-
*समालोचना ग्रन्थ*
*छत्तीसगढ़ी साहित्य: दशा और दिशा*
*(डॉ. नन्दकिशोर तिवारी )*
*म*
*पद्मश्री डॉ. सुरेंद्र दुबे के नाटक 'पीरा' के अंश*
इसी काल खण्ड में डॉ. सुरेन्द्र दुबे का नाटक 'पीरा' और रामनाथ साहू का नाटक 'जागे-जागे सुतिहा गो' प्रकाशित हुआ ।
डॉ. सुरेन्द्र दुबे का नाटक 'पीरा' छत्तीसगढ़ लोक थियेटर और आधुनिक
नाटकों की समन्वित शैली का आस्वाद देता है। इस नाटक की मूल चेतना
छत्तीसगढ़ का शोषण है। अकाल, पर्यावरण का विनाश, पलायन, अंधविश्वास
इत्यादि समस्याओं को एक साथ यह नाटक उठाता है। रामनवमीं की खुशी दुःख
में बदल जाती है जब अंजोर कहता है।" दिन बादर काकरो रोके नइ रुकय ।
भगवान का जानही हम ऐंठा के डोरी होगे हन। 'पीरा' के लेखक बाजारवाद
का समाज पर पड़ रहे प्रभाव को उद्घाटित करता है। कैसे हमारी इच्छाएँ बाजार
के इशारे पर बनती हैं। उदाहरण के रूप में मनबोधी का यह कथन कि-
मनबोधी -मोला बीस ठन रुपिया दे तो ददा !
पकला-का करबे बीस ठन रूपिया के
मनबोधी- पज्जी बिसाहूं
पकला- सेठ दुकान ले, ले आन डंडहा कपड़ा
मनबोधी - में ह डंडहा पज्जी नइ पहिरॅव। मे ह रेडिमेड पहिरथँव डोरा के ।
इसी तरह देश के बंटवारे का दुःख भी इस नाटक में व्यक्त हुआ है।पकला का बंटवारा मांगने पर उसका पिता कहता है “सौ साल पूरगे मोर' मे ह देस ल बंटत देखेंव, तहाँ प्रदेस ल बंटत देखेंव। ऊंखरे चाल ल सीख के तहूँ बाटा बर ठेंगा उठात हस रे।" इस नाटक में आकर छत्तीसगढ़ी नाटक ने एक अव्यक्त
दर्द को व्यक्त किया है। उसकी तासीर और जमीन भी बदली है।
****
****
****
छत्तीसगढ़ी साहित्य दशा और दिशा / 103
-
No comments:
Post a Comment