Saturday 30 July 2022

कृषि संस्कृति मा हरेली के मान""




 

""कृषि संस्कृति मा हरेली के मान""


       ये धरती मा जब मनखे आखेट ( शिकारी) युग चरवाहा युग अउ ओकर बाद कृषि युग मा पाॅव धरिन तब सभ्यता अउ संस्कृति घलो मानविय विकास के सॅग अपन पाॅव जमावत गिस । अइसे हम कल्पना या विचार रख सकथन। विकास के धारा मा बोहावत जब कृषि संस्कृति के अॅगना मा जाथन तब ये जाने समझे ला मिलथे कि कृषि कारज मा हरेली जइसन परब के उद्गार कोन किसम ले होइस। हरेली तिहार के नाम हर ही अपन आप मा कतको अर्थ भाव ला समेट के धरे हे । जेकर चित्रण कतको साहित्य सिरजन मा पढे देखे ला मिलथे । 

     कृषि कारज जब मनखे के जीवन यापन के हिस्सा अउ मुख्य साधन के रूप मा आइस तब ये काम बर जतका साधन उपकरण काम आइस वो सब ला  पूजनिय मान लेय गिस । नाॅगर जूड़ा रापा कुदारी साबर टॅगिया के सॅग बइला भैंसा शुरुवाती खेती के बेरा ले मुख्य साधन आय। येकर बिना खेती के काम पूरा नइ हो सके। खेत मा बीजा डाले के पहिली इही सब के हियाव करे जाथे । खेती काम मा दू ठन काम बहुते खास रथे। एक तो बाॅवत अउ दूसर बियासी। सही समय मा बाॅवत अउ बियासी होगे पानी पवन साथ दे दिस तब तो खेती सोला आना हो जथे। 

             किसानी काम मा जब ये दुनो काम सध जथे तब ये भान हो जथे कि किसानी के आधा काम होगे। अउ एकर बाद नाॅगर जूड़ा रापा कुदारी साबर टॅगिया के सॅग अउ कतको खेती के काम आने वाला उपकरण ला धो माज के साफ सुथरा करके अवइया बेरा तक ले जतन के राखे के चलन बनिस । अइसन दशा मा ये खास औजार मन पूजनिय होगे। कल्पना तो यहू कर सकथन कि जे पूजनिय हे ओकर पूजा के शुरुवात कोन किसम ले होइस होही । खेती के आधा काम निपटे के बाद हर किसान अपन आप मा संतुष्ट होके आगू डहर बर नवा आस सॅजो के चलथे। बाॅवत अउ बियासी के काम सिधोय के बाद जौन संतुष्टि अउ आनंद के भाव किसान के मन मा उपजिस वो हर तिहार के रूप ले लिस। इही दिन हर हरेली के नाॅव ले चलन मा आगे। ये दिन ला खेती के काम ला बिराम देके अपन औजार उपकरण के रखरखाव हियाव अउ सकला जतन के दिन बना डारिन। अउ तन मन लगा के समर्पित भाव ले मिल जुल के ये काम ला करे के उदिम सॅजो डारिन। 

        हरेली ये वो बेरा हरे जब धरती के कोरा चारो मुंड़ा ले हरियाय रथे। खेत खार हरियर। फसल बारी बखरी हरियर डोंगरी पहाड़ी मा हरियर पाना धरे लहसत रूख राई। कॅदली कछार मेंड़ पार मा किसम किसम के घास पूस नार बेयार के सॅग रॅग बिरंगी चिरई चिरगुन के मनभावन आरो ये सब मन हिरदे ला अइसने हरियर कर देय रथे। ओ जमाना भा सुनता सामुहिक विचार अउ मुखिया के प्रभाव के रेहे ले ये दिन ला खेती किसानी ला विराम देके किसानी कम के सबो जरूरी उपकरण बर समर्पित भाव हर तिहार परब के रूप धरलिस होही। जे हर हरेली के रूप मा पहिचान बनाके खेती जगत मा स्थापित होगे। ये तिहार मा कुछ खास बात यहू ला स्वीकारे गेहे कि कृषि युग के आरंभ से लेके अब तक खेती के काम मा जतका आइस वो सब विश्वास अउ आस्था ले जुड़गे। इही कारण हे कि आज घलो कोनो किसान सूपा काठा कलारी ला लात मार के नइ तिरियाय। अउ जेकर ले आस्था हे वो तो पूजनिय होबे करही। उही किसम ले सबो समान हर भगवान बरोबर पूजनिय बनगे। अब ओकर पूजा आराधना के शुरूवाती के कल्पना करे ले साफ जनाथे कि सबो उपकरण ला धो माज के साफ सुथरा करके अॅगना दुवार मा सजा के रखे के रिवाज बनाके नवा संस्कार ला बढावा देइन। एकर बाद खेती किसानी के असली सुत्रधार पशु धन गोधन जे हर गोबर के खाद तन के तंदुरूस्ति बर दूध मही अउ खेत जोंते बर बइला देथे। येला तो जतन के राखे नइ जाय तब एकर बचाव हियाव अउ रखरखाव बर ओकर बर बने कोठा कुरिया ला सजाय बर समय निकाले गिस। ओ समय मा चिकित्सा सुविधा के विकास नहीं के बरोबर रिहिस । तब जंगली कंद मूल ला खवाके पशु धन ला बचाय के सबो उदिम  करे गिस । जेन हर आज हमर  परम्परा  मा सामिल हे। इही दिन या इही तिहार बर एक ठन अउ परम्परा अंकुरित होइस जेला  हम बिजखुटनी कथन। ये परम्परा अपन आप भा बहुते अकन रहस्य ला समोके राखे हे। कृषि कारज हर सामुहिक क्रिया ले सम्पन्न होथे। जेमे परिवार के सदस्य के छोड़े गाॅव समाज के कतको मनखे के प्रत्यक्ष अउ परोक्ष सहयोग रथे ।जइसे कि-----

बढई----खेती बर नाॅगर बक्खर के सॅख लकड़ी से संबंधित समान बनाथे ।

लोहार----खेती के काम अवइया लोहा ले बनने वाला औजार रापा कुदारी नाॅगर नास टॅगिया साबर सजइया पजइया ।

राउत-----जे हर पशुधन के हियाव करथे अउ इंकर ले फसल के नुकसानी ले बचाव करथे। 

बइगा---------ये आस्था के सॅग बिसवास ले जुड़े मनखे आय। इंकर साधना शक्ति हर घलो वो जमाना मा प्रमाणित रिहिस। प्रकृति के देवी देंवता धरती हवा पानी आगी अगास काकरो बस मा नइये। फेर एकर बिना काकरो जीवन नइ चलय। तब ये सब के कुप्रभाव मनखे अउ खेती किसानी के सॅग कोनो जीव उपर झन होय। एकर सेती ये बइगा गाॅव के सरहद सियार डीही डोंगर  के देव वन देवी के सॅग देव रूप मा बिराजे महादेव के प्रतीक बूढा देव अउ ठाकुर देव ला सबो गाॅव के डहर ले बंदना स्तुति करके गलती के क्षमा माॅगत गाॅव के खुशहाली अउ खेती के सजोर बर आशिष माॅगथे। 

नाऊ-------जे हर गाॅव कु पुरूष वर्ग के सुन्दरता मा निखार ला के नवा उमंग भरथे। 

         कोनो किसान खेती बर बिजहा करारी नइ राखय। चार काठा उपराहा ही रखथे। अइसन क्रिया भाव हर सूझ बूझ के परिचय देवाथे। आय बखत मा खेती मा समोये जाथे ।  ओ जमाना के चलन मा कतका दुरदर्शिता रिहिस समझे जा सकथे।  दूसर खास बात खेत मा बीजा डारे के बाद बाॅचे बीजा ला वो सबो कामगार जइसे लोहार बढई नाऊ बइगा राउत मा दान रूप मा बाॅटे के रिवाज हर चलन माआइस। ये सबो मन समूह मा घर घर जाथे तब बहुते सम्मान के सॅग बाॅचे बिजहा के बीजा धान कोदो ला ही खोंची पसर जइसन बन परे दान स्वरूप सॅउपे गिस । जेन हर बिजखुटनी बिसखुटनी के नाम मा चलन मा आइस। जे हर कृषि जगत के हरेती परम्परा के सॅग आज तक चलन मा हे।

       घल के मॅझोत मोहाटी मा लीम के डारा खोंचे के रिवाज आज भी वैज्ञानिक अउ व्यवहारिक तर्क संगत हे। गुण के सिवा दोष नइये। जेकर भान वो जुग के मनखे तक ला रिहिस जे येला चलन मा लानिन। तब येला अंध मान्यता कहिके उपहास करना गलत हे। तब लीम के महत्व ला जादा कहना ठीक घलो नइये। 

           खेती के शुरूवाती समे मा तेल तेलई के झमेला कम या तो ना के बरोबर रिहिस होही। तब ये धरती के सम्मान मा खेत मा चाॅउर के चीला बनाके चघाय के उदिम करत अपन तपसी भाव ला उजागर करिन । उही किसम ले दुवार मा सजे खेती के औजार उपकरण मा चीला ला चघा के मन संतुष्टि करत रिहिन । जे हर एक ठन परम्परा के रूप मा चलन मा आगे । जेकर पालन आज तक होवत आवत हे। ये अलग बात आय कि विकास के सॅग जादा विकसित होय ले बरा सोंहारी के तेल तेलई चलत हे। चंदन बंदन गुलाल के अभाव या चलन मा नइ रेहे ले या अनजाने मन ले चाॅउर पिसान ला घोर के अॅगना मा सजे नाॅगर गुदारी उपर टीका लगाके अपन श्रद्धा अर्पण करत रिहिन।रंग गुलाल के कमी ला पूरा करइया घोरे पिसान के टीका  हर घलो परम्परा मा जुड़के आजो हरेली के सॅग निभत आवत हे। हरेली संस्कृति मा परम्परा के हिस्सा बनके आजो हमर बीच चलत हे। 

  गेंड़ी------एकर चलन के अनुमान यहू किसम ले विद्वान मन करे हे कि भरे चौमास मा सड़क रददा बाट के अभाव रेहे ले जरूरी काम के बखत आपातकालिन सुविधा बर एकर सिरजन करे गिस। चिखला माटी कीरा काॅटा अउ रात बिकाल के बहुते जरूरी काम बर आना जाना होय तब ये सुविधा ला खोजके पुरूष वर्ग मन चलन मा लानिन। जइसे मोहाटी मा लउठी रथे ओइसने ये गेंड़ी ला घलो भादो के असली बरखा के उरकत ले राखे अउ बउरे जावत रिहिस। आगू चलके जब ये हर मस्ती अउ आनंद के जिनिस जनाइस तब लइका सियान एकर चलन ला बढावा देवत सांस्कृतिक कला के हिस्सा बना डारिन। आज के दिन माने हरेली के दिन जतका काम कारज बताय गिनाय जाथे वो सब मॅझनिया बेर तक पूरा हो जथे। तब बाॅचे समय ला बिताय बर सब अपन अपन जौजर जॅहुरिया सॅग नवा नवा तरकिब निकालिन जेमे चौपाल गुड़ी मा गोठ बात भजन किर्तन के सॅग वाचिक परम्परा के किस्सा कहानी के गोठ ले मन बहलाए के उदिम करिन। जवान लइका मन खेले कूदे के सॅग नाचा गाना के कला संस्कृति ला जनम देइन। ये कला हर कृषि जीवन ले जुड़े हर मानव जीवन  बर  नवा बल संचार करे बर बहुते उपयोगी बनिस। जे हर कृषि संस्कृति मे हरेली संस्कृति के सॅग कला संस्कृति ला जनम दिस। 

       तब हम कहि सकथन कि हरेली हर कृषि जगत बर तिहार के शुरुआत भर नोहे। बल्कि कृषि संस्कृति मा हरेली कला संस्कार सभ्यता के सॅग परम्परा ला जनम देवइया आय ।

     (लेख विद्वत जन के लेख के पठन पाठन ले अधार बनाके सिरजे गेय हे) 

राजकुमार चौधरी "रौना"

टेड़ेसरा राजनादगाॅव ।


Friday 29 July 2022

हरेली पहिली तिहार


 

हरेली पहिली तिहार

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 हमर पहिली तिहार हरेली ल माने जाथे। आज तो शिक्षा के विकास के संग जागृति आगे हावय।  अब अंधविश्वास ल लोगन मन समझे ले लगगे हावंय। पिलिया ल फूक के ठीक करना, साँप के काटे ल फूकना, बिच्छू के काटे ल फूकना, कठिया वात ल ठीक करना ये सब मन के विकार आये। विश्वास अउ अंधविश्वास के बीच म मनखे ह डोलत हावय। शिक्षा के साथ  येला बंद हो जाना रहिस हे फेर नहीं होये हावय।

कार म नीबू मिर्च टाँगे जाथे, घर म नारियल अउ बगनखा टाँगे जाथे। श्रीर के नाखुन ल गला म पहिरे जाथे । अइसे विश्वास हे के आदमी ह शेर सरिख ताकतवर हो जथे। ये सब अंधविश्वास के चरम दिखाई देथे हरेली के दिन। 


गाँव ल बांधे जाथे, ये दिन गाँव ले कोनो भी आना जाना नइ करय। गाँ म रात के मनखे मन पहरा देथें। कई झन टोनही ल पकड़थे। रात के जेन भी बाहिर निकलिस तेन ह बइगा के चपेट म आ जथे। टोनही के नाव रखा के ओखर बारह हाल करे जाथे। अधिकतर गरीब, विधवा या अकेला महिला ल ही बइगा मन अपन.शिकार बनाथें। शमशान घाट म पकड़ंय या फेर खेत म पकड़ंय। कहूं बीमार परगे त इही महिला मन के नाव लगा के प्रताड़ित करंय। आज भी ये सब गाँव म होथे। कखरो भी तबीयत खराब होइस त इही महिला मन ल पकड़े जाथे।


आज के दिन किसानी म काम आने वाला सब औजार ल धो के पूजा करथें।अगले बछर बर तेल लगा के रख देथें। पहिली जब लकड़ी के चौखट राहय त ओमा सिक्का  ल ठोक देवंय. असल म लोहा ह ध्वनि ल सोख लेथे।तंत्र मंत्र के प्रभाव घर के अंदर नइ पड़य। ये सिक्का के कारण कोइ भी मनखे ऊपर एखर प्रभाव नइ परय। ये ओ समय के बात रहिस हे जब पूरा घर म लकड़ी अउ माटी ही राहय।आज तो सब जगह लोहा मिलथे। हर घर म लोहा के फाटक लगे रहिथे।

 यह एक वैज्ञानिक कारण हो सकथे। आज मो. इही सोच के संग काम करथे। हरेली के रात के भयानकता अब नइ दिखय। ओ सब डर अब खतम होवत हावय काबर के हर घटना के कारण ल सबके आगू म उजागर करत हावंय। या समझ लन के सबके कारण ह पता चलत हे। पिलिया वाययस से होथे न कि जादू टोना से।  गठिया वात ल फूक के चावल के दाना या कंकड़ निकालंय से सब कहां ले आथे येखर जानकारी होगे हावय।नीबू ले खून निकलना भी एक वैज्ञानिक कारण आये। अब जादू टोना ऊपर.विश्वास खतम होवत हावय तब हरेली के तिहार ह तिहार असन लागथे। चीला बोबरा खा के अपन मस्त होके पूजा पाठ कर के तिहार ल मनाथें।

 सुधा वर्मा, मड़ई, 11/8/2021

छत्तीसगढ़ी कहानी- धुँधरा


 

छत्तीसगढ़ी कहानी- धुँधरा

                              चन्द्रहास साहू

                          मो 8120578897


 एक लोटा पानी पीयिस  गड़गड़-गड़गड़ बिसालिक हा अउ गोसाइन ला तमकत झोला ला माँगिस। आगू ले जोरा-जारी कर डारे रिहिस। अउ झोला...?  झोला नही भलुक संदूक आय दू दिन के थिराये के पुरती जिनिस धराये हाबे।  गोसाइन घला कोनो कमती नइ हाबे। बिहनिया चारबज्जी उठके सागभाजी चुनचुना डारिस चुल्हा चुकी सपूरन करके टिफिन जोर डारिस। गोसाइया ला जेवन करवाइस। गोसइया तियार होइस अउ एक बेर फेर देवता कुरिया मा खुसरगे। ससन भर देखिस बरत दीया अउ अगरबत्ती ला। दुनो हाथ जोरके कुछु फुसफुसाइस अउ जम्मो देबी देवता के पैलगी करिस। लाल ओन्हा मा बँधाये रामायण, फोटो मा दुर्गा काली हनुमान अउ बंदन पोताये तिरछुल वाला देवता, लिम्बू खोंचाये लाली पिवरी धजा - जम्मो ले आसीस माँगिस। 

       अब शहर के रद्दा जावत हावय जवनहा बिसालिक हा। डोंगरी पहाड़ ला नाहक के मेन रोड मा आइस । फटफटी मा पेट्रोल भरवाइस। अब शहर अमरगे। शहर के कछेरी अउ कछेरी मा अपन वकील के केबिन कोती जावत हाबे।

"नोटरी करवाना हे का ?''

"लड़ाई झगरा के मामला हे का ?''

"जमीन जायदाद के चक्कर हे का ?'' 

आनी-बानी के सवाल पूछे लागिस वकील के असिस्टेंट मन। बिसालिक रोसियावत हाबे फेर शांत होइस।  कुकुर भूके हजार हाथी चले बाजार । बिसालिक काखरो उत्तर नइ दिस अउ आगू जावत हे। वोकर वकील के केबिन सबले आखरी मा हाबे। 

"तलाक करवाना हे का ?''

एक झन वकील के असिस्टेंट अउ पूछिस अगियावत बिसालिक ला।

"बिहाव के चक्कर हाबे का भइयां ! लव मैरिज फव मैरिज।''

"हँव बिहाव करहुँ तुंहर बहिनी मन हाबे का बता ....?''अब सिरतोन तमतमाये लागिस बिसालिक हा अउ मने मन फुसफुसाइस।


"का भइयां ! तहुँ मन एकदम मछरी बाजार बरोबर चिचियावत रहिथो। दू झन लइका के बाप आवव भइयां । मोर बर- बिहाव होगे हे। ....अउ मेहां कोन कोती ले कुंवारा दिखथो ? आनी-बानी के सवाल झन पूछे करो भई।''

बिसालिक अब शांत होवत किहिस ।

"अरे ! आनी-बानी के सवाल नइ हाबे। सरकारी उमर एक्कीस ला नाहक अउ कभु भी बिहाव कर कभु भी तलाक ले...! उम्मर के का हे....? उम्मर भलुक बाढ़ जाथे फेर दिल तो जवान रहिथे। पच्चीस वाला घला आथे अउ पचहत्तर वाला घला  आथे बिहाव करवाये बर अउ तलाक लेये बर।''

वकील के असिस्टेंट किहिस अउ दुनो कोई ठठाके हाँस डारिस। कम्प्यूटर मा आँखी गड़ियाये ऑपरेटर अउ टकटकी लगाके देखत परिवार के जम्मो मइनखे करिया कोट मा खुसरे वकील पान चभलावत नोटरी अउ दुख पीरा मा दंदरत क्लाइंट । 

                  बिसालिक घला क्लाइंट तो आय नामी वकील दुबे जी के। वकील केबिन ला देखिस झांक के। दुबे जी बइठे रिहिस कोनो डोकरी संग कोई केस साल्व करत रिहिस। अब क्लाइंट मन बर लगे खुर्सी मा बइठगे। असिस्टेंट नाम पता लिखिस पर्ची मा अउ वकील दुबे जी के आगू मा मड़ा दिस।

               झूठ लबारी दुख तकलीफ सब दिखथे कछेरी अउ अस्पताल मा। उहाँ मइनखे जान बचाये बर जाथे अउ इहाँ ईमान बचाये बर। उहाँ मरके निकलथे अउ इहाँ मरहा बनके निकलथे मइनखे हा। नियाव मिलही कहिके आस मा हर पईत आथे बिसालिक हा फेर मिल जाथे तारीख। तारीख बदलगे मौसम बदलगे बच्छर बदलगे वकील कोर्ट जज बदलगे फेर नइ सुलझिस ते एक केस। बिसालिक अउ वोकर नान्हे भाई बुधारू के बीच के जमीन विवाद।

               बिसालिक गाँव मा रहिथे अपन परिवार संग अउ बुधारू हा शहर मा अपन परिवार के संग। दाई ददा के जीते जीयत बाँटा-खोंटा हो गे रिहिस। नानकुन घर खड़ागे। खार के खेत दू भाग होगे। अउ बाजार चौक के जमीन ....? इही आय  विवाद के जर । दाई ददा के सेवा-जतन सूजी पानी ऊँच नीच जम्मो बुता बिसालिक करिस। बुधारू तो सगा बरोबर आइस अउ सगा बरोबर गिस। ऊँच नीच मा कभु दू चार पइसा दे दिस ते .?....बहुत हे। "ड्राइवर के बुता अउ आगी लगत ले महंगाई , वेतन पुर नइ आवय भइयां।''

अइसना तो कहे बुधारू हा जब पइसा मांगे बिसालिक हा तब। दाई ददा के जतन करे हस बाजार चौक  के जमीन तोर हरे बिसालिक। गाँव के सियान मन किहिन। कोनो विरोध नइ करिन। अब बिसालिक अपन कमई ले  काम्प्लेक्स बना दिस आठ दुकान के । ....अउ बुधारू के आँखी गड़गे। 

"मोर दू झन बेटा हाबे बिसालिक भइयां ! दू दुकान ला दे दे। नौकरी चाकरी नइ लगही ते दुकान धर के रोजी रोटी कमा लिही लइका मन, पानी -पसिया के थेभा।''

 अतकी तो अर्जी करे रिहिस बुधारू हा। बिसालिक तो तमकगे। 

"मोर कमई ले दुकान बनाये हँव नइ देवव कोनो ला।''

अब घर के झगरा परिवार मा गिस। परिवार ले पंचायत अउ अब कोर्ट कछेरी। छे बच्छर होगे केस चलत। पइसा भर ला कुढ़ोथे अउ नियाव नइ मिले तारीख मिलथे....।

 "बिसालिक !''

 आरो करिस  असिस्टेंट हा अउ बिसालिक वकील के कुरिया मा खुसरगे। जोहार भेट होइस। अपन जुन्ना सवाल फेर करिस।

"केस के फैसला कब होही वकील साहब !'' 

अवइया तीस तारीख बर अर्जी करहुँ जज साहब ले। उँही दिन फैसला हो जाही। केस जीतत हन संसो झन कर। साढ़े सात हजार फीस जमा कर दे असिस्टेंट करा ।''

वकील किहिस अउ आस मा पइसा जमा करिस बिसालिक हा। घर लहुटगे अब।


 "बड़ा बाय होगे बिसालिक !''

रामधुनी दल के मैनेजर आय। दउड़त हफरत आइस अउ किहिस।

"का होगे कका! बताबे तब जानहु।''

"का बताओ बेटा ! फभीत्ता हो जाही, जग हँसाई हो जाही अइसे लागथे। राम के पाठ करइया गणेश हा अपन गोसाइन संग झगरा होके भागगे रे ! गुजरात जावत हे कमाये खाये बर। वोकर पाठ ला कोन करही एकरे संसो हाबे बेटा ! तेहाँ करबे न !'' 

"मेहां...? नइ आय कका ! जामवंत रीछ के पाठ करथो खाल ला ओढ़के उँही बने लागथे। ''

बिसालिक अब्बड़ मना करिस फेर मैनेजर तियार कर डारिस। 

          आगू गाँव भर मिलके कलामंच मा रामलीला करे अउ रावण मारे फेर अब तो गाँव भर दुराचारी रावण होगे हे तब कोन मारही रावण......? रामलीला नंदा गे। अब रामधुनी प्रतियोगिता होथे उँही मा झाँकी निकाल के रामकथा देखाथे मैनेजर हा। जम्मो कलाकार मन ला जुरिया के लेगिस आमदी गॉंव अउ तियारी करे लागिस अपन कार्यक्रम के।

               गवइया सुर लमाइस। नचइया  मटकाइस। मंच मा बाजा पेटी केसियो ढ़ोलक मोहरी बाजिस।  मंगलाचरण आरती होये के पाछू कथा शुरू होइस राम बनवास के कथा। बिसालिक पियर धोती पहिरे हे। मुड़ी मा जटा, बाहाँ मा रुद्राक्ष के बाजूबंद, नरी मा रुद्राक्ष के माला, गोड़ मा खड़ाऊ कनिहा मा लाल के पटका। माथ मा रघुकुल के तिलक अउ सांवर बरन दमकत चेहरा। दरपन मा देख के अघा जाथे। धनुष बाण के सवांगा मा सौहत राम उतरगे अइसे लागत हे।

          राजा दशरथ कोप भवन मा जाके केकयी ला मनाथे। अउ नइ माने तब पूछथे का वचन आय रानी माँग ले।


"मागु मागु पै कहहु पिय कबहुँ न देहु न लेहु।

माँग -माँग तो कथस महाराज फेर देस नही।'' कैकयी हाँसी उड़ावत किहिस। 

"दुहुँ सिरतोन !''

"रघुकुल रीत सदा चली आई, प्राण जाए पर वचन न जाई ।''

"तब सुन महाराज ! मोर पहिली वचन


सुनहु प्रानप्रिय भावत जी का। देहु एक बर भरतहि टीका॥

दुसर वचन

तापस बेष बिसेषि उदासी। चौदह बरिस रामु बनबासी॥

राम ला चौदह बच्छर के वनवास अउ मोर भरत ला राजगद्दी।

अइसने किहिस कैकेयी हा। दशरथ तो पछाड़ खा के गिरगे। 

                 अब्बड़ मार्मिक कथा संवाद मैनेजर गा के , रो के रिकम-रिकम के अभिनय करके बतावत हे।

 जम्मो  देखइया के आँसू चुचवाये लागिस। कतको झन कैकयी के बेवहार बर रोसियाये घला लागिस। 

राम के बरन धरे बिसालिक सबले आगू कैकेयी के पांव परके आसीस माँगथे। फूल कस सीता घला रिहिस। लक्ष्मण घलो संग धरिस अउ गोसाइन उर्मिला ले बिदा माँगिस। उर्मिला मुचकावत बिदा दिस। अब गंगा पार करके चल दिस जंगल के कांटा खूंटी रद्दा मा। भरत तमतमाये लागिस राजपाठ ला नइ झोंको कहिके। अब राम के खड़ाऊ ला धर के लहुटगे। भाई भरत तपस्वी होगे अउ शत्रुघन राज चलावत हे- रामराज ला। 

              सिरतोन कतका मार्मिक कथा हाबे। समर्पण अउ त्याग के कथा आय रामायण। जम्मो ला देखाइस बिसालिक मन। बिसालिक गुनत हे जम्मो कोई अपन सवांगा ला हेर डारिस अब,  फेर बिसालिक नइ हेरिस।

कार्यक्रम सुघ्घर होइस बिसालिक घला बने पाठ करिस। अब गाँव वाला मन ले बिदा लेवत हाबे। 

"चाहा पीके जाहू। छेरकीन डोकरी घर हाबे जेवनास हा।''

गाँव के सियान किहिस अउ चाहा पियाये बर लेग गे।

जम्मो कोई ला चाहा पियाइस डोकरी हा। राम लक्ष्मण भरत शत्रुघन के पाठ करइया मन चाहा पीयिस फेर मंथरा अउ कैकेयी ला नइ परोसे।

"दाई यहुँ बाबू ला दे दे ओ !''

मैनेजर के गोठ सुनके दाई खिसियाये लागिस।

"इही मन तो बिगाड़ करिस मोर फूल बरोबर सीता ला, राम ला बनवास पठोइस। नइ देव चाहा।''

डोकरी बखाने लागिस। राम बने बिसालिक किहिस चाहा बर तब वोमन चाहा पीयिस। अब जम्मो के आसीस लेके लहुट गे अपन गाँव बिसालिक अउ संगवारी मन।

       अधरतिया घर अमरिस बिसालिक हा। गोड़ हाथ धो के सुतिस फेर नींद नइ आय। गुने लागिस रामायण ला। नत्ता ला कइसे निभाये जाये ..? त्याग समर्पण इही तो सार बात आय रामायण के। ददा के बात मान के राम जंगल गिस - पुत्र धर्म के मान राखिस। गोसइया के संग देये बर फूल कस सीता चल दिस। उर्मिला मुचकावत लक्ष्मण ला बिदा दिस। भरत राजपाठ तियाग के तपस्वी होगे।...... अउ छोटे भाई शत्रुघन राज करत हे। जम्मो अनित करइया,चौदह बच्छर के बनवास भेजइया माता कैकयी ला प्रथम दर्जा देके पैलगी करथे राम हा। कोनो बैर नही, कोनो मन मइलाहा नही.....! जम्मो कोई ला मान देवत हे। अतका होये के पाछू घला भरत बर मया......? सिरतोन राम तेहाँ मर्यादा पुरुषोत्तम राम आवस।


बिसालिक गुनत हे।..........अउ मेहां .....?अपन छोटे भाई संग का करत हँव.......? शहर के रहवइया मोर छोटे भाई ड्राइवर तो हरे। हटवारी के दू दुकान ला मांगत हाबे। .....अउ में निष्ठुर चोला कोट-कछेरी रेंगावत हँव।

               मुँहू चपियागे। लोटा भर पानी पी डारिस। अब महाभारत के सुरता आये लागिस। पांडव मन आखिरी मा पाँच गाँव तो माँगिस वहुँ ला नइ दिस चंडाल दुर्योधन हा अउ अपन कुल के नाश कर डारिस।

मोर छोटे भाई हा घला दू दुकान ला मांगत हाबे अउ मेहां कोर्ट कछेरी ......? सिरतोन महंगाई मा वोकर घर नइ चलत होही ....? कभु एक काठा चाउर तो नइ पठोये हँव एक्के मे रेहेन तब। ड्राइवर के कतका कमई ...?  दुर्योधन बरोबर मोर बेवहार ....?

नत्ता गोत्ता मा बीख घोर डारेव....। भलुक राम नइ बन सकव ते का होइस...भरत बन के दू दुकान के तियाग कर देव.....?

बिसालिक अब्बड़ छटपटावत हे अब। 

             अब नवा संकल्प लिस मेहां लहुटाहू आठ में से चार दुकान ला । बिहनिया जाहू छोटे भाई घर ....। सुख दुख जम्मो बेरा मा नत्ता निभाहु.....। बिसालिक अब अगोरा करे लागिस बिहनिया के । वोकर मन के जम्मो मइलाहा  धोवा गे रिहिस। अब मन के धुँधरा सफा होगे रिहिस अउ नत्ता-गोत्ता के मिठपन समाये लागिस।

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चन्द्रहास साहू द्वारा श्री राजेश चौरसिया

आमातालाब रोड श्रध्दानगर धमतरी

जिला-धमतरी,छत्तीसगढ़

पिन 493773

मो. क्र. 8120578897

Email ID csahu812@gmail.com

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समीक्षा

पोखनलाल जायसवाल: 


मनखे के जिनगी म सुख-दुख लगे रहिथे। जब मनखे ल सुवारथ घेर लेथे त मनखे कतको किसम के मुसीबत म फँसे लगथे। जिहाँ ले निकल पाना मनखे के बस म नइ राहय। सुवारथ म फँसे मनखे के मति हजा जथे। बुध नाश हो जथे। ओला अपन सिवा अउ कखरो भल-अनभल ले मतलब नइ राहय।चाहे वो बाँटे भाई परोसी च काबर नइ होय।

        पुरखा मन कहे हे के जइसे ही महतारी कोख ले दूसरइया बेटा अवतरथे, घर के बँटवारा के नेंव, नेरवा संग गड़ जथे। ए अलगे बात आय के मया परेम अउ दाई-ददा के असीस ले अँगना दू फाँकी नइ होवय। फेर दुनिया के रीत आय। कतेक दिन ले भाई बाँटा ल रोके जा सकत हे। एक दिन बँटवारा के बेरा आइच जथे। बँटवारा के पीरा दाई-ददा के हिरदे ल चीर देथे। महतारी के मया बाँटे नइ जा सकय। तभो ले महतारी-बाप अपन छाती म बँटवारा के पखरा ल लाद कलेचुप रहिथे। अपन जनम भुइयाँ अउ करम भूमि ल कहाँ बिसरा पाथे मनखे ह। चाह के दू दिन के सुख बर अपन डीह डोंगर ल नइ छोड़य। पुरखा मन के मन के भाव कुछ अइसन रहिथे- छोड़ के आमा बर, पीपर के छाँव, नइ तो जाँव। वृंदावन लागे रे मोर गँवई-गाँव। जननी जन्मभूमिश्च स्वर्गादपि गरीयसी। अइसने नइ केहे गे हे।

       आज तक अइसे कोनो बँटवारा नइ होय हे, जेकर ले सबो झन संतोष करँय। तुरते नइ ते कुछ दिन पाछू होय बँटवारा के झगरा होते च रहिथे। जहाँ सुमति, तहाँ सम्पति नाना, जहांँ कुमति तहाँ बिपति निदाना। बात घर ले बाहिर अदालत-कछेरी चल देथे। वकील अउ कछेरी के चक्कर काटत कतको बछर गुजरे लगथे, फेर नियाव के कोनो आरो नइ मिलय। गाड़ी-घोड़ा के खर्चा, काम बूता के नागा अलगेच होथे। फेर मन म कोनो किसम के शांति आबे नइ करय। दिनोंदिन मनखे के सुभाव चिड़चिड़ा होय धर लेथे। घर म कलहा बाढ़ जथे। घर के सुख चैन सुवारथ के चक्की म गहूँ सहीं पिसावत वकील अउ कछेरी के भेंट चढ़ जथे। बँटवारा के मूल ले उपजे अंतस् के संसो अउ पछतावा ल कथानक बना के लिखे गे सुग्घर कहानी आय धुँधरा। 

      हमर पौराणिक कथा मन जिनगी ल नवा उजास देथें, जिनगी म नवा रंग भरथें। मनखे ल नवा संदेश देथें। एक कोती रामायण जिहाँ रिश्ता म एक दूसर बर समर्पण अउ त्याग के संदेश बगराथे अउ मर्यादा के पाठ पढ़ाथे, उहें महाभारत म होय जान माल के विनाश सुवारथ म पड़ के अपने बिगाड़ ले बाँचे के संदेशा देथे। 

         अदालत-कछेरी के चक्कर काटत अउ लीला के बलदा चलत नवा रीत झाँकी म राम के रोल करत बिसालिक के हिरदे परिवर्तन छत्तीसगढ़िया जनजीवन म बड़ सहज ढंग ले देखे जा सकत हे। छत्तीसगढ़िया जइसन जीथें, वइसन दिखना चाहथें। इही इहाँ के मनखे के सुभाव आय। राम छत्तीसगढ़िया के आदर्श आय। राम इहाँ के रग-रग म समाय हे। एकर बड़का प्रमाण ए आय कि मूल छत्तीसगढ़िया भाँचा म राम के दर्शन करथे। ए भुइँया राम के ममियारो आय। तभे तो छेरकीन डोकरी, मंथरा अउ कैकेयी के रोल करइया मन ल चाहा नइ दिस।

        कहानी म बिसालिक के माध्यम ले बढ़िया विचार मंथन करत सुवारथ के छाय धुँधरा ल मेटे के सुग्घर उपाय हे। कहानी के भाषा म प्रवाह हे। सरलता हे। बँटवारा ले उपजे असंतोष ल घलो दुरिहाय बर पौराणिक कथा के प्रसंग मन के वर्णन अउ चिंतन करे म चंद्रहास साहू जी सफल होय हे। कहानी अपन उद्देश्य ले भटके नइ हे।

       पौराणिक कथा के प्रसंग मन के अइसन ढंग ले प्रस्तुति अउ बँटवारा के मूल समस्या ऊप्पर कहानी म बड़ सुघरई ले प्रयोग निश्चित ही समाज ल सुमत के डहर म ले जाही। 

        जइसे धरती म छाय धुँधरा सुरुज नरायन के बाढ़त अँजोर के संग सफा होवत जाथे, वइसने बिसालिक के अंतस् के धुँधरा रमायण म समाय समर्पण अउ त्याग के जगमग अँजोर ले सफा होवत गिस अउ स्वारथ ले भरे मइलाहा मन म मया पलपलाय लगिस। मन के भेद के मिटगिस। अइसन भाव ले कहानी के शीर्षक धुँधरा सार्थक हे। काबर कि मनखे के अंतस् म दुर्गुण वइसने क्षणिक रहिथे, जइसन धुँधरा।

      अतेक सुग्घर कहानी लिखे बर चंद्रहास साहू जी ल बधाई।💐🌹


*पोखन लाल जायसवाल*

पठारीडीह(पलारी)

9977252202

ग्रामीण भूखण्ड भूखण्ड के नाम अउ विवरण


 ग्रामीण भूखण्ड भूखण्ड के नाम अउ विवरण 


हमर छत्तीसगढ ह‌‌‌ कृषि प्रधान प्रदेश हरे. इहां धान जादा बोय जाथे. एकर

सेति येला धान के कटोरा कहे जाथे. खेती- किसानी इहां के रहवासी मन के रग- रग म समाय हे.खेती  इहां के किसान -बनिहार के जिनगानी हरे.इही जीवन के आधार हरे.खेती अपन सेती ,  नइ ते नदियां के रेती कहे गे हवय. खेती म अब्बड़ मिहनत हे.खेती म कांटा -खूंटी बिनइई -सोलई से लेके धान मिंजई अउ कोठी म धान धरई तक कतको अकन प्रक्रिया ले गुजरे ल पड़थे.

 अइसने भूखण्ड के नांव घलो अलग अलग रहिथे.


खार-  किसान मन माटी के प्रकार अउ क्षेत्र विशेष के नांव ल आधार बना के खार के नांव रखथे. कतको अकन खेत  


 ल मिला के खार कहे जाथे. जैसे - कन्हार खार, भर्री खार, नदियां खार , मटासी खार, चुहरी खार, कछार खार,बाहरा खार, तुलसी खार. गांव के आधार म घलो खार ल कहे जाथे.


डोली -   जउन प्रकार के फसल बोय जाथे वोकर आधार म या कोनो नांव या घटना विशेष, रुख रई ल आधार बना के  डोली मन के नांव रख देथे. हाड़ा डोली,मुसवा मरा, बाई रुख डोली , कुवां डोली,सांप डोली , नीम डोली,बोहार डोली. 


धनहा डोली- जे खेत म धान बोय जाथे वोला धनहा डोली कहे जाथे.

भर्री डोली -  येमा धान के उत्पादन कम होथे. येमा जादा कोदो, सोयाबीन,चना, सरसो बोय जाथे जेकर बर कम पानी के जरुरत होथे.


भांठा जमीन - गांव के पास लगे जमीन

   जेमा तिली, कोदो बोय जाथे. भांठा जमीन म पानी ठहर  नइ पाय.


परिया- गांव म खेत -खार , बारी -बखरी बियारा, मैदान के संगे संग परिया के गजब महत्व हे. परिया म मवेशी मन के घूमे फिरे अउ थोरकुन चारा मिल जाथे.


बियारा - खेत म फसल कटई के बाद बियारा म रखे जाथे. धान,गहूं, सोयाबीन,चना, लाखड़ी,उरिद,मूंग,सरसो,तिली  जइसे फसल ल खरही के रुप म गांज के या बगरा के राखे जाथे. फेर वोकर सुखे के बाद मिंजई करे जाथे.


कोठी - फसल के मिंजई के बाद वोला बने सहेज के राखे बर घर के पठउवां म या खाल्हे म माटी या ईंटा ले दीवार बनाय जाथे वोला कोठी कहिथे. वोमा सबो प्रकार के फसल ल अलग अलग रख के सुरक्षित राखे जाथे.


अंगना - घर के शुरू म  बईठे के जगह.


बारी -  गांव म बारी के अब्बड़ महत्व हे. येमा किसम- किसम के सब्जी उगाय जाथे. बखरी म तुमा, तोरई,कुम्हड़ा, रमकलिया, बरबट्टी, परवर,कुंदरु,करेला अउ तरह -तरह के भाजी -पाला ले बारी म बहार आ जाथे. येकर ले पैसा बचत होथे काबर कि घर म ही सब्जी मिल जाथे.येकर ले

आर्थिक संबल घलो मिलथे.

 सरकार ह घलो नारा दे हवय-



 छत्तीसगढ़ के चार चिन्हारी .

नरवा,गरुवा,घुरवा अउ बारी.



           ओमप्रकाश साहू अंकुर

           सुरगी, राजनांदगांव

भूखण्ड/खेती भुइयाँ ले जुड़े शब्द

 




**यहू ला जानव**


भूखण्ड/खेती भुइयाँ ले जुड़े शब्द


*मेड़*- खेत के चारो मुड़ा के पार।


*डोली/खेत*- मेड़युक्त भूखण्ड जिहाँ धान, गहूँ, चना या पानी ले पकइया फसल  बोय जाथे।


*भर्री*- बिना मेड़ के भूखण्ड जेमा पानी नइ माड़े, ज्यादातर येमा कम पानी मा पकइया नगदी फसल बोय जाथे।


*चक*- प्लाट, एक ले अधिक एकड़ के एके जघा स्थित खेत।


*खार*- बड़ अकन खेत या भर्री। खार के नामकरण भूखण्ड के स्थिति, दिशा, दशा,बनावट, गांव ,बाँध, पेड़ पात के अधिकता ला आधार बनावत होथे। जइसे- खाल्हे खार, रकसहूँ खार, दर्रा खार, बम्हरी खार, बन्धिया खार, खैरझिटी खार, चुहरी खार आदि कतको हे।


*गाँसा*- अइसन जघा जेमा बरसा के पानी गिरत साँठ माड़ जाथे। खेत के खँचका भाग।


*पखार*- अइसन डोली जिहाँ बरसा के पानी नइ माड़े, बल्कि सबे बोहा जथे। खेत के डिपरा भाग।


*मुही*- डोली के मेड़ मा बने छोटे भुलका, जेती ले पानी आथे जाथे। येला स्वेच्छा ले बनाये जाथे।


*भोक*- खेत के मेड मा बने अइसन भुलका जिंहा के खेत के पानी बोहा जथे। ये खुदे बन जाथे,एखर ले किसान मन ला नुकसान हो जथे।


*भरका*- बरसात के पानी पाके खेत या भर्री मा बने छोटे छोटे भुलका। 


*दर्रा*- भुइयाँ मा बने लामी लामा दरार। दर्रा गर्मी मा दिखथे, बरसा घरी मुँदा जथे।


*बिला*- केकरा अउ कतको जीव जानवर के द्वारा बनाये भुलका(छेद)। मेड पार मा कतको बिला दिख जथे।


*गाड़ा रावन*- गाड़ा के दूनो चक्का ले बने रस्ता।


*पैडगरी*- मनखे मनके अवई जवई ले बने डहर।


*धरसा*- खेत खार जाए बर बने रस्ता/डहर/बाट


*हरिया*- जोतत बेरा किसान, खेत के एक निश्चित भाग ला नांगर बइला ले जोतत जथे।


*पाँत*- खेत के बन काँदी ला निंदे बर धरे एक निश्चित भाग।


*टोकान*- खेत के कोन्हा।


*खँड़*- किनारा/भाग।


*खोधरा*- गढ्ढा


*ढिलवा*- डिपरा


*टेड़गी डोली*- चार ले जादा टोकान वाले डोली। अइसने डोली मा किसान मन बोवई या खेती काम के मुहतुर घलो करथे।


*लमती डोली*- लामा लामी डोली। 


*टेपरी डोली*- छोटे आकार के डोली।


*बाहरा डोली*- अइसन डोली जे कम संसाधन मा घलो जादा पैदावर देथे। पानी सहज आके भर जाथे। आकार प्रकार हिसाब ले, बड़े बाहरा, छोटे बाहरा, टेड़गी बाहरा बाहरा के कई प्रकार हे। बाहरा बहार शब्द ले बने हे, जिहाँ पैदावार घलो जादा होथे।


*गर्दी रेंगाना*- खेत के बीचों बीच, पानी निकाले बर  रापा कुदारी मा बनाये छोट नाली।


*खँधाला*- सीढ़ी, पेड़ के डाला।


*बनखरहा*- वो डोली या भर्री जिहाँ जादाच बन काँदी उपजथे।


*मउहारी*- मउहा के बन।


*कउहा रवार*- कउहा पेड़ के जंगल।


*अमरइया*- आमा बगीचा।


*जमराई*- राय जाम या चिरई जाम के बगीचा।


*डिही*-  पहली जमाना मा बसे बस्ती जे वर्तमान में उजाड़ होके बन बगीचा मा घिर गे हवै।


*चुहरी*- ये शब्द चाहली(पानी मा माते भुइँया) ले बने हे। अइसन जघा जेमा ज्यादातर पानी भरे रहिथे। 


*बतर/पाग*- बाँवत(धान बोय) बर उपयुक्त समय


*जरखेदी*-  चुकता, जमें।


*रेगहा*- एक विशेष दिन तिथि बाँधत खेत ला फसल बोय बर लेना।


*अधिया*- खातू,कचरा,धान,पान अउ जम्मो लागत ला आधा आधा लगाके खेती करना।


*कट्टू*-  लागत वागत काट पिट के एक निश्चित राशि या धान पान मा खेत बोना।


*भाँठा*- मटासी माटीयुक्त ठाहिल भुइयाँ, जिहाँ पानी नइ माढ़ें। ये रेतीला भी हो सकत हे।


*परिया*- अइसन जघा  जेमा खेती बाड़ी के काम नइ होय।


*चरागन*- गाय गरुवा मन के चारा चरे के जघा।


*दइहान/ गौठान/खइरखा*- अइसन जघा जिहाँ बरदी(गाय गरवा के समूह) बिहना ठहरथे।


*भोड़ू/भिम्भोरा*- जमीन मा बने दीमक के घर,जिहाँ साँप, बिच्छी, गोइहा, खुसरे दिखथे।


*तरिया*- गाँव घर के उपयोग बर भरे पानी। तरिया के बनाबट,स्थिति, दशा दिशा अउ रुखराई के हिसाब ले नाम देखे सुने बर मिलथे।


*ढोंड़गी*- नरवा/नाला के छोटे रूप।


*पैठू*- पैठू तरिया ले जुड़े रहिथे, बरसा के पानी एखरो माध्यम ले तरिया मा आथें अउ जब भर जाथे ता निकलथे घलो।


*बन्धिया/बाँध*- खेत खार के सिचाई बर भरे पानी। बाँध मा *नहर नाली(सिंचाई बर बने नाला)* जुड़े रथे।


*उलट*- बाँध भरे के बाद जादा पानी निकले के जघा, 


*डबरा*- भुइयाँ मा बने गड्ढा, जिहाँ बरसा घरी पानी भराये रहिथे।


*घुरवा*- खातू कचरा फेके बर बने जघा।


*कुँवा*- जमीन के गहराई मा जलस्रोत।


*बावली*- जमीन के गहराई मा भरे पानी जिहाँ सीढ़ी रिथे।


*मसानघाट*- अइसन जघा जिहाँ मनखे मन ला ,मरे के बाद दफनाये, जलाए जाथे।


*खदान*- धातु,पथरा, छुहीमाटी निकाले बर भुइयाँ मा बने गड्ढा।


*कछार*- नदिया तीर के भुइयाँ।


*डुबान/ बुड़ान*- बांध या नरवा भरे के बाद, बांध ले लगे वो जघा जिहाँ पानी भर जाथे।


*माड़ा*- जंगली जानवर मन के रहे के जघा।


*साँधा*- खोल


*अपासी*- सिंचित भुइयाँ


*लगानी*- अइसन जमीन जेखर लगान पटाये(भरना)बर लगथे


*खरखरहा*- ना गिल्ला ना सुक्खा, भर्री अइसने पाग मा बने जोताथे।


*किरचहा*- कठोर,कड़ा, टांठ।


*चिक्कन*- चिकना


*चिखला*- कीचड़


*लेटा*- लसलसा कीचड़ के गाड़ा चक्का या पाँव मा चपक जथे।


*निँदा*- निदाई करे के बाद निकले बन/खरपतवार


*मेड़ो/सिवान/सियार*- कोनो गाँव, शहर,या देश राज के आखरी छोर।


*सियार*- मेड़ो मा गड़े पथना, या कोनो चिन्हा।


*खंती*- खेत खार के एक निश्चित भाग ल कोड़ना, ज्यादातर खंती कोड़ के खेत ला बरोबर करे जाथे।


*गोदी*-  जमीन के एक निश्चित भाग ल कोड़े बर चिन्हित जघा। एक फुट गहरा अउ दस फुट समान लंबाई चौड़ाई के नापी भुइयाँ- एक गोदी।


*डंगनी*- गोदी नापे के पैमाना।


*ठिहा/आँट*- गोदी कोड़त बेरा गहराई के नाप बर छोड़े टापू। एखरे ले अंदाजा लगथे कि वो जघा कतका ऊँच रिहिस।


*कन्हार डोली*- काला माटी वाले खेत।


*मटासी*- पिंवरा माटी वाले खेत।


*मुरमुहा*- मुरूम युक्त भुइयाँ।


*कनाछी*- रेती।


*कुधरिल*- रेत युक्त धूल।


*फुतकी/धुर्रा*- माटीयुक्त धूल।


*कुंड़/सेला*- नांगर जोतत बेरा बने चिन्हा।


*गोंटा*- जमीन मा पड़े पिवरा रंग के गोल गोल पथरा।


*कँसियारा*- काँसी युक्त खेत।


*राता खार*- दुरिहा के भाँटा जमीन।


*फुटहन/कटही बन*- काँटेदार पेड़ पौधा ले युक्त भुइयाँ।


*नर्सरी*- फलदार,फूलदार,छायादार  अउ औषधीय वृक्ष के पौधा तैयार करे के जघा।


*कुलापा/पुलावा*- छोटे नहर नाली, छोटा नाला,


*रपटा*- कामचलाऊ नाली।


*कूना*- चना, गहूँ के कूढ़ी।


*मांदा*- क्यारी/ओरी


*बुकनी*- चिकना।


*दुवार*- घर के आघू के खाली जघा, अंगना।


*बारी/बखरी*- घर के नजदीक साग भाजी लगाय के जघा।


*कोठार/बियारा*- धानपान या अन्य फसल ला जिहाँ रखे, मिन्जे जाथे।


*रकबा/एकड़/हैक्टेयर/जरी*- जमीन नाप के पैमाना


*डोंगरी*


*पहाड़*


*मैदान*


जीतेन्द्र वर्मा"खैरझिटिया"

बाल्को,कोरबा(छग)


Thursday 28 July 2022

 नंदागे बरवट संस्कृति

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 आज बरवट नंदागे त बहुत अकन संस्कृति नंदागे। हर घर में एक बरवट राहय याने खुल्ला परछी, जिंहा घर के सियान, लड़का सब बर जगह राहय। ये संस्कृति सिरिफ छत्तीसगढ़ के ही नहीं हर गांव के पहिचान रहिस हे।


आखिर खुल्ला बरवट म काय होवय? ये बरवट म लइका मन बरसात म खेलयं । गरमी के मंझानिया लइकामन के हांसी, किलकारी ले गूंजय ये बरवट। बिहनिया ले बने गोबर में लिपा जावय ओखर बाद घर के सियान मन बइठ जायं। जेन ल भी गोठियाना हे ओमन इही बरवट म

आवयं। नीति के बात, गांव के समस्या के बात, बेटी के बिहाव के बात इहां होवय। बांस गीत के मजा लेवयं त भटरी करा भविष्य जानयं। ये बरवट के महिमा बहुत रहिस हे। ढेरा आंटत भोभला बबा ठठ्ठा करय त डोरी लपेटत गौटिया ह मुस्कावय। जेवन के बेरा तक ये बरवट आबाद राहय। खेत डाहर सियान ह रेंग देवय। आरो नइ मिलय तब गौंटनिन ह समझ जाय। बरसात म घलो बरवट आबाद राहय। सब जुरिया के बइठे राहयं सुख-दुख बांटय। लइका मन बर घलो बांटी खेले के जगह राहय ।


बरवट ले हर परिवार एक-दूसरे ले जुरे राहय। कोन कहां जात हावय गांव म काकर घर सगा आय हावय ये समाचार मिलत राहय। कोन बीमार हे, कोन ल मदद के जरूरत हावय, ऐखरो जुगाड़ हो जाय। जेन ल बात करे बर राहय तेन ह बरवट म आके बइठ जाय। बात हो जाय। सुनार के सुनारी चलय, अंगूर वाले बाबा के दुकान चलय। बरसात म बाबा बैरागी मन अपन रहे के जगह बना लेंवय। ये बरवट म ककरो बर रोक-टोक नई राहय। एक तीर म बना खा लेवंय, उहें सुत जावयं। दिसा पानी बर तो भाठा

रहिबे करय।


छत्तरपुर में मैं ह बरवट ल एक परछी के रूप देखे रहेंव जिंहा ढेंकी अउ जांता रहिस हे। छत्तीसगढ़ म घलो कोनो कोनो जगह ढेंकी हावय।

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बरसत पानी म घलो धान ल कूट लें। चार झन संग गोठिया ले अउ काम कर ले। कोनो धान, कोदो-कुटकी, कूटना हे त आके कूट लेवय ।


कांक्रीटीकरन अउ शहरीकरन ये सुघ्घर संस्कृति ल पाछू ढकेल दीस। आज येला चाह के भी लाने नई जा सकय। एकर बाद परछी बनिस जेमा दरवाजा राहय। जेन समय-समय म खुलय। अब ओ परछी घलो नंदागे।

अब तो पोर्च अउ हॉल बने ले लगगे। इहू ह जुन्नागे । अब एक ड्राइंग रूम याने बइठक जिंहा सिरिफ बाहरी मनखे बइठथें । ओखर संग लिविंग रूम ये ह पारिवारिक बइठक आय। जिंहा महिला मन काम करयं। टी.वी. देखयं,

लइका मन पढ्यं अउ सियान मन टी.वी. देखयं । ये ह पारिवारिक जगह बनगे। ये सब के बीच म वो बरवट ह दिखथे जिंहा पूरा गांव एक पारिवार बने राहय। सुख-दुख,हंसी-मजाक अउ समाचार के एक जीवंत जगह

रहिस हे। बरवट एक दिन जरूर लहुटही रूप बदल के।

सुधा वर्मा



हरेली तिहार के वैज्ञानिक पक्ष*

 *हरेली तिहार के वैज्ञानिक पक्ष*

    

       भारत भुइँया देव भूमि आय,तपोभूमि ए,सँस्कार के भुइँया ए।बीर मन के अँंगना ए।ए हर राम कृष्ण, गौतम, गाँधी, नानक, जइसन कतको के करम स्थली ए। ए पुण्य भूमि म आने-आने भाषा बोली के मनखे, अलग-अलग पंथ के अनुयायी, तरा तरा के जाति-धरम अउ रीत रिवाज के मनइया मन आपस म जुर मिल के मया परेम ले रहिथें। अनेकता म एकता ह इहाँ के चिन्हारी ए। ए पावन भुइँया के माटी के महमहासी कोनो चंदन ले कमती नइ हे। पूरा बछर भर तीज-तिहार होत रहिथें। तेकरे सेती तिहार के भुइँया घला कहाथे। एक तिहार मनिस कि दूसर के अगोरा अउ जोखा शुरु हो जथे। खुशी कभु कमतियाय नइ पाय। कृषि प्रधान देश होय ले इहाँ के जादा ले जादा तिहार ह किसानी काम के ऊपर निर्भर करथे। कोनो फसल बोय के पहिली, कोनो बीच के काम पूरा होय के खुशी त कोनो फसल काटे के तियारी अउ लछमी के घर आय के खुशी म मनाय जाथें।

     भारत भुइँया के किसानी मानसून अवई के संग धान बोय ले शुरु होथे। आसाढ़ सावन म भरपूर पानी गिरे ले धरती दाई ह हरियर लुगरा पहिरे सबके मन ल हरिया देथे। नरवा नदिया कल-कल छल-छल बोहाय लगथे। तरिया डबरी लबालब भर जथे। जिहाँ पानी उहाँ जिनगानी,कस सबके मन आनंद ले ,उछाह ले नाचे कूदे लागथे। इही बेरा म सावन अमावस्या के हरेली तिहार मनाय जाथे। ए तिहार प्रकृति के संग मिल के धरती दाई के खुशी म खुशहाली मनाय के तिहार हरे।

         छत्तीसगढ़ म प्रकृति के संतुलन के बिगड़े के पहिली समे म बरोबर पानी गिरे ले सावन अमावस के आवत ले रोपा-बियासी के बुता पूरा हो जात रहिस। आज किसानी कोनो कोनो मेर पूरा नइ हो पावय। इही हरेली के दिन किसान मन नागर, कुदारी, रापा जइसन किसानी म उपयोगी सबो अउजार ल धो के ओकर उपकार मानत पूजा-पाठ करके बने सुक्खा जगा म रखथें। हीरा-मोती के संग गाय-गरुवा के घला हियाव करथें। कृषि अउजार के भोग बर चीला चढ़ाथे। बइला अउ गाय मन ला लोंदी खवाथें। लोंदी म दशमूल काँदा, नून अउ पिसान ल परसा /खम्हार पान संग खवाय के चलन तइहा ले आत हे। राउत भाई मन दशमूल काँदा के जोखा करथे। एला मनखे मन घलो खाथें। एखर वैज्ञानिक पहलू ए समझ आथे कि बरसात म तरा तरा के रोग राई होय के डर रहिथे। एकरे ले बचाव बर एखर उपयोग हमर पुरखा मन अपन ढंग ले करत रहिन होही। काबर कि तब सबो कोति आज कस डॉक्टर अउ दवई के बेवस्था नइ रहिस।

        इही दिन गेंड़ी चढ़े के रिवाज हे। आज के दिन बने गेंड़ी पोरा तिहार के आवत ले  उपयोग कर जाथे। बउरथे। गेंड़ी बाँस ले बनाय जाथे। जेमा दूनो गोड़ बर  बाँस के दू ठन पोरिस भर लाम कुटका, अउ दूनो म पाँव रखे बर पउवा बनाके अपन मनमर्जी मनमाफिक ऊँच्च बाँधे जाथे। कोनो-कोनो के मानना हे कि एखर शुरुआत द्वापर युग म पाँडव मन करिन हे। मैं अपन बचपन ल सुरता करत सोंचथँव कि आज ले तीस बछर पहिली हर गाँव के गली मन के कँकरीटीकरण नइ होय रहिस। त गली-गली बहुतेच चिखला होवय। त  बबा पुरखा मन के समे का हाल रहिस होही, सोच सकथँन। ओ समे बरसात म चले खातिर गेंड़ी के परयोग करिन होहीं। अउ चिखला-माटी ले, केंदवा अउ तरा-तरा के संक्रमण ले बाँचे ए ल बरसात के कमतियावत ले बउरत रहिन होही अइसे सोंचथँव। आजो बहुत अकन गाँव हो सकत हे, जिहाँ गेंड़ी सउँक अउ रिवाज बर नहीं, जरूरत बर बनावत होहीं। आज काल गेंड़ी दौड़ के भी आयोजन करे जाथे।

     छत्तीसगढ़ी समाज के पउनी-पसारी मन ए दिन अपन अपन कोति ले मालिक अउ मालिक के परिवार बर मंगल कामना करत कुछु कुछु नेंग करथें। जइसे राउत भाई मन लीम डारा घर के मुहाटी दरवाजा म खोंचथें, लीम के औषधि गुन ले सबो परिचित हँन। लुहार ह खीला के पाती दाबथें। मोला सुरता आत हे, मोर डोकरी दाई पानी गिरे अउ बादर गरजे म हँसिया कुदारी मन ल अँंगना म फेंके काहय अउ बताय कि गाज उही म गिरही, हमर कोति नइ आही। हो सकत हे लुहार के सींग दरवाजा म खीला ठोंके के कारण इही हो। सबो पउनी-पसारी ल दान पुन म चाँउर दार नून दे जाथे। ए मा मूल भाव टटोले जाय त एक-दूसर ले सब के कल्याण ह जुड़े हे।

      इही दिन के रतिहा ल लेके कतको आनी-बानी के गोठ होथे। जादू-टोना अउ ताँत्रिक साधना के सिद्धि बर  साधना इही दिन शुरुआत करथे, के गोठ घला होथे। एला अइसन ढंग ले भी सोचे बर चाही कि कोनो भी काम ल करे बर किरिया खा के शुरुआत करे जाय त अपन सबो काम बुता पूरा होही। कोनो अड़चन नइ आही।

     गाँव के बइगा (पुजारी) गाँव भर के सबो देवी देवता मन ल सुमरन कर पूजा-पाठ कर गाँव के सुख, शाँति, उन्नति अउ सपन्नता के कामना अउ प्रार्थना करथे। बदला म वहू ल चाँउर दार दे जाथे।

       इही ढंग ले छत्तीसगढ़ी समाज आपस म जुर मिल एक दूसर के चिंता अउ सेवा म लगे रहिथे।

       आज प्रकृति ले मनखे के खिलवाड़ अतका बाढ़गे हवय कि पर्यावरणीय संतुलन बिगड़ गे हे। जेन साफ साफ दिखथे। एके समे म कोनो कोति भयंकर गरमी त कोनो अउ कोति नदिया म भारी पूरा (बाढ़) देखे मिलथे। प्रकृति अपन बिफरे के इशारा कोनो न कोनो रूप म देत हवै फेर वाह रे मनखे विकास के घोड़ा म चढ़े, अनदेखा करत कति भागत जात हे।अभी समे हे धरती ल सँवारे के, नवा सिरा ले सजाय के। धरती के हरियाली बाँचही त मनखे के अस्तित्व रही। इही हरियाली हमर बर संकट मोचक हरे माने ल परही। तभे हरेली तिहार अपन सही समे म सही ढंग ले नवा पीढ़ी मनाही, ए हमर नवा पीढ़ी बर पुरखा मन के हमर करजा आय मानन।


*पोखन लाल जायसवाल*

पठारीडीह, पलारी बलौदाबाजार छग.

गेंड़ी जोहार...


 

गेंड़ी जोहार... 

    हमर छत्तीसगढ़ म हरेली एक अइसे परब आय, जेला लइका मन गजब उत्साह के साथ अगोरा करथें. काबर ते ए दिन वोमन ल बांस के बने गेंड़ी म चघे अउ नंगत किंजरे के अवसर मिलथे. एकरे सेती लइका मन ए हरेली परब ल 'गेंड़ी परब' के रूप म घलो चिन्हारी करथें.

    वइसे तो ए परब म गेंड़ी काबर बनाए जाथे, एकर ए परब ले संबंधित का महत्व हे, ए बात कोनो ठोस कारण नइ मालूम होवय. अउ ते अउ एकर कोनो आध्यात्मिक कारण घलो समझ म नइ आवय. फेर चेतलग सियान मन के कहना हे, एला चम्मास के गहीर बरसा के सेती किचिर-काचर माते चिखला ले लइका मनला बचा के रेंगाए खातिर बनाए गे होही. तेमा वोमन चिखला-पानी ल नाहकत घलो स्कूल, कोनो तरिया या अपन संगी-साथी मन संग मेल-भेंट करे बर आसानी के साथ जा सकय. एकरे सेती ए हरेली परब के बहाना गेंड़ी बनाए के नेंग ल घलो कर दिए जाथे.

    ठउका अइसने एकर विसर्जन खातिर घलो कोनो अलग से परब नइ मनाए जाय, तभो ले एला नरबोद परब के दिन टोर-टुरा के विसर्जित कर दिए जाथे. ए नरबोद परब ल वनांचल क्षेत्र म बहुतायत म मनाए जाथे. ए परब ल 'पोरा तिहार' के बिहान दिन मनाए जाथे. 

    ए नरबोद परब म सबो गाँव वाले मन पोरा के दिन के बांचे रोटी-पीठा अउ घर म जतका सदस्य होथे, वो सबो के नाव ले जुन्ना खटिया के डोरी ल गांठ बांध के, घर के जम्मो परेशानी-समस्या, रोग-राई, खाज-खजरी ल प्रतीक स्वरूप एक ठन पोतका म बांध के सकलाथें. गांव के बइगा ह सांहड़ा देव के पूजा-पाठ करथे. तहाँ ले सबो गाँव वाले मन संग सियार म पहुँचा देथे. ए तिहार म हरेली के दिन बनाए गेंड़ी ल घलो टोर-टुरा के सरोय के परंपरा ल पूरा करे जाथे. गेंड़ी ल गांव के सियार म एक पेंड़ जगा सात भांवर गोल घूम के टोरे जाथे. बइगा ह इही जगा हूम-धूप देके सबो गाँव भर के लाए पोतका मनला बार के रोग-राई ल छोड़ देथे.

    एकर बाद लइका मन गाँव के सबो रोग-राई, बीमारी-परेशानी, दुख-दरद ल ले जा रे नरबोद कहिके चिल्लावत सियार म नहका देथे. बाद म बेलवा डारा, कर्रा डारा ल खेत, घर, बारी-बखरी, कोठार आदि म खोंचे जाथे. एकर मानता हे, के एकर ले जम्मो किसम के परेशानी दुरिहा रहिथे.

    आज गेंड़ी ह प्रतियोगिता के संगे-संग कला के प्रदर्शन के रूप घलो धर लिए हे, एकरे सेती अब एला बारो महीना कोनो न कोनो रूप म देखे जा सकथे. 

    अभी हमर छत्तीसगढ़ सरकार ह हरेली के दिन सबो स्कूल मन म लइका मन खातिर गेंड़ी दौड़ के प्रतियोगिता आयोजित करे बर आदेश निकाले हे, तेनो ह गजब सहराय के लाइक हे. काबर ते एकर माध्यम ले लइका मन अपन परंपरा अउ  भाखा संग जुड़त जाही.

-सुशील भोले-9826992811

आलेख-*लोक परब हरेली*


 

आलेख-*लोक परब हरेली*


सावन महीना के अमौसी के दिन मनाय जाने वाला ये लोक परब हरेली छत्तीसगढ़िया किसान  मजदूर मन के दूसरइया बड़का तिहार आय। छत्तीसगढ़ के किसानी तिहार अक्ती के बाद हरेली ह खेती-बाड़ी मा रमे किसान मन के जिनगी म उमंग-उल्लास भरे के काम करथे। ये तिहार ह चिखला-माटी के काम-कारज मा चिभके कमइया मन बर थोकिन सुस्ताय के उदीम घलव आय। तइहा जमाना ले बैला-भैंसा के उपयोग नाॅंगर जोतई , माल ढुलई अउ आवागमन बर होते आवत हे। मवेशी मन के मल-मूत्र अउ बन-कचरा (कृषि अपशिष्ट) ले जैविक खातू बनाय के परम्परा निच्चट जुन्ना बात आय।

    किसानी काम बर खातू- बीजा मजदूर-बनिहार (मानव श्रम) नाॅंगर-दतारी, रापा- कुदारी (कृषि उपकरण) गाय -बैला (पशुधन) अउ पानी-बरसात जइसन चीज-बस (संसाधन) के होना जरूरी रहिथे। एकरे भरोसा मा किसान हा अपन खेत मा फसल उपजारे के काम ल कर पाथे। किसान ह अन्न के उपजइया आय तेकर सेती ये सबो चीज-बस (श्रम संसाधन) बर भारी चिंता फिकर घलव करथे।

जोताई-बोवाई अउ बिआसी जइसन किसानी बूता के उरके के पाछू जब भाठा-टिकरा, खेत-खार, मेड़-पार, परिया-कछार हरियर-हरियर दिखन लगथे, तरिया-डबरी, नरवा-ढोड़गा, नंदिया-बॅंधिया डबडबाके छलछलाय ला धरथे तब किसान भाई मन इही श्रम संसाधन मन के आभार व्यक्त करे बर हरेली तिहार ल मनाथे।

हम सब जानथन कि खेती किसानी के काम में अवइया श्रम सहायक समान चाहे वोहा सजीव होय या निर्जीव, सबके देखभाल बर किसान ह चोबीस-घंटा सजग रहिथे। किसानी संस्कृति के इही प्रमुख तिहार म अगर कोनो धरम नाम के चीज हे त वोहा आय किसानी धरम जिहाॅं माल-मवेशी अउ कृषि औजार मन ह ही ओकर देवता आय।

     गाॅंंव-गॅंवई म  चलागन (लोक मान्यता) हे कि बीते रातकुन ह बहिरी हवा के सक्रिय होय के बेरा आय। बाहरी-हवा के पोषक मन कहुं डहर सुन्ना जगा म जाके सिरजन के उलट जादू-टोना ( कारू-नारू) सीखे के शुरवात इही दिन ले करथे।

          गांव म ठउका इही दिन जादू-टोना जइसे बाहरी हवा ल जड़मूल ले खतम करे बर तंत्र मंत्र विद्या के गुरूवारी पाठशाला के शुरुआत होथे। गुरूवारी पाठशाला ह सावन अमौसी रतिहा ले भादो महिना के रिषि पंचमी तक सरलग पैंतीस दिन तक चलथे ।

          इही दिन माल-मवेशी मन ल नवा चारा ले होवइया रोग-राई ले बचाय बर औषधीय गुण ले भरे दशमूल कांदा, डोडो-कांदा अउ बन गोंदली जइसन जड़ी बूटी ल खवाय जाथे। तिहार के दिन बड़े बिहनिया राऊत घर ले ये जड़ी-बूटी ल लान के सबो मवेशी मन ल खवाय जाथे। साथे साथ गहूं पिसान के लोंदी मा नमक डाल के घलव खवाय जाथे। येकर ले गाय-गरू ल जरूरी खनिज लवण मिलथे अउ मौसमी बीमारी ले लड़े बर प्रतिरोधक क्षमता घलव बाढ़थे।

     जड़ी-बूटी के एवज म किसान मन राऊत ल धान-पान (शेर-चाऊर ) नइते पैसा देके ओकर कीमत चुकाथे।

     तिहार के दिन येती बेर उईस कि ओती  किसान मन अपन घर के नांगर ,जुड़ा, रापा-कुदारी, भंवारी ,रोखनी बिन्धना-बसूला, पटासी हॅंसिया,पैसूल, सब्बल, छीनी घन अउ टंगिया सबके साफ सफाई में भीड़ जाथे। अपन घर के अंगना मुरूम के आसन बिछा के सब औजार मन ल रखथे।

      ओ दिन घरोघर तेल-तेलई ले नाना प्रकार के पकवान बनाय जाथे। बरा,सोंहारी, चौसेला ,भजिया अउ चीला जइसन मनपसंद रोटी राॅंधे जाथे। हमर छत्तीसगढ़ ह धान के उपजइया प्रदेश आय तेकर सेती इहा के पकवान म चाउर पिसान के जादा उपयोग होथे। मुरूम के आसन म माढ़े कृषि औजार म दीया-बाती,हूम -धूप अउ उदबत्ती जलाके,चाऊर पिसान के घोल ल छिड़के जाथे नइते हाथा लगाय जाथे। अउ गुड़ ले बने गुरहा चीला के भोग लगाय जाथे। किसान के धान-चाऊर ह कतक पवित्र हे तेला ये नेंग मन प्रमाणित करथे। ये साल कस अवइया साल म घलव खेती किसानी म अइसने साथ मिले कहिके घर के जम्मो सदस्य मन किसानी औजार के पूजा-पष्ट करत ओकर योगदान बर आभार व्यक्त करथें। किसान मन डहर ले सजीव (मवेशी) अउ निर्जीव (किसानी औजार) मन बर मान-सम्मान अउ कहूं नइ दिखे।

         पहिली गांव गॅंवई ह पेड़-पौधा, जंगल-झाड़ी, नदी-पहाड़ ले घिरे रहय। एकर कारण खूब बरसा होय अउ अंगना-दुवार गली-खोर, रवन-रस्ता मन चिखला के मारे गदपथ रहय। किसानी औजार मन ल इही चिखला-पानी ले बचाय खातिर मुरूम के आसन बिछाय जाय। आज पक्का घर-दुवार होय के बाद घलव मुरूम बिछाय के परम्परा ह चलत हे,जे बहुत खुशी के बात आय। किसानी समान ल सुरक्षित रखे के येहा किसान के अनुभव ले उपजे वैज्ञानिक सोच आय।


      खेती-किसानी ल बिन छेका-रोका के निपटाय बर गांव गॅंवई म पौनी-पसारी के बड़ सुग्घर वेवस्था होथे। जेमा राऊत,लोहार,नऊ, बरेठ, बैगा, कोटवार अउ रखवार मन ह प्रमुख होथे। हरेली के दिन राऊत अउ लोहार के काम रहिथे। राऊत ह घरोघर जाके कपाट (दरवाजा) म लीम के डारा खोंचथे त  लोहार ह उही कपाट के चौखट मा खीला ठोकथे। कीटनाशी, जीवाणुनाशी अउ शीतलता खातिर नीम के उपयोग अउ येती गरज-चमक ले बाचे बर लोहा के खीला के उपयोग हमर पौनी मन के वैज्ञानिक सोच के कहानी घलव बताथे।

     बड़े (किसान) ल मान अउ छोटे (पौनी) ल दुलार देय के ये तिहार ह मानवता अउ समरसता ले एकता के मजबूत डोरी म बंधे रहे के संदेश देथे।

कमती म गुजारा करे के आदत के सेती पहिली तीज तिहार के छोड़ घर मा कभू तेल-तेलई नइ चूरे। बीज ले तेल निकालना कोई सरल काम नइ रहिस ।किसान के रोज के जिनगी म तेल के कोई जगा नइ रहय,डबका साग ह उनकर भोजन के हिस्सा रहय। येकरे सेती तीज-तिहार म तेलहा रोटी खाॅंय अउ ओला पचाय बर भाठा कोति खेले-कूदे बर घलव जाॅंय।

कतको जगा म रोटी-पीठा खाय के बाद पान बीड़ा कस मुहुं ल लाल करे बर लइका मन कोदो पान,दतरेंगी जड़ अउ सेम्हर कांटा ल खाथें अउ खुशी मनाथे।

      ये परब म पौनी मन अपन ठाकुर ( किसान) मन के घर जोहार-भेंट करे बर जाथें। बलदा म किसान ह खुशी मनावत धान देके बिदा करथे। ओ पइॅंत बोवाई म कोठी के बीजहा धान के छबना च ह फूटे रहय तेकर सेती किसान ह उही बीजहा धान ल पौनी मन ल देंवय ,तेकर सेती ये प्रथा ल बीजकुटनी के नाम ले जाने जाथे।

गांव के चारों मुड़ा म चिखला माटी के कारण एक जगा ले दूसर जगा जाय म बड़ तकलीफ होय। हमर पुरखा-सियान मन ये समस्या ल दूर करे बर गेड़ी के खोज करिन। हरेली के दिन ले पोरा तिहार तक ये गेंड़ी ह आवागमन के काम आय अउ नारबोद के दिन बैगा के अगुवाई म विसर्जित कर दिए जाय। आजकल इही गेंड़ी ह खेल के रूप म जाने जाथे।

बुजुर्ग -सियान मन चौपाल म सकलाके आल्हा-उदल अउ पंडवानी जइसन किस्सा-कंथली सुनथें अउ तिहार के आनंद मनाथें।

       गांव-गांव म स्कूल, बिजली, सड़क,अस्पताल होय ले टोना-टोटका (बाहरी हवा) उपर अंखमुंदा विश्वास करइया मन के संख्या म कमी आय हे।जे मनखे समाज बर बड़ सुग्घर बात आय। फेर येकर साथ ट्रेक्टर, रीपर, थ्रेसर , हार्वेस्टर के आय ले नांगर अउ बैला-भैसा के उपयोग न के बराबर होवत हे। किसान डहर ले लोहार मन ल काम नइ मिलथे।जे  कृषि संस्कृति बर बने बात नोहे।आज आधुनिकीकरण के सेती बिखरत तीज-तिहार के महत्तम ल समोखे के जरवत हवय।


    जिनगी म मनखे के हाय-हफर करत कमई-खवई के बीच म सुख अउ खुशी खोजे के संघरा उदीमे ह तो लोक परब आय।

अउ नेक सोच (सकारात्मक उर्जा)  कोति ले गलत सोच (नकारात्मक ऊर्जा) के हर तिरपट चाल ल हर (खतम) लेना ही हरेली आय।

कुलमिलाके हम इही कहि सकथन खेत-खार, मेड़-पार, भाठा-परिया, जंगल-पहाड़, बारी-बखरी के संग चारो मुड़ा के हरियर-हरियर दिखई अउ ओकर सुघरई ह हरेली आय।


महेंद्र बघेल डोंगरगांव

आलेख-'हरेली तिहार'


 

आलेख-'हरेली तिहार'

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             हरेली हमर छत्तीसगढ़ के पहिली तिहार आय।गाँव गंवई म ये तिहार ल बड़ हर्षोल्लास के संग मनाथे।सावन महिना म अँधियारी पाँख के अमावस के दिन ये तिहार ल मनाये जाथे।बिहना ले गाँव म चहल पहल दिखथे, मेला मड़ई बरोबर लगथे।

              बड़े बिहना ले किसान मन पिसान ल सान के सुग्घर लोंदी बनाथे।खम्हार पत्ता म नून ल बाँधते। एक थारी म शेर समान(दार चाउँर ) अउ लोंदी ल धर के दइहान म सब सकला जथे। गाँव के सियान मन, बइगा अउ राउत हा दइहान म हूम धूप देथे।तहाँ ले सब अपन अपन गाय गरुवा ल लोंदी खवाथे ।संगे संग राउत  जड़ी बूटी के रस बनाये रहिथे तेला पियाथे। ओ जड़ी के नाम अउ काबर पियाय जाथे मैं आज राउत ल पूछेंव त  बताइस ।जड़ी के नाम पताल कोहड़ा अउ डोकोर कांदा जेन मवेशी ल मउसमी रोगराई ले बचाथे अइसे बताइन ।

                     तहाँ ले सब अपन अपन नाँगर -बख्खर, रापा- कुदरा, बसूला- बिंधना अउ हँसिया- टँगीया जतका भी अवजार रहिथे सुग्घर धो माँज के अँगना म मुरमी ऊपर रख देथे।मिलजुल सब पूजा पाठ करथे, नरियर अउ चीला चढ़ाते।बने सुम्मत बर  अरजी बिनती करथे।फेर घर म बने आनी बानी पकवान के मजा उड़ाथे।

            ऐती बर राउत ह घरोघर नीम डारा अउ दशमूल डारा ल खोचत जाथे अउ लोहार घलो मुहाटी चौखट म खीला ठोकत जाथे।एखर ले ये मान्यता हे अनिष्ट ले बचाथे, घर म घुसरन नइ देवय।बइगा महराज गाँव के जम्मो देवी- देवता ल मनाथे अउ गाँव के सुख -शांति बर अरजी बिनती करथे।आज के दिन कतको मन अपन कुलदेवी या देवता के घलो पूजा पाठ करथे।

             हरेली के पहिली रात ले तंत्र मंत्र विद्या सिखाये के परम्परा घलो शुरु होथे जेन नागपंचमी के दिन तक चलथे अउ गुरु-शिष्य बनाये जाथे।

        लइका मन गेड़ी चढ़े बड़ इतरावत रहिथे। गेड़ी दउँड़ घलो खेलथे। नोनी मन खो खो- कबड्डी, छुवउला- फुगड़ी आनी बानी के खेल दिन भर खेलत रहिथे।कतको गाँव म तो बइला दउँड़ घलो होथे।

           कई महिना बाद चारों मूड़ा हरियर हरियर दिखथे।खेतीखार म धान अउ फसल लहलहावत सुग्घर मनभावन लगथे।अइसे लगथे मानो धरती दाई हरियर रंग म अपन सिंगार करे हे।मोला लगथे एखरे सेती ये तिहार के नाँव हरेली पड़े हे।लगातार काम करत किसान अउ बनिहार मन थक जाथे।इही बहाना थिराये बर मिल जथे।


ज्ञानुदास मानिकपुरी

चंदेनी(कवर्धा)

छत्तीसगढ़

Saturday 23 July 2022

19 जुलाई जयंती म सुरता कब पूरा होही डॉ. खूबचंद बघेल के सपना?


 

19 जुलाई जयंती म सुरता

कब पूरा होही डॉ. खूबचंद बघेल के सपना?

   छत्तीसगढ़ के कल्पना तो सोलहवीं शताब्दी के साहित्य मन म मिलथे, फेर एकर नांव म जमीनी बुता 28 जनवरी 1956 के दिन नांदगांव म होए ऐतिहासिक "छत्तीसगढ़ी महासभा" के रूप म होइस. ए महासभा डॉ. खूबचंद बघेल के चिंतन-मनन अउ ठोसलग बुता करे के परिणाम स्वरूप आय. उन जतका जबर राजनीतिक रिहिन हें, वतकेच जबर एक लेखक अउ साहित्यकार घलो रिहिन हें. एक चिंतक स्वभाव के साहित्यकार ही ह अस्मिता आधारित राज्य के कल्पना कर सकथे.

   नांदगांव के छत्तीसगढ़ी महासभा जिहां दाऊ चंद्रभूषण दास जी के देखरेख म होइस, उहें ए अधिवेशन के पहिली सत्र के पगरइति बैरिस्टर मोरध्वजलाल श्रीवास्तव जी करिन, त दूसर सत्र के पगरइति हमर पुरखा साहित्यकार पदुमलाल पुन्नालाल बख्शी जी करिन. ए जुराव म बाबू मावली प्रसाद श्रीवास्तव अउ द्वारिका प्रसाद तिवारी 'विप्र' जइसन साहित्यिक पुरोधा मन घलो रिहिन. ए ह ए बात के चिन्हारी आय, के अलग छत्तीसगढ़ राज के परिकल्पना अउ एकर खातिर जम्मो जमीनी उदिम म साहित्यकार मन के सबले बड़का अउ पोठ योगदान हे. 

   ए महासभा के बेरा डॉ. रामलाल कश्यप जी प्रश्न करे रिहिन हें - 'छत्तीसगढ़ी कोन आय?' तब डॉ. खूबचंद बघेल जी उनला कहे रिहिन हें- " जेन छत्तीसगढ़ के हित ल अपन समझथे, छत्तीसगढ़ के मान-सम्मान ल अपन मान-सम्मान मानथे तेनेच ह छत्तीसगढ़ी आय."

   डॉ. खूबचंद बघेल जी के चिंतन अस्मिता ऊपर आधारित रिहिसे तेकर सेती उन भाखा, संस्कृति, कला अउ परंपरा के बढ़ोत्तरी करना चाहत रिहिन हें, एकरे सेती उन हिन्दी, संस्कृत, अंगरेजी अउ मराठी भाखा के जानकर होए के बाद घलो इहाँ के महतारी भाखा छत्तीसगढ़ी म ही अपन रचनात्मक कलम ल चलाइन. इही सब बात ल देख के हमर जइसे नेवरिया लिखइया मन घलो ए अस्मिता ऊपर आधारित राज के कल्पना ल साकार करे के उदिम म भीड़े रेहेन.

   वइसे तो मैं मानसिक रूप ले एकर नान्हेपन ले समर्थक रेहेंव, फेर मैदानी रूप म सन् 1983-84 ले संघरेंव. हमन इहाँ के छत्तीसगढ़ी साहित्य समिति संग जुड़े राहन अउ हमर पुरखा साहित्यकार हरि ठाकुर जी एमा बनेच रमे राहंय, उंकरे कहे म हमूं मन जुड़ेन. तब मैं अपन नांव ल सुशील वर्मा लिखत रेहेंव. बाद म आध्यात्मिक साधना म आए के बाद गुरु के आदेश ले वर्मा के जगा भोले लिखे के चालू करेंव.

   छत्तीसगढ़ राज बने के पहिली जब डॉ. खूबचंद बघेल सरगधाम के रद्दा रेंग दिन, त हरि ठाकुर जी उंकर बारे म लिखे रिहिन- "एक बीमार छत्तीसगढ़ के कुशल डॉक्टर ह छत्तीसगढ़ ल बीमार छोड़ के चल दिस. छत्तीसगढ़ राज के सपना ल अपनेच मन म लेके चल दिस. आज जब वोकर सपना पूरा होवत हे. (1 नवंबर 2000 के राज निर्माण के बाद) छत्तीसगढ़ राज बनगे हवय त छत्तीसगढ़ के लोक संस्कृति, साहित्य अउ कला ल ऊंचा उठाना हे, तभे उंकर सपना पूरा होही."

  आज जब छत्तीसगढ़ ल अलग राज बने कोरी भर बछर ले आगर होगे हवय, त वो पुरखा मन के अस्मिता ऊपर आधारित राज के सपना ह अधूरा बरोबर जनाथे. 

   आज छत्तीसगढ़ ह बाढ़त तो हे, फेर क्रांकीट के जंगल के रूप म बाढ़त हे. खेत-खार, डोंगरी- पहाड़, जंगल-झाड़ी दिनों दिन कमतियावत हावय. संस्कृति के सबले जादा दुर्दशा दिखथे. खास कर के अध्यात्मिक संस्कृति, परब, उपासना अउ जीवन पद्धति के. जम्मो डहर आने- आने देश राज के संस्कृति मन अलग अलग रूप खापे अतिक्रमण करत हें.

   आज डॉ. खूबचंद बघेल के एक अलग राज के सपना तो पूरा होए हे, फेर ए ह सिरिफ एक अलग नक्शा के रूप म, एक अलग भाषायी अउ सांस्कृतिक इकाई के रूप म नहीं. तेकरे सेती एक साहित्यकार के अंतस ले ए उद्गार निकल परथे-

राज बनगे राज बनगे, देखे सपना धुआँ होगे

चारों मुड़ा कोलिहा मनके, देखौ हुआँ हुआँ होगे..

का-का सपना देखे रिहिन पुरखा अपन राज बर 

नइ चाही उधार के राजा हमला सुख सुराज बर

राजनीति के परिभाषा लगथे महाभारत के जुआ होगे...

तिड़ी-बिड़ी छर्री-दर्री हमर चिन्हारी के परिभाषा

कला-संस्कृति सबो जगा चील कौंवा के होगे बासा

बाहिर ले आए मन सतवंतीन, अउ घर के परानी छुआ होगे..

   आज डॉ. खूबचंद बघेल जी के जयंती के बेरा म अतके आसरा हावय, के उंकर अस्मिता आधारित राज के सपना खंचित पूरा होवय. हमर राज के खेल-कूद, खान-पान, पहिरावा-ओढ़ावा, परब-तिहार, पूजा-उपासना अउ जीवन पद्धति सब के स्वतंत्र चिन्हारी बनय. हमला कोनो आने डहर के पोथी-पतरा संग संघेरे झन जाय.

पुरखा ल उंकर जयंती के बेरा म डंडासरन पैलगी🙏🙏

-सुशील भोले

आदि धर्म जागृति संस्थान रायपुर

मो/व्हा. 9826992811

संस्मरण- मोर नान्हेंपन के चउमास


 

संस्मरण- मोर नान्हेंपन के चउमास //*=======०००=========

(दिनांक-१८.०७.२०२२)


     मोर नान्हेंपन के चउमास के सुरता करके बचपन के वो अल्हड़पन, चुलबुलेपन, हरदम हंसमुख वो चेहरा  सुरता रूपी आईना म जस के तस झलके लगीस :-

*वाह-वाह ! वो बचपन के ज़िन्दगी कत्तेक सौभाग्यशाली अउ अनमोल रहिस, जेमा कुच्छु बात के न तो संसो-फिकर, न ही कोनो प्रकार दुख-तकलीफ के एहसास रहिसे, तभे तो ये पंक्ति बरबस याद आ गे :-

*ये दौलत भी ले लो*

*ये शोहरत भी ले लो*

*भले छीन लो मुझसे मेरी जवानी*

    *मगर मुझको लौटा दो*

   *बचपन का सावन*

    *वो कागज की कश्ती*

    *वो बारिश का पानी*

    *सिरतोन वो जिंदगी अनमोल रहिस | जब चउमास के पहिली बारिश होवय,तब गांव बाहिर के खेत-खार, डबरा-तरिया म ओंय-ओंय के आवाज करत  करिया-पींवरा भिंदोलवा ला खेलौना बना के खेलत रहेन | पहिली तो बेसरम के सुटिया ला पटक-पटक के ओमन ला बीदारत रहेंन,जब ओ भींदोलवा मन चंग-चंगौहन पानी भीतरी कूदत रहीन,तव हमू मन ओ डबरा के चारों मुड़ा दौड़-दौड़ के कुदावत रहेन | फेर कोनो ल रस्सी म बांध के चल बईला, चल बईला कहिके आनंद लेवत रहेन*

 *

    *जब कोनो तरिया-पोखर  नदियां म तऊड़े लाईक पानी हो जाय, तब खूब तऊड़-तऊड़ के मजा लेवत रहेन, तऊड़त-तऊड़त आंखी लाल हो जाय !  फेर हम ला कुछू बात के चिंता-फिकर नइ रहत रहिस | जब घर पहुंचत रहेन, तव बुढ़ीदाई ह हमर आंखी ल लाल-लाल देखत रहिस, तब खूब खिसियावै-डबरा म तैं खूब तऊड़े हस का रे ?  तऊड़े हस के नहीं ? अउ तड़तड़ौहन अउहर-चउहर ल थपरा मारे, अउ कहै- अब झन तऊड़बे ,वो तरिया म खूब जोखवा हवय ! समझे के नहीं ?    

      तब हव दाई कहन अउ बिहान दिन फेर कोनो संगी-साथी ल देख के फेर तऊड़त रहेन | 

     *नवा अउ गंदला पानी म तऊड़े से कई बार सर्दी-बुखार हो जाय, फेर हम ला कहां ये सब बात के ग्यान रहिस ?*

     *जब पढ़े बर स्कूल जावत रहेन, तव बरसत पानी म भींजे के मजा लेवत रहेन | पांव म चप्पल-जूता नइ रहत रहिस, गली-खोर म नहर सहीं बोहावत पानी म छपाक-छपाक रेंगे के मजा ही कुछ अलग रहै | सिरिफ हमर पुस्तक-कापी भर झन भींजे सोंच के मोरारजी भाई देसाई ब्रांड राखड़-यूरिया के बोरी ल डबल मोड़ के मुड़ी ले पीठ डहर तोप लेवत रहेन अउ छपाक-छपाक रेंगत पढ़े जावत रहेन |*

     *सावन सोमवार के दिन हाफ डे के बाद छुट्टी हो जावत रहिसे, तब पारा-मुहल्ला म कोनो किसान के रोपा लगाए बर जावत रहेन, तव बीस पैसा, या कोनो चार आना देवत रहिन | वो बखत जेब म एक पैसा,दू पैसा, तीन पैसा, दस पैसा, बीस पैसा, चार आना, आठ आना कभू एक रूपीया धरे रहन, तव खूब पैसा धरे हौं, तईसे लागै*

     *वो बखत आठ काड़ी वाला छाता ह आठ आना अउ बारह काड़ी वाला छाता ह बारा आना म मिलत रहिस, तभो ले खूब महंगी हवय कहिके बीसावत नइ रहेन | हमर गुरूजी या गांव के कोनो मनखे  मन छाता ओढ़े रहत रहिन, तऊन मन ल  खूब पूंजीपति समझत रहेन*

     

    * *कोनो दिन स्कूल ले पढ़ के आते साथ दौड़त गली डहर भाग जावत रहेन, फेर सबो संगी जुरिया के बीच गली के चौरा म नदी-पहाड़ खेलत रहेन | कोनो दिन भौंरा-बांटी, डंडा-पचरंगा, गिल्ली डंडा खेल ला  खूब बिधून हो के खेलत रहेन*

      

     *कभू जम्मो संगवारी जुरिया के अपन दूनो हाथ ल भुईयां म पल्टी राखत रहेन अउ एक गड़ी ह गीत गावत कहै :-

*अटकन बटकन दही चटाका*

*लउहा लाटा बन के काटा*

*तुरू-रूरू पानी आवै*

*सावन म करेला फूटै*

*चार-चार बिटिया गंगा गईन*

*गंगा ले गोदावरी*

*पाका-पाका बेल खाईन*

*बेल के डारा टूट गे !*

*भरे कटोरा फूट गे ,!!*

*मुड़ म बांधे पागा*


*गोपाल सिंह राजा*

   कभू सब गड़ी गोल घेरा बना के खड़े रहत रहेन अउ एक झन संगवारी ह  सब सहेली मन  ल कविता/गीत सुनावत रहिस  :-

     *

*अक्कड़ बक्कड़ बाम्बे बोल,,,*

*अस्सी नब्बे पूरे सौ*

*सौ मिलाकर धागा*

*चोरी करके भागा !!*

       *फुर्र -फुर्र*.........


*कभू सब संगवारी जुरिया के एक-दूसर के हाथ ल पकड़  के गोल खड़ा हो जावत रहेन अउ बीच म एक संगी खड़े रहै तऊन ह जोड़े-जोड़े हाथ ल छू के कहै :-

*अतका-अतका पानी*

*घोर-घोर रानी*-२

*घुठवा अतका पानी*

     *घोर-घोर रानी*

*माड़ी अतका पानी*

       *,घोर-घोर रानी*

*कनिहा अतका पानी*

      *घोर-घोर रानी*

*छाती अतका पानी*

     *घोर-घोर रानी*

*नरी अतका पानी*

     *घोर-घोर रानी*

*मुड़ी अतका पानी*

     *घोर-घोर रानी*

*पोरीस अतका पानी*

      *घोर-घोर रानी*


*एमा ले जाऊंगी*?

     *ताला लगाऊंगी*

*एमा ले जाऊंगी ?*

      *कुंडी लगाऊंगी*

*एमा ले जाऊंगी ?*

   *बहिरी मुठिया मारूंगी*

*एमा ले जाऊंगी ?*

   *डंडा लगाऊंगी*


तब वो बीच खड़े वाला गड़ी ह जोड़े हाथ के तरी ले बुलक के भागै, तब सब संगी ओला कुदाते हुए कहैं-पकड़ो पकड़ो पकड़ो ..........


   *कभू गिल्लीअअ(इब्बा)-डंडा खेलन, कभू डंडा-पचरंगा खेलते रहेन :-

      ( *चाक पक्की*)

    *कभू एक कमरा म कोनो स्लेट, पट्टी, पल्ला या भीथिया (दीवाल) म एक गड़ी द्वारा चाक या बत्ती ले कई कोरी छोटे-छोटे लकीर खींचे रहन अउ दूसरे गड़ी जऊन आने खोली म चाक/बत्ती ले कई कोरी लकीर खींच के छुपाए रहन, तऊन ल खोझे बर बुलावत रहेन | एक-दूसरे के खींचे लकीर ल जतेक देखाऊ पावत रहेन, ओतेक सब ल चाक से काट देवत रहेंन, अउ जितना लकीर बांचे रहै वोला  गिनती करके ओतके मुटका हरू-हरू मारत रहेन | ए ला "चाक-पक्की" खेल कहत रहेन*

   *ये जम्मो खेल मन ल चऊमास म ज्यादा खेलत रहेन*

    *जब सावन महीना म रंग-बिरंगी तितली अउ फुरफुंदी ल उड़ावत देखन, तव ऊंकरो संग खेले के मन होवय | रंग-बिरंगी तितली ल पकड़ के खूब आनंदित होवत रहेन |*

    *एक विशेष बात अउ सुरता आवत हवय-"पकड़े रहन तऊन फुरफुंदी ल मार के छोटे से गड्ढा म गड़िया देवत रहेन अउ मन म जिग्यासा रहै के बिहान दिन वो फुरफुंदी या तितली ल खोद के देखबो,तब वो ह पैसा बन जाही ! लेकिन ए ह सिरिफ भ्रम मात्र आय, कभू एको पैसा हम ला नइ मिलीस !*

   

  *चऊमास म झुंड के झुंड उड़ावत कोकड़ा ल देख के कहत रहेन-"चाउर दे कोकड़ा, चाउंर दे कोकड़ा-चाउंर दे कोकड़ा ......  जब कोकड़ा मन उड़ते-उड़ते दूरिहा चले जावत रहिन, तब अपन हाथ के ऊंगली के नाखून मन ल देख के कहत रहेन-"ए दे कोकड़ा ह मोला चाऊंर देहिन हवंय*! 

    *कभू-कभू खाली-खाली माचिस ल जोड़ के रेलगाड़ी बनावत रहेन, तव कभू दूं ठन खाली माचिस के बीच म लम्बा सुतली बांध के दूसरे छोर से संगी-साथी मन हलो-हलो कहैं, तब अईसे लागत रहिस-सिरतोन म टेलोफोन से बात करत रहेन, जबकि वो बखत हमन टेलीफोन देखे-सुने नइ रहेन | ये खेल ह हमर जिग्यासू प्रवृत्ति या वैज्ञानिक विचार के प्रथम लक्षण कहे जा सकथे* |

      *अषाढ़-सावन महीना म पतंग उड़ाए के आनंद खूब मिलै | पतंग जतके दूरिहा उड़त जावत रहिसे, हमर इच्छा अभिलाषा अउ कल्पना के उड़ान ओतके उंचाई उड़ते जावत रहिस*

      *सावन सुदी पंचमी (नागपंचमी) के दिन विशेष रूप से कबड्डी,कुश्ती खेले के आनंद खूब मिलै*

      *वो दिन नोनी मन गांव के गुंड़ी (चौपाल) म खो-खो प्रतियोगिता खेल के खूब आनंदित होवत रहिन*

      *तईसने सावन लगते ही तलाव खाल्हे अमरैया म आमा के डाली म रस्सी बांध के नोनी मन सावन झूला के खूब आनंद लैवत रहिन अउ वोही आमा तरी रेहचुल गड़े रहै,तेमा झूल के खूब मज़ा मिलत रहिस*

    *चऊमास महीना म जब करिया-करिया बादल उमड़ै, ज़ोर-जोर से पुरवाई हवा चलै, तब चिरई-चिरगुन मन अटखेलिया करते हुए खूब कलाबाजी करते हुए आसमान म उड़ावैं," तब चिरई-चिरगुन मन ल उड़ावत देख के मोरो मन होवय-मैं भी आकाश के ऊंचाई म खूब दूर तक उड़तेंव !" एही सोच के मैं भी अपन दूनो हाथ म छोटे-छोटे सुपेली ल बांध के आसमान म उड़े के कोशिश करेंव, फेर सफल नइ हो सकेंव, मोर मन आज तक एही भावना भरे हवय-"आसमान के खूब ऊंचाई म उड़ते हुए जातेंव, लेकिन ए अभिलाषा ह अभी तक पूरा नइ हो पाए हवय, पता नहीं कब पूरा होही ?*


(दिनांक-१८.०७.२०२२)


    आपके अपनेच संगवारी

*गया प्रसाद साहू*

   "रतनपुरिहा"

मुकाम व पोस्ट करगीरोड कोटा जिला बिलासपुर (छ.ग.)

पिन-४९५११३

मो नं-९९२६९८४६०६

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पत्र अउ पत्रिका म अंतर..

 पत्र अउ पत्रिका म अंतर.. 

    छत्तीसगढ़ी साहित्य के इतिहास म जब कभू पहला 'पत्रिका' प्रकाशित होए के बात होथे, त 'छत्तीसगढ़ी मासिक' या फेर 'छत्तीसगढ़ी सेवक' के नॉंव लिख दिए जाथे. मोला लागथे, पत्र अउ पत्रिका के प्रारूप म तकनीकी रूप ले का अंतर होथे, एला समझे बिना अइसन लेखन ह सही नइहे.

    असल म 'छत्तीसगढ़ी मासिक' अउ 'छत्तीसगढ़ी सेवक' ए दूनों ह 'पत्र' के श्रेणी म आथे 'पत्रिका' के नहीं.

     पत्र या पत्रिका प्रकाशन के मानक म वोकर आकर-प्रकार, पृष्ठ संख्या अउ बाइंडिंग या केवल फोल्डिंग आदि ल घलो चेत करे जाथे.

    आजकल प्रकाशित होने वाला दैनिक अखबार जेला सामान्य बोलचाल म 'समाचार पत्र' घलो कहिथन. ठउका अइसने एकर आधा साईज वाला छपे अखबार ल घलो 'पत्र' ही कहिथन. हमन प्रेस के भाषा म एला 'टेबलाइज्ड' घलो कहि देथन. असल म 'छत्तीसगढ़ी मासिक' अउ 'छत्तीसगढ़ी सेवक' ए दूनों मन इही श्रेणी म आथें. काबर के वोमन चार या आठ पेज के टेबलाइज्ड साइज म फोल्डिंग वाला छपत रिहिन हें. जबकि 9 दिसंबर 1987 ले चालू होए मासिक पत्रिका 'मयारु माटी' सही मायने म 'पत्रिका' रिहिसे. मयारु माटी ह शुरू म चालीस पेज के आजकल प्रकाशित होने वाला 'इंडिया टुडे' जइसे आम पत्रिका मन के साइज (प्रेस के भाषा म एला डेमी 1/4 साइज कहे जाथे) म छपत रिहिसे. बाद म एला 36 पेज के 20×30 के 1/8 साइज म छापे गिस. 

    इही ह पत्रिका के मानक आय, जेहा कम से कम तीस या वोकर ले जादा पेज के बाइंडिंग वाला होय. ए मानक म 'मयारु माटी' ही छत्तीसगढ़ी भाषा के पहला मासिक पत्रिका कहलाही, जबकि पहला पत्र कहे म 'छत्तीसगढ़ी मासिक'.

-सुशील भोले

बराती समीक्षा अउ साहित्यिक मूल्यांकन

 बराती समीक्षा अउ साहित्यिक मूल्यांकन 

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       बुधियार लिखइया , पढ़इया मन चिटिक धीर धरके मोर विचार ल पढ़े के कृपा करिहव भाई ! रिसाये , बौछाए के मौका आपमन ल मिलही त अपन विचार ल लिखहव । आजकाल छत्तीसगढ़ी साहित्य मं बहुत अकन किताब के समीक्षा लिखावत हे त समीक्षा गोष्ठी घलाय आयोजित होवत  रहिथे काबर के किताब लिखइया तो दिनोंदिन बाढ़त जावत हें एहर बड़ खुशी के बात आय । गुने लाइक बात एहर आय के जौन किताब के विमोचन होथे या जेन किताब के परिचर्चा होथे या जेन विद्वान साहित्यकार के जन्मशती या कोनों के व्यक्तित्व अउ कृतित्व उपर चर्चा करे जाथे ओकर सम्पूर्ण समीक्षा होए पाथे का ? कमी बेशी उपर चर्चा होथे का ? समकालीन साहित्य संग चर्चित किताब अउ लेखक के तुलनात्मक चर्चा करे जाथे का ? 

नहीं .. जी ...सिरिफ गुणगान होथे चलव इहां तक भी ठीक हे मरन हो जाथे जब समीक्षा के गुण धर्म डहर समीक्षक ध्यान नइ दे पांवय । फरिया के कहिन त कविता हे त लक्ष्मण मस्तूरिया या शकुंतला शर्मा के बाद उही सर्वश्रेष्ठ हे , गद्यकार हे त डॉ. पालेश्वर प्रसाद शर्मा या नन्दकिशोर तिवारी ले कम नइये अरे भाई !समीक्षा के शिखर या समकक्ष के बीच भी तो लिखइया हंवय न ? कोनो प्रतिमान गढ़े ले जादा जरूरी हे हंस असन नीर क्षीर विवेकी होना जेला  कहि सकत हन समीक्षक द्वारा दूध के दूध पानी के पानी विवेचना । जब तक लेखक या साहित्यकार के कृतित्व के सम्यक समालोचना नइ होही खेत के खर पतवार के निंदाई कइसे होही ? पहिली कृतिकार के गुण दोष के मूल्यांकन होवत रहिस , फुटकर रचना मन के जांच सम्पादक मन करत रहिन त जेन रचना पाठक तक पंहुचाय ओहर दग दग ले धोवाए मंजाए रहय । पाठक मन भी श्रेष्ठ साहित्य अउ साधारण साहित्य के अंतर ल समझे पांवय फेर आजकाल साहित्यकार मन अइसन समीक्षा ल नइ भावयं तभे तो आलोचना ल आरोपण समझे जावत हे एकर खिलाफ़ कोनो समीक्षक गुन दोष लिखही या परिचर्चा मं बोलही त जनम भर बर आपसी मनभेद हो जाथे , हमन मतभेद ल मनभेद बना लेथन । श्रेष्ठ साहित्य रचना के रस्ता के बड़का बाधा इही सोच हर आय । धीरे धीरे आज के दिन मं प्रगतिशील अउ जनवादी विचारधारा मन समीक्षा के उपनिवेश बनाए धर लिहिन त दूसर डहर आज के समीक्षा मं कुलीनतावाद अउ जनवाद के भरत मिलाप घलाय देखे बर मिले लग गए हे । 

      साहित्य घलाय हर बाजारवाद के चपेट मं आ गए हे दूसर मरन के गम्भीर साहित्य के पढ़इया दिनोंदिन कमतियावत जात हें । मैं अकवि जरुर आंव फेर निछक कविता हर साहित्य के भंडार भरे मं सक्षम कभू नइ हो सकय ...गद्य हर सामाजिक , राजनैतिक , साहित्यिक , तात्कालिक परिवेश , परिस्थिति के दर्पण होथे ।समीक्षा विधा हर गद्य के सबले जरुरी विधा आय जेकर से कालजयी साहित्य के निर्धारण होथे । बराती समीक्षा माने तो इही होइस न के तैं मोर कृति के गुणगान कर मैं तोर प्रशंसा के शंखनाद करिहंव । एतरह के बराती समीक्षा के चलते साहित्यिक , सांस्कृतिक मूल्य अउ मूल्यांकन प्रक्रिया दूनों बाधित होही न ? एकरे बर कहत हंव के आज बाजारवादी समीक्षा ले बांहचे के जरुरत हे । समीक्षा बर प्रस्तुत कृति के संगे संग दूसर कृति या कहिन साहित्य के गहन अध्ययन जरुरी हे ,एकरो ले बड़े बात के जे समीक्षक हर जतके जादा आने भाषा के साहित्य ल पढ़े , गुने रहिही ओकर समीक्षा हर प्रस्तुत कृति के ओतके गम्भीर समीक्षा करे सकही । 

    सबले बड़े अउ जरुरी बात के समीक्षा  हर वैचारिक मतभेद आय एला मनभेद कभू झन बने देइ तभे हमर साहित्यिक समीक्षा हर बराती समीक्षा होए ले बांचही । किताब विमोचन अउ किताब परिचर्चा दूनों के अलग अलग आयोजन हर समीक्षा विधा ल फेर प्रतिष्ठित करही काबर के किताब विमोचन हर तो किताब के जन्मदिन समारोह आय जेमा हांसी खुशी मनाथन । 

आजकाल साहित्य परिषद मन के कमी तो है नहीं ...त इन साहित्य परिषद मन के घलाय तो जिम्मेदारी आय के बीच बीच मं निछक समीक्षा गोष्ठी के आयोजन करे जावय ...। 

     सरला शर्मा

Thursday 21 July 2022

हमर भोजली दाई के सोने सोन के अचरा* *दुर्गा प्रसाद पारकर*


 

*हमर भोजली दाई के सोने सोन के अचरा*


*दुर्गा प्रसाद पारकर* 


सावन मास सुहावन माता अति घन बरसन लागे, सीर चुनरिया पहिर जलापा रंग हिडोंलना झूले। किसान मन के आसा ह सावन के झिमिर-झिमिर बरसा म धान कस लहलहावत हे। निंदइया कोड़इया मन के ददरिया ल सुन के धान ह घलो झूमरे ल धर ले हे। सुआ रंग के लुगरा पहिरे खेत खार ह मन ल मोहत हे। एती गांव म पिवराए देंह के मन ह गवना के पहिली भोजली के उमंग कस उमिहावत हे। सावन महीना म अंजोरी पाख के आठे के दिन भोजली खातिर कड़रा घर ले टोपली, पर्री अउ कुम्हार घर ले खातु माटी लाने के नेंग हे। भोजली बोवइया ह नवे के दिन उपास रहि के सराजाम के इंतजाम करे म जूट जथे। टूकनी म खातु माटी भर के गेहूं के बांवत करे के बाद माटी के दीया बार के पिंयर पानी छिंच के कुमकुम लगा के पूजा करथे। सात दिन ले रोज भोजली दाई के सेवा सटका होथे। भाई बहिनी के पावन तिहार भोजली ल खास तौर ले छत्तीसगढ़ म लोधी जात के मन गजब मानथे। भोजली तिहार कोनो कहानी किस्सा नोहे बल्कि ए तो इतिहास ले जुड़े हे।

    मोहबा के राजकुमारी इन्द्रवली ह हर बच्छर किरती सागर म भोजली सरोवय। एक समे अइसे अइस जब राजा परमाल के राज ल चारों कोती ले दिल्ली के पृथ्वी राज चैहान के सेना ह घेर लीन। ठउंका के समे मोहबा म जबर समसिया खड़ा हो जथे के भोजली कइसे सरोए जाए। इन्द्रावली के भोजली सरोए के परन ल निभाए खातिर उदल ले बीड़ा उठवाथे। तभे तो उदल दुसमन के सेना ल खेदार के परमाल के दुलौरिन के परन ल पूरा करथे। इन्द्रावली के भोजली उगोना के बात ह आल्हा म घलो पढ़े बर मिलथे- 

जंह बीड़ा दीन्ह मड़ाय

कउनो वीर मोहबा के रे 

जेहा बीड़ा लेहू उठाय

अउ इन्द्रावली के भोजली ल रे

तरिया म देहू सरवाय


   लोधी जात के मन जउन लड़की के सावन म भोजली उगोना होथे ओखर गवना अवइया बइसाख म देथे। धीरे-धीरे यहू ह नंदावत जात हे। उगोना लड़की ह सात दिन ले बांटी भांवरा बनाथे। सातवां दिन सबो ल सकेल के कुंआ बावली म ठण्डा कर देथे। सात दिन के सेवा जतन करे के बाद पुन्नी (रक्षा बंधन) के दिन भोजली ल राखी चघा के परसाद बर चनादार भिंगो देथे। चना कस कतको सपना ह फूलत रहिथे। उगोना वाले लड़की ह नवा साया, लुगा, पोलखा, चुरी चाकी पहिर के जब सिंगार करथे तब जो अघात सुन्दर दिखथे। धान के पोटरी पान कस चमकत रहिथे लड़की के अंग-अंग ह। कान के दवना ह लड़की के रुप ल अउ निखार देथे। लोगन मन के अइसे मानना हे के कान म दवना पान खोंचे ले भूत-प्रेत, मरी-मसान ह तीर तखार म नइ ओधय अउ टोनही टम्हानी के आंखी ह पटपट ले फूट जथे। उगेना के रसुम ल निभाए खातिर लड़की ह भोजली ल मुड़ म बोहि के पर्री के भोजली ल जेवनी हाथ म धरे सब ले आगु म खड़े रहिथे। गांव वाने मन जान डरथे के एसो फलानी के गवना होही। लड़की के पाछू म पारा मुहल्ला अऊ सगा-सोदर के नोनी मन भोजली ल बोही के खड़े रहिथे। देखे ले अइसे लागथे कि पाछू खड़े नोनी मन अपन उगोना के बाट जोहत हे। घम-घम ले जागे भोजली ल सियान मन के अनुभवी आंखी ह देख के जान डरथे के एसो समे सुकाल होही। 

    भोजली ह गांव के सबो गली म घुमत गउरा चउंरा डाहर के होवत तरिया जाथे। हरियर पिंवरी भोजली के रेम ल देखे ले अइसे लागथे जानो- मानो घनहा ले धान अउ भर्री ले कोदो ह गली किंदरे बर आए हे। गांव भर के लइका सियान भोजली कार्यक्रम म संघरत गीद गावत ठण्ड़ा करे खातिर तरिया पहुंचथे।

देवी गंगा, देवी गंगा, देवी हे दू गंगा

हमर भोजली दाई के सोने सोन के अचरा

हमर देवी दाई के बड़े-बड़े नखरा

एक ठन कोदो के दूई ठन भूंसा

नान-नान हवन भोजली झन करहू गुस्सा

अहो भोजली गंगा, अहो भोजली गंगा


   गंगा पखारे तोर नवमुठा तिरनी, दुघे पखारे लामी केस। गीद गावत तरिया के पानी करा पार म भोजली के पांव पखारे जाथे। भोजली के पूजा पाठ कर के पानी म विर्सजन कर देथे। भोजली ल पानी म सरोए के बाद भोजली ल पानी भीतर उखान के अउ टोपली ल खलखल ले धो के पार म लान लेथे। चनादार, सक्कर, खीरा अउ खुरहोरी के परसाद के संग दू-दू डारा भोजली ल घलो बांटथे। भोजली पा के सब झन धन्य हो जथे। कतको मन जेखर से मन मिल जथे ओखर सन मितान बद डरथे। मितानी के रिश्ता पीढ़ी दर पीढ़ी रहिथे। रद्दा-बाट, हाट- बजार अउ खेत खार म कोनो मितान संग भेंट हो जथे त सीताराम भोजली कहि के एक दूसर ल सम्बोधित करथे। तरिया म भोजली ल ठण्डा करे के बाद सुआ नाचथे। गीद म नारी के पीरा ह जगजग ले झलकथे। नारी के पीरा ल नारिच जानथे। उगेना होय के बाद ससुरार म काखर संग रइहंव मन बांध-


   काखर संग खाहूं, काखर संग खेलहूं रे सुआ ना

   काखर संग रहूं मन बांध, रे सुआ ना

   सास संग खाबे, ननद संग खेलबे

   छोटका देवर संग मन बांध

   ना रे सुआ ना- 


तरिया के पार म तो सुआ नाचबे करथे। घर आए के बाद लड़की मन छै सुआ नाचथे। भेंट म जतना रुपिया पइसा मिलथे ओला आपस म बराबर बांट लेथे। आखिरी के सातवां घर ल उगेना वाले लड़की घर पुरोथे। उगेना लड़की ह महतारी के एक भांवर घुम के अपन पर्री ल उपर ले हाथ ल नीचे करके महतारी करा झोंकबाथे। महतारी ह अपन दुलौरिन के पर्री ल असीस देवत अंचरा म झोंकथे। भोजली उगोना होय के बाद लड़की ल सियानी मान के गवना दे जाथे। 


     भोजली कस दवना जंवारा, गोवर्धन, रैनी, महापरसाद, गंगाजल अउ तुलसी जल घलो बदथे। फूल फूलवारी ह मित-मितानी के चिन्हारी कराथे। सियान मन कथे काखरो न काखरो संग मितान बद ले रे भई सुख-दुख म काम आही। मितान बदई ल न वैवाहिक संबंध कही सकथन न रक्त संबंध। फेर हां मितानी के संबंध ह परिवार म रक्त संबंध कस हरे। मितान बदई ल फूल बदई घलो कहिथन। तभे तो मितान के दाई ल फूलदाई अउ मितान के ददा ल फूल ददा कहिथन। 

      मितान बदे बर कोनो दिन बादर तय नइ राहय। जादा तर तिहार बार के दिन बदथे। अंगना नही ते चैपाल म मितान बदे जाथे। मितान बदे बर नरियर, दूबी, धोती, माटी के दिया, कलस अउ गुलाल के जरुरत परथे। दूनो झन के आमने-सामने खड़ा होय बर दू ठन पीढ़हा हो जय त अउ बढ़िहा। गंगाजल बर गंगा गंगाजल, तुलसी जल बर तुलसी के पाना रहना जरुरी हे। 

     गंगा जल के परसाद पा के मितानी निभाए के परन करथे। गंगा जल महापरसाद ल चार के बीच म बदे जाथे। जंवारा, गोवर्धन, दवना ल रद्दा चलत बदे जा सकत हे। एमा कोनो नियम धियम के जरुरत नइ परय। दुबी ल एक दुसर के कान म खोंचे के बाद रुपिया, नरियर अउ धोती ल एक दूसर संग अदला-बदली करथे। जउन व्यक्ति मितान बदथे उंखर माईलोगन मन घलो आपस म फूल बद डरथे। मितान बदे के बाद परसाद बांटे जाथे। पुर जथे ते चाय पानी के घलव प्रबंध करथे। मीत-मीतान घर तीज-तिहार म सेर चाउंर (चाउंर, दार, रोटी, पीठा, मिरचा, नून) पहुंचा के एक दूसर के मया ल मजबूत करथे।

दुर्गा प्रसाद पारकर

छत्तीसगढ़ म इतवारी तिहार मनाय के परम्परा* *- दुर्गा प्रसाद पारकर*


 

*छत्तीसगढ़ म इतवारी तिहार मनाय के परम्परा* 

*- दुर्गा प्रसाद पारकर* 


                        

छत्तीसगढ़ म महाभारत ल प्रस्तुत करे के सबले बढ़िया तरीका आय पंडवानी। पंडवानी गवइया मन एदे प्रसंग ल मनमोहक ढंग ले सुनाथे-'बोल दव बिन्दा बन बिहारी लाल की जय | पांचो पांडो नाव अउ भेस बदल के बिराट नगर के राजा घर अज्ञात वास काटत रिहिन हे रागी। उहें सहदेव ल सैनिग्वाल के नाव से जानय। जऊन ह बरदी चरावय। एक दिन कौरव दल राजा बिराट के गरुआ ल चोराए बर सुन्ता बांधिन। सैनिग्वाल ह कौरव मन ल गरुआ लेगत देख तो डरिस फेर सक नइ चलिस उंखर ले लड़े के। गरुआ ल रोके खातिर मंत्र पढ़ के धनुष बान बना के ढिल दिस बान ताहन सना नना मोर नना नना कका। बान ह जा के जब गरूआ मन के खुर म लगत गिस रागी। लगते भार जिही मेर के तिही मेर खड़ा होगे। काबर कि बान लगे ले मवेशी मन ल खुरहा बीमारी होगे। गरूआ ल टस के मस नइ होवत देख के, पांडो के बेटा ह दउड़त जावय भइया। राजा ल घटना सुनावन लागे कका। गरुआ के चोरी ल सुन के राजा बिराट तमतमागे। चोर मन के बूता बनाए बर राजा बिराट अपन हिरदे के कुटका उत्तरा कुमार ल पठोथेे। उत्तरा कुमार के रथ हंकइया कोन रिहिस रागी? जानत हस। रागी-नही। ओखर नाव वृहन्ला रिहिस जऊन असली के अर्जुन आय। अर्जुन अपन हिसाब से रथ ल दउंडावन लागे। उत्तरा कुमार ल पता घलो नइ चलिस कि रथ ह कते डाहर जात हे। अर्जुन ह रथ ल जंगल म लेगे जिंहा ओहा गांडिव धनुष ल लुकाए रिहिस हे। अर्जुन ह जब गांडिव धनुष ले धरती म बान मारिस। बान के परते भार पताल गंगा परगट होगे। छरछीर-छरछीर पताल गंगा के पानी ह वृहन्ला ऊपर परत गीस ताहन अर्जुन ह अपन असली रूप म आवत गिस तस-तस गरुआ मन के खुरहा बीमारी ह मिटावत गिस। इसी पाए के छत्तीसगढ़ के किसान सउनाही के दिन अर्जुन के दसो नाव (अर्जुन, पार्थ, विजयी, किरीट, विभत्स, धनंजय, सब्यसांची, श्वेतबाजी, कपिध्वज, शब्द भेद) लिख के गरुआ मन ल खुरा चपका बीमारी मनले बचाए बर बिनती करथे। खुरा बीमारी ह सावन-भादो म जादा होथे। बिमरहा मवेशी के खुर म अंडी, अरसी नही ते मिलवा के तेल ल लगा के इलाज करथे। मान ले अइसन करे ले फुरसुद नइ लागे त बइगा ह कोठा म घी, गुड़, नही ते गंगुल (दसांग) के हुम दे के तिली तेल, अरसी तेल नहीं ते फल्ली तेल के दीया बार के गरुआ के आरती उतार के बने होय बर बिनती करथे। कतको मन अइसनो कथे कि खपरा के गाड़ी, पांच ठन करिया कुकरी अऊ नरियर ल एके संघरा गांव के बाहिर बरोए ले बीमारी के अंत हो जथे। एक बात जरूर हे कि बीमारी ह भभूत अऊ ठुवा-ठामना ले नइ माड़े। फिर भी जन भावना ल एकाएक नइ उधेने जा सकय। मवेशी मन ल सावन-भादो म खुरहा चपका, दांवा धक्का, माता मताही, बघर्रा, एकटंगी, मेंह पाठ के बीमारी झन अभरय कहिके असाढ़ के सिराती शनिच्चर रात के पहाती सउनाही बरो के गांव बनाथे। सउनाही बरोए बर पोंई, कुकरी अंडा, कठवा के गाड़ा, खड़ऊ, लिम्बू, बंदन, एक्कइस ठन धजा (तीन रंग के), एक्कइस ठन नरियर, चार ठन नांगर के नास के जरूरत परथे, करिया रंग के धजा खडऊ अऊ लिम्बू ल काली माई के सनमान म चघाथे। सादा रंग के धजा ल शीतला माता अऊ सत्ती माता के नाव ले देथे। लाली रंग के धजा, बंदन ल महावीर के नाव ले सोपरित करथे। बइगा गांव के देवी-देवता म हूम धूप दे के लिम्बू भारथे अऊ नरियर फोरथे। एखर बाद बइगा अऊ ओखर संगवारी मन तीन सिया जाथे। उहां पूजा-पाठ करके कारी पोंई (कुकरी पीला) के माथ म बंद बुक के ओरियाए सामान के बीचों-बीच बरो देथे। गांव के जतेक अएब हे ओहा कुकरी के संग चले जाय गांव म सउनाही बरोइया मन के गांव म आय के बाद कोतवाल हांका पार के इतील्ला देथे-'पानी कांजी भर सकथव, गोबर कचरा कर सकथव हो....।इतवार के दिन मनखे मन अपन घर के चारो मूड़ा कोठ म गोबर के घेरा बना के बीच-बीच म पुतरा-पुतरी बना के घर के रखवारी करवाथे। ताकि घर म मरी मसान झन झपा सकय। असाढ़ के आखरी इतवार ले सरलग पांच इतवारी ताहन बुधवारी तिहार मनाना जरूरी हे। काम बूता के दिन म इतवारी अऊ बुधवारी तिहार कहां तक उचित हे। मनाना हे त एक इतवार ल जोरदार मना के बाकि इतवारी तिहार ल कुकरी के संग बरोए ल परही ताकि हमर किसानी काम म तिहार ह बाधक झन बन सकय। तभे तो हमन सर्व सम्पन्न छत्तीसगढ़ राज के कल्पना कर सकथन नही ते फूस्का।


दुर्गाप्रसाद पारकर

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छत्तीसगढ़ी कहानी -*घरघुंदिया*


 

छत्तीसगढ़ी कहानी -*घरघुंदिया*

*डॉ. तेजराम दिल्लीवार*



 साठ-सत्तर बच्छर पहिली के गोठ

 आय। तब गंगरेल जलाशय नवा-नवा बने राहय अउ ओखर रक्सहूं मुड़ा म कांड़-कोरई के जंगल बिक्कट लहलहावत राहय। एखर मतलब, अो बखत जंगल के उजाड़ नइ होय रिहिसे।

एक दिन, एक झिन सियनहा ह कोन जनी काखर खोज म   जंगल डाहर जावत रथे । बिहनिया ले रेंगत - रेंगत संझा हो जथे  फेर ओला कोनो नइ मिले। न मनखे न जंगली जानवर ।थके मांदे सियनहा  के बंद मुहूं ह घलो थक हार के ओ हो कहि डरथे -''अब तो दुख के गगरी ल धरके चलिस सुनसान जंगल म भूले-भटके जीव ह !’‘ संझा के समय, पांव म थकान के बेड़ी अउ आँखी म बुढ़ापा के धुमलाहापन। बिचारा थके हारे, लांघन भूखन जंगले - जंगल आगू डाहर रेंगे बर धरथे  |

''ए बटोही! आघू डाहर झन जा ! ओ तनी बहुत बड़े खाई हे।’‘

''ब-टो-ही!’‘  सियान आदमी अपन नवा नाव ल सुन के चौकथे। बाट रेंगइया बटोही नोहे त अउ का ए। एक युग बीत गे मोला बाट रेंगत। बटोही नाव ठीक हे फेर ... फेर ए नाव रखइया कोन ए? कहां ले आइस ए आवाज? सियान आदमी चारो मुड़ा घूम के देखथे त डेरी हाथ ले थोकिन दूरिहा म एक ठन बर पेड़ के खाल्हे म  नानकुन घरघुंदिया नजर आथे। हां! घरघुंदिया तो आय। चारो कोती माड़ी अतना ऊंच माटी के भाड़ी, चार ठन थुनही अउ ऊपर डारा-पतई के छाजन अउ घरघुंदिया के आघू म कोनो जानवर ना कोनो मनखे , जाने कोन ए...? सियान मनखे ह तीर म जाके देखथे, त सादा लुगरा पहिरे एक झिन सियनहीन ह धैर्य अउ तप के मूर्ति बने बइठे दिखिस। सियान मनखे ह ओखर नाव तापसी राखथे। पूछथे-''कस तापसी! तीर तखार म कोनो गांव नइहे का?’‘

तापसी कथे-''तीर तखार के गांव मन तो गंगरेल बांध म ऊबुक चूबुक होगे बटोही। एक-दु ठन गांव बांध के ओ पार मिल जही फेर देख, सांझ होगे हे। चिरई-चिरगुन अपन-अपन खोंधरा म आ गे हे। आज रात मोर घरघुंदिया म अराम कर ,ए मोर बिनती आय। बिहनिया होही ताहन अपन रद्दा बाट म चल देबे।’‘

आह कतेक मधुर आवाज हे। तन बूढ़ागे हे, फेर बोली बचन ह अभी घलो मंदरस कस मीठ हे । सियान मनखे ह ओखर बिनती ला मना नइ कर सकिस।

तापसी ह गोबर म दरपाए अंगना म पानी लानथे । पीढ़ा मढ़ाथे। बटोही के पांव धोके पीढ़ा म बइठारथे अउ जेवन म रूखा-सूखा जइसन बनाय हे, ओला खवाथे।

अब, सुते के बेरा होगे । घरघुंदिया के एक कोती बटोही सुतथे अउ दुसर कोती तापसी। सुते के कोशिश दुनो करथे, फेर नींद दुनो म कोनो ल नइ आय। दुनो झिन गुनत राहय त नींद कहां ले आय। तापसी करवट बदल के पूछथे -

''कइसे, सुत गेस बटोही?’‘

''अहं! का तहूं जागत हस तापसी?’‘

''नींद नइ आत हे, बटोही! एकाद ठन कहानी तो सुना’‘

''कहानी...?’‘

''हव, सुना न एकद ठन बने असन!’‘

''अइसे, त सुन!’‘

ताहन बटोही कहानी सुनाथे-''एक झिन भूले-भटके नवजवान राहय। उमर ओखर करीब अठारह-बीस बच्छर अउ नाव चंदन। ओह गीत बहुत बढ़िया गावय । भगवान ओला बिक्कट सुग्घर गला दे राहय। गंधर्व के कंठ अउ ओखर कंठ म कोनो अंतर नइ राहय। जे मेर खड़े होके, जइसे गीत गा दे, लइका सियान सब आके ओखर गर म बंधा जाय।’‘ कइसे सुनत हस तापसी?

तापसी-''हव, सुनत हवं बटोही! नाव बहुत खूबसूरत हे-चं-द-न! हां, ताहन आगू डाहर का होइस?’‘

बटोही कहानी ल आगू बढ़ाथे-हां, त! भूले भटके चंदन एक दिन शहर म पहुंचगे। शहर के एक छोर म एक ठन बड़े जन धरमशाला राहय | जेमे कोनो दुरिहा शहर के एक रईस घराना के बारात ह लहुटती खानी आ के रूके राहय, गाजा बाजा के संग।

बटोही कहानी आगे बढ़ाथे-हां, त! धरमशाला के बरामदा म मोहरी बजइया ह बराती मन के बीच म बइठ के कोनो स्वर साधत राहय अउ ओखर अगल-बगल  म तबला, मंजीरा, करतार वाले मन बइठे राहय । चंदन ले देख-सुन के रहे नइगे। दौड़ के ओ बराती मन के बीच पहुंचिस अउ मोहरी के आगू म बइठगे। मोहरी बजइया ह पारखी जीव राहय। मोहरी ला एक डाहर हटाके कथे-''बाबू! तोर हृदय म सरस्वती के वास हे। जरूर, गीत के दुनिया म तोर पहुंच हे। अरे त्यागी मन! सुना तो गीत।’‘

सुनके चंदन विभोर होगे। गवइया ला अउ का चाही-''बड़ाई के भंग अउ तबला-मंजीरा के संग।’‘ पहली, चंदन गला साधिस अउ एक बढ़िया लय म गाना शुरू करीस -

''मन-मंदिर म दीया जला के, गा-गा के तोर करँव सुमिरन।’‘

आह! एक पांत के बाद अंतराल अउ अंतराल के बाद फेर एक पद। गीत के बोल अइसे रिहिस-''जब मय गा-गा के तोला बलायेंव तब जइसे खेत म धान के बाली उमिहा उठथे। जिनगी मोर खेत ए अउ तोर एकक ठन गोठ-बात  के सुरता  ह एकक ठन धान के बाली आय। सुन मोर जिनगी के भुइयाँ ला स्वार्थ अउ लोभ के रेगिस्तान झन बना देबे। मया पिरित के वर्षा कर करिया करिया घपटे भादो के बादर कस । मंदिर म दीया जला के गा-गा के तोर करँव सुमिरन ।’‘

चंदन के गीत पवन-झकोरा बन के बराती मन के हृदय के पाना पतई ल हला देथे। कंठ अइसे गुरतुर जानो मानो चांदी के घंटी बजत हे। वाह-वाह! एक गीत अऊ गा भइया गा। सबके इच्छा चंदन ले एक अऊ गीत सुने के इच्छा होइस |  चंदन घलो गाय बर शुरू करत रिहिस कि ठउँका अोतके बेर एक झिन लोकड़हिन ह आके कथे-''ए नवजवान, तोला दुल्हन ह बुलावत हे।’‘

चंदन अवाक होगे। ''मोला काबर बलाही दुल्हन हा।’‘ मने मन बिचार के चिंता फिकर करे बर करे बर धर लिस |कोन जनी दुल्हन ह काबर बलावत होही |

दुल्हा बराती मन के बीच म बइठ के गीत के आनंद लेत राहय। वहू ल चंदन के गीत ह नीक लागत रिहिसे। किहिस-''जा दुल्हन ला घलो एक ठन  बढ़िया गीत सुना दे। सुनके मन ओखर घबरागे , दुल्हा किहिस जा भाई! ईनाम मिलही, जा!’‘

दुल्हन धरमशाला के एक साफ सुथरा कुरिया म राहय। ओखर संग एक झिन लोकड़हिन घलो रिहिस फेर कोन जनि चंदन ला बला के ओ कहां खिसकगे। चंदन दुल्हन के कुरिया के नजदीक पहुंचिस अउ झांक के एक नजर ओला देखिस घलो! चेहरा ह तो घूंघट म तोपाय राहय, कुछु समझ म नइ आवत रिहिस  फेर  ओखर सुंदर सलोना शरीर पींयर रंग के कोसाही लुगरा के बीच देवारी के दीया कस फबे राहय । पांव म माहुर अउ ऐड़ी म पैजन। चूड़ी के झनक अउ नारी तन के महक! आह! चंदन दरवाजा के आड़ म खड़े होके ''राम राम’‘ करिस। दुल्हन घलो जवाब म ''राम राम’‘ किहिस। कुछ देर चुप्पी के बाद दुल्हन कथे-''नवजवान! तोर गीत सुनके लागिस कि, तेंह वियोगी अस, तेंह काखरो सुरता म भटकत हस। सिरसोन बता ओ कोन ए, कइसे तोर जिनगी म ओह अइस?’‘

चंदन अजीब उलझन म परगे। ओह, ए सवाल ले समझगे कि दुल्हन पारखी जीव आय। फेर ओह अपन जिनगी के कथा ल बताए कइसे। कुछु तो नइ हे ओखर जिनगी म, सिरिफ विपत्ति के सिवाय। हो सकथे सही बात ल सुन के थू-थू करे।

अतेक केहे के बाद बटोही तापसी ले पूछथे-''कइसे, सुनत हस तापसी ! कहानी कइसे लागत हे ?’‘

तापसी का बताय। आँखी ओखर 

डबडबा गे राहय। कहानी के एक-एक शब्द अइसे लागत रिहिसे , जइसे कोनो फिल्म देखावत हे। तापसी ह आँसू पोछत कथे-''हां, त आगू का होइस? दुल्हन के पूछे ले चंदन का किहिस?’‘

बटोही कहानी के कड़ी ल आगू बढ़ाथे-''दुल्हन के पूछे ले चंदन किहिस-कि देवी, जेखर खोज म मय भटकत हवं, ओखर नाव कंचन हे। वहू आज तोर जइसे युवती होगे होही। गांव के फुरुर फुरूर पुरवाही म पले बढ़े केशर के फूल जइसे सुंदर कंचन ह कोन दिशा म निवास करत होही। आज ले दस साल पहिली हम दुनो के निवास गंगरेल गाँव म रिहिस। अब तो गंगरेल ह जलाशय बन गे हे। जलाशय, मने चारो कोती जल-ए-जल, जेमे जमीन के एक कण तक नइहे अउ जे पहिली एखर बीच के जमीन म निवास करत रिहिन, ओ मन जाने कहां फेंकागे। उखर दिशा तक के पता नइहे। दस साल पहिली गंगरेल 

 गांव म हमर अउ कंचन के घर ह एके तीर म रिहिस अउ हम्मन दुनो संगे-संग खेलेन कुदेन। हमर दुनो के घरू परिस्थिति म धरती अउ आसमान के अंतर रिहिस। मय एक किसान के बेटा -जमीन जायदाद के नाव म सिरिफ दु एकड़ ला तुलसी के बिरवा कस साज-संवार के राखे रिहिस। एखर अवेजी कंचन रईस बाप के इकलौती बेटी-सुख के सागर म पले बड़े , ओखर बाप पचास एकड़ जमीन के मालिक...गाड़ी घोड़ा, नौकर-चाकर सब ले संपन्न फेर अतेक अंतर के बाद घलो हमर दुनो के आत्मा अइसे एक होगे रिहिसे जइसे आँखी तो दू हे फेर नजर एक।’‘

''गांव के निकलती म नरवा तीर एक ठन बर पेड़ रिहिस। दुनिया के नजर म हमर घर भले अलग-अलग रिहिस होही फेर बर पेड़ के छइहां म हमर दुनो झिन के खेले कुदे बर एक ठन घरघुंदिया होगे रिहिस। बचपन हमर बर पेड़ के छइहां म बीतिस। मय एक गरीब किसान के लइका, घर के हर काम म महतारी के हाथ बटाए बर लगे। दाना-पानी, छेना लकड़ी, डोरी-डंगना सब लागथे किसानी म। ले दे के फुर्सत मिल पाय मोला। कभू देरी हो जाय ते कंचन रिसा जावय - ''जा तोर संग नइ खेलन’‘ अउ मुंहू ल फूलो के एकंगू कर देवय फेर थोरिक देर बाद खुद ओह तीर म आके कहाय-''चंदन ए चंदन! रिसा गे हस का? चल छुवउल खेलबो कि लुकउल खेलबो।’‘ एदे! अइसे रिहिस कंचन। तन ले सुंदर तो रहिबे करे रिहिस, फेर ओखर सरल, भोला भाला मन ओला अऊ सुंदर बनाए रिहिस। देवी ! कंचन के इही सुंदरता मोर गीत के जड़ आय, मोर गला के मिठास ए।’‘

''एक दिन बर पेड़ के छइहां म ओह एक ठन घरघुंदिया बनइस। सुग्घर-सुग्घर कुरिया, माटी के बर्तन भाड़ा , किसानी के साज-सिंगार, सब सजे-सजाए। जब मँय घर के काम-काज ले फुर्सत होके पहुंचेव त ओ मोर हाथ पकड़ के कथे-''चंदन! ए तोर हमर घर ए। ए तोर गाय बइला के कोठा ए। ए कुरिया म तोर खेती-बारी के सामान हे अउ ए मोर रंधनी खोली ए। देख! जब तँय खेत म काम बूता करत रबे तब तोर बर मँय पेज लेगहूं अउ तँय बबूल पेड़ के खाल्हे बइठ के खाबे। है, न।’‘

''कंचन के बात सुनके मोला हंसी आगे-पगली कहां ले तँय किसान नारी के बुध सीखगे। जिनगी ह सबर दिन खेले के नोहे। उझार दे ए माटी के घरघुंदिया ल। तँय रईस बाप के बेटी एक दिन बड़े घर तोर बिहाव हो जही । कोनो लाखो करोड़ो पूंजीपति ह तोर गोसइया होही। तोर करा बंगला अउ मोटर गाड़ी होही। उझार दे घरघुंदिया ल कंचन, तोला ए माटी के खेल नइ फबे।’‘

''मोर ए बात सुनके कंचन चोट खाए कस चिरई जइसे तड़प उठिस। आँखी म ओखर आंसू के झड़ी लगगे। मँय नइ जानत रेहेंव कि बात-बात म ओला अतेक दुख पहुंचही। ओ तड़त के कथे-''चंदन! का तहूं मोला रईस बाप के बेटी समझथस? देख चंदन, मोर शरीर जरूर रईस हे, फेर मोर मन गरीब हे। मोला मोटर-बंगला नइ चाही चंदन, मोला ए घरघुंदिया चाही। मोला लाखो के मालगुजार नइ चाही, मोला चाही सिरिफ तोर बाहुबल, तोर भुजा म हल चलाए के ताकत हे न! देख, तँय मोला स्वार्थ अउ लोभ के घेरा म बंधाय झन समझ। महूं तोर संग भुइयाँ म उगे लहलहावत फसल के संग हंसना मुस्काना चाहत हवं, अउ आजादी के जिनगी जीना चाहथँव।’‘

''देवी! कंचन म अइसन सुग्घर विचार हे। ओ बखत ओखर उमर नौ-दस साल ले जादा नइ रिहिस होही, फेर कइसे आईस होही ओखर मति म अइसन विचार? जरूर पहिली जनम के संस्कार ए। सिरतोन आय , कंचन भले रईस के घर जन्मे हे, फेर ओखर आत्मा गरीब हे।’‘

''आज दस साल होगे हम दुनो ला बिछुड़े। ए दस साल म मोर सब कुछ नाश होगे। दु एकड़ के मुआवजा होथे कतेक-गांव, घर के तलाश म खतम होगे। गरीबी के भार अउ महंगाई के मार। महतारी ला मोर भविष्य के चिंता होइस, फेर चिंता गरीबी के दवा तो नोहे। एक दिन महतारी घलो चिंता म गल-गल के खतम होगे। देवी अब मोर करा कुछू नइ रहि गे हे। सिरिफ कंचन के भाखा -ओखर मीठा बोली मोर जिनगी के आधार ए। मोला कंचन ले कुछ नइ चाही-चाही मोला ओखर ए बोल-जेला गीत के लहजा म गा-गा के घूमत हवं। जब बोल ह सुरता नइ आय बर धरे , तब फेर ओला गा के समेट लेथंव। मोर बर तो कंचन के बोली- बचन हा कंचन के सुरता ए।’‘

''कइसे तापसी! कहानी कइसे लागिस?’‘

बटोही कहानी के अंत करके तापसी ले पूछथे।

तापसी के मन तो कहानी म खोय रथे अउ ओ अब तक ए पाय के चुप रथे कि बटोही अउ आगे कुछ कही। पर जब बटोही कहानी के अंत कर देथे, तब ओ हड़बड़ा के उठथे अउ पूछथे-''चंदन के का होइस बटोही? धरमशाला के बाद कहां गिस?’‘

''काबर तापसी?’‘

''काबर के ओखर कंचन मँय अवं, बटोही!’‘

''का?-बटोही घलो हड़बड़ा के उठ के बइठथे-का ते कंचन अस तापसी।’‘

हां, बटोही! मंय ही ओ अभागिन कंचन अवं। गंगरेल गांव के उजड़े ले मोर मां-बाप एक अइसे नगर म जा बसिन, जे इहां ले सात समुंदर पार जइसे दुरिहा हे। सुन बटोही, चंदन के सुरता महूं ला रिहिस। गंगरेल गांव के फुरुर फुरुर पुरवाही , खेत-खलिहान के हरियाली, चंदन के गोरा गठीला तन अउ ओखर मगन मन, सब कुछ सुरता रिहिस पर मंय दूर देश के निवासी, ओला अपन आत्मा के छोड़ अउ का दे सकत रेहेंव? फेर चंदन मोला अपन मन मंदिर म बिठा चुके हे, ए बात मोला तब मालूम होईस जब ओ धरमशाला म बराती मन ला सुनात बेर अपन गीत म मोर गोठ-बात के राग गाइस। धरमशाला के ओ दुल्हन अउ कोई नही बटोही, ओ दुल्हन मँय आंव। मोर विवाह एक शहर के एक नामी व्यापारी के संग हो चुके हे। धरमशाला म चंदन के जिनगी के कथा ल मँय ए पाए के सुनना चाहेंव के ओ-मोला कहां तक समझ सके हे।

''जे आदमी के संग मोर बिहाव होय रिहिस, ओकर बर सिरिफ मँय शरीर रहेंव, ओह मोर आत्मा ला नइ समझ सकिस। व्यापार तो करे ओ दिन-रात बस हाय पइसा, हाय पइसा। सीधा सादा गरीब मन के खून चूसना अउ हराम के कमाई म गुलछर्रा उड़ाना, एह ओखर काम रहाय। फेर  ज्यादा दिन ओ जी नइ सकिस। दुनिया भर के व्यसन म शरीर कब तक ले टिके। ओला टी.वी. होगे। कम उम्र म मृत्यु के शिकार होगे। जब-जब मँय ओखर कुकृत्य ला देखव-सुनव, मोला चंदन के सुरता ज्यादा आय।’‘

''बटोही, मोर शरीर म सिरिफ मोर मां-बाप के हक रिहिस अउ उंखर आशा मान के मँय बिहाव करेंव फेर मोर आत्मा सिरिफ चंदन के रिहिस बटोही। बिहाव शरीर के होइस, आत्मा के तो नही। देख, गंगरेल के ए सियार म मोला आज चालीस-बियालीस बच्छर होगे हे। ए उही बर पेड़ के छइहां ए, जेखर नीचे चंदन अउ मोर बचपना बीते रिहिस। बर पेड़ के छइहां म घरघुंदिया बना के ओखर बाट देखत मोर आंखी ह पथरागे फेर ओ नइ आईस अउ अब का आही। तोर कहानी घलो आगू डाहर नइ बढ़ीस, कोन जाने ओ कहां हे।’‘

रात के दूसरा पहर रथे। घटाटोप अंधियार चारो कोती बगरे रथे फेर  कंचन ला पूरा जनम के दृश्य दिखाई देथे, गांव-घर, मां-बाप, चंदन सब कुछ। तन ले तो बूढ़ा हो चुके हे, पर मन अंधियारी रात म घलो चिरई-चिरगुन जइसे आकाश म उड़थे। ओ अपन थके शरीर ल उठाके बटोही ले कथे-''अच्छा बटोही! मँय चंदन के खोज म निकलथंव, तँय ह बिहनिया होही ताहन अपन रद्दा बाट म चल देबे ।’‘

बटोही ओखर हाथ पकड़ के कथे-''कंचन अब अऊ तोला कहूं जाए बर नइ लागे। मँय तोर घरघुंदिया म आगे हवं। मही तोर चंदन अंव कंचन मही तोर चंदन अंव।’‘

डॉ. तेजराम दिल्लीवार