Thursday 26 October 2023

छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - पंडाल सजाए चंडाल

 छत्तीसगढ़ी व्यंग्य - पंडाल सजाए चंडाल

उप्पर वाले हँ एसो अइसे झमाझम मया बरसइस के भूइँया के संगे-संग तन-मन-धन सबो के मइल धोवा-बोहागे। 

‘छकछक-ले’ धोवाए-ओगराए मन म ‘भकभक-ले’ धरम के बिरवा फूटगे। कुंवार म ‘चकचक-ले’ देवी दर्शन के चुलुक ‘खबखब-ले’ ठढ़ियागे।

‘धन-दोगानी के बाढे ले साध अउ साधन दूनों के गुटानी-फुटानी बाढ़ जथे।’

अइसे साध अउ साधन दूनों के साँठगाँठ होए ले ही धरम के रद्दा पोठ होथे।

साध अउ साधन के अगिनकुंड म कहूँ सुविधा अउ सहयोग के समिधा मिलगे ताहेन मनखे के मुक्ति म कोनो दुविधा-बाधा के युक्ति काम नइ आवय।

साध ल धर-पोटार फटफटिया उठाके हम चलेन सहर कोति। अभीन के समे म शहर के देवीमन सँऊहत, जागरित अउ अबड़े फुरमानुक होथे कहिथे। जाके फटफटी ल खड़ा भर करे पाए रहेन, दूझिन कुंवारामुँहा टुरामन कुँवरहा कुकुर टाइप लाहकत लार बोहावत तीर म आगे। उन लाल-पिंयर परची के जीभ ल लमावत-हँफरत कहिन- ‘गाड़ी स्टेण्ड के परची कटा।’

‘गाड़ी स्टेण्ड के परची।’ हम अकबकाए-बकबकाए पूछेन-‘गाड़ी स्टेण्ड के का-कइसन परची भाई ?’

‘तुँहर देवी दर्शन के करत ले गाड़ी के रखवारी कोन करही ?’

‘रखवारी के का जरूरत हे ?’

‘निच्चट कोड़हा-भूँसा कस भोकवा हस यार। तुमन ओति देवी दर्शन म भुलाए रहू अऊ एति गाड़ी ल कोनो लेगे त ?’

‘अरे ! अइसे कइसे ले जही जी। सबो दर्शन खातिर आए हे। इहाँ कोन गाड़ी के पीछू परे रहिही भई।’

‘श्रद्धालुमन सब दर्शन करे म भुलाए रहिथे, चोर-ढोरमन ल थोरे दर्शन-वर्शन से मतलब रहिथे। हम ये मेरन फोकट छाप काबर खडे हन ?’

मोर ‘ठकठक-ले’ खलपट्टा मन म ‘खटखट-ले’ खपटहा विचार ‘खलबल-ले’ खलबलइस- ‘ सोला आना सही बात। ये मन काबर खड़े हे ?’

मोला उन्कर मन के लुटलुट करत खड़े होए के कारण समझ म आ गे।

कउव्वाके दूठिन गुटका के पइसा वो कुंवरहामन ल देके फटफटी के परची कटाएन। फटफटी के ‘फटफट-ले’ जी छोड़ाके आगू बढ़ेन। 

अतका भीड़ कि मुड़ी-पूछी के चिन्हारी नइ रहय।

उहाँ शिवजी के बराती बरोबर एक ले बढ़के एक जीव रिहिसे। गेंड़ी कस ‘ढंगढंग-ले’ दू पाँव के रहिते मन से विकलांग। ‘बटबट-ले’ बड़े-बड़े आँखी के रहिते देखब के अँधरा, नीयत के निच्चट खोटहा अउ अबड़े छोटे आँखी के मनखे। तन व्हाइट सीमेण्ट म पोते कस ‘फकफक-ले’ ओग्गर अउ मन केरवस कस निच्चट बिरबिट करिया-कलमुँहा। किसम-किसम के सुरहा-बैसुरहा मनखे गा, अब काला बताववँ। सुर-असुर, सरग-नरक के दर्शन करे बर होवय त अइसेनेहे परब म निकलै।

देवी के सुन्दर अउ सुग्घर रूप के दर्शन खातिर सुर म जस गीत गावत मनुज तुल्य कुछ असुर-बैसुर। देवी के अँगना म नाचत इतरावत झूमत गावत रिझावत मनखे तुल्य लंगुर, सबो पधारे राहय।  

ओइसनेहे शहर के देवी मन तको सजे-सँवरे मार लकलक-लकलक, चमचम-चमचम, छमछम-छमछम करत बरत-झूपत रहय। 

भीड़ ल कइसनो करके चीरत पंडाल के तीर म पहुँचेन। उहाँ जाके देखेन, पंडाल के बाहिरे म दुवार तक जाए बर अबड़े लंबा लाइन। रस्ता अबड़े घुमावदार रिहिस। ‘चमचल-ले’ बाँस बल्ली बँधाए टेड़गा-बेड़गा साँप सहिन घूम के दुवारी तक पहुँचे रहय। जम्मो मनखे जिनावर उहाँ ओरी-ओरी एक के पीछू एक लगे राहय। हमू सबके पीछू ल धर लेन। मुड़ी ल पेलत घुसरे लगेन। वो मेरन सेऊक बने दू झिन ‘बन के रक्सा’ बइठे रहय। वो बन के रक्सामन रद्दा म बाँस के अड़ंगा लगाए रहय। भगत अउ साऊ-सिधवा मनखे मन बर हरेक जगा अड़ँगा लगे रहिथे। वो अडँगा नइ होवय भलकुन भगत मन के भक्ति के परीक्षा होथे। वो ‘बन के रक्सा’ मन हमन ल देखके अड़ँगा डारत कहिस-

‘टिकिट देखाओ जी।’

हम सकपका गेन, पूछेन -‘वो कहाँ मिलत हे भाई।’

‘वो देख, सोझ आगू म मिलत हे’ - वो हँ अंगरी देखावत कहिस।

हम कहेन - ‘वो मेरन तो कटोरा धरे भीखमँगा मन लाइन से बइठे हे।‘

वो कहिस - ‘अरे कटोरा नहीं रे भइया। कागज के परची धरे बइठे हे।’ 

भीखमँगा तको अलग-अलग किसम के होथे, ये आज जानेन।

ओकर बताए जगा म जाके देखेन ? उहों दू किसम के टिकट। एक शुध्द भक्तमन बर दूसर अशुध्द भक्त मन बर। शुध्द भक्त मन के टिकट 100-रू. अशुध्द भक्त मन के 10 रू.। टिकट बेचइया मन संतशिरोमणि-निर्माही महात्मा बरोबर परमभक्त स्वरूप रहय। जब हम उन्कर ले देवी दर्शन खातिर टिकट के कारण जानना चाहेन। अउ पूछ परेन कि दस रूपिया वाले मन ल देवी नान्हे अउ सौ रूपिया वाले मन ल विराट रूप देखाही का ? त उन ‘रज्झ-ले’ सोज्झे-सोझ कहिस-

‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दर्शन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे तब जाके कृपा बरसथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दर्शन दे देही, त अतेक रचे-रूचाए बसे-बसाए माया के का महानता अऊ महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोझ-सहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक सजे-सुजाए पंडाल, चंडाली भरे भक्तिभाव अउ विग्यापन भरे दुकानी के का होही। ये गूढ़ रहस्य ल तुम निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। अरे ! समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’

‘हम उन परमपुरूषमन के अमृतबानी ले परमग्यान के रसपान करके धन्यवाद देवत आगू बढ़ गेन।

टिकट ल तीन-चार परत मोड़-चिमोटके धरे, हम अपन पारी के बाट जोहत लाइन म खड़ा होगेन। हमन ला खड़े-खड़े आधा ले एक घंटा होगे। पारी आएच् नइ रहय। जी कऊव्वागे रहय। हमर घुसरे के दुवारी के बाजू म शुध्द भक्त मन के घुसरे बर अलग दूवारी बने रहय। शुद्ध भक्तमन ल पारी लगाके बाट जोहे के जरूरते नइ परय। उन आवय अउ ‘बुलुंग-ले’ बुलक के भीतर घुसर जाय। हम हालत-डोलत धकर-धकर करत खड़े बोटोर-बोटोर देखते रहन।

ओतके बेरा मोला उन सिद्धपुरूषमन के संतवाणी सुरता आ गे -‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दर्शन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे तब जाके कृपा बरसथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दर्शन दे देही, त अतेक रचे-रूचाए बसे-बसाए माया के का महानता अऊ महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोझ-सहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक सजे-सुजाए पंडाल, चंडाली भरे भक्तिभाव अउ विग्यापन भरे दुकानी के का होही। ये गूढ़ रहस्य ल तुम निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। अरे ! समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’


हमर घुसरे के दुवारी मेरन एक ठो बडे जनिक रक्सा के मुड़ी बने रहय। वो रक्सा के मुड़ी हँ अपने-अपन अबड़े जोर-जोर से हाँसत राहय।

हम मुँह फारे सोचत ओला बोक-बाय देखते रहिगेन।

हमर मुँह फारे सोचई-गुनई अऊ मुँह फारके जम्हावत पारी के बाट जोहई ल देखके घेरी-बेरी वो सरलग हाँसत रहय- ही ही हा हा। ही ही हा हा। ओकर अपने-अपन हँसई ल देखके एक झन नानचिन नोनी अपन ददा ल पूछे लगिस-

‘ये घेरी-बेरी अपने-अपन काबर हाँसथे ददा ?’

ओखर ददा कहिस -‘हमन अपन घर के सँऊहत देवी-देवता, दाई-ददा के सेवई-पुजई ल छोड़के अपन मिहनत के कमई ल कागज के कटोरा धरे इन खखाए-भुखाए रक्सा मन के भूख मड़ाए बर फोकटइहा फेंकत हन तेकर सेति हाँसत हे बेटी। एहँ हमर शुद्ध अंधभक्ति, मूर्खता अउ गँवारी ऊपर हाँसत हे।’

ओतके बेरा शुद्ध भगत मन के ओरी म खड़े एक झिन शुद्ध भगत पिला हँ तको अपन ददा ल पूछ परिस - ‘ये घेरी-बेरी अपने-अपन काबर हाँसथे डैड ?’

वो मनखे के बुद्धि तो भ्रष्टाचार म भ्रस्ट होगे रहय। विकास के चक्कर म हँफर-हँफर के दँऊडत, एण्ड-बेण्ड करत वोहँ धरम के डेडलाइन ल पार कर डारे रहय, त का जुवाब देवय बिचारा हँ।

ओकर बगल म खड़े गरीब, गँवार अउ गदहा टाइप दिखत एक झिन दादाजी कहिस - ‘हमर फोकट अउ चंडाली के कमई हँ थैली म बोजाए-बोजाए अकबका-बकबका जथे। वो अकबकई-बकबकई म हमन झन अकबका-बकबका जावन कहिके वोला पंडाल के चंडाल मन ऊपर चढ़ावा चढ़ाथन तेकर सेति हाँसत हे मोर बच्चा ! एहँ हमर अशुद्ध महानता, मक्कारी अउ अहम-गरब भरे फुटहा करम ऊपर हाँसत हे।’ 

उन्कर रोंठ-पोठ ग्यान-गोठ ल सुनके मोर अंतस के कुकरा जाग गे। बाँग देवत कहिस  -‘सिरतोन काहत हे रे येमन हँ, अब तो चेत रे मूरख के दमांद।’

कइसनो करके गिरत-अपटत झाँकी देखत दाई के दर्शन करेन। बाहिर निकलके देखेन भंडारा लगे रहय। काँही बूता बर भले पीछुवा जावन, फेर खाए के नाम हमन अगुवा रहिथन। येहँ हमर भारतीय सोच, संस्कार अउ सभ्यता के परम पुनीत पहिचान अउ प्रमाण हरे। हम उही कोति दऊड़ गेन। 

उहाँ जाके देखेन उहों मार मरे-जियो चिथो-चिथो माते रहय। कोनो कहय - हमू तो चंदा दे हन, हमला पहिली दे। कोनो कहय -हमर बेटा वालन्टियर हे। त कोनो हँ खिसियावत रहय - ‘हमर चंदा के चरन्नी के पुरति नइहे अतका खिचरी हँ।’

चोरो-बोरो चींव-चाँव ल सुनके एक कोंटा म हमू मुड़-कान ल पेलत घुसर गेन। ऊहाँ का देखथन - बँटइयामन मनखे चिन्ह-चिन्ह के खिचरी बाँटत हे। बने-बने मनखे ल बला-बलाके उन्कर टिफिन-डब्बा, कटोरा, बाँगा म भरत रहय अऊ हमर असन निजोर, भूखाय अउ लचार मनखे मन ल धुत्कार के भगा देवय। हम सोच म परगेन। यहा काय-कइसन धरम ये गा ? जिहाँ भरे पेट ल मरत ले खवावत हे अऊ भूखन ल भगावत हे।

मोर कान म फेर वो संतवाणी गूँजे लगिस -‘अरे उजबक ! देवी-देवतामन अइसनेहे फोकटइहाछाप दर्शन नइ देवय। तपे बर परथे, खपे बर परथे तब जाके कृपा बरसथे। तुँहर सहीन ‘ऐरे-गैरे नत्थू खैरे’ मन ल अइसने दर्शन दे देही, त अतेक रचे-रूचाए बसे-बसाए माया के का महानता अऊ महात्तम रही जही। भगवान कहूँ सोझ-सहज मिले लगिस तब तो कर डरिस भगवानी ल। फेर हमार अतेक सजे-सुजाए पंडाल, चंडाली भरे भक्तिभाव अउ विग्यापन भरे दुकानी के का होही। ये गूढ़ रहस्य ल तुम निच्चट गँवार अउ भकलामन नइ समझव। अरे ! समझदार होते त का करे ल अइते, अपन घट के ही देव ल मनइते।’

हम फेर एक बेर मुँह फारे सोचते रहि गेन। मैं कान ल धरत बुड़बुडाएवँ - ‘ये पंडाल ले दूसर पंडाल अब जाबेच् नइ करवँ।’

धर्मेन्द्र निर्मल

9406096346

No comments:

Post a Comment