Wednesday, 4 September 2024

दार्शनिक/लघुकथा*



               *दार्शनिक/लघुकथा*               

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                     वो  दुनों के दुनों एकेठन साईकल म बइठ के  वो जगहा म पहुचींन ।

"कइसे?"पहला हर कहिस ।

"कइसे!" तब दूसरा कहिस ।

"अरे भईराम !अब कइसे?"

"तोर करा नइये?"

"नही । मंय तो तोर भरोसा  म आ गय हंव ।" पहला हर अपन जेब ल लहूटात कहिस ।

"मोर करा खाली चिखना के पुरता भर हे,अउ सच म कहिबे त मंय तोर भरोसा म आंय हंव ।" दूसर कहिस ।

"अब कइसे करबो?" पहला हर तो कंझा गय रहिस ।

"अउ कइसे करबो !सदाकाल जइसन करथन तइसन करबो । ये बनिया के अटक दुकान काबर हे । तोर साईकल ल गहना धरबो । हटकी ब्याज फेर लगही भई , दस रुपया सैकड़ा एक दिन के । बस एईच हर तोला जनाही ..."

"अरे कुछ नई जनाय ! खाय -पिए के नांव म सब हर चलथे ।" पहला कहिस । 


             अउ ये दुनों झन के तीर्थस्थल के तीर म अइसन तीर्थयात्री मन के सहूलियत बर जउन प्रतिष्ठान खुल गय रहिस ,उहाँ ले साईकल ल गहना धर के येमन तीर्थ म  बुड़की लगाईंन तब घर कोती फिरे के जोम करिन ।

"मुट्ठी बांध के आबे बन्दे..." 

"हाथ पसारे जाबे रे ...! " पहिली हर अपन गोठ ल पूरा नई करे पाय रहिस, कि दूसर हर तड़ाक ल कहे रहिस ।


                वोमन अब धरती म सायकल के जगहा म पैदल फिरत, दार्शनिक बन गय रहिन ।


*रामनाथ साहू*

 

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