Monday, 23 September 2024

गुनान

 गुनान 

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      खिड़की के जरुरत कतका हे काबर हे ? अरे भाई सबो घर मं दरवाजा तो रहिबे करथे जेला खोलथन त बाहिर ले हवा , प्रकाश आबे करथे दूसर बात बाहिर के सोर , संदेश मिली जाथे त खिड़की ...??? 

    मोर कहे के मतलब  साहित्य के घर से हे ...। सबो कलमधारी मन के सृजन के घर होथे जिहां बइठे वो हर लिखथे ...इहां तक तो ठीक हे फेर अपन लिखे ल छोड़ के आने  मन काय लिखत हें , कइसे लिखत हें , काबर लिखत हें तेला जानना भी तो जरुरी हे न ? दूसर बात के हमर साहित्यिक अवदान के बारे मं कोन काय सोचत हे , काय कहत हे जानना भी तो जरुरी हे , जानबो तभे तो अपन लेखन मं साहित्यिक आयोजन मं सुधार लाने के उदिम करबो ...एकरे बर लिखे हंव खिड़की जरुरी हे । कभू कभू उमर मं छोटे मन के कोनो बात , सोच विचार हर जग जग ले आँखी उघार देथे ।

  काल एकझन मोर खिड़की ले झांक के कहिस " सबो झन कहिथें आप जौन लिखथव , जइसन आयोजन करथव सबो हर अपन घर , परिवार बर होथे , आने साहित्यकार मन बर आप काय करे हव ? " सुन के भारी गुस्सा लागिस , मन होइस तुरते खिड़की ल बंद कर देना चाही फेर बड़े मन के सिख़ौना सुरता आइस के कतको करु कस्सा गोठ होवय तुरते जवाब झन देवव चिटिक थिरा के गुनना चाही ...। हूं ...ठीक तो कहत हे मैं जौन लिखे हंव अपन विचार ल ही तो शब्द देहे हंव , जौन थोर बहुत करे सके हंव अपने मन बर तो करे हंव त काबर कोनो ल उजिर आपत्ति हे । चिटिक थिरा के गुनेवं त समझ मं आइस के जेमन ल  मंच , माइक नइ मिलिस ओमन दरवाजा ले आके नालिश फरियाद नइ करे सकिन ते पाय के खिड़की ले झांक के उजिर आपत्ति सुनावत हें । त सुन तो लेहे रहेंव फेर गुनत अभी हंव के कब साहित्यकार मन तुलसी दास जी के कहे ल गुनबो ...." स्वान्तः सुखाय तुलसी रघुनाथ गाथा । " कब हमन कबीर कती देखबो......

" कबिरा खड़ा बजार में , सबकी मांगे खैर 

ना काहू सों दोसती , ना काहू सों बैर ..। " 

       साहित्यिक बिरादरी मं मैं , माइक अउ मंच के रोग बगरत जावत हे ...। गुनत हंव बने होइस मोर घर मं खिड़की हे ,सलामत रहय मोर खिड़की अउ जुग जुग जिययं खिड़की ले झांक के रात बिरात मोर कान मं मोरे कमी बेसी ल बतावत मनसे मन । 

    सरला शर्मा 

      दुर्ग

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