. *गुल्लक* (छत्तीसगढ़ी लघुकथा)
- डाॅ विनोद कुमार वर्मा
दस बरस के अंशु के छुट्टी चलत रहिस। आज शुक्रवार के दिन हे। महीने के आखिरी तारीख घलो। पापा आफिस जाय बर निकलत रहिस कि अम्मा कहिस- ' वापसी मा थोरकुन साग ले अइहा। '
मम्मी की बात ला पापा अनसुना कर दीस। ओही समे अंशु दउड़के पापा के लक्ठा मा आइस अउ अपन एक हाथ ला फैलाके बोलिस- ' पापा पैसा? आज मैं पचास रूपया लेहूँ। मोला अपन दू सहेली ला घलो गुपचुप खिलाना हे!'
' बेटा, बीस रूपिया ले लेबे। '
' नहीं, पापा, पचास रूपिया लेहूँ! सहेली मन के आघू मोर कुछु इज्जत हे कि निहीं? मँय ओमन ला बोल डारे हँव! '
' ठीक हे। '
पापा अपन पीछे पाकिट मा हाथ डारिस। उहाँ पर्स नि रहिस।
' बेटा, पर्स आलमारी मा रह गे हे। ओला ले आ तो जरा। '
अंशु दउड़के गइस अउ पापा के आलमारी ले पर्स निकालके ओला खोलके देखे लगिस। ओमा केवल पचास रूपया रहिस। ..... ओला सुरता आइस कि पापा के बस के आय-जाय के टिकट तीस रूपया लगही। बाकी बीस रूपया मा एक-आध बार चाय पीही!
' ओह आज तो महीने के आखिरी तारीख घलो हे! पापा मोला पइसा कहाँ ले दिही! ' - अंशु के आँखी भर आइस। आँसू पोंछत अपन मिट्टी के गुल्लक ला तोड़िस अउ ओमा जतका भी नोट रहिस सब ला पापा के पर्स मा भर दिस। एकर बाद वोहा पापा ला पर्स देके तुरते वापस आ गइस अउ फूटे गुल्लक के टुकड़ा मन ला समेटे लगिस।
पापा अपन पर्स ला खोलके देखिस अउ नोट मन ला गिनती करे के बाद अंशु के अम्मा ले बोलिस- ' तँय मोर पर्स मा एक सौ बीस रूपया अउ डारे हस का? '
' नहीं तो! '
पापा तुरते कमरा के भीतर लौटिस त देखिस कि अंशु फूटहा गुल्लक के टुकड़ा मन ला इकट्ठा करत हे। पापा सब कुछ समझ गइस अउ लगभग दउड़त अंशु के लक्ठा मा गइस। अंशु जइसे ही पापा ला अपन तीर मा देखिस वोहा लिपट गिस अउ रोवत-रोवत बोलिस- ' पापा! आप मोला काबर नि बताया कि आपके पैसा खतम हो गे हे! मोर गुल्लक मा पइसा तो रहिस न! '
समाप्त
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