Friday 26 July 2024

धान मंडी में "गरकट्टा" - एक" किसान-समस्या- प्रधान" नाटक





 भूमिका




धान मंडी में "गरकट्टा" - एक" किसान-समस्या- प्रधान" नाटक

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डॉ. खूबचन्द बघेल का नाम राजनीति, समाज के साथ-साथ, लोक रंग व साहित्य के क्षेत्र में भी प्रसिद्ध नाम हैं। वे छत्तीसगढ़ राज्य के स्वप्न द्रष्टा के साथ-साथ, किसानों के दुःख-दर्द के सहभागी रहे हैं। निधन के पूर्व वे किसान - आंदोलन के सूत्रधार भी रहे। वे अपनी मुहावरे द्वारा भाषा के महारथी, एवं नाटकों के संवाद योजना में, पारंगत रहे।


नाटक "गरकट्टा" प्राप्त होने की एक कथा है। डॉ. बघेल, मेरे पति स्व. मनहर आड़िल को "मानस पुत्र" वत् मानते थे। अत्यंत स्नेह करते थे। 1968 में हम सिहोर (भोपाल) में थे। मेरे पति वहाँ कृषि महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक के पद पर पदस्थ थे। चार सितंबर 1968 को अकस्मात् डॉ. बघेल हमारे घर आए, दिल्ली से बनारस होते डुए। हमें कोई सूचना नहीं थी। यह संयोग ही था कि उस दिन मेरे पुत्र का जन्मदिन था। हमें व उन्हें अपार प्रसन्नता हुई। वे हमारे बेटे को गोद में लेकर बहुत प्यार किए। उन्हें देर तक खिलाते रहे। वे 2 दिन रूके। वे राज्यसभा सदस्य थे। पत्रकारों व मिलने वालों की भीड़ लग गई। सेठ  नारायणदास कम्पाउण्ड में स्थित हमारा छोटा सा घर गुलजार हो गया।


6 सितंबर को, वे वापस रायपुर जाने के लिए, रेलवे स्टेशन गए। हमने "नब्बू मियां" टांगे वाले को बुलाया। मेरे पति साथ में स्टेशन गए। टांगे में बैठने से पूर्व, उन्होंने मुझसे कहा- "सत्या बेटी मंय ह "गरकट्टा" नाटक लिखे हंव। अब फेर आहंव, त, तोला पढेबर दुहूं।" मैंने उनके पाँव छुए। उन्होंने आशीष दिया और मेरे बेटे का चुम्बन लेकर चले गए। हम तो मई जून में ही अपने घर जाते थे। पर, एक दिन 22 फरवरी 1969 को संविद सरकार में उपमुख्य मंत्री बनें स्व. बृजलाल वर्मा का पूरा परिवार मेरे घर मौजूद था। बच्चे भोजन कर रहे थे। उनके पास सूचना आई कि "शीघ्र भोपाल आएं। दिल्ली से मालगाड़ी में डॉ. बघेल का शव लाया जा रहा है। उनका देहावसान हो गया।"


बृजलाल वर्मा जी मेरे पति के साथ भोपाल गए दर्शनार्थ। परिवार बाद में गया।


"यह क्या हो गया?" अकस्मात् समझ में नहीं आया। इस घटना के बरसों बाद, स्व. बृजलाल वर्मा सपत्नीक रायपुर में, मेरे निवास, पर आये। हमारा पारिवारिक सम्बन्ध था। उन्होंने एक स्कूली कॉपी, जर्जर स्थिति में, मुझे दी, यह कहते हुए-


"तुम्हारे लिए, डॉक्टर साहब ने दिया था" वह "गरकट्टा" नाटक की पाण्डुलिपि थी।


मैं चकित थी- विश्वास नहीं हुआ, इतने दिनों तक रखी रही पाण्डुलिपि? उन्होंने स्पष्टीकरण दिया- "मैं बहुत" व्यस्त रहा, भूल गया था बेटी। निरेन्द्री (पत्नी का नाम) ने याद दिलाया, तब ध्यान आया। 

और फिर मेरी व्यस्तता में एक लंबे अंतराल के बाद यह नाटक "गरकट्टा" निकला प्रकाशन के द्वार में। यह सही समय है "गरकट्टा" के प्रकाशन का। आजादी के 63 वर्ष बाद और पृथक छत्तीसगढ़ राज्य बनने के 20 वर्ष बाद यह नाटक प्रकाशन के द्वार पर है। आज छत्तीसगढ़ कृषि आधारित राज्य बन गया है। 60 वर्ष पहले की मण्डी समस्या नाटक में मुंह बांए खड़ी है। आज डॉ. बघेल होते तो कितने प्रसन्न होते "गरकट्टा विहीन" छत्तीसगढ़ को देखकर ?


आइए इस नाटक की समीक्षा करें -

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1. शीर्षक "गरकट्टा" यानी गला काटने वाला। जो किसानों का गला काटे यानी गंज या मंडी मे "दलाल" धान की ढेरी की अफरा तफरी, करते हैं। दस ढेरी को ग्यारह ढेरी में बदल देते हैं। दस ढेरी से थोड़ा-थोड़ा धान निकाल कर ग्यारहवां ढेरी तैयार कर के अपना कमीशन निकालते हैं। यही दलाल, "गरकट्टा" कहलाता है। शीर्षक एकदम स्पष्ट व सटीक है।


2. परिवेश/समय / वातावरण- "गरकट्टा" के कथानक का समय 1948-49-50 के वर्ष का है। भारत आजाद हो चुका था। गाँधी जी का अवसान हो गया था, व उड़ीसा के "अंगुल वाले बाबा" के चमत्कार, प्रचार का समय था- जिसका जिक इस नाटक के प्रारंभ में ही हैं। गाँधीजी के अवसान के बाद सरकार में कथनी-करनी का जो अंतर आया उसका जिक है। छत्तीसगढ़ की धान मंडी में व्याप्त भ्रष्टाचार का खुल्लमखुल्ला चित्रण किया गया है यह वह काल था, जब मध्यप्रदेश की राजधानी "नागपुर" में थी। और उड़ीसा का कुछ क्षेत्र छत्तीसगढ़ में आता था। उस समय का भौगोलिक क्षेत्र इसी तरह का था। नाटक के पात्र "ओड़िया महाराज" भ्रष्टाचार का भंडाफोड़ करने वाला सकिय पात्र है।


3. स्थान व क्षेत्र - "गरकट्टा" नाटक में गंज यानी धानमंडी को प्रमुख स्थान बताया गया है। भाठागांव गंज के आसपास के गाँव का जिक है जैसे- "लवण", "बिटकुली", उड़ेला। "बलौदाबाजर"- के "चक्रधर शुक्ला" का नाम आया है। अर्थात नाटक काल्पनिक नहीं है। यथार्थ के धरातल पर गंज या मंडी का जीता जागता चित्र खींचा गया है। भाठागांव से बलौदाबाजार के आसपास का पूरा क्षेत्र डॉ. बघेल का जाना हुआ परिचित क्षेत्र था इसलिए नाटक में जीवंतता बनी हुई है। स्थान की चर्चा से नाटक में विश्वसनीयता आती है।


4. कथानक - स्पष्ट है कि गंज पड़ाव यानी भाठागांव की मंडी में धान बेचने आए चतुर सिंह, भोला मंडल ढेरी से धान चोरी होते देखते हैं। संवादों के माध्यम से कथा आगे बढ़ती है। ईमानदार गुरु की तरह बुजुर्ग ओड़िया महाराज को तारन हार मानते हुए, उनसे शिकायत करते हैं। ओड़िया महाराज जनसेवक की भूमिका में हैं। किसानों के हितैशी। "सुराज" मिलने के बाद "नंगरा नाच" जैसी स्थिति का वर्णन भोला करता है।


"गांधी के मरे ले बहुत करलई होगे जी"- इस तरह बतियाते, ढेरी बिगाड़ने वाले दलाल को पकड़ते हैं। पर गंज अध्यक्ष पं. राजबली, हवलदार निर्भयसिंह, दुर्जनलाल दरोगा, लोटनमल सेठ सब मिले हुए है एक दूसरे से। दलाली से प्राप्त रकम में इनका हिस्सा बंधा हुआ है- ऊपर से नीचे तक रिश्वत की श्रृंखला का बड़ा रोचक वर्णन किया गया है। ओड़िया महाराज खरी-खरी बात करके सभी की पोल खोलते हैं। भाठागांव के थाने में रिपोर्ट दर्ज कराने के बावजूद न्यायपूर्ण कार्यवाई नहीं होती। उस "लीपापोती" का रोचक वर्णन है। ओड़िया महाराज के शब्दो में - "भाठागांव की जनता त्राहि-त्राहि कर रही है। कोई सुनने वाला नहीं।" गांववाले सब किसान, गंज दरोगा, सेठ लोटनमल , सेठ मलखोरीलाल व चमरू नपैया- इन सबकी मिली भगत है।


गांव के किसान लोग भ्रष्टाचार से त्रस्त होकर, अलग पार्टी बनाकर ओड़िया महाराज को अध्यक्ष के चुनाव के लिए खड़ा करने को तैयार करते हैं। उस पार्टी का नाम "गरकट्टा विरोधी पार्टी" रखते हैं। पार्टी की नीति तय करते हैं- "शांतिमय, अहिंसात्मक तरीके से काम लेना।"


नाटक का अंत "बोलो, महात्मा गाँधी की जय"- इस नारे से होता है।


5. पात्र व चरित्रचित्रण-


भोला मंडल, चतुरसिंह, ओड़िया महाराज, ये सज्जन पात्र व चरित्र है।


लतखोरदास, डंडाशरण तिवारी, सेठ लोटनमल, दुर्जनलाल दरोगा हवलदार, प्रेसिडेंट राजबली, चमरू नपैया- ये दुर्जन पात्र व चरित्र हैं। 6. संवाद - नाटक का प्राण संवाद ही है। संवाद से ही पात्र का चरित्र ज्ञात होता है व कथानक का रहस्य उद्घाटित होता है। "गरकट्टा" नाटक में संवादो ने प्राण फूंक दिए हैं। छत्तीसगढ़ी, फिर हिन्दी मिश्रित एवंम बोलचाल की व्यावहारिक भाषा ने संवादों में जीवंतता ला दी है।


वाइस प्रेसिडेन्ट- "आपकी दो शिकायत है। आड़ी काठा मारने की और ढेरी से धान चुराने की।"


ओड़िया- "जरा ठहरिये, जरा वो खंभे के पास देखिये, कैसा काठा चला हैं।"


वा. प्रे.- "अच्छा वो है फेरहा तेली। अच्छा इसको भी हम अभी देखते हैं।"


पर बाद में सब रफा दफा हो जाता है। ये केवल सामने गरजते हैं। चमरू का कथन- "काठा तो आय महराज, उंच नीच होई जाथे। ये पइत छिमा करो महाराज। नान नान बाल बच्चा हे।"


ओड़िया का दर्द भरा कथन- "ये धान राजबली जी, धान नहीं है, ये किसानो का कलेजा है, जिसे आप लोग गिद्ध और सियार बनके भक्षण कर रहे हो। ये है आपकी प्रेसिडेंसी के काले कारनामे।"


यह भ्रष्टाचार व नाइंसाफी पर प्रहार है!


दरबारी लाल का कथन- "लाव खिरनी तमाखू खिलाव, अऊर बहती गंगा म हात धोव। छोड़ो इन रोज के चार सौ बिसिया नाटक को। अरे ऊ दरोगा सब को चुतिया न बनाई तो हमार नाम से कुकुर पोंस लेय भयी।"


इन संवादो से चरित्र और कथा दोनों का विकास होता है। दुर्जन व सज्जन पात्र तथा धान नापने में गड़बड़ी कर ,भ्रष्टचार का अंबार खड़ा कर, किसानों का खून चूसा जाता है - "गरकट्टा" द्वारा।


7. भाषा शैली - नाटक का प्रारंभ बोलचाल की शुद्ध--


छत्तीसगढ़ी भाषा से होता है --दो दृश्य तक। उसके बाद बोलचाल की हिन्दी मिश्रित छत्तीसगढ़ी में संवाद हैं। अंग्रेजी के दो शब्द भी प्रयुक्त हुए है- जो आवश्यक हैं। डॉ. बघेल की भाषा मुहावरेदार है। कई तरह के हाना यानी मुहावरों का प्रयोग करते हैं, जिससे भाषा व संवादों मे रोचकता आ जाती है।


भोला - "घर के मन अंगुल जाबो कथें, इहां तो लाल पइसा के आंखी आय हे ।"


चतरू- "ओदे उत्ती मुड़ा में एक ढेरी नवा बनगे हे ओमे "पंच मेल्ला" धान हे।"


"पंचमेल्ला"- शब्द, पांच ढेरी के पांच किसम के धानों का मिश्रण।


भोला के इस कथन में गांधी के प्रति अगाध श्रद्धा व उनके जाने की पीड़ा- "गाँधी के मरे ले बहुते करलई होगे जी।" - व्यक्त होती है ।


"हाथी के दांत खाय के आन देखाय के आन।"


"आन मर आंगुर भर करहीं तऊन हाथ भर लाम जाही और वोमन सइघो जीयत गाय खा देहीं, तभो ले कूकूर तक नहं भूकय।"


चतरु- "करिया नाग के छूये तो एक पईत बांची जाहय फेर ये राजवंशी के चुलकियाबे के कहूँ दवा नइये जी"


बात-बात में चुटीले संवाद बोलना डॉ. बघेल की भाषा शैली की विशेषता है। गंज में "हिस्सा बाँटा" की कड़ी- दरोगा प्रेसिडेन्ट को खुलकर कहता है- "हुजूर का आठ आना, सेठजी का चार आना, तीन आना हमारा अऊ एक आना नपैया हरे का हिस्सा रहत है। हुजूर अब बताव सेठजी का पांच आना कस दीन जाइ?"


इसका उत्तर व समाधान, प्रेसिडेन्ट इस तरह कहते हुए करते हैं- "सेठजी आप खामोश रहें म्युनिसिपाल्टी में अभी कई मकान उठने वाले हैं, तुम्हीं को ठेका दिया जायेगा।" इस तरह ऊपर से ही "खाना पीना," "लाभ कमाना" तय होता है राजवंशियों का। "गरकट्टा" नाटक में इसी भ्रष्टाचार का पोल रोचक ढंग से खोला गया है। "गंज पड़ाव" में धान बिकी की समस्या का कोई स्थायी समाधान आज तक नहीं मिला। किसी न किसी रूप में किसान की समस्या आज भी बनी हुई है। आज राष्ट्रव्यापी किसान समस्या भी उसी का बदला हुआ रूप है।


8. दृश्य योजना संपूर्ण नाटक 10 दृश्यों में विभाजित है। कहीं मण्डी का दृश्य, कहीं पु. दरोगा का कार्यालय, कहीं प्रेसिडेन्ट का कक्ष, कहीं राह चलते दृश्य की योजना की गई है।


सही समय में नाटक का प्रकाशन हो रहा है। पाठक रूचि लेकर पढ़ेंगे और ग्रामीण छत्तीसगढ़ी भाषा का आनन्द लेगे। "गरकट्टा" के प्रकाशन के साथ डॉ. खूबचन्द बघेल की लेखनी को एक बार नमन !!


दिनांक


14 जनवरी 2021


(मकर संक्रांति)


डॉ. सत्यभामा आड़िल


रायपुर

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