सुजान बर बरा सोहारी छप्पन भोग तो मिलतेच रही भई।''

एक आँखी ला चपकत किहिस चंदवा हा अउ हाँसे लागिस।

पेट मा जइसे-जइसे दारू जाए लागिस पेट के गोठ बाहिर आए लागिस। 

                  महुआ अउ सोनारिन के जी अगियावात हाबे ये चंदवा कोचिया ला देख के। ..... अउ वोकर ले जादा पीरा होवत हाबे कुबेर ला देख के। येकर बाप गौटिया मन शहरिया बन के गाँव के हीनमान भलुक करिस फेर कोनो बेटी ला शहर लेग के बेचिस नही। ....फेर ये कुबेर हा मया के ढोंग लगाके कतका झन नोनी मन के जिनगी ला बिगाड़ही ? गाँव के सियान ला बताइस फेर सियान मन घला मंद पीके भकवाय हाबे। पुलिस वाला तो एक पत्ती मा अपन ईमान बेच देथे। .........अब का करही महुआ अउ सोनारिन हा ? काकर ऊपर भरोसा करही ?

"अरे भाई कुबेर ! महुआ रस पियाते रहिबे की चखना घला खवाबे।

"नून मिर्चा लगे चिंगरी सुक्सी तो हाबे भईया अउ कइसन चखना लागही।''

कुबेर मसखरी करत एक आँखी ला मसकत किहिस।

"नइ जानस ?''

"जानथो महराज ! अठठारा बच्छर के मस्त कड़क चखना दुहूँ,थोकिन दम तो धर।''

कुबेर किहिस।

"अभिन उतार के लानत हावंव ये दे गौटिया बाबू कुबेर ! एक पानी वाला आय गरमा-गरम हाबे।''

कका किहिस कुलकत अउ अपन हाथ के दुनो बॉटल ला आगू मा मड़ा दिस। 

दूनो गिलास मा ढारिस अब चंदवा कोचिया हा। ससन भर सुंघिस अउ उछाह करत भगवान भोले नाथ ला सुमिरन करिस।

"हाव मस्त कड़क हाबे ये दारू हा। अइसना खोजत रहेंव,अब मिलिस।

"चेस'' 

कुबेर अउ चंदवा कोचिया पिए लागिस आँखी मूंदके अब। 

"अब्बड़ कड़क हाबे स्साले हा सिरतोन।''

दूनो कोई किहिस अउ मुचकाए लागिस। .....फेर चिटिक बेरा मा दूनो कोई पेट पीरा उमड़े लागिस, अगियाये लागिस। अब दूनो कोई पेट ला धरके तड़पे लागिस। 

"का कर देस डोकरा तेंहा ?''

"का पिया देस रे बैरी।''

दूनो कोई तड़पे लागिस अब, जी छूटे बरोबर तड़पत हाबे। सिरतोन अइसना तो महुआ हा घला तड़पे रिहिन शहर के चकलाघर मा जब वोकर तन ला अनचिन्हार हा रौंदिस।  जम्मो टूरी मन के तड़पना रोनहुत चेहरा महुआ के आगू मा आगे अब। 

सेप्टिक धोए के एसिड ला दारू के बॉटल मा डारके कका के हाथ मा पठोय रिहिन। एसिड कहंचो राहय अपन गुण ला देखाबे करही ?

महुआ अउ सोनारिन अब्बड़ रोवत हाबे। कका हा तीर मा जाके दूनो कोई ला समझाइस। ......फेर महुआ तो पल्ला भागत महुआ रुख मा हबरगे अउ काबा भर पोटार के रोए लागिस। 

"महुआ दाई मोला माफी दे दे। तोर बेटी संग अनित करइया संग   .... हो हो ....!''

महुआ के मुहूँ ले बक्का नइ फुटत हाबे अब। दाई घला जानथे। अपन दाई संग दुलार पावत हाबे अब। महुआ रुख अपन पत्ता मन ला झर्राके थपकी देवत हाबे। पत्ता के सरसराहट ले दुलार के संगीत उठत हाबे। 

........ अउ अब गाँव के सुम्मत एक बेरा अउ देखे ला मिलिस ते मन अघागे। 

"शहरिया मन छकत ले महुआ रस पीके अपन जान गवां डारिस।'' 

पंच सरपंच जम्मो कोई अइसना बयान दिस पुलिस करा।

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चन्द्रहास साहू द्वारा श्री राजेश चौरसिया

आमातालाब रोड श्रध्दानगर धमतरी

जिला-धमतरी,छत्तीसगढ़

पिन 493773

मो. क्र. 8120578897

Email ID csahu812@gmail.com




समीक्षा--पोखनलाल जायसवाल: आज गँवई-गाँव ल छोड़ के सबो शहर कोति के रस्ता रेंगे ल धर ले हें। गँवई-गाँव म पहिली सहीं काम-बुता नइ मिले ले बाढ़त खरचा के पुरती नइ हो पावत हे। अइसन म सबो दू पइसा कमाय के नाँव ले शहर जाथें। शहर म गाँव वाले मन के का गति होथे? कखरो ले छिपे नइ हे। आज सब पइसा के पीछू दीवाना हें। एकर बर कोनो किसम के बुता करे म लाज शरम नइ मरत हें। खासकर दलाल गढ़न मनखे मन। 

        शहर म पइसा हे, अउ पइसा के पाछू सुख के भ्रमजाल हे। मनखे दिन रात भागत हे। ओला कोनो आराम नइ हे। इही भागमभाग म कतको सफेदपोश मनखे मन ठग-फुसारी करके चकलाघर म गाँव के माईलोगन अउ नोनी पिला मन के तन ले खेलथें। उँकर मन ल तार-तार करथें। गँवइहा मनखे मन शहर म काम बुता के चक्कर म कतको घव पिंजरा म ओलिहाय जीव सहीं फँस जथें। लोकलाज अउ बुता छूटे के डर म सब ल सहत रहिथें। भीतरे-भीतर कुढ़त रहिथें। छटपटावत रहिथें। फेर बाहिर नइ निकल सकँय। कोनो कोनो भागमानी होथे, जे उहाँ ले निकल पाथे। अइसन हे भागमानी आय- महुआ। जेकर अंतस् के पीरा ल कहानीकार चंद्रहास साहू नारी-विमर्श के कहानी के रूप म सिरजाय के जबर उदिम करे हे। ए कहानी म नारी अस्मिता संग खेलवार करइया मन के भेद ल उजागर करे गे हे। कहानीकार ए कहानी ले समाज ल खासकर के गाँव के लोगन ल शहर के रस्ता धरत सावचेत रहे के संदेश देना चाहे।

          गाँव म नोनी पिला मन संग वइसन अत्याचार नइ हे, जउन आज शहर म देखे ल मिलथे। नोनी मन संग शहर म होवत अत्याचार ल जोरदार उठाय गे हे। इही ह तो कहानीकार के सामाजिक सरोकार आय। समाज म होवत घटना के चित्रण के चलत ही साहित्य ल समाज के दर्पण माने जाथे। जे समाज उत्थान बर जरूरी होथे। समाज म अनियाव ले लड़े बर जागरण के चेतना के स्वर भरथे। मया अउ मीठ-मीठ गोठ के संग जादा पइसा कौड़ी कमाय के सपना के फेर म फँसे के पहिली आँखी खोल के रखे के चेतवना हे।

       चंद्रहास साहू के मन म सिरिफ समाज म नोनी मन संग होवत दुर्गति के संसो नइ हे बल्कि बेटा मन के नशा म फँसे ले समाज के नकसान कोति चेत घलव जाथे। तभे तो लिखथें- 'सिरतोन बेटी मन ही तो मरजाद ल राखे हाबे। बेटा जात तो निशा म बुड़गे हे। जाँगर चोट्टा होगे हे बेटा मन अउ बेटी कमेलिन बन के घर चलावत हाबे।'

         एहर आज समाज के सच्चाई घलव आय। गाँव-गाँव अउ चउँक चउँक म नशा के जिनिस मिलत हे।


         कहानी के विस्तार, संवाद अउ चरित्र के अनुरूप भाषा शैली गजब के हे। कहानी म प्रवाह हे। शीर्षक घलव बढ़िया हे।

         अनियाव अउ अत्याचार ले बचाय बर महुआ के नवा रूप धरना जरूरी रहिस। भले उन ल अपन उठाय कदम के पछतावा होवत हे। 

          पुलिस कोनो भी अस्वाभाविक मौत के सही सही कारण जाँच ले जान डार थे। अइसन म पंच सरपंच के बयान पुलिसिया पक्ष ल कमजोर आँकना हो जही। ए आखरी डाँड़ ल कुछ अउ ढंग ले होना चाही।

      बढ़िया कथानक के संग उद्देश्य पूर्ण कहानी बर बधाई🌹💐😊

पोखन लाल जायसवाल

पठारीडीह, पलारी

छत्तीसगढ़ी कहानी:-* *आरो....*

*छत्तीसगढ़ी कहानी:-*


       *आरो....*


नान्हे नान्हे लइका लोग बर अड़बड़ मया, पारा गली म सबके सुख-दुख म आघु ले आघु खड़े हो जाय सब झन बर मयारू रहिन फेर अपने बर बिरान होगे रहिस ढेला ह।भला बनी-भूति करके पेट पालय फेर सबो के सुख-दुख के आरो ले ।हटरी के दिन खाई खजानी बर लइका मन कलर कलर करे।सबो बर अतीक मया फेर अभागिन ह बेटा बहु के सुख ल नई पाइस।नान्हें पन म बपुरी के बिहाव बर होगे रहिस ।काल के मालिक कोन होथे एकेच झन बाबू भर निभे रहिस उँकर जोड़ी ह उँकर संग ल छोड़ सरग सिधारगे।नान्हे लइका के मुहू म पेरा झन गोंजाय कहिके बपुरी ह अपन जिनगी अपन बाबू सुखीराम ल देख के बिता दिन।दिन भर बनी-भूति,गौटिया घर गोबर कचरा त ककरो कुटिया-पसिया।जेकर जइसन दया उले दु चार पईसा दे दे।अपन मुंह ल बांध जांगर तोड़ पसीना गारके अपन बाबू बर कोनो कमी नई होवन दिस।बाबू बड़े होइस त उँकर पढ़े लिखे के घला बेवस्था करिन।दिन बीते लगिस बाबू सुखीराम जवान होगे रहिस ।महतारी बेटा दुनो के मेहनत के परसादे अब घर म कोनो किसम के कमी नई रहिस।

    अपन जिनगी ल बाबू बर निछावर करके आज के सुघ्घर दिन के सपना मन म सिरजाये रहिस।बाबू के पसन्द ले नोनी देख के उँकर हाथ पिवरा दिन।ढेला ह बाबू के बिहाव म कोनो किसम के कमी नई करिन गांव वाले मन त देखते रहिगे।का बेंड बाजा, मोतीचूर के लाडू,नचनिया,अउ सगा सोदर, जात बिरादरी के मन गउन म कोनो किसम ले कमी नई आवन दे रहिस।जइसे ढेला ह इही दिन के सपना ल सिरजा के राखे रहिस।"सिरतोन म जेन अभागिन के सरी जिनगी ह हिरदे ल कठवा-पथरा करके अपन जिनगी के एकेच ठिन सपना देखय वहु पूरा हो जाय  त मन अघा जाथे।"

   उछाह मंगल ले बाबू के बिहा निपटगे अब जइसे ढेला के जिनगी म बड़ जन काम पूरा होगे।नाती -नतरा के सपना सिरजाये लगिस ।फेर कभू-कभू मनखे के खुशी म नजर लग जाथे ।बेटा बहु म खिटीर-पिटिर चालू होगे।बात बढ़े लगिस।उँकर खिट-पिट म रतिहा घर म ढेला सँसो के बादर म बूड़गे।

  सियान ह घर म कोनो ऊंच-नीच देख के सीखाए बर दु टपपा कहि परथे तेहा नवा बहु बेटी मन बर भारी हो जाथे।"सियान मन अपन जमाना के रीत ले सकेले अपन ढंग ले साव चेत होवतआगू डहर बढ़ना चाहथे त जवान मन अपन ढंग ले नवा जमाना के सङ्गे संग आगू बढेबर देखथे कभू-कभू पीढ़ी के इही भेद म सुनता-सुमत के बिना डाँड़ खींचा जाथे जेन आज के ऊपर बर भारी परथे।

   इही समय के डाँड़ ह आज ढेला के दुवारी म परगे बहु नवा जमाना के नोनी आय उँकर गांव समाज के लोक लिहाज,अउ कोनो अउ काम ल अपन ढंग ले करेबर ढेला के दु चार बात बहुरिया ल पुचर्री लागे अउ इही बात ल लेके सुखी राम संग खिट-पिट हो जाये।सुखीराम बहुत समझाय के कोशिस करिन फेर ढेला नई मानय ।कोन बइरी कोन हित।पारा परोस के एक दु झन चुगलहिं मन घला अब बहुरिया के कान ल भर दे रहिस।अब बात मुड़ के आगू बड़ गए रहिस दु चार झन हितु -पिरोतु मन के समझाय ले घला बात नई बनिस।बहु ह हांडी सथरा, पोरसे बांटे ल बंद कर दिन। बिहनिया सूत उठ के ढेला ह सुखी राम ल अपन तीर बलइस अउ कहिस:-बेटा तोर गोसईन सन तै बने खा कमा मोर दु चार दिन के जिनगी मैं तुंहर खुसी म आड़ नई बनव। बात आगू बढ़गे रहिस बेटा बर दाई अउ बाई म कोनो ल चुनना बड़का बात रहिस।जेन दाई जिनगी ल उँकर बढवारी म खपा दिस तिरिया के हठ म इही ल छोड़े ल परही विधाता एसनहा दिन कोनो ल झन दिखाये।

   बेटा वो तोर बरे बिहई ये,तोर छोड़ वोकर कोन हवय ।अभी मोर जांगर चलत हवय जेन दिन थक जाहु त विहिच तो मोर सरी ल करही अभी मन ल मढावन दे बइही ल ढेला ह सुखीराम ल समझावत कहिस।दु चार सियान मन बेटा बहु ल समझाइस फेर बात नईच बनिस त उँकर बंटवारा होगे सियान मन ढेला ल कहिस तोर जियत ले दु हरिया के खेती त अपन तीर राख विही म तोर जिनगी चलहि।इकर हाथ गोड़ मजबूत है खाय कमाय।फेर ढेला नई मानिस कहिस अब ये उमर म  खेती खार म दवा दारू मोर ले नई होवय अउ इंकर ले जोन बोरा खंड मिल जाहि विही म जिनगी चला लेहु।

   जेन लइका मन सियान बर थोरको मया नई करिस ओकरो बर कतका मया।सिरतो दाई दाई होथे जिनगी भर देथे अपन हिस्सा के सुख ,मया,पिरित अउ आशीष के छइहाँ देके हमर जिनगी ल भागमनी बना देथे।बदला म वो हमर हिस्सा के दुख ल हाँसत ले लेथे। 

   ढेला बनी भूति करके अपन दिन बिताये।बहु ह सुखीराम ल अपन आघु म सियानहीन ले गोठियाय ल घला नई दे।सुखी अउ ढेला के बीच परछी म कोठ खड़े होगे रहिस ।दिनभर के  खेती-मजूरी म बेटा बहु ह नवा जमाना के खर्चा ल नई पुर सकय।वोतकी म ढेला ह दू पइसा बचा डरे। बेटा बहु के ऊपर जब कोनो बिपत आतिस के कोठ तीर कान देके आरो लेवत कोनो किसम ले मदद करतिस।हाट बाजार म नाती -नतनीन बर चना फूतेना,लाई-मुर्रा,कांदा-कुसा,लेतिस लइका मन दाई तीर जुरियाबे रहे।झिम झाम देख के सुखी राम दाई तीर आये त उँकर हाथ कभू  कोनो जिनिस ल घला ढेला ह भितराउंधि दे दय।

         ढेला लोग लइका मन के अतकी च मया दुलार म खुश रहिस।रात दिन के हकर-हकर बूता काम म तन थक गे रहिस अउ संसो के घुना ह मन त खात रहिस एक दिन ढेला बीमार परगे डोकरी खेर-खेर खाँसे अब तो बीमार डोकरी तीर लोग लइका के अवई -जवई घला बंद होगे।बेटा जरूर डॉक्टर के बुला के सूजी-पानी करिन फेर जतन-रतन 

    खान -पान ढंग ले नई हो पाइस अउ एक दिन रतिहा कोठ के तीर म जठे खटिया म करलई बमलई करत सियानहीँ ह पराण ल तियाग दिन।जइसे वोहर कोठ म बेटा बहु के आरो लेवत समागे।फेर सियानहीँ के आरो कोई नई लीन।बिहाने सबो बिरादरी के म न सकलाइन बहु ह पढ़-पढ़ के रोवत रहय फेर अब ढेला माटी के काया  होगे रहिस कहा ल आरो पातिस? 

                   🙏

           द्रोणकुमार सार्वा

समीक्षा---पोखनलाल जायसवाल:

 जमाना कोनो राहय, दू पीढ़ी के फरक दिखबे करही। तइहा के जमाना गय कहि देथे। अब तो नवा जमाना आय। नवा जमाना ए त नवा सोच हे। आज नता गोता बर मया परेम  कोन जनी काबर ते कमती दिखथे। जिहाँ कखरो बर अंतस् ले मया रहिथे, उहाँ समर्पण अउ तियाग रहिथे। मँगनी म माँगे मया नइ मिलै...मँगनी म ...कोन जनी गीत ले निकले ए गोठ ह बेरा के संग कतेक सिरतोन साबित होही ते। आज सबो नता के पुछारी पइसा नइ ते धन दोगानी ले तोलत हे। सब ल हाय पइसा होय हे। हमर कमई ल काबर कोनो बर लुटाबो के भाव ह समागे हवय। भले जनम देवइया दाई-ददा च मन होय। नवा पीढ़ी भुला जथे कि काली वहू ह दाई ददा बनही। हम दू हमर दू के चलत दाई ददा ल दुत्कार देवत हे। अइसने नवा जमाना के गोठ ल उघारत सुग्घर कहानी हे- आरो। जेन म दाई के समर्पण अउ पीरा ल पिरोय अउ नवा पीढ़ी के सोच के आरो ल सँघारे के बढ़िया कोशिश हे।

       कहानी आरो के प्रवाह कुछ जादा रफ्तार जनावत हे। फेर कथानक संग लेखन शैली प्रभावी हे। कहानी अपन शीर्षक ल सार्थक करथे।

सुघर मार्मिक कहानी बर भाई द्रोण कुमार जी ल बधाई💐🌹🙏