पोखनलाल जायसवाल: *मोटरा*
बेरा उवे के बेरा होय हे। उत्ती मुड़ा के अगास ललहू बरन दिखत हे। चिरई-चिरगुन मन अपन पाँख ल खजवा के कुँदरा ले उड़ा गे हें। ...बेरा के अँजोर तरिया के पानी म पहुँचे लगिस। अइसे लगत हे मानो सुरुज नरायण ह तरिया के पानी अपन मुँह धोवत हावे।
रोहित ल जग्गा घर आवत आठ दिन होगे। बेरा के सँघरा आथे। एको दिन नागा नइ करे हे। आठो दिन म। दूनो झिन मिलथें, बखरी डहर जाथें, बेरा के चढ़त ले गोठियाथें। का गोठियाथें? भगवान जानैं अउ वो दूनो कोई जानै। रोहित हर साल देवारी ल मानथे अउ दूनो परानी चल देथें ठेकेदार के संग जिये-खाये बर। माटी के घर ...तब ले जस के तस हे। एक ठन ईंटा नि मढ़ाय सके हे, अपन कमई ले। बाप-पुरखा के घर म। छानही ह खपरा ल जोहत रहिगे। अब तो खपरा घलो नइ मिलत हे। कमपापड़ के भरोसा चउमास ल बिताथें। तीन कुरिया हें अउ छह परानी रहिथें। दू नोनी पाछू एक झिन बाबू हे। महतारी जउन वृद्धा पेंशन भरोसा अपन जिनगी ल गुजारत हें। जतका कमाथे ततका ल पी-खा के उड़ा देथे रोहित ह। ओकरे उमर के अउ कतको झिन हें, जउन मन अपन जाँगर भरोसा घर ल सिरजा डरे हें।
मातर के दिन राहय, मंद पी के मातगे राहय रोहित ह। नशा म सबो के भादो उजाड़ कर डरिस। महतारी बेटी काहीं च के हियाव नइ करिस ...। नशा के उतरे ले रतिहाकुन जेवन जेवत महतारी तिर बइठे अउ असो फेर पलायन म जाये के नेत ल धरत हावय। ओकर मन के गोठ ल टमर के महतारी ओला बरजत कहिथे- 'दसो बछर होगे, साल के साल बाहिर चल देथव। आथव त जुच्छा हाथ आथव। का मतलब होथे? तुँहर कमाय-खाय बर परदेस जाय ले। ओकर ले तो इहें रहिके कमातेव-खातेव। लइका मन घलो बरोबर पढ़ लिख लेतिन।' गोठ ल आगू बढ़ावत दाई ह सरलग कहत जावत हे- 'पंच-सरपंच मन ले मिल के घर ल आवास योजना म बने बनवा डारते।.... कागज-पत्तर दे बिना आवास कइसे तोर नाँव म आही? गोहराय ल पड़थे बाबू।' ए दरी दाई के गोठ म सीख अउ ताना दूनो सँघरा रहिस।
रोहित जग्गा घर ले लहुट के घर आइस, त महतारी ओकर बर बिफर गिस। का जरुरत हे? तोला जग्गा घर जाये के। तुमन ल जाना हे त तुमन जावव, कोनो ल काबर बिल्होरथव? जेन कभू गे नइ हे तउन ल काबर लाहो लगावत हव? सुने हँव ते,... तें ह जग्गा ल संगवारी धरत हस। अठुरिया होगे ओकर मेर सरलग जावत तोला।
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कातिक के महीना आय। देवारी तिहार म हरियाय घर-अँगना एक पइत फेर सुन्ना दिखे धरलिस। गाँव बर पहुना बने चिन्ह -चिन्हार मनखे मन अपन-अपन बसेरा कोति फेर ओसरी-पारी लहुटे धरलिन। प्रवासी चिरई जउन लहुटगे हें। मउसम के बदलते लहुट तो जथें, दूर देश ले आय अनगइँहा चिरई-चिरगुन मन। भूले-भटके मन दू-चार दिन म लहुटहीं। तहाँ ले ... गाँव के हाथ आही, उही सुन्ना के सुन्नापन।
कोन बइरी के नजर लगे हावे ते मया-दया के सुग्घर छाँव ल छोड़ सबे कोई बाहिर जाये के झोझा परत हें। ठेकेदार मन ल बइठे-बइठाय रकम मिले के आय। पछीना ओगराना तो इन ल हे। इहें अपने भुइँया म पछीना ओगरातिन का जातिस? हवा लग गे हे। बाहिरी हवा। अइसन हवा,...जेकर उतारा म झाड़-फूँक तो हे नहीं। कोनो इलाज रहितिस ते अपनातिस कोनो।
सरकारी रिकॉर्ड म गाँव के जनसंख्या हजार ले पार मिलही। फेर गाँव म रहिथें, उही ले दे के छे सौ-सात सौ मनखे। बाकी मन बस ...पलायन...। एक समे रहिस, जब गाँव म सब के पेट भर जावय। कोनो हाथ ह खाली नइ राहय। सब बर बुता राहय।
खनती-कुदारी तो भुलागे। ढेलवानी का आय नवा पीढ़ी तो जानबे नइ करय। राहेर, चना, तिंवरा, मसूर बोवाही च नहीं त दार मन के भाव ह बरेंडी मचढ़बे करही। भाव के अखाड़ा म सरकार अउ विपक्ष दूनो तमाशा दिखाबे करहीं।
जादा पढ़-लिख ले हन कहिके पुरखौती बुता ल भावँय नहीं। माटी-गोंटी के बुता करे ले तो ढेरियातेच हें। बने डपट के पढ़ई करतिन त का होतिस? सरकारी योजना के फायदा घलव चतुरा मन ह उठाथें। एके ठउर म नइ रेहे ले योजना मन के फायदा घलव नइ मिल पावय।
सरकार ह लइका मन के शिक्षा बर कतेक उदिम करत हावय। फोकट म किताब, फोकट म कपड़ा अउ मँझनिया बेरा के खाय के बंदोबस्त घलव करे हे। हाई स्कूल के नोनी मन ल तो साइकिल दिए जाथे। ...तब ले पढ़ई के स्तर उही सोला दूनी आठ वाला किस्सा।
दाई-ददा मन चेत नइ करँय, तहाँ लइका ह दू दिन स्कूल जाथे अउ दू दिन नइ जावय। गली म गोल्लर बने घूमत रथें। गुरुजी मन घेरी-बेरी घर आथें। लइका ल सरलग स्कूल पठोय बर कहिथें। फेर... उँकर कान म जूँहा रेंगबे नइ करय। अइसन म भला कइसे सीख पाही लइका ह। कतको मन तो जिहाँ जाहीं, उहें संगे म ले जाथें। उँकर पढ़ई के चिटिक ध्यान नइ देवँय। गाँव म रहि जथे त सिरिफ घर रखवार सियान।
गाँव रखवार सहीं, डेरउठी राखत बइठे रहिथें सियान मन। बमियावत रहिथें बपुरा मन अकेल्ला म। खाये हे तब बने, नइ खाये तब बने। हियाव करइया कोनो तो हैच नइ। हाथ जरोवत दू मुठा चुरो के पेट ल भर लेथें। मन के पीरा मन भीतरी डबकत रहिथे। मनखे के जिनगी घलव चिरई-चिरगुन ले आने नइ जनावय। पाँख आइस नहीं कि अपन उड़ान भरे लगथे। न आरो देना न आरो लेना। माधव के देना न माधव के लेना।
काय करय जाँगर रहितिस त सिरजातिन अपन सरग बरोबर गाँव ल। माटी के बाकी करजा ल उतारतिन। माटी के जस गातिन। पछीना ले भुइँया ल महकातिन। कभू-कभू मन करथे, धरती बर बोझा होगे हे जिनगी ह। साँसा के राहत गाँव छोड़न नि भाय।
गाँव जेन बर, पीपर अउ लीम के जुड़ छाँव बर जाने जाथे। जेकर बर कभू रेडियो म गीत सुने ल मिलै....छोड़के आमा, बर, पीपर के छाँव,
मैं कहूँ नइ तो जाँव...
वृंदावन लागे रे ...मोर गँवई गाँव।
वृंदावन लागे रे मोर गँवई गाँव...
आज उही आमा, बर, पीपर अउ लीम के छाँव सुसकत हावे। बोमफार के रोवत हे। फेर कोनो सुनइया नि हे। ओकर दुख-पीरा के बँटइया नइ हे। सुन्ना अपन पीरा म दँदरत हावे। जेन छाँव म खेले-कूदे हावे उही छाँव बिरान लागत हे।
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वो दिन बड़े फजर ले साने गोबर ल थोपत रोहित के दाई बड़बड़ावत रहिस। कोन जनी आज फेर काकर खटिया-पाटी ल निकालत रहिस ते। रोगहा मन अपन करनी ल मोर बेटा के मुड़ म खपल दिन अउ साव बने हे। गाँव के सियानी करत हन कहिथे..... आज ओकर मया अपन बेटा बर पलपलावत रहिस हे। कछु होवय महतारी के हिरदे म अपन लइका बर अगाध मया रहिबे करथे। ममता के सागर होथे महतारी। जेकर हिरदे के मया के बउली कभू अँटावय नहीं।
ओकर गारी-बखाना ल सुन के जग्गा के सुआरी कमला पूछ परिस, का होगे काकी कोन ल बखानत हस राम-राम के बेरा। कमला के तिखरई ल सुन के ओकर एड़ी के गुस्सा तरवा म चढ़गे। फेर कहि नइ सकिस कि तोरे घर वाला बर पहाड़ा पढ़त हँव अउ गाँव के सियानी करइया के आरती उतारत हँव।
अपने मन ल धीर बँधावत कहिथे- ''घर जाके अपन गोसइया ले पूछबे। का बात आय? तेन ल उहू हर जानत हे। ''
"अई! में का जानँव काकी? अतका ल जानत रहितेंव त तोला काबर पूछतेंव मोर महतारी।" बात ल बनावत कमला ह कहिस।
"अई! सरी गाँव चिहुर परगे हे अउ तें अभी ले अनजान हस, बही गतर के। ले जा घर म अउ जग्गा ले पूछबे।" ए घरी काकी के बाँचे गुस्सा ह कमला ऊपर उतरिस।
हव काकी काहत कमला ह लउहा-लउहा घर कोति रेंगे लगिस। रेंगत-रेंगत ओला रोहित के रोज़ के अवई ह सुरता आय लगिस अउ ओकर मन म कई किसम के विचार आय-जाय लगिस।
यहू सुरता आवत हे कि सरपंच कका घलव पाछू आठ दिन म चार दिन घर आगे हे। जेन कभू घर नइ आवत रहिस। ....इही बीच चहा देवत बेरा सरपंच के मुँह ले सुने गोठ सुरता आगिस। जग्गा! तोर धान बेचे के पारी कब हे?
जब मन के घोड़ा दउड़थे तब कोनो लगाम नइ लगा सकय। इही हाल कमला संग होवत हे। ओकर मन के घोड़ा बेलगाम होके दउड़त हे। खेती के बुता ल चउमास भर जी परान दे के करे हे। कुँवार के भागती बीमारी ह राहित बिटोय लगिस। दवई के करत ले कमला दँदरगे रहिस। ऐंठी ल गिरवी धर के कइसे दवई बिसाय हे। महतारी के पीरा ल उही जानथे। आय देवारी म लइका मन बर फटाखा काबर नइ बिसा सकिस। धान बेंच के नवा कपड़ा बिसाबोन कहिके कइसे भुलवारे हे। गाँव भर म जग्गा ल दू पइसा बर कोनो नइ पतियावय। अइसन म कमला माईलोगन जात होके काकर मेर जातिस। मन मार के कलेचुप रहिस।
कमला के मन के घोड़ा काकी के गोठ ल अमर डरिस। काकी ह गारी-बखाना करत काहत रहिस। मतवार मन ल मंद महुआ बर कोन जनी कोन कोति ले पइसा मिल जथे। मूतत ले पीथे। बइहा बरोबर गिरे पड़े रहिथे। जुआ-चित्ती बर घलो पइसा आले-आले देथे। कखरो घर ल उजाड़ के कति ले सुख पाही? काकरो नोनी-बाबू के मुँह म पैरा-भूँसा गोंज के का पाही?
कमला के मन भारी होवत हे। पाँव अब आगू जाए बर नइ उसलत हे। सरपंच कका के घेरी-बेरी अवई अउ काकी के गारी-बखाना ले ओकर जी घबराय ल धर लिस। कहू करजा उठा के ....।
मन म उठत कतको बात निराधार नइ राहय। जग्गा ह ऐसो देवारी के जुआ म बड़ अकन पइसा हार गे हे। खेत म खड़े धान के अवेजी म सरपंच ह ओला पइसा दे ऊपर देवई करय। जग्गा ह हारे जुआरी सहीं ए दाँव म हारे पइसा ल जीत जहूँ कहिके दाँव ऊपर दाँव लगावत गिस फेर जुआ काकर होय हे, तेमा जग्गा के होतिस।
वाह रे जुआरी अउ वाह रे सरपंच। का? अइसन देवारी ले तुँहर मन नइ अउटय। का सियान ह अइसने सियानी करथे। इही चर्चा गाँव भर होवत हे, फेर सरपंच के डर म कखरो मुँह ले आवाज खुल के नइ आवत हे।
घर पहुँचथे त कमला देखथे कि जग्गा ह मुड़ धरे बइठे हावय। ओकर बाजू म खड़े रोहित काहत हे कि ठेकेदार काल अवइया हे। मोटरा बाँध के रेडी रहिबे।
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पोखन लाल जायसवाल
पलारी (पठारीडीह)
जिला बलौदाबाजार भाटापारा छग.
समीक्षा
11/15, 10:03 PM] राजकुमार 12: *मोटरा*
कहानी पढके आनंद आगे। शुरुवाती ले आखिर तक कहानी मा वो सब नवापन भरे हे आधुनिकता हे। जेन हर बहुते कम देखे पढ़े बर मिलथे।
कहानी मा मुहावरा कहावत हाना अइसे बउरे गेय हे जइसे बिना नाप तउल के अगमजानी तभो साग मा सुवाद सुहावन।
पलायन एकठन पीरा भरे बिमारी आय माटी महतारी के सेवा छोड़ के पर दुवारी पेटपोसवा बने के मनादसा ले मनखे कभू पनप नइ पाये हे। कमाय खाय बर तो जाथे फेर तीज तिहार मा घर वापसी मा आसा के मोटरा मा उही जुच्छा चेंदरा रथे जेन ला धरके निकले रथे।
कइसनौ होवय आज सरकार के डहर ले कतको योजना हे जेकर ले मनखे दू रोटी गाँव घर मा खा सकत हे। बात हे तो मिहनत अऊ लगन के।
फेर मिहनत माटी पलीत जब होथे जब सरपंच असन जुम्मेवार मनखे अपन स्वारथ बर खड़े फसल के दाँव जीते बर मनखेपना ला बेच देथे।
हारै दाँव मा मनखे आखिर मा कोनों ना कोनों दूर देश के ईंटा भट्ठा कम्पनी नइते बड़का शहर मा बिल्डिंग उठाए बर रेती सिमेंट के समाला बनाए बर फेर मोटरा जोरत दिखहीं।
कहानी के सबो पात्र सबके कथन अउ सबो घटना समाज बर बहुते सीख देवत हे।
संवाद कम वाक्यांश उक्ती मा जेकर संबोधन जिंहा करे गेय हे। सही मायने मा कथा चित्रण करे मा कोनों कसर नइ छोड़े हे।
एक ठन गाँव रिहिस बड़का तरिया रिहिस एक ठन राजा रिहिस। लकड़ी बेंचइया मछरी बेंचइया रिहिस ये सब कहानी जुन्ना सँवागा मा अपन जगा मा सब बने हे फेर आज के अउ अब के मनखे मा उँकर सोच बिचार अउ कुविचार कुसंगत मा बदलाव लाये बर हे तौ मोटरा जइसन कहानी के आना बहुते जरूरी हे।
आदरणीय भाई जायसवाल जी ला ये कहानी लिखे बर जौन डहर ले आड़ मिले हे, सहुँराय के लाइक हे।
आइसने नवापन भरे ले कहानी लेख के अगोरा सँग सादर बधाई।
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