Sunday 19 February 2023

धर्मेंद्र निर्मल: कहानी -लोटा भर पानी

 धर्मेंद्र निर्मल: कहानी -लोटा भर पानी

अकती हँ अँ़़़़गरी म पाँचे दिन बाँचे हे। मनोज के बिहाव हँ अभी ले तय नइ होय हे। देवसिंग हँ फागुन के नंगारा थिराय के बिहान भर ले पानी पी पी के बहू खोजत हे। फेर बात हँ अभीन ले नइ बने हे। कईयो गाँव घूम डरिस। कतकोन छोकरी देख डरिस। फेर उही बात, भरम भारी पेटारा खाली। 


बहू बर जतका के चढ़ावा लेगतिस तेकर चवन्नी हिस्सा तो मोटरे गाड़ी म फूँकागे होही। देवसिंग अपन गाँव के मोटहा किसान हरे। पैंतीस चालिस एकड़ के जोतनदार हे। तीर तखार म अइसे कोनो गाँव नइ होही जिहाँ ओकर मेंछा नइ गड़े होही। कोस कोस ले पूछ परख होथे। गाँव म कोनो बात होवय ओकर सुमत-सुलाह बिना चिटको पाँव नइ उसाले सकय। नर -नियाव म ओकरे बानी हँ निरने के रूप लेथे अउ नियम बनके गाँव म बगर जथे। 


कोनो दिन अइसे नइ होही जे दिन चहा के डेगची हँ चूल्हा ले उतर के चोंगी पीयत ले थिराय पावत होही। जेन गाँव म लड़की हे सुनतिस देवसिंग तुरत- फुरत गाड़ी धरके पहुँच जाय। संझा लहुट के गोठिया डरय-

‘लडकी तो सनान हे, फेर वा भई ! आजकाल के लडकी मन ल माने बर परही। ....मैं अपन कान म सुने हवँ जी ! हमरे आगू म अपन दाई तीर कहि देवय-‘मैं अउ पढ लेतेवँ दाई, मोर बिहाव ल अभीन झन करव।’

गाँव के मन चहा ल सुड़कत हूँकारू भरय -‘हव्व गा !’ 


कोनो दिन कहूँ ले लहुटके गोठियातिस-‘लडकी के बाप हँ हमर संग गोठियाते रिहिस हे। ओकर दाईच हँ दुवार के आड़ ले कहिदिस-‘हमन अपन बेटी ल नौकरी वाले संग बिहाबो।’ 

देवसिंग करय त का करय। ककरो बेटी परिया म तो नइ बइठे हे, जेन ल जावय अउ ‘टुप ले’ झोला-झंकर कस उठाके ले लानय। बेटा बने पढ़ेच- लिखे हे, घर म दूकान चलावत हावय, त काय काम के। लडकी वाले मन ल सरकारी दमांद चाही, जऊन सरकार के संगे-संग उन्कर बेटी के तको नौकरी बजावय।


कभू कभू कऊव्वा के कहे लगय- ‘आजकाल लइका ल सरकारी आफिस के बाहरी धरा लेवय फेर डिगरी के बोजहा ल झन बोहावय।’ लड़की वाले खेती बारी,  घर -दुवार, पढ़ई- लिखई ल नइ पूछके, लड़का का करथे तेला पूछथे। ये सब बात ल देख -सुनके देवसिंग के मति छरिया जथे। 


गाँव वाले मन पहिली -पहिली तो देवसिंग के गोठ- बात ल सुनय त चकरित खा जय। अब वइसन बात नइ रहिगे। चहा- पानी, चोंगी -माखुर के पीयत ले ओकर बात म हूँकारू भर भरथे। एक कान ले सुनके दूसर कानले बदरा कस उड़ा देथे। 


पीठ पीछू उही मन गोठियाथे-‘ये काला बताही गा, सगा छाँटत हे।’ 

कोनो कहय -‘अतेक बड़ संसार म टूरी के दूकाल परे हे ? चलय न हमर संग, हम अभीन देखा देथन, कइसन टूरी चाही ?’ 

माईलोगन मन मुँहजोरे गोठियावय-‘अई ! इही बहू खोजइया ये या, दाईज देखत हे दाईज। दुनियाभर के गोठ ल फलर-फलर ओसावत भर हवय, हम नइ जानबो एकर चाल ल।’


साँप के चाबे मुँह जुच्छा के जुच्छा ! जे ठन मुँह तेठन गोठ, भागे मछरी जाँघ अस रोंठ। भाँड़ी के मुँह म परइ ल तोपबे, आदमी के मुँह ल कामा ढाँकबे। 

देवसिंग एक ठो गाँव गए रहय। सुने हावय कि घर -दुवार, खेत -खार बने हे। छोकरी सुजानिक लगिस। तभो बात उही मेर अटकगे। लड़की वाले मन ये बछर बिहाव नइ करन कहिदिन।

 

देवसिंग ल चट मँगनी पट बिहाव करना हे। सियान दाई के पाँव हँ कबर म लटके हे अउ साध हँ मड़वा तरी अटके हे। संझा-बिहिनिया रेकत रहिथे-‘देवसिंग ! दू बीजा चाऊँर टीक लेतेवँ बेटा। कोन जनी कब बुलऊवा आ जही ते, बहू हाथ के पानी पीए के साध हँ साधे झन रहि जाय।’


 लड़की अतेक सुघ्घर रिहिस हे के देवसिंग के मन हँ चार महिना रूके रजुवागे रिहिस हे। फेर खाए के बेरा होगे राहय तभो ले सगा घर चहा -पानी बर तको नइ पूछिस, खवई -पीयई तो दूरिहा के बात ये। 


देवसिंग ल इही बात खटकगे अउ बनेच खटकगे। हाले के देवसिंग जादा पढ़े लिखे नइहे फेर चार झन रोज उठत -बइठत हे, धरमी- सुजानिक, छोटे- बड़े सबो संग बरोबर मेल जोल होवत हे। संगत के जोर, जादा नहीं ते थोर-थोर। 


ओकर लइका मनोज घला कम नइ हे। जइसन -जइसन दाई- ददा तइसन तइसन लइका, जइसन जइसन घर -दुवार तइसन- तइसन फइरका। पढ़े लिखे के रूवाब ल अपन तीर म थोरको नइ ओधन दिस। तभे तो आज तक अपन ददा संग लड़की देखे बर नइ गिस। 

जब पहिली पइत बिहाव के गोठ चलिस, त आनन्द बबा हँ बलाके कहिस-‘ ले न संगवारी ! लाड़ू-उड़ू कब खवावत हस जी।’ 

‘ओमा का बात हे बबा ! पाग-वाग ल धर डर ताहेन लाड़ूच-लाड़ू ।’


जब लड़की देखे बर जाए के पारी आइस त कहिदिस -‘माँ- बाप हँ मोर बर सिरिफ बाई नइ खोजय, अपन बर बहू पहिली देखही। मैं अनुभवहीन लइका बाहिर के सुघरई भर ल देखहूँ। जाँचहू -परखहू त सियाने मन। तुमन ल जेन जँच जाय, मैं ओकरे संग भाँवर किंजर लेहूँ।’

बबा हाँसे लगिस- ‘ स्साले बूजा हँ अच्छा फाँदा म फाँद दिस भई।’ 


पसंद -नापसंद के बात आइस त मनोज सोज्झे कहिस-‘माँ-बाबू बइरी तो नोहय, जेन निचट अंधरी -खोरी ल मोर संग धरा देही।’ देवसिंग अपन लइका के हुसियारी ल भाँपगे अउ मनेमन गदगद घलो होइस। 

आनंद बबा कहिथे- ‘ भागमानी हवस देवसिंग ! आजकाल अइसन लइका मुड़ म राख डारके खोजे नइ मिलय।’

पूत के पाँव पलने म दीख जथे। अइसन पूत ल पाके देवसिंग धन हे येला सबो गोठियाथे। 


देवसिंग अब हारगे। भइगे एसो के साल बिहाव नइ करना हे। इही सोच के वोहँ अपन घर लहुटे लगिस।

ओतके बेरा घरजोरूक सगा राहय ते हँ मुड़ ल खजुवावत गुनमुनाथे-

‘एक झिन अउ सगा हे। लड़की जादा पढ़े लिखे नइहे। गरीबहा हे फेर...... लड़की बने आए -जाए के लइक हे।’ 


देवसिंग के मन थोरको नइ रिहिस हे। मन तो बतइयो के नइ रिहिस हे। बता के पादा भर चुकाना रिहिस हे। आधा बतइया के बात राखे बर अउ आधा इही सोचके कि दिन भर बर निकले हावन, घर जाके करबोच्च का ? चल काहत देवसिंग गाडी ले उतर के ओकर पीछू -पीछू रेंगे लगिस। घरजोरूक संसो म परगे। 


‘कहाँ- कहाँ बता परेवँ। कहाँ राजा भोज कहाँ गंगू तेली। बिजती भर होही।’

अंगसी-संगसी होवत सगा घर पहुँचिन। देवसिंग देखथे, गिनके दूए ठिन कुरिया, छोटकन परछी अउ खदर के छानी। 


घरजोरूक रेंगान म मुड़ ल गड़ियाए ‘ठुक ले’ खड़ा होगे -‘ हवस गा रामाधीन ?’ 

लड़की घर म अकेल्ला राहय। संग आए लोगन मन उकूल - बुकूल होगे।

‘ए कहाँ लान के धँसा दिस गा।’

देवसिंग बिना हूँके-भूँके कलेचुप सब ल आकब देखत रहय। 

 

नोनी हँ लोटा म पानी धरके निकलिस। लोटा ल आगू म रखके जम्मो झन के ‘टुपटुप’ पाँव परिस। नोनी ल पाँव परत देख चिक्कन-चाँदर भीथिया म लटकत ओकर बनाए झूमर अउ भीथि-सज्जा मन मुचमुचाए लगिन। बइठारे बर घर म कुर्सी-मुर्सी तो नइ राहय। एक ठन टेड़गा-कुबरा मुँहा खटिया भीथिया म पीठ टेकाए टुकुर-टुकुर देखत राहय। उही ल बिछाके ओमा चद्दर बिछावत कहिस-

‘बइठौ।’ 


पाँव हँ अतका दूर उसल के आइगे हे त मुँह ल तो उसालेच बर परही। आनन्द बबा पूछिस- ‘तोर का नाँव हे नोनी ?’ 

‘लक्ष्मी।’ 

एक झन सगा मने मन मुस्कुराइस- ‘अहा ह ! खदर के छानी म लक्ष्मी के बसेरा। तोरो लीला अपरम्पार हे लीलाधर।

‘कतका पढे़ हस ?’ देवसिंग तिखारिस।

‘दसवी पढ़के छोड़ दे हववँ।’ अउ कोनो सवाल के अगोरा म चिटिक रूकके नोनी लहुटे लगिस -‘दाई -बाबू मन येदे मेरन खन्ती गए हवय। मैं आरो देथवँ ।’

सगा मन संघरे कहिन- ‘नहीं नहीं राहन दे।’ देवसिंग चुप रिहिस। 

‘दूरिहा नइ हे, बइठव न बुलुवा देथवँ।’


ठाढ़े मँझनिया। थोरको बाहिर निकले म रगरग-रगरग करत गुसियाए घाम हँ कनपटी ल ‘चाँय ले’ देवय। सबो झिन भूख के मारे कलबलागे राहय। एकर पहिली घर म देवसिंग गुस्से -गुस्सा म पानी घलो नइ पीए रिहिस हे। लक्ष्मी के दे पानी ल एके साँस म गटागट पीके देवसिंग जुड़ागे। छाती जुड़ोवत पीछू कोति हाथ ल टेकिया के खटिया म बइठ गे। सगा मन फुसुर -फासर करे लगिन - 

‘नोनी तो बने सुग्घर हे।’

‘हहो, आए-जाए के लइक हे !’

‘सबो बने हे फेर का काम के ? तुरते निचोए तुरते पहिरे ....।’ 


अतका म लीमऊ के सरबत बनाके लान डरिस लक्ष्मी हँ। सबो झन के जी तर होगे। कुंद -कुंद के गोठियाए लगिन। सरबत पीयाए नइ पाए रिहिस। खन्तिहार मन घलो पहुँचगे। दाऊ के शोर तो चारो मुड़ा उड़त रहय। नोनी के ददा रामाधीन देखते साथ पहिचान डरिस। सकुचागे बपुरा हँ। छोटे मुँह बड़े बात, बिचारा कते मुँह म पूछय ? जोहार-भेंट करके ‘कुकरूस ले’ एक कोन्टा म बइठ गे। 

देवसिंग सोचत राहय-‘पूछवँ त कोन ढंग ले पूछवँ ?’


आखिर म घरजोरूक पूछिस - ‘बिहाव करबे नहीं सगा ?’

रामाधीन  हाथ ल जोर के काँपत खड़ा होगे - ‘बाढ़े बेटी ल घर म बइठारे के सऊँक कोन ल होथे दाऊ ! ...फेर मोर तो सबो डाहर ले उघरा हे, तुँहर आगू म हवँ।’


अतके काहत वो घर म चुप्पी हँ हाथ- गोड़ ल लमाके पसर गे। घर डाहर ले खाए के बुलऊवा हो गे। फेर का मजाल के ठहिरे शांति हँ टस ले मस हो जाय। कोनों तो खुर-खार करतिस। सबो के मुँह बँधाए के बँधाए रहिगे। 


नोनी के दाई हँ कपाट के आड़ म छपटे, साँस ल थाम्हे सुनत राहय। धड़कन ह लुहुर-तुकुर करत अइसे धकधक-धकधक करत हे जानो मानो छाती ल फोर के बाहिर आ जही। ओकर बस चलतिस त वोहँ उहू ल थाम लेतिस। 


ओकर पीछू म लछमी मुड़ी ल गड़ियाए खड़े हे - हाँ या न, दू ठन डोर म बँधाए असमंजस के झूलना झूलत। दूनों के कान जुवाब के अगोरा म बिलई कस कान टेंड़ाए हे। घरजोरूक अउ देविंसंग के घरोधिहा सगा मन तो बनेच भूखा गे राहय। सबो झन एलम -ठेलम करत देविंसग के मुँह ल ताके लगिन। 


आखिर म देवसिंग कहिथे-

‘ए उघरे अउ मुँदाय ल तैं झन सोच। लक्ष्मी हँ मोर मन आगे हे येला मैं जानथौं।’ 

भरमाभूत धरे कस, सुनके सबो के सबो अकबका गे। कोनो ल अपन कान म भरोसा नइ होवत राहय। 

देवसिंग आगू कहिस-‘तोला मोर समधी बनना हे के नहीं, तेन ल तैं बता ? बेटी तोर ये, फेर बहू तो मोर होही न। मोर बहू ल मैं अपन बरोबर कइसे बनाके ले जाहूँ येहँ मोर चिन्ता हरे।’


लक्ष्मी के दाई अपन मुँह ल सीलके नइ राखे सकिस। पीछू मुड़ के लक्ष्मी ल ‘हबरस ले’ कहि भरिस- ‘हाय ! बने घर पा लेस बेटी ! भागमानी हवस। तोला जनम देके आज मोर कोख धन्न होगे।’ लक्ष्मी अपन महतारी के मुँह ल एक पइत देखके जस के तस होगे- मुक्का अउ मुड़ी ल गड़ियाए। 


रामाधीन के मुँह ले बक्का नइ फूटत हे। देवसिंग रामाधीन के मन ल टटोल डरिस। आसरा के डोर लमाए मुस्कावत पूछिस- 

‘कइसे ! का विचार हे सगा ?’

रामाधीन सोच म परगे-‘नान्हे मुँह ले बड़े बात कइसे करवँ।’ 

ओतका ल सुन-परख के महतारी के जी हँ अंगार होके भरभरागे- 

‘इही हावय नटवा। न हूँकत हे, न भूँकत हे। घर बर कइसे टाँय-टाँय करथे।’ 


ओकर मन तुकतुकाए लगिस। जी तो होवत रहय के जोर से चिचियाके कहि देववँ-

‘बने हे सगा ! आज ले हमर करेजा के कुटका ल तुँहला सुपरित कर देन। हमला खुशी हे।’ 

रामाधीन धीर लगाती मुँह ल उलाइस - ‘ठीक हे दाऊ, फेर.........।’.देवसिंग हाथ के इशारा करत रामाधीन के मुँह ल बाँध दिस अउ हूत कराइस-  ‘लक्ष्मी ! 

कबके गिरे -परे, अपटे - थम्हे बेरा ल थाम्हे-थेगे के आसरा मिल गे। हवा के पाँखी जामगे, सरसराय लगिस। उछाह के लहरा हरेक मन म हलोर मारत दँऊड़े लगिस।


महतारी हँ खुशी -खुशी..... फेर एक बिरहा के भय म झुरझुरावत कहि डरिस -‘जा बेटी ।’

खुशी हँ दू कदम आगू रेंगत आँखी के पार ले कूदके छलक गे। लक्ष्मी अपन ले बिरान होए बर जावत हे।

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 पोखनलाल जायसवाल:

 'जनम-विवाह मरण गति सोई, जहाँ जस लिखा तहाँ तस होई।' 

      मानस म तुलसीदास जी के लिखे ए चौपाई लोकजीवन के जिनगी म  जादा करके सिरतोन जनाथे। जब मनखे जनम धरथे त कब जनम लिही? जनम होय के पक्का बेरा अउ ठउर कोनो नि बता पावय। ए अलगे बात आय कि अभी के समय म जचकी अस्पताल म होना तय च होगे हे। फेर विज्ञान घड़ी के मुताबिक जनम के समय अभियो नइ बता पावय। यहू हे कि लोगन आज शुभ घड़ी देख के ऑपरेशन ले जनम के बेरा जरूर तय कर लेवत हें।

         बिहाव बर दूनो पक्ष के रजामंदी जरूरी होथे, इही रजामंदी ह बिहाव कब, कहाँ अउ काकर ले होही? के बीच बाधा परथे। कभू बेटा वाला के मन आ जथे, त बेटी वाला मन ल मन नि आय। कभू बेटा च वाला मन मन नइ करयँ। धन-दोगानी, रंग-रूप, पढ़ई-लिखई ए सब रजामंदी ऊपर फरक डारथे।। लोकाचार के दृष्टि ले काहन त देवसिंग के बेटा संग लक्ष्मी के बिहाव तय होवई ह तुलसीदास जी के लिखे चौपाई ल एक पइत फेर सही साबित करथे। अइसन संयोग हम ल अपन तिर तखार म देखे ल घलव मिलथे।

       अपन घर-दुआर अउ रहन-सहन के मुताबिक घर म सबो कोई बहू-बेटी लेन-देन करई पसंद करथें। दाई-ददा चाहथें कि मोर बेटी मोर ले सजोर अउ बने घर जावय, नइ ते बरोबर घर म जावय। फेर हरदम...अइसन नइ हो पावय। 

        कई बखत देखे म आथे कि कई झन बछर दू बछर ले जोरा करके पहुना के अगोरा करत रहि जथे, बखत संग ठगा जथे। अइसन म जे मनखे ते गोठ होय धर लेथे। ए गोठ मन के न मुड़ी के ठिकाना रहे ल पूछी के। जेकर ऊपर बीतथे तउने जानथे। 

      इही सब गोठ-बात के चित्रण करत कहानी आय- 'लोटा भर पानी' । कहानी के संवाद अउ वर्णन मन ले जुरे दृश्य आँखी के आगू सिनेमा सहीं दगदग ले नजर आथे। समाज म बिहाव के पहिली होवइया सबो किसम के गोठ बात ल कहानी म सुग्घर ढंग ले रखे गे हे। 

        बदलत समय के संग पढ़े-लिखे नोनी बर नौकरिहा दमाद के सपना सँजोए दाई-ददा मन ऊपर कहानी म व्यंग्य घलव हे।

         'लोटा भर पानी' हमर संस्कृति अउ परम्परा के चिन्हारी आय। कोनो भी पहुना के आय ले लोटा म पानी दे के स्वागत करे के चलन हे। ए चलन के पाछू के वैज्ञानिकता घलो समझे के लाइक हे।  

         ए कहानी के शीर्षक 'लोटा भर पानी' यहू दृष्टि म सार्थक हे कि लक्ष्मी के दाई-ददा भलुक देवसिंह के बरोबरी नइ कर पाहीं, फेर ऊँकर स्वागत म हरदम 'लोटा भर पानी' दे म समरथ हे।

       कहानी के भाषा शैली प्रभावित करथे। भाषा के प्रवाह पाठक ल बाँधे म समर्थ हे। कहावत मुहावरा के सटीक प्रयोग होय हे। संवाद पात्र अउ जघा के मुताबिक हे। कथानक ल आगू बढ़ाय म मददगार घलो हे। सुग्घर कहानी बर धर्मेंद्र निर्मल जी ल बधाई💐🌹


पोखन लाल जायसवाल

पलारी पठारीडीह

जिला बलौदाबाजार छग

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