Wednesday, 6 August 2025

भंवरी* (छत्तीसगढ़ी कहानी) - डाॅ विनोद कुमार वर्मा

 .             *भंवरी* (छत्तीसगढ़ी कहानी)


                            - डाॅ विनोद कुमार वर्मा 


           पैंसठ बरस के भंवरी दाई बिहनिया खटिया ले उठबेच नि करिस! वइसे वोहा मुँह-अंधियारी तैयार होके घर ले निकल जावत रहिस। बिहनिया 07 बजे ये खबर आगी कस पूरा गाँव मा फैल गे कि भंवरी दाई नि रहिस! 

       परसों रात दुनों नतनिन के बिहाव के बाद विदा करे के बेरा वोहा खूब रोइस। सबो नता-रिश्तेदार मन आश्चर्य ले उहीच ला देखत रहिन। अतका तो वोहा कभू नि रोवय! लोगन मन ओला हाँसत मुँहरन ही देखे हें। ओ  दिन अइसन लगत रहिस मानों ओकर कोनों जुन्ना जखम् हरा हो गे हे! एकर बाद कालि दिन-भर वोहा गाँव के लोगन ले हाँस-हाँस के बात करत बिहाव के बाँहचे मिठई ला बाँटत एकदम निश्चिंत दिखत रहिस, मानो अपन जीवन के सबो कारज ला पूरा कर डारे हो, जइसे कि अब अउ कुछु कारज करे बर नि बाँहचे हो! 

         वइसे तो वोहा सदा-दिन बड़े-बुजुर्ग, जवान छोकरा-छोकरी, लइका-पिचका सबो ले हाँस-हाँस के ही बात करे। एहा कोनो नावा बात नि हे, एकरे खातिर लोगन मन ओला अपन नोटिस मा नइ लिन। ओ गाँव मा अइसन कोनो नि होही जेन ये दावा कर सके कि ओकर ले भँवरी दाई नि बतियावय, सिवा एक के जेन उमर मा ओकर ले बारह बरस बड़े रहिस। वोहा उन-ला ससुर समान मान देवत जीयत भर पर्दा करत रहिस। एक-दू बार ओमन ले बात घलो करिस फेर पल्लू के परदा डार के, तब ओकर आवाज काँपत रहे। वोही गाँव के सबले बुजुर्ग इंसान रहिस। 

         फेर आज बिहनिया के बेरा ये का अलहन हो गे? कोनो कुछु समझ ही नि पाइन! ..... काकरो आँखी नम रहिस त कोनो उदास। सबसे जादा वो लड़का रामू रोवत रहिस जेन आये दिन ओकर पल्लू पकड़के खींचे। ओला भंवरी दाई के मुँहु ले गारी सुनना बहुत अच्छा लगे! जब-तब कहूँ दिख जातिस त सब काम ला छोड़-छाड़ के दउड़त पहुँच जावय अउ पल्लू पकड़के खींचत बोले- ' डोकरी दाई! भंवरी दाई ..... गारी दे न ओ! '

       तब पल्लू ला झटक के भँवरी दाई चिल्लावय- ' जा भाग बेर्रा (गाली)! बड़ आय हस पल्लू पकड़ने वाला!! ' - अउ खेलखेला के हाँस परे। 

       12 बरस के रामू ला गारी अउ हाँसी सुनके अइसन लागे मानों फूल बरसत हो अउ एकर बाद हाँसत-कूदत सरपट भाग जावय। भंवरी दाई कोनो के उपर गुस्सा होवय त ओला देखके लोगन मन हाँसे लगें। दरअसल ओला गुस्सा करे आबेच नि करे! ..... वोहा अइसनेच् रहिस। सबले निराली, सबले अलग। नानकुन गाँव के वोहा चहेती दाई रहिस। न काकरो ले कुछु लेना, न देना। तभोले घलो गाँव के चहेती दाई। बिना नांगा करे वोहा जब-तब काकरोच् घर मा हाजिरी देहे पहुँच जावय। सुख-दुःख म अउ अइसनेच्च घलो -बिना कुछ काम के; केवल हालचाल जाने बर।

        आधुनिक भारत के नया तस्वीर हा भंवरी दाई ला थोरकुन घलो प्रभावित नि करे सकिस। वोहा जइसने पहले रहिस वइसनेच अभी घलो हवय। एहा बीसवीं शताब्दी के आखिरी दशक के बात हे तब गाँव के घर मन-मा बिजली-पंखा लग गे रहिस। स्कूल म कुर्सी मा बइठके लइका मन पढ़ाई करें। रेडियो के जगा टीवी ले लिए रहिस। चिकित्सा सुविधा बेहतर हो गे रहिस। गाँव-गाँव मा एसटीडी-पीसीओ खुलत रहिस। शहरी सभ्यता के आहट गाँव मन मा सुनाई देवत रहिस। भँवरी दाई के मउत के खबर सुनके वोही बुजुर्ग सज्जन आँखी मा आँसू धरे कहिस- ' हे भगवान आखिर तँय ओला मुक्ति दे ही दिये! .....  ओकर हाँसी के पाछू म न जाने कतका अभाव, कतका संघर्ष, कतका दुःख छिपे रहिस। फेर वोहा एला कोनो ला बतावय कहाँ ?..... बरसों ले लोगन मन  ओला हाँसत-मुस्कुरावत ही देखे हें! ' 

        ओकर नाम भंवरी कब परिस- कोनो ला सुरता नि हे। फेर ये नाम भंवरा ले ही परे होही। नान-नान लइका मन के खेले के भँवरा, जेहा चकरी कस गोल-गोल घुमथे। जवान छोकरा-छोकरी मन जब भंवरा मा रस्सी फँसाके हवा मा उछालके उपरेच-उपर हँथेली में ले लेथें अउ वोहा एक हँथेली मा एक स्थान म स्थिर होके जोर ले घुमे लगथे त ओला देखे के मजा कुछ और ही होथे।

       ओ गाँव के चार ठिन जिनिस दस कोस दूरिहा तक मशहूर रहिस। एक माध्यमिक स्कूल, दूसरा रेडियो, तीसरा हँथेली मा भँवरा घुमाय के प्रतियोगिता अउ चौथा भँवरी दाई! ..... सिरतोंन म ओकर नाम भंवरी नि रहिस। वोहा बुदेला गाँव की बेटी रहिस और बिहाव के बाद जब ये गाँव के बहू बनिस तब लोगन मन जानिन कि ओकर नाम बूंद कुँअर हे। वोहा बड़ सुग्घर अउ संस्कारवान रहिस फेर हमेशा पर्दा मा रहे। गाँव के लोगन मन ओकर एक झलक पाय बर  लालायित रहें! फेर उपर वाला ला कुछु अउ कहानी गढ़ना रहिस। गाँव मा महामारी फैलिस जेमा ओकर पति घलो काल-कवलित हो गे -ओकर गोदी मा एक नानकुन नोनी ला छोड़के! कुल मिलाके ओकर जीये के सहारा अब ओही बेटी रहिस जेन ओ समय केवल दू बछर के रहिस।

       भंवरी के बिहाव 20 बरस के उमर मा होइस त ओकर समय ठीक नि चलत रहिस -अइसन लोगन मन के कहना हे। साल-दर-साल गुजरत गइस फेर कोई लइका नि होइस। न जाने कतका मंदिर, कतका दरगाह मा मत्था टेकिन, मन्नत माँगिन फेर सब बेकार! वैद्य-हाकिम ले इलाज घलो करवाइन। तब कहीं जाके आठ बरस बाद एक नामी वैद्यराज के कृपा ले 28 बरस की उमर मा एक ठिन फूल-जइसन बेटी मिलिस। नाम रखिन- सोन कुँवर।

        एहा ओ समय के बात हे जब गाँव मा अखबार नि पहुँच पावत रहिस। केवल एक घर मा रेडियो रहिस अउ ओला सुने बर अक्सर लोगन मन के उहाँ आना-जाना लगे रहे। लोगन मन अनेक बार राष्ट्र के नाम पं नेहरू का संदेश घलो वोही रेडियो ले सुनेंव। कई साल बाद सन् 1962 में भारत-चीन युद्ध के समय पं नेहरू के आह्वान मा गाँव-गाँव के महिला मन अपने गहना-गूठा, मंगलसूत्र तक दान कर दिये रहिन। दान करइया मन मा भँवरी घलो रहिस। गाँव के लोगन मन रेडियो मा विविध भारती के गाने घलो सुँनय। 

        सन् 1964 में जब पं नेहरू के निधन होइस त रेडियो मा समाचार सुने बर ओही घर के आघू मेला-जइसन भीड़ हो गे। वो समय वोही रेडियो संचार के एकमात्र सुलभ साधन रहिस।तीर-तखार के गाँवों के लोगन इकठ्ठा होय लगिन। तब रेडियो ला फुल-वाल्यूम मा चलाये गिस ताकि सब्बो लोगन तक आवाज पहुँच सके। भीड़ भारी रहिस फेर पिन-ड्राप साइलेन्स। चारों डहर सन्नाटा! सब्बो के आँखी नम! ओ दिन कई घर मा हाँड़ी नि चढ़िस अउ लोगन मन भूखा पेट ही सो गइन। यह एक अइसन सदमा रहिस जेला लोगन मन  बरसों तक नइ भूले सकिन। लोगन मन पं नेहरू ले बहुत प्यार करें मानों ओमन कोई घर के ही सदस्य हों। जो व्यक्ति ऐशोआराम मा अपन पूरा जिनगी जी सकत रहिस, ओहर देश के आजादी के खातिर 3259 दिन जेल मा बिताइस। महात्मा गाँधी घलो 2338 दिन जेल के सजा काटिन। पं नेहरू के धर्मपत्नी के निधन केवल 37 बरस के उमर म 1936 मा स्विट्जरलैंड के एक सेनेटोरियम मा होइस। अंग्रेजी हुकूमत ला जब ये पता चलिस कि पं नेहरू के धर्मपत्नी के बचना नामुमकिन हे त समय ले पहिली पं नेहरू ला जेल ले रिहा कर दीन, ताकि कोई बवाल खड़ा मत हो। एकर पहिली कमला नेहरू ला इलाज बर सन् 1935 मा सुभाषचंद्र बोस जर्मनी लेके गे रहिस। कमला नेहरू के मृत्यु के समय पं नेहरू ओकर पास ही रहिस। अइसने कतकोन घटनाक्रम मन ओ समय भारतीय जनमानस ला झकझोर के रख दिये रहिस। एकरे सेती पं नेहरू ' चाचा ' के नाम ले अउ महात्मा गाँधी ' बापू ' के नाम ले विख्यात होइन। अइसनेच अउ कतकोन जननायक रहिन जेमन भारतीय जनमानस के दिल मा बसे रहिन। तब तक भंवरी दाई के बेटी सोन कुँवर 14 बरस के हो गे रहिस। वोहा आश्चर्य ले ये सब घटनाक्रम ला देखत रहिस अउ समझे के उदिम करत रहिस। गोरी-चिट्टी, छरहरा बदन, आँखी हिरनी जइसन, कद छोटे, कक्षा सातवीं पास - अइसने रहिस सोन कुँअर। गाँव मा ओ समय माध्यमिक स्कूल खुल गे रहिस फेर गाँव मा बिजली नि रहिस। कक्षा पहली ले पाँचवी तक सबेरे अउ छठवीं ले आठवीं तक के कक्षा मंझनिया लगे। शनिवार के पूरा कक्षा सबेरे लगे अउ 11 बजे दिन छुट्टी हो जावत रहिस। तब पहली ले पाँचवीं तक के लइका मन पीपर पेड़ के छाँव तरी भुइयाँ मा बइठके पढ़ाई करँय। ओ समे लइका मन के बइठे बर कुर्सी नि रहे अउ ओमन टाटपट्टी मा बइठके पढ़ाई करँय। स्कूल के साफ-सफाई बड़े कक्षा के लइका मन के जिम्मा रहिस। आजादी के लड़ाई सोन कुँअर देखे नि रहिस फेर ओकर अम्मा भंवरी न केवल एला देखे रहिस बल्कि महसूस घलो करे रहिस। ओ दिन रोवत-रोवत अम्मा के आँखी सूज गे रहिस। 

          पति के मउत के पाछू बूंद कुँअर अपन दू साल के नानकुन नोनी ला लेके खेत-खार जाय लगिस। ओकर करा अउ कोई विकल्प नि रहिस। कई झन के बुरी नजर घलो ओकर उपर पड़िस फेर धीरे-धीरे वोहा एकर अभ्यस्त हो गे। ओकर चरित्र अउ चेहरा के तेज ला देखके लोगन मन ला ओकर ले बात करे बर अलग ले हिम्मत जुटाय ल पड़े। समय सबो घाव ला भर देथे फेर चिनहा तो बाकी रहिच जाथे! बेटी धीरे-धीरे बड़े होइस त 20 बरस के उमर मा ओकर बिहाव कर दिस अउ दामाद बाबू ला घरजँवाई रख लिस। थोरकुन दिन मा खेती-खार आदि सबो देखरेख के जवाबदारी दामाद बाबू संभाल लिस।

        एकर बाद बूंद कुँअर  के दिनचर्या ही बदल गइस। वोहा बिहनिया ले संझा तक घूम-घूम के  घर-घर के हालचाल जाने अउ दूसर घर के हालचाल ला घलो बतावय। धीरे-धीरे वोहा गाँव के चलती-फिरती अखबार बन गिस।  यहीं ले लोगन मन ओला ' भंवरी दीदी ' कहे लगिन। जमों घर मा ओकर अगोरा रहे। लोगन मन ओकर बात सुने के बर तकतकाय रहें, खासकर महिला मन ओकर पोठ्ठ अगोरा करें। ...... काकर टूरी काकर टूरा के संग उढ़रिया भाग गइस? काकर घर मा मारपीट होय हे? काकर घर मा का साग बने हे? कोन बिमार हे? काकर इहाँ बिहाव के लगन धरे गे हे? काकर घर मा अनाज के कमी के कारण खाना नि बने हे? काकर खेत मा चोरी होय हे? आदि,आदि! ..... समय जइसे ठहर-से गे रहिस -बिहनिया ले संझा तक वइसनेच दिनचर्या; मगर एहा तो ओकर जीवनशैली रहिस। एही बीच वो दू नोनी लइका के नानी घलो बन गे। भरे-पूरे परिवार रहिस। कमी रहिस त पतिदेव के, जेला प्रारब्ध छिन ले रहिस। पौराणिक गाथा मा पतिब्रता सावित्री यमराज के पीछा करके ओला सत्यवान ला वापस लौटाय बर विवश कर दिये रहिस। फेर एहा तो कलयुग हे अउ कलयुग मा अइसन कर पाना संभव नि रहिस। यदि अइसन संभव होतिस त भंवरी ओहू ला घलो कर लेतिस!

       ओकर जन्मनाम बूँद कुँअर ले सफर शुरू होइस जेन भँवरी दाई मा जाके खतम होइस। ओकर  जनम बुदेला गाँव में होइस अउ अम्मा-बाबूजी मन नाम दीन- ' बूंद कुँअर '। ससुराल आइस त नाम हो गिस - ' बुदेलहीन ' अर्थात बुदेला गाँव के बेटी बुदेलहीन। नाम के सरलीकरण, तब नाम ले ही पता चल जावय कि ओहर कोन गाँव के बेटी हे। बेटी के बिहाव के बाद  ' भँवरी दीदी ' -एक बार फेर नाम के रूपान्तरण, मगर एहा स्व-अर्जित रहिस। अउ सबले आखिर मा ' भँवरी दाई '! ......  सिरतोंन मा समय-काल के निर्मम प्रहार अउ प्रवाह के सेती जीवन के बीच काल मा वोहा एक बड़े भँवर मा फँस गे रहिस अउ अइसन काकरो साथ घलो हो सकता हे, फेर आज वोहिच भँवर ले वोहा पाक साफ निकल गे हे। भँवरी नाम के सार्थकता एही हे कि जीवन मा ओहा गोल-गोल घुमिस अउ साबुत निकल गे! फेर अइसना सब कोई तो नि कर पावँय!

                       समाप्त 

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Story written by-

      *डाॅ विनोद कुमार वर्मा* 

व्याकरणविद्,कहानीकार, समीक्षक 

                 बिलासपुर 

मो-  98263 40331

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