Monday, 11 November 2024

वनवास*

 (लघुकथा)


*वनवास*


वनवास

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"तुमन ये घर ले निकल के आजे कहूँ चल देवव नहीं ते हमन कहूँ चल देबो।"लाली- लाली आँखी देखावत रमेसर हा अपन ददा ला कहिस।

"अरे फेर का होगे रे बेटा। बड़े बिहनिया ले चालू होगे हस। तोर झगरा मतई मा जीना हराम होगे हे।वो बपुरी तोर दाई बर तो  पानीच नइ पियच। का होगे तेमा ?"--महासिंग कहिच।

का नइ होगे तेमा ? बहुत कुछ होगे मोर- महतारी कोरोना मा सरग सिधारिच तहाँ ले साले भर मा बना के ले आये।वो तोर बाई हो सकथे ,मोर दाई कभू नइ हो सकय। अउ चीज-बस के बँटवारा करइया आही कहिके लाये हस का?

"अरे कुछ तो लिहाज करके बोल--बइहाये कस कुछु भी बोलत हस। मैं तो तुँहर लइका मन के साज-सम्हाल करही अउ मोर लरे-परे मा सेवा जतन करही सोचके तोर महतारी लाये हँव।का तुमन मोर सेवा जतन करतेव ?रहिच बात बँटवारा लेवइया आये के तैं निसफिक्कर राह ओइसना नइ होवय मैं जुबान देवत हँव। चाहबे ता सरी खेत खार ला अपने नाम लिखवा ले।

"तुमन नइ जाहू ता आजे हमन घर ले निकल जबो। मैं हटर-हटर कमाववँ अउ वो रानी बरोबर बइठे बइठे खावय।"--अतका बेर ले मुँह फुलोये परछी मा खड़े बहू हा महासिंग कोती देखत कहिस।

   महासिंग समझगे के रमेसर के मन मा जहर कोन घोरत हे।अरे ये बहू हा तो तइहा युग के  कैकेई ले जादा करू उछरत हे।अब इहाँ निर्वाह नइ हो सकय जान के बोलिस--

"ठीक हे तुहीं मन इहाँ सुखी राहव --हमी मन दूनो परानी वनवास निकल जथन।"

एक घंटा पाछू महासिंग हा साइकिल मा दूनों झन के कपड़ा के झोला ला टाँगे घर ले निकलत राहय।वोतके बेर वोकर छोटकन नाती हा आके रोवत कहिस--"दादा साईकिल मा चढ़ाना अउ मोला घुमा के लाना।चल खउवा लेये बर जाबो।"

सुनके महासिंग के आँसू बोहागे।वोला मया करके कहिस-- "बेटा जा तैं घर मा खेलबे। वनवास दादा-दादी ला होये हे।नाती ला थोरे होये हे।"

साईकिल आगू बढ़गे फेर मंजिल के पता नइये।


चोवा राम वर्मा 'बादल '

हथबंद,छत्तीसगढ़

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