Saturday 21 October 2023

छत्तीसगढ़ी कहानी -‘परदेस’


 छत्तीसगढ़ी कहानी -‘परदेस’

‘एक दू तीन ....... सत्तर ....निन्यान्बे सौ। सौ कापी, एक बंडल। एक दू तीन चार अउ ये पाँच बंडल। हरेक बंडल में सौ-सौ कापी माने पाँच बंडल म पाँच सौ कापी’ -गिनती के संगे-संग संतोष बुदबुदाथे। भंडार म बइठे गिन गिनके कापी मन के बंडल बनाए म लगे हे संतोष। सौ-सौ पेज वाले कापी के बंडल, दूदी सौ पेज वाले कापी के.... फेर तीन सौ पेज वाले। अलग-अलग पेज वाले कापी मन के अलग-अलग बंडल।  जम्मो हिसाब ल रोजनामचा म चढाके संतोष घडी कोति देखथे। घड़ी के काँटा हँ दू ले कूदके अढ़ई म डोलत रहय। सोचथे - ‘चल.... आज कुछ तो टेम मिलही।’

मोहनी ल दू -तीन पइत होगे काहत -‘बजार घूमे के साध लगे हे जी।’ संतोष समेच नइ दे पावत हे। आज बेरा ल देख वो हँ उछाह ले भरगे हे। घर जाए बर तुकतुकाए लगे हे। 

मन पाँखी धरत न अरझय, न झाँकी देखत असकटाय। उछाह के पाँख लगाए मन उछाल मारत घर के अंगना उतर गै।

‘घर जाके पहिली अराम से जेवन करना हे। खाए के पीछु किराना दूकान चले जाहूँ। का का समान नइहे तेकर लिस्ट तो मोहनी बनइ डारे होही। दूकान ले आहूँ ताहेन ......बस ! ’अतके म संतोष के आगू म ‘झम्म ले’ मोहनी के मोहनी मूरत हँ मुस्कावत खड़ा होके झूले लगिस।’

पूछथे -‘मोर बर का लेबे ?’

‘तैं जऊन कहि दे।’

‘पक्का !’

‘एकदम ! तैं बोल के तो देख।’

‘बस, बस, मैं बोल डारेवँ, तैं ले डारे। मैं अतके म खुश हौं जी’- काहत मोहनी संतोष के खाँध म बाँह डार ढेंखरा म झूलत खीरा कस नार झूलगे।

डोंगरी पहाड़ म बोहावत-झरत झरना के धार कस संतोष मोहनी मया के धार म मोहाए बोहाए लगिस झुरझुर -झुरझुर । 

‘सबो कापी गिनागे संतोष ?’

‘भद्द -ले’ माटी के लोंदा गिरे ले बोहावत झोरी के धार टूट जथे तइसे सेठ के गुर्राए ले बिचारा संतोष के बिचार के तार हँ ‘रट्ट-ले’ टूट जथे।

वोहँ झकनका जथे। कहिथे- ‘अँ.....! हौ सेठ गिनागे।’

सेठजी एकठन बिंडल कोति इशारा करत पूछथे-‘ये बंडल म के कापी हे ?’ 

‘सौ ठिन’- काहत संतोष मने मन कोसे लगथे -‘सौ सौ के बंडल बनथे, ओतको ल नइ जानत होबे।’

हरेक बंडल म संतोष टेहर्रा रंग म लिख तको देहे-‘अतका पेज, अतका नग।’ तभो सेठ पूछत हे-‘कतेक पेज वाले हे ?’

एकरोसहा सरलग पानी बरसे ले घाम म तीपे भूइयाँ म ‘भकभक-ले’ भरका फूट जथे ओइसनेहे अब संतोष के धीरज धसके लगे हे।

मनढेरहा कहिस - ‘दू सौ पेज वाले।’ 

‘येदे बंडल ल खोलके गिन तो, कमती असन लागत हे।’

बिगर कुछू देरी करे संतोष मशीन कस काम करे लगिस। बंडल खुलगे। ‘एक दू तीन....चार ...दस ... - संतोष गिनते गिनत मने मन गारी दे लगिस - ‘स्साले कुकुर ! तुम तो अंगरेज के बाप निकलगेव रे। न कोनो ल चैन से खात पीयत देख सकव, न कोनो ल चैन से जीयत देख सकव....निनानबे।’

‘अरे !’ संतोष के माथा झन्नागे। 

‘पहिली गिने रहेवँ तब तो सौ रिहिस हे। पहिली गलत गिन पारे रहेवँ के अभीन’- वोहँ सकपकाए सोचे लगिस।

सेठ घलो कम घाघ नइहे, पूछथे- ‘कतेक हे ?’

संतोष सोच म परगे- ‘का जुवाब देना चाही।’

सेठ बमकगे-‘अरे सुरूतभूल ! नवा नवा बाई लाने हस, होश- हवास ल घर म छोडके आथस का रे। ठीक ठाक गिनती घलो नई कर सकस।’

अंधरा खोजय दू आँखी। सेठ ल अउ का चाही। उन्कर तो जनमजात संस्कार होथे, नौकर ल नवाके राखथे तेकरे मुड़ म सेठई का छाता छवाथे। 

सेठ बड़बड़ाए लगिस- ‘सेठके पइसा तो फोकट म आये हे। दू ठन कापी कम होही तेकर भुगतान कोन करही ? तैं तो अपन चुकारा लेके अँटियावत चलते बनबे। टोटा हॅँ तो मोर अरहझही।

सुनके संतोष के मन म आगी धधकगे। अंतस ले गुँगुवाके धुंगिया उठे लगिस। मुँह करूवागे। मुँह के करूवाहट ल संतोष लील सकय,न थूक सकय। हाथ चपकागे सील तरी। उठावत तो बनय नहीं, तीरबे त छोलाही। का करय बिचारा हँ। फेर गिनिस। ये पइत मन लगाके गिनिस । हिसाब बरोबर मिलगे।

सेठ हँ ओसरी- पारी सबो बंडल ल खोलवा लिस । दू -दू तीन -तीन घँव गिनवाइस। सेठो अपन बाप के औलाद ये, तीन बजाई लिस। उन ल बूता म बेरा के बुलकई नइ बियापय, जतका अंटी के ढिलई-छोरई बियापथे। महिना के आखरी दिन ये। आजे हप्ता बजार के दिन परे हे। संतोष चुकारा ले बर खडे हे। सेठ एलम -ठेलम करके दस मिनट लेइ लिस, तेकर पीछू चुकारा करिस ।

पइसा ल हाथ म लेके संतोष गिनके कहिथे- ‘ए तो एके हजार हे सेठ।’

‘हो तो गे तोर हिसाब, अऊ का ?’

’पाँच सौ अऊ आही।’

‘कहाँ के पाँच सौ अऊ आही ? वो दिन तोला डेढ हजार दे रहेवँ न ?

‘नहीं तो, एके हजार दे रेहे सेठ।’

सेठ कहिथे-‘मोला सुरता हे, पाँच पाँच सौ के तीन ठन नोट दे रहेवँ तोला।’

संतोष ‘फट ले’ कहिस -‘नहीं सेठ ! एके हजार दे रेहेस।’

अतका म सेठ चिल्लाए लगिस - त का मैं लबारी मारत हौं ?

‘मैं कसम खा जहूँ सेठ’- संतोष के जी रोवासी होगे।

सेठ कहिथे -‘लान न बछिया ल, मैं पूछी धर लेथवँ, कहूँ झूठ बोलत होहूँ त।

संतोष कट खाए रहिगे। कथरी ओढ़े ले जाड़ नइ लगय तइसे बेइमानी ओढ़इया मन ल पाप नइ लागय। एक मुक्का जिनावर के पूछी के पीछू मनखे हँ सरग -नरक ल गढ़ लेथे। अपन भाग के बिधाता अपने बन जथे।

रस्ता भर मन के संतोष हँ संतोष के संग नइ रेंगिस । साइकिल के हेंडिल म टिफिन संग असंतोष ओरमे ‘ठिनिन-ठिनिन’ बाजत रहिगे। थोथना ल ओरमाए संतोष सोचे लगिस। ओला सब समझ म आगे ।

‘बिचारा खीरमोहन ! दसे हजार ले रिहिस हे। नीच, नीयतखोर अउ निर्लज्ज सेठ इस्टाम म लिखवा के रख ले रिहिस -बारा महिना म पइसा नइ पटा पाहूँ त खेत सेठ के नाम हो जही। छए महीना म खीरमोहन सेठ के मुँह म पइसा ल मार दिस, तभो बइमान कहि दिस -

‘तोर खेत तो मोर नाम लिखागे हे खीरमोहन।’

बइमान मन के डाइनिंग टेबल म अइसने खीरमोहन असन गरीबहा मन के जिनगी खीरा कस कटाके सलाद बनके सजथे।

थानखम्हरिया ले दू पइडिल के दूरिहा खपरी हँ आज घंटा भर बेरा ल बाखा म चपकके राख लिस।

रात कन मोहनी संतोष के बाखा ल हुदरे लगिस -‘तहूँ वोइसने हस।’

‘त मैं का करतेवँ, तहीं बता ?’

‘सेठ बघवा हरे जेन लील डरतिस ? चटकन के का उधार, तहूँ कहिते पसीना के पइसा ये सेठ फोकट के नोहय।’

‘वो बइमान ल बात-बानी लगतिस त काबर ?’

‘चल, मैं कहिहवँ।

अतका ल सुन संतोष के नस-बल जुड़ागे। 

नारी हँ ताकत अउ अहार सबो म नर ले भारी होथे। फेर समाज हँ ओकर हाथ म चुरी, माथ म सिंदूर अउ पाँव म पइरी के बेडी बाँध दे हे । कहाँ ले नारी हँ दुर्गा बनय।

होवत बिहिनिया रामसुख ल दुवारी म ठाढ़े देखके सेठ पेपर पढ़ई ल भूलागे। पेपर बँचई ल छोड़के ओकर मुँह ल बाँचत पूछथे-‘का बात ये रामसुख ? आज संतोष नइ आवत हे का़ ?

मुड़ ल गड़ियाए रामसुख कहिथे-‘ संतोष खाए कमाए बर परदेस जावत हे सेठ।’

सेठ के तरूवा सुखागे। अतेक ईमानदार अउ कमइया संग छोडत हे।

सेठ कहिथे -‘इहाँ का बात के दुख होगे गा ? मोला बतावय न। बढिया परिवार बरोबर हवन। जतका बेरा पइसा -कौड़ी के जरुरत परत हे तेकर देवइया हम बइठे हन। उहाँ कोन का चीज बर पूछइया होथे ? बाहिर म मेहनत करबे तभो पेट नइ भरय रामसुख, धन जोरई तो गजब दूर के बात हे। सपना देखई मन अउ आँखी भर बर बने होथे रामसुख, ओला जिनगी म उतारहूँ कहिबे न त करलई हो जथे।’

रामसुख मन म कहिथे -‘तैं का फोकट म पेट भर देबे दोगला। चार बछर ले देखत तो आवत हन। पाँव भर बने राहय पनही के दूकाल नइये। हमर जाँगरे हमर मितान ये।’

कहिस-‘हमन तो गजब समझा डरेन सेठ, हमर एको नइ चलिस।’

‘मोर तीरन भेजबे, जऊन कमी-बेसी होही, मैं दे बर तियार हौं।’

रामसुख मन के बोझा ल मने म बोहे रेंग दिस। 

संतोष अउ मोहनी आँसू ल भीतरे - भीतर पीके रहिगे। पहली घँव उन घर ले बाहिर जाए बर पाँव उसालिन हे। 

अपन आँखी के पुतरी ल फुलबाई अउ रामसुख हँ कभू नजर ले दूरिहा नइ भेजे रिहिस हे। आज छाती म पथरा लदक के रेहे बर परगे। पापी पेट हँ का-का नइ करावय। तेकरे सेति कहिथे -पीठ ल मार लेवय फेर पेट म लात झन मारय। 

‘अपन रस्ता म आहू अपन रस्ता म जाहू। बने मन लगाके कमाहू खाहू बेटा’ - काहत फूलबाई फफकी मार के रो डरिस। 

परदेस म जाके गाँव ले अउ गये मनखे मन संग संतोष अउ मोहनी कमाए लगिन। उन्कर कमई-धमई अउ बोली-बतरस के ठिहा भर म चर्चा राहय। ठेकादार तको खुश होगे रिहिसे। 

चारेच दिन होए रिहिस हे गये अउ काम धरे। एक दिन संझा के बेरा जम्मो गँवईहा मन संघरा काम ले लहुटत रिहिसे। आगू कोति ले चार झन मुस्टण्डा परदेसिया टूरा मन मस्तियावत आवत राहय। उन ल देखके माईलोगन मन भर नहीं, भलकुन जम्मो टूरा पीला मन तको दूरिहाके रेंगे लगिन। वो टूरामन जतके तीर म आवय येमन दुरिहा घुचते रिहिन। ओतके म एकझन टूरा हँ मोहनी के अँचरा ल धरके ‘सर्र-ले’ तीर दिस। मोहनी के खाँध ले ओकर खँधेला गिरगे। जम्मो गँवइहा-कमइया एक-दूसर के मुँह ल बोकबाय देखे लगिन। संतोष के आँखी म आगी गुँगवाते रहिगे। मोहनी आव देखिस न ताव परदेसिया टूरा के मुरूवा ल जम्हेड़के धर लिस। 

खींच-खींचके चटकन गिनत कहिस -‘तोर मुड़ म कीरा परय रोगहा ! तुँहार घर म बहिनी माई नइहे का रे ? तुँहर दाई ददा इही सिखोना सिखोए हे तुमन ल ?’

परदेसिया टूरा पसीना म थर-थर नहागे। संग संगवारी मन मोहनी के हाथ ल धर-धरके तीरे लगिन -‘चल ! परदेस के कारोबार ये, बिन अक्कल के मन हँ पीए-खाए हे, बइहागे हावय। 

मोहनी ललकारके कहिस -‘परदेस म आये हन, तेकर मतलब का इज्जत बेंचे बर आये हन। ले तो अपन बहिनी-माई के हाथ ल अइसने धरके देखावय, तब जानहूँ मैं पीए- खाए हे, होस म नइहे कहिके।’

धरती ल फकत धूर्रा माटी भर झन जानय। कतकोन बड़े जिनिस ल अपन कोरा म पचो डारथे त बड़े -बड़े रूखवा ल खड़ा घलो कर सकथे । ओइसनेहे नारी ल मास के लोथड़ा भर झन जानय। नारी जब रणचण्डी के रूप धर लेथे त कतकोन खूँखार शेर होवय ओकर घमण्ड टोरके ओला अपन सवारी तको बना लेथे। 

परदेसिया टूरा मन एकक करके खिसके लगिन। मोहनी ल ले देके समझावत गाँव वाले मन झोपड़ी कोति लेगिन।

बाकी कमइया मन के थके-माँदे देह रतिहा के घपटे अंधियारी ल माँद बनाके पसरगे, अपन देह के थकान मोहनी लतियाके कथरी कस एक कोंटा म फेंक दिस फेर गुलामी के अंधियारी ल अपन तीर म नइ भटकन दिस।

होवत बिहिनिया मोहनी अपन गाँव वाले ठेकादार पूनाराम घर धमक दिस।  कहिथे-‘चल कका, हमन ल गाडी चढ़ादे ।’

‘त मोर ओतेक ओतेक के ठेका........।’

ठेकादार के बात ल बीचे म काटत मोहनी कहिस- ‘परदेस के सोन उगलत खदान ले गाँव के माटी बने हे। जाँगर रहिही त कोनो मेरन जी खा लेबोन। इज्जत के बासी ल खाए अउ पचोए बर सीखव कका ! खीर के सुवाद पीछू गुलामी के कूआँ म झन कूदव। सत्त, इमान अउ मेहनत के पसीना जेन मेरन गिरही, धरती ल उही जगा सोना उगले बर परही।’

धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

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