Sunday 1 October 2023

छत्तीसगढ़ी लोककथा हाथी अउ कोलिहा

 छत्तीसगढ़ी लोककथा

हाथी अउ कोलिहा 

       एक जंगल म एक ठन हाथी अउ एक ठन कोलिहा रहय। कोलिहा ह बहुत चतुरा अउ मतलबिहा रिहिस अउ हाथी बपरा ह निचट सिधवा। दुनो झन जंगल म अलग-अलग किंजरे अउ खाय-पिये। अलग -अलग ठउर म रहय। एक दिन दुनो झन के भेंट होगे। हाथी अउ कोलिहा ह एक-दुसर के रहे बसे के ठउर -ठिकाना पूछिन अउ मितान बधगे।

        एक दिन के बात आय। कोलिहा किहिस-‘‘मितान अब तो ये मेर के सबो फल-फलहरी मन सिरागे हावे। थोड़किन जंगल भीतरी जाय ले ही भोजन-पानी के बेवस्था हो पाही तइसे लागथे। ये मेर  जादा दिन ले रहिबो तब तो भूख-पियास म पराण छूट जही।‘‘

             हाथी ह कोलिहा संग दूरिहा जंगल म जाय बर राजी होगे।

   बिहान दिन दुनो मितान किंजरत-किंजरत घनघोर जंगल म पहुंचगे। कोेलिहा ह हाथी के पीठ म बइठे रहय अउ सब पेड़ मन के फल-फलहरी ला मनमाने झड़के। हाथी बपरा ह कहुं-कहुं मेर बड़े पेड़ मन के हरियर पत्ता ला खावत जाय। कोलिहा ला काय जियान पड़तिस, ओहा तो हाथी के पीठ म बइठे रहय फेर बिहिनया ले संझा तक रेंगत-रेंगत हाथी के जांगर थकगे। ओहा लस खागे फेर मितान के मया म कलेचुप रेंगत रिहिस।

     जब चार-तेन्दू खावत-खावत कोलिहा ला पियास लागिस तब ओहा हाथी ला किहिस-‘‘मितान! पेट तो भरगे फेर अब तो मोला गजब पियास लागत हे। टोंटा ह सुखावत हे। मोर बर कांहचो ले पानी खोज तभे जीव ह बांचही।‘‘

     अब हाथी ह चारो मुड़ा पानी खोजे लगिस फेर कोन्हो मेर पानी के बूंद नइ दिखिस।

 हाथी ला एक उपाय सूझिस, ओहा कोलिहा ला किहिस-‘‘तैहा मोर पीठ ला छोड़ के सूड़ म बइठ जा। मैहा सूड़ ला उप्पर कोती टांगहूं। तहन तैहा  दूरिहा-दूरिहा ला देखबे, हो सकथे कहूं मेर पानी दिख जाय? तोला दिखही तब महू ला बताबे। तहन उहां लेगहूं।

    कोलिहा ह अइसनेच करिस फेर कहूं मेर पानी के बूंद नइ दिखिस। अब कोलिहा ह पानी बिना छटपटाय लगिस।

      हाथी किहिस-‘‘ मितान! अब तो तोर जीव ह पियास म छूटी जही तइसे लागथे। तोर जीव बंचाय के अब एकेच उपाय हे। तैहा मोर पेट भीतरी खुसर जा अउ मोर पेट मे जउन पानी भरे हे ओला पीके निकल जबे। शर्त बस इही हे कि तैहा मोर पेट भीतरी के उप्पर डहर भर ला झन देखबे।

     कोलिहा हाथी के पेट भीतरी खुसरगे अउ सोसन भर पानी पिस। पियास बुझाइस तहन हाथी के कहे बात ह सुरता अइस। ओहा सोचे लगिस कि मितान ह काबर मोला उप्पर कोती ल देखे बर मना करे हे?  लालच म ओहा उप्पर डहर ल देख दिस। हाथी के पेट म ओखर  लाल-लाल करेजा ह लफ-लफ करत रिहिस।

      कोलिहा मसखया जीव तो आय। अड़बड़ दिन ले ओला मांस खाय बर घला नइ मिले रिहिस। हाथी के करेजा ला देख के ओखर जीव ह ललचागे। ओहा हाथी के करेजा ला खाय ला धरलिस। हाथी ह पेट पीरा म तड़फेे लगिस फेर कोलिहा ल थोड़को दया नइ लागिस।

   पेट पीरा म हाथी के जीव छूटगे। ओहा उहीच मेर मरगे। ओखर मुंहू ह बंद होगे। अब कोलिहा ह हाथी के पेट भीतरी फंसगे। निकले ते निकले कइसे? कोलिहा ह हाथी के पेट भीतरी धंधाके हड़बड़ावत रहय।

    ठउका उहीच बेरा म महादेव-पारवती मन ये धरती ल किंजरे बर आय रिहिन अउ उही रद्दा ले गुजरत रिहिन। ओमन मरे हाथी ला देख के ओखर तीर म आइन। हाथी के पेट भीतरी कोलिहा ह हड़बड़ावय तब हाथी के पेट ह हाले। महादेव-पारवती ला शंका होइस। ओमन सोचिन, ये मरे हाथी के पेट म कोन खुसरे हे?

      महादेव ह ललकार के किहिस-‘‘ये मरहा हाथी के पेट भीतरी कोन जीव खुसरे हस रे?‘‘

पेट भीतरी ले कोलिहा किहिस-‘‘ये हाथी के पेट भीतरी कोन खुसरे हे तउन ला पूछने वाल तैहा कोन होथस?‘‘

      महादेव किहिस-‘‘ अरे! मैं संसार के सबले बड़े देवता महादेव अवं। अब तै बता तैहा कोन हरस?‘‘

 पहिली तो येला सुनके कोलिहा ह डर्रागे फेर आधा डर, आधा बल करके किहिस- ‘‘मैहा महादेव के बड़े भाई सहादेव अवं। तैहा कोन्हो सिरतोन के महादेव होबे तब मनमाने पानी बरसा के देखा।‘‘

     महादेव ह गुसियागे अउ मनमाने पानी गिरा दिस। पानी म भींग के मरहा हाथी के देहें ह फुलगे अउ ओखर मुहूं ह उलगे। मउका पाके कोलिहा ह उले मुंहूं कोती ले निकल के पल्ला भगिस।

     ओला पकड़हूं  कहिके महादेव ओला गजब कुदाइस फेर अमराबेच नइ करिस।

      महादेव ला अब कोलिहा ला पकड़े के जिद होगे। ओहा सोचिस, रहा ले ले रे कोलिहा! तैहा मोर मारे पानी बुड़े नइ बांचस। मैहा तो तोला पकड़ के हाथी के करेजा ला खा के मारे के सजा तो देबेच करहूं। 

महादेव ह कोलिहा के निगरानी करे लगिस तब पता चलिस कि कोलिहा ह जंगल के देवता तरिया म रोज बिहिनिया पानी पिये बर आथे।

    एक दिन महादेव ह उही तरिया के पानी भीतरी लुका के बइठे रिहिस। कोलिहा ह जब पानी पिये बर आइस अउ अपन गोड़ ला तरिया भीतरी डार के पानी पिये लगिस तब महादेव ह ओखर गोड़ ल चिमचिम ले धर लिस अउ किहिस-‘‘ ले अब कइसे भागबे रे कोलिहा।‘‘

    पहली तो कोलिहा ह डर्राइस फेर चालाकी करत किहिस-‘‘या! महादेव ह मोर गोड़ के भोरहा म तरिया पार के पीपरी पेड़ के जड़ ला जमा के धरे हावे अउ मोर गोड़ ला धरे हवं कहिके खुश होवत हे।‘‘

     महादेव ह कोलिहा के बात ला सिरतेान पतिया के ओखर गोड़ ला छोड़ दिस अउ पीपरी पेड़ के जड़ ला जमा के धरलिस। गोड़ ह छूटिस तहन कोलिहा फेर उहां ले पल्ला भागिस। जब कोलिहा के चतुराई ह महादेव ला समझ म आइस तब ओहा फेर कोलिहा ला कुदाइस फेर ओला अमराबेच नइ करिस।

      महादेव सोचिस, ये कोलिहा ह तो बड़ चतुरा हे। मुही ला चुतिया बना के भाग जथे फेर येला पकड़ना जरूरी हे। अब तो मोर इज्जत के सवाल हे।

     एक दिन महादेव ह मनखे के भेष धरके उही रद्दा म मरे असन पड़े रिहिस जउन रद्दा म कोलिहा ह रोज किंजरे बर जावय। मरहा मनखे ला देख के कोलिहा ह जान डारिस कि ये तो महादेव आय अउ मोला पकड़े बर फेर चाल चले हे।

      कोलिहा ह महादेव के तीर म जाके चिचियावत किहिस- ‘‘ये दई! कोन बपरा ह रद्दा म मरगे हावे फेर मैहा येखर मास ला नइ खाववं। मोर ददा ह कहे हे कि जब तक मरहा मनखे ह जम्हाई नइ लिही तब तक ओखर मास ला खाय ले पाप पड़थे।‘‘

       येला सुनके महादेव सोचिस, मैहा कोन्हो नइ जम्हाहूं तब तो येहा मोर मास ला खाय बर मोर तीर म नइ आवय अउ येहा तीर म नइ आही तब येला कइसे पकड़हूं? अइसे सोच के महादेव ह जम्हा पारिस। 

      महादेव ल जम्हावत देख के कोलिहा ह दूरिहा म भागगे अउ किहिस- ‘‘महादेव! तैहा तो अतका घला नइ जानस कि मरहा मनखे ह कोन्हो जम्हाही? मोला पकड़े बर तैहा चाल चले हस तेला तो मैहा पहिली ले जान डारे रहेंव तिही पाय के मैहा चाल चले हव।‘‘ अतका कहिके कोलिहा ह फेर उहां ले पल्ला भागिस। महादेव फेर ठगा गे।

    एक दिन महादेव फेर ओ कालिहा ला पकड़े बर चाल चलिस। ओहा जंगल के डुमर पेड़ तीर जा के अड़बड़ अकन डुमर ला सकेल के ओखर ढेंरी बना लिस अउ उही डुमर ढेंरी के भीतरी म खुसर के कलेचुप बइठगे।

     जब कोलिहा ह डुमर खाय बर ओ मेर आइस तब ढेंरी ल देख सब समझगे। ओहा जान डारिस कि ये ढेंरी के भीतरी म महादेव ह लुका के बइठे हावे अउ मोला पकड़े के अगोरा करत हे। 

कोलिहा ह फेर चाल चलिस अउ दूरिहा ले किहिस-‘‘कोन बिचारा गरीब ह डुमर ल एक ठउर म सकेल के गे हावे। पर के मिहनत के जिनिस ला खा के काबर फोकट काखरो सरापा-बखाना सुनना। ये ढेंरी ले कोन्हो अपने- अपन ढुल के दू चार ठन डुमर मन अलगा जही तब उही ला खा के अपन मन ला मढ़ा ले बो भैया। हम तो पर के कमई ला कभु खाय नइ हन तब आज खा के काबर पाप के भागी बनबो, नइ खावन ददा।‘‘

     कोलिहा के गोठ ला सुनके डुमर ढेंरी के भीतरी म लुकाय महादेव ह अपन अंगरी म कोचक के दू चार ठन डुमर ला ढेंरी ले गिराहूं कहिके कोचक पारिस। सबो डुमर ह ढेंरी ले ढुलके बगरगे। कोलिहा ल महादेव ह दिखगे। कोलिहा फेर उहां ले जी-पराण दे के भागिस। महादेव ह ओला गजब कुदाइस फेर ओहा पकड़ म आबे नइ करिस।

     कोलिहा के मारे महादेव के जीव ह हलाकान होगे रहय। अब महादेव ह ओला पकड़े बर एक ठन अउ उदिम सोचिस। ओहा लासा के एक झन डोकरी के मूर्ति बना दिस अउ ओखर हाथ म बरा-सोंहारी, बरी-बिजौरी, चिला-चौसेला, फरा-मुठिया धरा दिस अउ ओ मूर्ति ला उही तरिया पार म बइठार दिस जउन म कोलिहा ह पानी पिये बर आवय।

     जब कोलिहा ह पानी पिये बर आइस अउ रंग-रंग के खाय-पिये के जिनिस धरके डोकरी ला तरिया पार म बइठे देखिस तब ओखर मन ललचागे।

 ओहा डोकरी के तीर मे जाके किहिस-‘‘आज काय तिहार आय ममा दाई! अड़बड़ अकन रोटी-पीठा ला धरके ये तरिया पार म चुप्पे लुका के मुसुर-मुसुर एके झन झड़कत हस। तोर बरा सोहारी ला महूं ला देना ममा दाई।‘‘

     अब लासा के बने डोकरी के मूर्ति ह काय गोठियातिस? कोलिहा तीन-चार बेर ले मांगिस फेर डोकरी ह हूं हां कहींच नइ करिस। कोलिहा ह भड़कगे अउ ओखर हाथ के रोटी ला झटक के भागहूं कहिके तीर म जाके रोटी ला झटके लगिस। कोलिहा ह डोकरी ला हाथ लगाइस तहन लासा म ओखर हाथ ह चटक गे।

      कोलिहा ह अपन हाथ ला छोड़ाय बर डोकरी ल एक लात मारिस तब ओखर पांव घला चटकगे। अइसने-अइसने कोलिहा के दुनो हाथ अउ पांव ह लासा के बने डोकरी म चटकगे। 

     ये सब ला दूरिहा म लुका के महादेव ह देखत रिहिस। ओहा कोलिहा के तीर म आके किहिस- ‘‘आज मोर फांदा म फंसे हस रे कोलिहा! अब देख तोला कइसे मजा चखाहूं? गजब दिन ले मोला हलाकान करे हस। अब तो तोर ले सबे बदला ल लेहूं।‘‘

     महादेव ह कोलिहा के घेंच ल कस के डोरी म बांध दिस अउ ओला तिरत-तिरत अपन घर लानिस। एक ठन कुरिया म बांध के ओला धांध दिस। अब महादेव रोज बिहिनया उठे अउ सबले पहिली ओ चतुरा कोलिहा ला दू-चार डंडा मारे।

      रोज महादेव के मार के मारे कोलिहा ह दंदरगे। मार के मारे ओखर देहें पांव ह फूलगे। ओहा उहां ले भागे के उदिम लगावय फेर कहीं उदिम नइ मिलत रिहिस।

      एक दिन संझाती के बात आय। महादेव-पारवती मन ह किंजरे बर गे रिहिन। उही बेरा एक ठन दूसरा कोलिहा ह कोनजनी कहां ले घुमत-फिरत चतुरा कोलिहा के कुरिया मेर पहुंचगे अउ खिड़की कोती ले झांक के देखिस। 

भीतरी म बंधाय अपन संगवारी ला देख के कहिस- ‘‘कस सगा! तैहा महादेव के घर म काय करत हस? तैहा तो मार छिहिल-छिहिल दिखत हस। बने मोटा घला गे हस।‘‘ 

   चतुरा कोलिहा ल अब उहां ले भागे के उपाय मिलगे। ओहा नवा कोलिहा ला किहिस-‘‘काय करबे सगा! इहां महादेव-पारवती ह मोला रोज बिहिनिया मनमाने मेवा-मिष्ठान खवाथे। रंग-रंग के खाय बर देथे। मोर खाय के मन नइ रहय तभो गजब जोजिया के खवाथे। मैहा तो इहां के मेवा-मिष्ठान ला खा-खा के मर जहूं तइसे लागथे। मेवा-मिष्ठान खवई में मोर जी ह असकट लाग गे हावे।‘‘

  चतुरा कोलिहा के बात ला सुनके नवा कोलिहा के जीव ललचागे। मुंहूं ले लार टपके लगिस। ओहा किहिस- ‘‘तोर किसमत गजब ऊँचा हे भैया! तैहा इहां खा-खा के मरत हस अउ मैहा लांधन-भूखन मरत हवं। मोरो मन मेव- मिष्ठान खाय के होथे फेर मैहा तो करमछड़हा हवं। ले जावत हवं भैया, राम-राम।‘‘

     चतुरा कोलिहा किहिस- ‘‘अरे यार! तैहा तो मोर सगा भाई अस। तोर पीरा मोर पीरा आय। एक काम कर। ये खिड़की डहर ले बुलक के  मोर तीर आ अउ मोर घेंच के बंधना ला खोल दे। ये बधना ला मैहा तोर घेेंच म बांध देथव। हम दुनो के मुंहरन-गढ़न तो एकेच हावे। महादेव-पारवती मन ह चिन्हे ला तो सके नहीं। ओमन तोला, मोला आय कहिके गजब मेवा-मिष्ठान खवाही। खावत-खावत जब तोर जीव ह असकटा जही तब मोला बता देबे। मैहा इहां आके फेर तोर जगा म बंधा जहूं।‘‘

      लालच के मारे नवा कोलिहा ह चतुरा कोलिहा के जाल म फँसगे। ओहा खिड़की डहर ले बुलक के चतुरा कोलिहा मेर आइस अउ ओखर घेंच के बंधना ला खोल दिस। चतुरा कोलिहा ह अपना बंधना म नवा कोलिहा के घेंच ल बांध के मुस्कावत उहां ले छू लंबा होगे। चतुरा कोलिहा ह जंगल म भागत -भागत सोंचत रहय, महादेव के मार ले लटपट बांचे हवं ददा। अब ओ ललचहा कोलिहा ला मरन दे साले ल, मोला काय करना हे।

        बिहान दिन महादेव ह धंधाय कोलिहा के कुरिया म आइस अउ नवा कोलिहा ला चतुरा कोलिहा समझ के  भदाभद डंडा म मारे लगिस। नवा कोलिहा ह मार म दंदरगे। 

ओहा हाथ जोड़ के किहिस-‘‘मोला मत मार ददा! मैहा तोर घर के मेवा-मिष्ठान ह अइसने होथे कहिके जाने रहितेंव तब इंहा कभु नइ झपाय रहितेंव। मैंहा पहिली वाला कोलिहा नोहवं ददा। ओ लबरा ह लबारी मार के इहां मोला फंसाके भागगे हावे।‘‘

     महादेव पूछिस -‘‘तब तैहा कोन हरस? अउ इहां चतुरा कोलिहा  के फांदा म कइसे फंसगेस? 

नवा कोलिहा ह रोवत-कलपत सब बात ला बने फोरिया के महादेव ला बतादिस।

     चतुरा कोलिहा के चतुराई ला सुनके महादेव घला दंग रहिगे। ओहा किहिस-‘‘ तैहा लालच करके इहां फंसे हस। तोला तो लालच के फल मिलबेच करही। मैहा तो तोला छोड़ देवत हवं फेर तोला अब सदा दिन रतिहा ये संसार के पहरा देना पड़ही। रात भर म चार बेर हुंआ-हुंआ करके मनखे मन ला सवचेत करे बर पड़ही। पहिली संझाती हुंआ-हुंआ करबे। तहन सोवा पड़ती करबे ओखर बाद अधरतिहा करबे अउ फेर मुंधरहा करबे। ये काम मंजूर हे तब बोल, नहीें ते अउ पड़ही डंडा म।‘‘

    नवा कोलिहा मुड़ी नवा के हव किहिस अउ रतिहा  म संसार के चार बेर पहरा दे बर तैयार होगे। महादेव ह ओला छोड़ दिस। नवा कोलिहा हफटत- गिरत जंगल डहर भागिस। कहे जाथे उही दिन ले रतिहा बेरा कोलिहा मन चार बेर हुंआ-हुंआ करके आज तक पहरा देवत हे अउ जब तक संसार रही तब तक पहरा देतेच रही। मोर कहानी पूरगे, दार भात चुरगे।

 वीरेन्द्र सरल।

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