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*दार्शनिक बने बर, दार्शनिक लइक खुराक भी तो चाहिए...*
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*दार्शनिक/लघुकथा*
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वो दुनों के दुनों एकेठन साईकल म बइठ के वो जगहा म पहुचींन ।
"कइसे?"पहला हर कहिस ।
"कइसे!" तब दूसरा कहिस ।
"अरे भईराम !अब कइसे?"
"तोर करा नइये?"
"नही । मंय तो तोर भरोसा म आ गय हंव ।" पहला हर अपन जेब ल लहूटात कहिस ।
"मोर करा खाली चिखना के पुरता भर हे,अउ सच म कहिबे त मंय तोर भरोसा म आंय हंव ।" दूसर कहिस ।
"अब कइसे करबो?" पहला हर तो कंझा गय रहिस ।
"अउ कइसे करबो !सदाकाल जइसन करथन तइसन करबो । ये बनिया के अटक दुकान काबर हे । तोर साईकल ल गहना धरबो । हटकी ब्याज फेर लगही भई , दस रुपया सैकड़ा एक दिन के । बस एईच हर तोला जनाही ..."
"अरे कुछ नई जनाय ! खाय -पिए के नांव म सब हर चलथे ।" पहला कहिस ।
अउ ये दुनों झन के तीर्थस्थल के तीर म अइसन तीर्थयात्री मन के सहूलियत बर जउन प्रतिष्ठान खुल गय रहिस ,उहाँ ले साईकल ल गहना धर के येमन तीर्थ म बुड़की लगाईंन तब घर कोती फिरे के जोम करिन ।
"मुट्ठी बांध के आबे बन्दे..."
"हाथ पसारे जाबे रे ...! " पहिली हर अपन गोठ ल पूरा नई करे पाय रहिस, कि दूसर हर तड़ाक ल कहे रहिस ।
वोमन अब धरती म सायकल के जगहा म पैदल फिरत, दार्शनिक बन गय रहिन ।
*रामनाथ साहू*
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