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कहानी--*मोहरी/कहानी*
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(एकठन प्रेम कथा)
बाजा - रुंजी मन म मोहरी के बड़ महत्तम हे। येहर छत्तीसगढ़ीया -शहनाई आय। अइसनहेच मिलता- जुलता बड़े आकार के बाजा ल हमर दक्षिण भारतीय भई मन - नाद स्वरम घलव कहिथें ...रत्नाकर गुनत हे। वोहर अपन थोरकुन धुरिहा के रिश्तेदारी म बरात आये हे।अउ अभी वोकर करा कुछु खचित काम घलव नइ ये। पूरा फुरसत ले , वोहर ये बिहोतरा- बाजा के आनन्द उठात हे ।
अपन मुड़ म परे कारज म तो मनखे ल मुड़ खुजियाय के मउका नइ मिलय। अउ निकट -सम्बन्धी मन के कारज ल तो कूद के उठाय बर लागथे ।तब अइसन बाजा -रुंजी सुने के अवसर कहाँ मिल पाथे।
मोहरी के सुर कान म मिश्री ल घोलत हे ।
"हाय... रत्नाकर...! कइसन हावस बाबू अउ इहाँ तंय कइसन...! "आवाज हर जाने -चीन्हे कस लागिस, रत्नाकर ल।वोहर वो कोती ल देखिस। अब तो वोकर क्लासमेट श्रुति तीर म आ के खड़ा हो गिस ।
"कोन श्रुति...!तंय इहाँ कइसन..?"
"येहर मोर गांव..मोर छईंहा- भुइंया।" श्रुति झरझरात कहिस,"अउ तंय बारात आय हस ।"
"वाह..!तँय कइसे जान डारे कि मंय बारात आँय हंव।" रत्नाकर घलव श्रुति ल अइसन अचानक आगु म पा के आनन्द -विभोर हो गय रहे।
"तँय अतेक फुरसत लेके ये दे मोहरी ल सुनत हावस अउ बरतिया मन के संग म हावस।अउ येकर ल बड़खा बात...तँय इहाँ मोर गांव शायद पहिली बार आय हावस।"श्रुति पूरा विस्तार ल बता दिस। अउ मुचमुचात खड़े रहिस । अब रत्नाकर विपत्तियां गय,अब श्रुति करा गोठियाव कि मोहरी ल सुनों। वोहर दुनों च छोड़ना नइ चाहत रहिस ।
श्रुति अउ रत्नाकर कक्षा -संगवारी ये। वोमन के स्नातकोत्तर कक्षा म मनखे के कमी नइ ये।श्रुति करा रत्नाकर के विशेष परच...उठना- बैठना नइ रहिस।हाँ... फेर एके जात -बिरादरी के होय के सेथी, वोकर उपर नजर हर परिच जाय ।वोकरे कस अउ चार -पांच लड़की ये कक्षा म हावे वोकरेच जाति- बिरादरी के।वो सब मन उपर जाने -अनजाने नजर परिच जाय ।
मोहरी बाजत हे...!
"चल मोर घर..!"
"अभी नहीं..।"
"अभी नहीं त, तँय अउ कब आबे।"
"पता नइये।वो दे ध्यान लगा के सुन मोहरी हर बाजत हे अउ का कहत हे।"
"वो तो बहुत कुछ कहत हे। सुने सकबे तव सुन..!"श्रुति हर अब रत्नाकर कोती ल देखे नइ सकत रहिस।
"चल मोर घर..!" अब वो थोरकुन हड़बड़ी म कहिस।
"अभी पहिली.. वहाँ, जिहाँ जाना हे ।"
"वोकर बाद..?"
"मोर तो दुबारा इहाँ आये के मन करत हे।वो दे सुन मोहरी काय कहत हे।"
"तईंच सुन..!"श्रुति कहिस,फेर भागे नइ सकिस ।
"चल मोर घर..!"वो आन कोती ल देखत फेर कहिस।जइसन ले जा के ही मानही अपन घर।
"पक्का बलावत हस कि कचिया।" रत्नाकर तो जइसन मोहरी के बोल म बोलत हे।
"अगर मंय कचिया कह हां तब..?"
"मंय तुरन्त चल दिहां।" रत्नाकार ल खुद अचम्भा होवत रहिस कि वोकर मुहँ ल का... का ... ये ...आन... तान...निकलत हे।अउ ये मोहरी तो बाजतेच हे।
"अउ मंय पक्का कह हां तब...?"श्रुति खुदे कहत हे।
"तब तो पाछु आहाँ तोर घर...फेर अइसन मोहरी जरूर बाजही ...!रत्नाकर के मुँह ले तुरते निकल गय ,"अब बोल का कहत हस...तँय...!"
श्रुति अब ले घलो भागे नइ सकिस।मोहरी हर बाजतेच रहिस।अब तो दुनों झन वोला सुनत रहिन।
"का कहत हस...अब बोल।"रत्नाकर बड़ बेर बाद म पूछिस।
" अब मोला नही ये मोहरी ले ...पूछ।"श्रुति अब भी रत्नाकर के तीर ल भागे बर समरथ नइ होय पाये रहिस।
हाँ...मोहरी हर अब ले भी बाजतेच रहिस।अउ बरात के पइरघनी होवत रहिस।
*रामनाथ साहू*
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