"जुगनी अउ जग्गू"
पउर साल तीजच के दिन आय। सुरुज ललियाय ल धर ले रहिस। लुक्सी-मंक्सा खाय बर फुरफुन्दी मन गांव के तिरे-तखार म उड़त रहिन। अपन धुन म अतका बिधुन के दउँड़त जाते त मुंह माथा म टकरा जतिन। जुगनी अउ जग्गू घर के आघू खोर म राहेर काड़ी के छपकनी ल धरे इही मन ल छपकत रहिन। फुरफुन्दी छपकई ह बहुत जुन्ना खेल आय। अबोध लइका मन ए खेल ल खेलथें। लइकई मति म कखरो दुख-तकलीफ, जीव-जान के फिकर थोरे रहिथे? फिकर रहिथे त बस अपन खुशी, आनंद अउ खेल के। कोनो मुक जीव ल मारना, मर गय त ओखर मुंड़ ल टोर के अलग कर देना, अधमरा के पुछी म सुत बाँध देना। ये सब कतका गलत हे? एखर ज्ञान तब आथे जब मनखे पढ़ लिख के सज्ञान हो जथे। खेल के भीतर क्रुरता के अइसन चित्र लइका पन म नजर नइ आवय। काम-धंधा म व्यस्त अचेतिल परिवेश घला एला नइ देख पावय, नइते बरजतिस कइसे नहीं?
फुरफुन्दी, जुगनी के दुलारे कस वार ले बाँच गे रहिथे पर अभेड़ा म जग्गू के पर जथे। जग्गू के खर्री हाथ ले बपुरी नइ बाँचे सकय। छपकनी अनचकहा रट ले पर जथे। बपुरी भुँइया म पट ले गिर जथे। लड़खड़-लड़खड जान बचाय बर उड़ के भागे के प्रयास करथे पर भाग नइ सकय। आँखी-कान मुँदा जथे, पाँख के भार बिचेत ढुरक जथे। उड़े झन पावय कहिके जुगनी अउ जग्गू तुरंते झपटथें। पर फुरफुन्दी ल बिचेत देख के दुनों झन ल राहत होथे। एक-दूसर के मुंह ल देखत सांस छोड़त कहिथें- अब नइ उड़ सकय, एखर पाँख चिरा गे हे। जग्गू जेब ले सुत निकालथे अउ फुरफुन्दी के पुछी ल बाँध देथे। उड़वाय बर सुत ल धरके उठाथे, हलाथे डोलाथे झटकारथे पर फुरफुन्दी नइ उड़य, सुत के सहारा मरे कस अल्लर ओरम जथे। जुगनी ये सब देखत रहिथे, हाथ बढ़ा के सुत ल झटक लेथे- दे रे.... तोर से नइ उड़य, मैं नइ मारे यंव मोर से उड़ही। पर फुरफुन्दी जुगनीयो से नइ उड़य। सुत ह उड़वाके दू हाथ दूरिहा भर म लेग देथे।
जुगनी हड़बड़ाय अस एती-वोती देखे लगथे, डबरा-खोचका ल झाँके लगथे। जग्गू कोटना डहर दउँड़थे। चुरुवा भर पानी दउँड़ते लाथे अउ झट्टेकुन ऊपर म छिंचथे। हवा-पानी संग परान के अटूट नाता होथे। फाँफा गोड़ ल डोलाय ल धर लेथे पर पाँख अबो नइ डोलय। जुगनी के कोंवर मन म दुख आ जथे। फाँफा के बाजू म फसकिर के बइठ जथे। जग्गू बाबू पिला ए अउ बाबू पिला के मन ह अतेक जल्दी नइ पिघलय। अपन साथ राजी करे के मुद्रा म कहिथे- ए ल मरन दे जुग्गू चल हम दूसर फाँफा छपकथन। जुगनी नइ उठय, जग्गू डाहर देखय घलो नहीं। हरू कन डूँड़ी अँगरी म उठावत कहिथे- जी जा न, जी जा, उड़ जा। जग्गू ल ए बात नापसंद लगथे। वो तो चाहत रहिथे- ये फुरफुन्दी ह मर जतिस त जल्दी दूसर फुरफुन्दी छपकतेन।
मुंधियार होय ल धर ले रहिस। एक्का-दुक्का फुरफुन्दी मन भर उड़त रहिन। जे मन बहिनी ह जीयत हे के मरे हे, मानो पक्का करत रहिन। जग्गू एक दू घांव दउँड़ के छपकथे घला पर कामयाब नइ होय राहय। जोखिम देख के उड़त फुरफुन्दी मन घलो भाग जथें। जग्गू झँझुवा के लहुट आथे। असफलता के खीझ ल जुगनी ऊपर झोरत ओसरी-पारी गोड़ ल पटकथे अउ बगल म बइठ जथे। थोरकुन चुप रहिथे तहाँ हँउहा के फुसनाय अस बोलथे- तैं इसकुल म घलो अइसनेच करथस जुग्गू। मुड़ ल गड़िया देथच, तहाँ भइगे चिल्लावत राह, सुनच न बोलच। जादा म भेंभे-भेंभे रो देथच। जग्गू पहिली ले भांप ले रहिथे जुगनी के डबडबाय आंखी ल देख के चुप हो जथे। गुस्सा चढ़ेच नइ राहय कोनो-न-कोनो डहर उतरथे जरूर। एती नहीं त एती सहीं, बँचे-खुँचे झल्लाहट ह फुरफुन्दी डहर उतरगे- मर जा तितरी मर जा, मर जा..काहत फुरफुन्दी ल छपकनी म चपक देथे। जुगनी अउ जग्गू जवरन्धा लइका आँय। जवरन्धा म खब-खीब होइ जथे। एक क्षण जग्गू ल गुँड़ेरथे तहान छपकनी ल लुट के फेंक देथे। अउ फुरफुन्दी ल जियाय के जिद म लग जथे। मैदान छोड़त घायल सैनिक ल किरिया-कसम के पानी दे ले वो ह जी उठथे, वोमा नवा जान अउ जोश आ जथे। जुगनी फुरफुन्दी ल पानी देवत कहिथे - जी जा तितरी जी जा, तोर दाई-ददा रोवत होहीं जी जा, जी जा...। ए तरह दुनों के बीच म मर जा-जी जा, मर जा-जी जा... के रूप म एक ठन नवा खेल के शुरुआत हो जथे। फटफट-फटफट फटफटी के आघू म आ के रुके ले लय पकड़े ये नवा खेल के लय ह टूटथे। जुगनी अउ जग्गू कुलक के उचक जथें अउ उचकते रहिथें- जीजा...जीजा...जीजा.....।
कहनी- सुखदेव सिंह"अहिलेश्वर"
गोरखपुर कबीरधाम छत्तीसगढ़
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